चीन के उभार और पाकिस्तान के साथ उसकी सांठगांठ का सामना
Brig Gurmeet Kanwal

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता सुनिश्चित करने में सबसे बड़ी चुनौती सैन्य मामलों में अड़ियल और आक्रामक चीन है, जो “अनुकूल सामरिक स्थिति” पाने की कोशिश कर रहा है। अपने चार आधुनिकीकरण अभियान पूरे करने के बेहद करीब आकर चीन ने ‘अपनी ताकत छिपाने और अपना समय आने की प्रतीक्षा करने’ की देंग शियाओपिंग की 24 सूत्री रणनीति खारिज कर दी है और अपनी सैन्य ताकत का प्रदर्शन शुरू कर दिया है। चीन को पता है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा निर्वात उभर रहा है और वह उसे भरने की कोशिश में जुटा है। भारत को हिंद-प्रशांत में शांति एवं स्थिरता के लिए, साझे वैश्विक हितों की रक्षा के लिए सहयोगी सुरक्षा ढांचा बनाने और नीचे बताई गई आपात स्थितियों से निपटने के उद्देश्य से अमेरिका और दूसरे सामरिक साझेदारों जैसे ऑस्ट्रेलिया, जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और वियतनाम के साथ जाना चाहिए। यदि चीन इस सुरक्षा ढांचे में आना चाहते तो उसका स्वागत होना चाहिए।

सैन्य ताकत के बल पर भूमि विवाद सुलझाने की अपनी फितरत के कारण और अपनी बढ़ती सैन्य ताकत के कारण चीन हिंद-प्रशांत में कहीं गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर सकता है और वह भारत के खिलाफ भी ऐसा कर सकता है। चीन दक्षिण चीन सागर में सैन्य हस्तक्षेप करने का फैसला कर सकता है अथवा विवादित सेनकाकू/दियाओयू द्वीपसमूह में से एक या दो द्वीपों पर कब्जा करने या भारत के साथ भूमि विवाद समेत शेष भूमि विवादों का समाधान सैन्य ताकत के बल पर करने का फैसला कर सकता है।

चीन में आंतरिक अंतर्विरोध भी बहुत गहरा है। अब धीमी पड़ रही उसकी तीव्र आर्थिक् वृद्धि असमान और गैर समावेशी रही है। मूलभूत आजादी नहीं दिए जाने के कारण कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के खिलाफ गहरा असंतोष भी है। सतह के नीचे सुलग रहा असंतोष किसी भी वक्त उबाल मारकर स्थिति को विस्फोटक बना सकता है, जिस पर काबू करना मुश्किल होगा। चीनी शेयर बाजार के हाल में औंधे मुंह गिरने और वहां उतारचढ़ाव जारी रहने से बड़ी गिरावट की संभावना का संकेत मिल रहा है।

आंतरिक विद्रोह और सैन्य दुस्साहस, दोनों की संभावना कम है, लेकिन उनमें से कुछ भी हो जाता है तो उनका असर बहुत अधिक होगा, जो हिंद-प्रशांत में भी व्यापक रूप से नजर आएगा। दोनों घटनाएं बाजारों को झकझोर देंगी, लाखों लोग शरणार्थी हो जाएंगे और रक्तपात होगा। इन दोनों के कारण उत्पन्न होने वाले परिणामों से निपटने तथा विनाशकारी नतीजों को संभालने के लिए भारत और उसके रणनीतिक साझेदारों को एक दूसरे से करीबी सहयोग करने की जरूरत होगी।

इस संदर्भ में भारत-अमेरिका सामरिक साझेदारी दोनों देशों को ही जोखिम से बचाने के लिए बहुत आवश्यक हो जाती है। कई मायनों में यह भारत की ‘मुख्य’ सामरिक रणनीति है, जैसा मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में कहा था। उनसे पहले प्रधानमंत्री पद संभालने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने तो भारत और अमेरिका को ‘स्वाभाविक सहयोगी’ बता दिया था। इस रिश्ते की व्याख्या के लिए कोई भी शब्द प्रयोग करें, इतना तो स्पष्ट है कि अमेरिका भारत के लिए कोई खतरा मोल नहीं लेगा और न ही भारत अमेरिका के लिए ऐसा करेगा। दोनों देश उसी सूरत में एक साथ आएंगे और एक साथ काम करेंगे, जब दोनों के राष्ट्रीय हितों को खतरा होगा।

रणनीति साझेदारियों के अहम घटक रक्षा सहयोग को बढ़ाना होगा ताकि दोनों देश खतरों का आकलन साथ मिलकर करें; संयुक्त अभियानों के लिए योजना बनाएं; खुफिया सूचना साझा करें; सैन्य प्रशिक्षण अभ्यासों के साथ कृत्रिम वातावरण में (सिम्युलेशन) अभ्यास भी करें; निर्देश, नियंत्रण एवं संचार का तालमेल हो; और अभियानों के लिए तैनाती एवं रसद के मामले में सहयोग हो।

परमाणु हथियारों, युद्धक मिसाइलों-सैन्य उपकरणों के मामले में चीन और पाकिस्तान का बढ़ता गठजोड़ चिंता का विषय है। हिंद-प्रशांत में अमेरिका के प्रभाव को विफल करने के लिए अब चीन अपने वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) कार्यक्रम के अंतर्गत शिनचियांग को मकरान तट पर ग्वादर से जोड़ने के लिए चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) बना रहा है। चीन ने पाकिस्तान की निंदा करने और पाकिस्तानी चरमपंथी नेताओं को आतंकवादी घोषित करने के संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंध समिति के कई प्रस्तावों को वीटो के जरिये रोक दिया है। चीन भूल जाता है कि वह स्वयं उन आतंकवादी गतिविधियों का शिकार है, जिनकी जड़ें पाकिस्तान की जमीन पर हैं।

दक्षिण एशिया में अन्य स्थानों पर भारत के प्रत्येक स्थलीय पड़ोसी के क्षेत्र में जाकर और उत्तरी हिंद महासागर में मोतियों की माला की अपनी रणनीति के अंतर्गत अपनी नौसेना के लिए बंदरगाह की सुविधाएं हासिल कर चीन भारत को सामरिक रूप से घेरने की भरपूर कोशिश कर रहा है। नियंत्रण करने के लिहाज से चीन बहुत बड़ा है, लेकिन भारत को चीन के खर्च में बढ़ोतरी अवश्य करनी चाहिए। भारत को राजनीति और कूटनीतिक तरीकों से और अपने सामरिक साझेदारों के साथ सक्रिय रक्षा सहयोग के जरिये ऐसा करना चाहिए।

दक्षिण चीन सागर पर अपने दावों के कारण चीन वियतनाम के अधिकार वाले समुद्री क्षेत्र में तेल तथा गैस के लिए भारतीय कंपनी ओएनजीसी के अभियान पर आपत्ति उठाता रहा है। ओएनजीसी के भावी अभियानों को भारतीय नौसेना का समर्थन मिलना चाहिए और इसके लिए नौसेना ऑफशोर तेल संयंत्रों की सुरक्षा कर सकती है तथा दक्षिण चीन सागर में अमेरिका और दूसरे सामरिक साझेदारों के साथ मिलकर समुद्री गश्त कर सकती है।

वियतनाम ने अक्सर भारतीय हथियार प्रणालियों में दिलचस्पी दिखाई है। युद्धक मिसाइलों समेत ये प्रणालियां जैसे ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल, पृथ्वी 1 एवं 2 और सतह से सतह पर मार करने वाली प्रहार मिसाइल नरम शर्तों वाले ऋण के रूप में प्रदान की जानी चाहिए, जिनसे मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) के दिशानिर्देशों का उल्लंघन भी नहीं होता है। स्वदेश में ही डिजाइन किया गया और बनाया गया पिनाक मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर भी उपलब्ध कराना चाहिए। इन हथियारों की शुरुआती खेपें उपहार के रूप में दी जा सकती हैं और प्रशिक्षण में सहयोग करने के लिए प्रशिक्षण दलों को वहां भेजा जा सकता है। ध्यान रहे कि अमेरिका ने वियतनाम को हथियारों की बिक्री पर लगाया 50 वर्ष पुराना प्रतिबंध हाल ही में समाप्त कर दिया।

अफगानिस्तान ने भारत के साथ अपनी सामरिक साझेदारी के प्रावधानों के अनुरूप भारत को हथियारों तथा उपकरणों की सूची भेजी है। भारत ने अभी तक कुछ यूटिलिटी हेलीकॉप्टर समेत ऐसे रक्षा उपकरण ही दिए हैं, जो मारक नहीं हैं। अफगान सेना को उसकी युद्धक क्षमता में सुधार के लिए जिन दूसरी वस्तुओं की जरूरत है, वे भी उसे दी जानी चाहिए। अफगान सेना को प्रशिक्षण में जो सहयोग दिया जा रहा है, उसका स्तर बढ़ाया जाना चाहिए।

अफगान सरकार न्योता दे तो भारत को अफगानिस्तान के भीतर जाकर अफगान सेना के जवानों को प्रशिक्षण देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। भारतीय प्रशिक्षण दलों को वहां अपनी सुरक्षा का इंतजाम स्वयं करने में सक्षम और आत्मनिर्भर होना चाहिए, जिसमें सीमित आतंकवाद-निरोधक उपाय भी शामिल हैं। चाबहार बंदरगाह विकसित करने और उसे अफगानिस्तान में भारत द्वारा बनाई जा रही जरंज-दिलाराम सड़क से जोड़ने के लिए ईरान और अफगानिस्तान के साथ हुआ भारत का समझौता सकारात्मक घटना है क्योंकि इससे मध्य एशिया के देशों और स्वतंत्र राष्ट्रकुल (सीआईएस) के देशों से भी आगे तक भारत की पहुंच हो जाएगी। यदि आवश्यकता पड़ने पर अफगान सेना के अभियान में सहायता के लिए भारत को अपनी पैदल टुकड़ियां अफगानिस्ताना भेजनी पड़ीं तो आवाजाही के लिए यह एकदम सटीक रास्ता होगा। इसी तरह भारत को बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, म्यांमार, नेपाल और श्रीलंका तथा हिंद महासागर तट पर बसे देशों के साथ भी संपर्क करना चाहिए ताकि चीन द्वारा उन्हें लुभाने के लिए किए जा रहे प्रयासों के नकारात्मक प्रभाव को कम से कम से किया जा सके।

सख्त रुख वाले देश के नाते भारत को अपनी सीमाओं की लगातार निगरानी करनी चाहिए और विवादित सीमाओं के पार चीन तथा पाकिस्तान की गतिविधियों को सतर्कता से देखना चाहिए। मानवीय निगरानी के साथ निगरानी की प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल भी होना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में उन्नत लैंडिंग ग्राउंड को नया रूप दिए जाने समेत थलीय सीमाओं पर बुनियादी ढांचा तैयार करने के जो प्रयास हो रहे हैं और नए बलों की जिस तरह तैनाती हो रही है, उससे यह स्पष्ट है कि थल एवं वायु सेना धीरे-धीरे पहाड़ों को केंद्र बना रही हैं।

आम तौर पर माउंटेन स्ट्राइक कोर कहलाने वाली 17 कोर जैसे ताकतवर बल को तैयार करने से भारत की प्रतिरोध क्षमता की गुणवत्ता बेहतर होगी। अरुणाचल प्रदेश में रक्षा अभियानों के लिए हाल ही में दो अतिरिक्त टुकड़ियां (56 एवं 71 माउंटेन डिविजन) तैयार की गई हैं। इसी तरह आक्रमण का जवाब देने के तीन में से एक स्ट्राइक कोर को मैदानी हिस्से में रखने तथा ऊंचाई पर हवाई मार करने की क्षमता वाली एक अतिरिक्त पैदल टुकड़ी को हाई अलर्ट पर रखने की जरूरत है। पहाड़ों में युद्ध की नई क्षमताएं विशेषकर वास्तविक नियंत्रण रेखा के पार आक्रामक अभियान शुरू करने और चलाते रहने की क्षमता से चीन तक उचित संकेत जाएगा। चीनी क्षेत्र में आक्रामक अभियान चलाने की क्षमता से चीन के विरुद्ध भारत की सैन्य रणनीति बदल जाएगी और निषेध के बजाय निवारण की हो जाएगी।

समुद्री क्षेत्र में प्रत्युत्तर और निवारण की क्षमता भी बढ़ाई जानी चाहिए ताकि वास्तविक नियंत्रण की रेखा और नियंत्रण रेखा पर युद्ध की स्थिति में समुद्री क्षेत्र में विरोधियों की कमजोरियों का फायदा उठाने के लिए चीन और पाकिस्तान की नौसेनाओं और आवश्यकता पड़ने पर उनकी मर्चेंट नेवी का भी सामना करने की पूरी तैयारी हो। भारत की सामरिक रणनीति का सार युद्ध रोकना होना चाहिए, लेकिन यदि भारत पर युद्ध थोपा जाए तो तीनों सेनाओं के तालमेल के साथ लड़ना एवं यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि युद्ध विराम उसके अनुकूल शर्तों पर ही हो। भविष्य में यदि संघर्ष टाला नहीं जा सकता हो तो रफ्तार के जरिये विरोधी की युद्ध करने की क्षमता को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाना और और बातचीत के लिए उसके थोड़े क्षेत्र पर कब्जा कर लेना ही सेना का लक्ष्य होना चाहिए।

लेखक वीआईएफ में अतिथि फेलो और रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए), नई दिल्ली में विशिष्ट फेलो हैं।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

Published Date: 30th November 2016, Image Source: https://www.pinterest.com

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