तृतीय क्षेत्रीय सुरक्षा विमर्श: एक विश्लेषण
Amb JK Tripathi

अफ़ग़ानिस्तान पर होने वाला तृतीय क्षेत्रीय सुरक्षा विमर्श 10 नवम्बर को नई दिल्ली में संपन्न हुआ। इस एक दिवसीय वार्ता में भारत के अतिरिक्त रूस, ईरान, कज़ाख़िस्तान, किर्गिज़िस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान के सुरक्षा सलाहकार शामिल हुए। चीन और पाकिस्तान को भी न्यौता दिया गया था लेकिन इन दोनों देशों ने आमंत्रण अस्वीकार कर दिया। पहली और दूसरी बैठक क्रमशः 2018 और 2019 में ईरान में आयोजित की गयी थी। पिछले वर्ष भारत में आयोजित होने वाली यह बैठक महामारी के कारण नहीं हो पाई। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यह विमर्श इसी विषय पर कार्यरत "हार्ट ऑफ़ एशिया" तथा "मास्को प्रारूप" के तत्वावधान में होने वाली वार्ताओं से दो अर्थों में भिन्न है- पहला, जहाँ सामान्यतया उपरोक्त दोनों में सम्मिलित देशों के विदेश मंत्री प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं क्षेत्रीय सुरक्षा विमर्श में प्रमुख रूप से देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होते हैं और राजनयिकों की भागीदारी नहीं या अपेक्षाकृत गौड़ होती है। दूसरे, जहाँ हार्ट ऑफ़ एशिया में 15 सदस्य देश हैं, क्षेत्रीय सुरक्षा विमर्श के सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं है। इसमें 2018 में चार, 2019 में पांच और इस वर्ष आठ देशों ने भाग लिया।

चीन और पाकिस्तान को तीनों वार्ताओं के लिए आमंत्रित किया गया था। पाकिस्तान ने पिछली दोनों बैठकों में भाग लेने की यह शर्त रखी थी की भारत को न बुलाया जाए। लेकिन मेज़बान ईरान द्वारा न झुकने से पाकिस्तान नहीं शामिल हुआ। इस बार भारत द्वारा बुलाए जाने के बावजूद पाकिस्तान ने भारत को "खेल बिगाड़ने वाला " बता कर आने से सीधे- सीधे मना कर दिया। चीन ने, जो पिछली दोनों बैठकों में उपस्थित था, इस बार पाकिस्तान का साथ देते हुए व्यस्तता का बहाना बना दिया हालांकि इससे चीन की ही पोल खुल गयी। पाकिस्तान ने लगातार तीसरी बार यह दिखा दिया की वहाँ के हुक्मरानों में भारत के खिलाफ कितनी अनर्गल कड़वाहट है।

बहरहाल, आठ देशों की इस सुरक्षा बैठक ने अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम से उपजे सुरक्षा सम्बन्धी सवालों पर सफल विमर्श किया। जहाँ ईरान ने संकटग्रस्त अफगानिस्तान में एक समावेशी सरकार की आवश्यकता पर बल दिया, वहीं मध्य एशिया के देशों की उचित चिंता उस देश में बढ़ रहे आतंकवाद पर थी। रूस ने इस वार्ता को "रूसी प्रारूप" का दुहराव न करके उसका सम्पूरक बनने का आह्वान किया। सभी देशों का यह मानना था कि अफ़ग़ानिस्तान में एक समावेशी सरकार अपरिहार्य है और वहां आतंकवाद के पनपने और निर्यात होने के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाने चाहिए, जैसा कि सर्वसम्मति से पारित हुए साझा बयान से ज्ञात होता है। बयान के बारह बिंदुओं में मुख्य हैं: अफ़ग़ानिस्तान को एक ऐसा शांतिपूर्ण, सुरक्षित तथा स्थायी देश बनाने के लिए दृढ समर्थन जिसकी सम्प्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान हो और जिसके अंदरूनी मामलों में कोई बाहरी हस्तक्षेप न हो; आतंकवाद को शरण देने, इसके प्रशिक्षण, वित्तपोषण या इसकी योजना बनाने में अफ़ग़ानिस्तान की भूमि के दुरूपयोग पर प्रतिबन्ध; आतंकवाद,उग्रवाद और मादक पदार्थों के विरुद्ध संयुक्त रूप से लड़ने की प्रतिबद्धता; महिलाओं और बच्चों के मूलाधिकारों की सुरक्षा; मानवीय आधार पर अफ़ग़ान नागरिकों को तुरंत सहायता जो निर्बाध,सीधे और सुरक्षित रूप से उन तक पहुँच सके तथा कोविड महामारी की त्वरित रोकथाम।

ध्यान देने योग्य यह बात है कि इस बयान में न तो कहीं अफ़ग़ानिस्तान को मान्यता देने की बात कही गयी है और न ही ऐसी मान्यता के लिए कोई समय सारिणी बनाने की बात हुई है। यह भारत की नीतियों का खुला समर्थन है, खास तौर से तब, जब यह आशंका की जा रही थी कि रूस शायद शीघ्र ही मान्यता के प्रश्न पर सोच सकता है। विशेषतः भारत के लिए तीन और लाभकारी बातें इस बयान में हैं- सभी सम्मिलित देशों की आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ लड़ने के लिए सामूहिक सहयोग की प्रतिबद्धता और अफ़ग़ानिस्तान में समावेशी और प्रतिनिधि सरकार की आवश्यकता जिनकी मांग हम शुरू से करते आ रहे हैं। तीसरा और हमारे लिए तात्कालिक रूप से महत्वपूर्ण बिंदु है अफ़ग़ानी नागरिकों को निर्बाध तथा सुरक्षित मानवीय सहायता! अभी भारत द्वारा स्थल- मार्ग से अफ़ग़ानिस्तान को 50,000 टन अनाज भेजने का निर्णय कार्यान्वित नहीं हो पाया है, क्योंकि पाकिस्तान यह सहायता अपने क्षेत्र से गुजरने देने के भारत के अनुरोध पर अभी तक चुप्पी साध कर बाधा डाल रहा है। आशा है संयुक्त बयान के इस बिंदु से पाकिस्तान पर दबाव पड़ेगा कि इस सहायता सामग्री को निर्बाध और सीधे जाने दिया जाए। इस बयान से एक और झटका जो पाकिस्तान को लग सकता है वह है इस बयान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान के आतंरिक मामलों में बाहरी ताक़तों के हस्तक्षेप का दृढ विरोध। यह सीधे- सीधे पाकिस्तान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में किए जा रहे कूटनीतिक ही नहीं, सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक हस्तक्षेप की ओर इशारा करता है। अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के विरुद्ध पकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान की पंजशीर घाटी में तालिबान के विरोधियों को दबाने के लिए न केवल अपनी सेना भेजी, बल्कि अहस्तक्षेप के स्थापित अंतर्राष्ट्रीय मानकों के खिलाफ जाकर पाकिस्तान के आई एस आई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ हामिद स्वयं अफ़ग़ानिस्तान में सरकार बनवाने काबुल पहुँच गए! शायद इन्हीं आलोचनाओं का मूल्य इमरान खान नियाज़ी के इस चहेते सेनाधिकारी को अपने स्थानांतरण से चुकाना पड़ा।

रूस समेत मध्य एशिया के सभी देश आतंकवाद, इसके प्रचार - प्रसार तथा इसके वित्तपोषण पर एकमत दिखे, जो भारत के रुख को मज़बूती देता है। रूस कभी नहीं चाहेगा कि उसकी "सॉफ्ट अंडरबेली" (मुलायम मर्मस्थल ) कहे जाने वाले मध्य एशिया के देश आतंकवाद से किसी भी रूप में प्रभावित हों क्योंकि इससे आतंकवाद का यह खतरा रूस की सीमा पर पहुँच जाएगा, जो रूस के लिए चेचन्या जैसा सिरदर्द बन सकता है। यह रूस की कमजोर नस है जिसका फायदा हमें उठाना ही चाहिए। शिया ईरान एक कट्टर सुन्नी और उग्रवादी तालिबान से हमेशा सशंकित है और रहेगा। यह हमें न सिर्फ ईरान के क़रीब ला सकता है बल्कि अमेरिका के ईरान के प्रति रूख में भी नरमी ला सकता है जो ईरान से हमारे व्यापारिक हितों के लिए लाभकारी है।

इस वार्ता की जानकारी से बौखलाए पाकिस्तान ने आनन-फानन में अमेरिका, रूस और चीन के साथ इस्लामाबाद में एक चतुष्कोणीय बैठक आयोजित की, जिसके बाद एक चौदह सूत्री साझा बयान जारी किया गया। लेकिन इस बयान में ऐसी कोई ख़ास बात नहीं की गयी है जो दिल्ली घोषणापत्र में न हो। इसमें अफ़ग़ानिस्तान के लिए अभी तक प्रदान की गयी सहायता का स्वागत किया गया तथा अधिक मानवीय सहायता की अपील की गयी, हर स्तर पर बालिकाओं और महिलाओं की शिक्षा पर बल देते हुए तालिबान को देश में सर्वशिक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया, संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यों की सराहना की गयी और तालिबान को विश्व-संस्था के संकल्पों के तहत काम करने तथा समावेशी और प्रतिनिनिधित्वपरक सरकार बनाने के लिए सभी घटकों से बात करने का आग्रह किया गया। इस तरह इस्लामाबाद वार्ता का बयान दिल्ली घोषणा के कुछ शब्दों में फेरबदल के साथ नई बोतल में पुरानी शराब की तरह पेश कर दिया गया। हाँ, एक बात जो दिल्ली घोषणा के अतिरिक्त थी, वह थी इस्लामाबाद घोषणा का बिंदु तीन जिसमे देश छोड़ने के इच्छुक नागरिकों को जाने देने की तालिबानी "निरंतर प्रतिबद्धता" का स्वागत किया गया। यानी कुल मिला कर इस्लामाबाद की बैठक एक दिन पूर्व ही हुई दिल्ली विमर्श का दुहराव ही थी जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि पाकिस्तान की मंशा सिर्फ यह दिखाने की थी की वह भारत से पीछे नहीं है। यह भी लगता है कि मान्यता की बात आगे बढ़ा कर पकिस्तान की श्रेय लेने की कोशिश हर संभव प्रयास के बावजूद सफल नहीं हुई क्योंकि मान्यता तो फिलहाल मिलने से रही! अब देखना यह है कि दिल्ली वार्ता में शामिल देश अपनी प्रतिबद्धताओं के प्रति कितने गंभीर रहते हैं। यदि वे आतंकवाद, उग्रवाद और मादक पदार्थों के विरुद्ध मुहिम छेड़ने पर डटे रहे तो दिल्ली विमर्श दुनिया से इन बुराइयों का निराकरण करने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होगा। लेकिन अगर अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए आतंकवाद से निपटने में थोड़ी सी भी ढील दी तो समस्या बढ़ सकती है।

जो भी हो, इतना तो तय है कि दिल्ली की बैठक ने भारत को अपरिवर्तनीय रूप से एशियाई भू-रणनीति में एक महत्वपूर्ण किरदार की रूप में स्थापित कर दिया है और वह भी चीन और पाकिस्तान के सख्त ऐतराजों और विरोधों की बावजूद!

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