ईरान को ट्रंप की ‘नामंजूरी’: आगे क्या
Arvind Gupta, Director, VIF

शुक्रवार 13 सितंबर, 2017 को अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने सख्ती भरे भाषण में ऐलान किया कि वह संसद के सामने यह घोषणा नहीं करेंगे कि ईरान के साथ जिस संयुक्त समग्र कार्य योजना (जेसीपीओए) पर हस्ताक्षर किए गए हैं, वह अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में है। उन्होंने ईरान पर जीसीपीओए के उल्लंघन का आरोप लगया , जिसकी निगरानी और जांच अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) जनवरी, 2016 से ही कर रही है। आईएईए ने अपनी सात तिमाही रिपोर्टों में ईरान द्वारा समझौते के उल्लंघन का कोई उल्लेख नहीं किया है। किंतु कई अमेरिकी विचार समूह आईएईए की रिपोर्टों पर संदेह जाहिर करते रहे हैं।

राष्ट्रपति के फैसले के कारण ईरान परमाणु समझौता कहलाने वाले जेसीपीओए पर अनिश्चितता के बादल मंडरा गए हैं। यह समझौता परमाणु क्षमता संपन्न पांच राष्ट्रों (पी-5) और जर्मनी ने कई वर्षों की बातचीत के बाद 2015 में ईरान के साथ किया था। ट्रंप सार्वजनिक तौर पर कई बार कह चुके थे कि इस सौदे में बहुत खामियां हैं - इसमें निरीक्षण की व्यवस्था कमजोर है; ईरान ने समझौते का उल्लंघन किया है; प्रतिबंध हटने से ईरान को खराब व्यवहार का पारितोषिक ही मिला है। उन्होंने घोषणा की कि अमेरिका ईरान की इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) पर नए प्रतिबंध लगाएगा। अमेरिकी कानून के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति को प्रत्येक तीन महीनों पर यह घोषित अथवा मंजूर करना होगा कि सौदा अमेरिका के राष्ट्रीय हित में है। ट्रंप प्रशासन दो मौकों पर ऐसा कर चुका है। किंतु इस बार ट्रंप ने प्रमुख मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को अनसुना कर दिया और ईरान को सही करार देने से इनकार कर दिया। ईरान और परमाणु समझौते के प्रति ट्रंप का विद्वेष किसी से छिपा नहीं है। कई मौकों पर वह इस समझौते को अब तक का सबसे खराब समझौता बता चुके हैं।

प्रश्न यह है कि ट्रंप ने जेसीपीओए की असफलता के परिणामों पर विचार कर लिया है या नहीं। नामंजूर करने से समझौता स्वयं ही समाप्त नहीं हो जाएगा। अब फैसला संसद के हाथ में है। ट्रंप धमकी दे चुके हैं कि संसद ने उनकी बात नहीं मानी तो वह अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर समझौता रद्द कर देंगे। यदि अमेरिकी संसद ईरान पर एक बार फिर प्रतिबंध लगाती है तो ईरानी समझौते से बाहर निकल जाएंगे और अपना परमाणु कार्यक्रम फिर शुरू कर देंगे। ईरानी नेताओं ने अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान की निंदा की है, लेकिन संकेत दिया है कि फिलहाल ईरान अपने वायदों पर कायम रहेगा। इस तरह ईरान अभी स्थिति पर नजर रखेगा और इंतजार करेगा। ईरानी कट्टरपंथी खेमा राष्ट्रपति रूहानी पर दबाव बना सकता है क्योंकि वह आरंभ से ही समझौते पर हस्ताक्षर के खिलाफ था। इस प्रकार कुछ ही महीने पहले चुनाव जीतने वाले रूहानी और कट्टरपंथियों के बीच नई लड़ाई छिड़ सकती है।

अमेरिका जेसीपीओए में इकलौता पक्ष नहीं है। अन्य पक्षों ने भी हस्ताक्षर किए हैं। उन सभी ने अमेरिकी हरकत का विरोध किया है। हो सकता है कि अमेरिका फिर से प्रतिबंध लगा दे, लेकिन दूसरे पक्ष न लगाएं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ईरान पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव लाना भी अमेरिका के लिए मुश्किल होगा क्योंकि उल्लंघन का समाचार ही नहीं आया है। ईरान के साथ अच्छे रिश्तों वाले रूसी और चीनी अमेरिका के पीछे चलने से इनकार कर सकते हैं। यूरोपीय संघ की कंपनियां ईरान में कई परियोजनाएं में संभावनाएं तलाश रही हैं।

अमेरिका-ईरान संबंधों में नया संकट उस समय आया है, जब उत्तर कोरिया की परमाणु समस्या दिनोदिन गंभीर होती जा रही है। अमेरिका ने ईरान के साथ एक और मोर्चा खोल लिया है। यह सब बाहरी बाध्यताओं के बजाय घरेलू कारणों से ही किया गया है। ईरान अब बड़ा घरेलू मुद्दा बन जाएगा। अमेरिकी सांसदों के पास आगे की कार्रवाई तय करने के लिए अभी 60 दिन हैं। यदि संसद ट्रंप से सहमत नहीं होती है तो वह समझौता खत्म करने की धमकी दे ही चुके हैं।

आईएईए को भी विवाद में घसीट लिया गया है। क्या वह अपना काम पेशेवर तरीके से कर रहा था? कुछ विश्लेषकों ने आईएईए पर आरोप लगाया है कि उसने ईरान द्वारा जेसीपीओए के पालन के संबंध में कम जानकारी दी है और उसकी रिपोर्ट राजनीति से प्रेरित हैं। आईएईए के महानिदेशक यूकिया अमानो ने 13 अक्टूबर, 2017 को एक बयान में गवाही दी है कि ईरान जेसीपीओ के अंतर्गत अपने परमाणु संबंधी वायदे पूरे कर रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि ईरान को “दुनिया की सबसे कठोर परमाणु प्रमाणन व्यवस्था” से गुजरना पड़ा है और “आईएईए को उन सब स्थानों पर जाने की अनुमति मिलती रही है, जहां उसे जाना पड़ सकता है।”

ट्रंप के सत्ता में आने के बाद से अमेरिका ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) मुक्त व्यापार समझौते, पेरिस जलवायु परिवर्तन संधि और संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) से नाता तोड़ चुका है। उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौते (नाफ्टा) का भविष्य भी अधर में है। पहले किए गए समझौते रद्द करने से अमेरिका की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े हो सकते हैं। अमेरिका अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर अलग-थलग भी हो सकता है और उसका स्थान चीन को मिल सकता है, जो एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर बैंक (एआईआईबी) और बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) जैसे अंतरराष्ट्रीय समझौते कर रहा है।

भारत के लिए बेवक्त का संकट है। उसे सुनिश्चित करना होगा कि अमेरिकी विदेश नीति के इस ताजे संकट का ईरान के साथ उसके रिश्तों पर कोई प्रभाव नहीं पड़े। ईरान में भारत की एक प्रमुख परियोजना - चाबहार बंदरगाह निर्माण परियोजना है। यदि अमेरिकी संसद ईरान के साथ काम करने वाली कंपनियों पर प्रतिबंध लगा देती है तो भारतीय कंपनियों पर भी ईरानी कारोबार से नाता तोड़ने का दबाव पड़ेगा और चाबहार बंदरगाह का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। किंतु भारत को यह दलील देनी चाहिए कि कि ईरान जेसीपीओए के तहत अपने वायदों से मुकर नहीं रहा है और प्रतिबंध लगाने का कोई कारण ही नहीं है।

ईरान का परमाणु कार्यक्रम अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ज्वलंत मुद्दा रहा है। ऐसा लगा था कि जेसीपीओए ने ईरानी परमाणु समस्या का अंतर कर दिया है। लेकिन अब तस्वीर बदलने वाली है।

(लेखक विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन, नई दिल्ली के निदेशक हैं। वह उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: http://www.ibtimes.com/iran-nuclear-program-what-know-about-fordow-arak-reactor-facilities-proposed-changes-1868430

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