भारत की परमाणु तिकड़ी की प्रासंगिकता
Ajit Kumar

शायद याद हो कि भारत की 1999 की परमाणु नीति के मसौदे में स्पष्ट कहा गया था कि इसकी परमाणु ताकतें विमानों, भूमि आधारित गतिशील मिसाइलों एवं समुद्र में स्थित प्रतिष्ठानों की तिकड़ी पर आधारित होंगी। 2003 की आधिकारिक परमाणु नीति में भी हमलों को टालने की भरोसेमंद न्यूनतम क्षमता रखने, ‘पहले प्रयोग नहीं करने’ का रुख बनाए रखने की बात कही गई थी और यह भी कहा गया कि जवाबी परमाणु कार्रवाई भारी स्तर पर होगी। हमले टालने के लिए आईएनएस अरिहंत की सफल गश्त के साथ ही भारत की परमाणु तिकड़ी काम करना शुरू कर चुकी है और शक्तिशाली समुद्री प्लेटफॉर्म से परमाणु क्षमता संपन्न मिसाइल दागने की वह क्षमता भी उसे मिल चुकी है, जो पहले नहीं थी।

प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ऐतिहासिक उपलब्धि बताया है। इससे भारत की परमाणु क्षमता और जरूरतों में बहुत इजाफा हो गया है। इसका मतलब यह भी है कि ‘पहले प्रयोग नहीं करने’ के सिद्धांत के साथ हमले टालने की भरोसेमंद न्यूनतम क्षमता हासिल करने की 2003 की परमाणु नीति वास्तव में विश्वसनीय बन चुकी है। दूसरी बार हमला करने की क्षमता मजबूत बनाने से यह भी पता चलता है कि भारत की परमाणु तिकड़ी पूरी होने के साथ ही परमाणु हमला होने की सूरत में भयंकर मार करने वाला तगड़ा जवाब वास्तव में दिया जाएगा।

इससे पहले भारत की स्थिति नाजुक थी क्योंकि जमीन और हवा से परमाणु हथियार दागने वाली प्रणालियों को उपग्रह और दूसरे साधनों से आसानी से पहचाना जा सकता था। एसएसबीएन (शिप सबमर्सिबल बैलिस्टिक न्यूक्लियर) तैनात होने के साथ ही पूरी तरह से काम करने वाली लड़ाकू मिसाइल सामरिक हथियार बन गई है, जो समुद्र से लंबी दूरी तक मिसाइल दाग सकती है। जमीनी और हवाई मिसाइल प्रक्षेपण प्रणाली के मुकाबले यह बेहतर इसीलिए है कि लंबे समय तक यह छिपा हुआ रह सकती है। एसएसबीएन दुश्मनों की जमीन पर दूर तक युद्धक मिसाइल दागकर उन पर घातक मार कर सकती है।

आईएनएस अरिहंत भारत की पहली स्वदेश निर्मित परमाणु पनडुब्बी है। इसके साथ ही भारत ने तकनीकी परिष्कार की दिशा में लंबी छलांग लगा ली है। भारत ने परमाणु ईंधन चक्र में तो महारत हासिल कर ली थी, लेकिन अरिहंत में छोटा रिएक्टर लगाना 2013 में जटिल प्रक्रिया थी। सामरिक हमले करने वाली परमाणु क्षमता युक्त पनडुब्बी बनाने और परिचालन करने की कीमती प्रणाली हासिल करने के साथ ही भारत अप्रसार संधि (एनपीटी) से मान्यता प्राप्त पूर्ण परमाणु तिकड़ी वाला छठा देश बन गया है और अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन तथा चीन की जमात में शामिल हो गया है।

भारत की परमाणु तिकड़ी का पूरे होने का श्रेय लंबे समय से चली आ रही रक्षा रणनीति को देना होगा क्योंकि उन्नत प्रौद्योगिकी परियोजना (एटीवी) 1980 के दशक में आरंभ की गई थी। भारत परमाणु तिकड़ी वाली शक्तियों में सबसे नया है। आईएनएस अरिहंत ने 750 किलोमीटर तक मार करने वाली 12 परमाणु क्षमता संपन्न मिसाइलों के साथ शुरुआत की है और बाद में वह 3,500 किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइलें भी ले जाएगा। अगली परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बी ‘अरिघात’ 2020 में शामिल की जानी है और बाद में उसके बड़े रूप भी आएंगे, जिन पर अधिक लंबी दूरी वाली अग्नि मिसाइल तैनात होंगी। इस योजना से पता चलता है कि परमाणु तिकड़ी के विकास का कार्यक्रम भारत की सामरिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने की दिशा में सही तरीके से बढ़ रहा है।

भारत की परमाणु तिकड़ी के विकास की एक और विशेषता तेजी से बढ़ती सार्वजनिक-निजी साझेदारी है। आईएनएस अरिहंत को तैयार करते समय कुछ बड़ी भारतीय कंपनियों ने गठजोड़ किया है। यह ‘मेक इन इंडिया’ नीति और रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र की अधिक कंपनियों में आने के लिए प्रोत्साहित करने की नीति के अनुरूप है। आखिरकार अमेरिका जैसी कुछ बड़ी परमाणु शक्तियों में निजी कंपनियां ही बड़े रक्षा ठेकों को अंजाम देती हैं। भारत के पुराने मित्र रूस ने आईएनएस अरिहंत के लिए कीमती तकनीकी सहायता प्रदान की है।

परमाणु सिद्धांत घोषित करने के 15 वर्ष बाद भारत ने टिकाऊ परमाणु तिकड़ी की दिशा में बड़ा कदम बढ़ाया है। यह देश के लिए संतोष का विषय है और हमारे मेहनती वैज्ञानिकों तथा नौसेना कर्मियों के प्रति श्रद्धांजलि है, लेकिन आने वाली पांच और पनडुब्बी परियोजनाओं तथा मजबूत कमान एवं नियंत्रण प्रणाली तैयार करने के लिहाज से आगे बहुत अधिक जटिल काम बचा हुआ है। लंबी दूरी की मिसाइलों को एसएसबीएन में तैनात करने के लिए बहुत अधिक क्षमता, कठिन परिश्रम तथा कठोर परीक्षणों की जरूरत होगी। यदि भारत को सच्चे अर्थों में परमाणु क्षमता संपन्न देश का दर्जा हासिल करना है तो उसे चीन का सामना करने के लिए कई एसएसबीएन की जरूरत है क्योंकि चीन की कई पनडुब्बियां हिंद महासागर क्षेत्र की गश्त करती रहती हैं। माना जा रहा है कि चीन के पास दहाई के आंकड़े में एसएसबीएन हैं और दक्षिण चीन सागर में दबदबा कायम करने के लिए उसने अपनी नौसैनिक क्षमता कई गुना बढ़ा ली है। साथ ही वह पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यांमार में बंदरगाह भी हासिल कर रहा है।

परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) और व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर बातचीत का भारत का अनुभव बताता है कि परमाणु निरस्त्रीकरण का विचार मरीचिका भर था और परमाणु शक्ति संपन्न देशों ने इसकी बात भर की। इससे सबक मिला कि भारत को चुनौती भरे पड़ोस को देखते हुए अपनी परमाणु प्रतिरक्षा के लिए आत्मावलंबी होना पड़ेगा। इसी के कारण 1998 में पोखरण में परमाणु परीक्षण हुए और 1999 में परमाणु नीति के मसौदे में परमाणु तिकड़ी की घोषणा की गई। परमाणु तिकड़ी पूरी होने के साथ ही भारत ने अपनी कथनी को करनी में बदल दिया है।

पाकिस्तान ने प्रतिक्रिया जताते हुए कहा कि आईएनएस अरिहंत से हिंद महासागर के तटवर्ती देशों एवं अंतरराष्ट्रीय समुदाय में चिंता बढ़ गई है। साथ ही उसने प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) में भारत की सदस्यता पर भी चिंता जताई। लेकिन इससे उसकी कमजोरी का ही पता चलता है। पाकिस्तान को अपनी अर्थव्यवस्था संभालने की सलाह दी जानी चाहिए क्योंकि भारत की परमाणु तिकड़ी से बराबरी करने की कोशिश उसे पूरी तरह दिवालिया बना देगी। वह सऊदी अरब, चीन और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के दरवाजे पर पहले ही कटोरा हाथ में लेकर पहुंच चुका है। समुद्री परमाणु प्लेटफॉर्म पर करोड़ों डॉलर की लागत होती है, जितनी हैसियत पाकिस्तान की नहीं है क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत डांवाडोल है। भारत की परमाणु तिकड़ी की बराबरी करने की कोशिश सोवियत संघ की तरह उसका भी कबाड़ा कर देगी। सोवियत संघ के भंग होने की एक वजह अमेरिका के साथ हथियारों की महंगी दौड़ भी थी। परमाणु हथियारों पर पाकिस्तान ने और भी शत्रुता भरे बयान दिए हैं और परमाणु ब्लैकमेल पर प्रधानमंत्री मोदी का बयान उसके लिए माकूल जवाब था।

परमाणु तिकड़ी को सफलतापूर्वक तैयार करने से भारत का सामरिक कद बढ़ गया है। पूर्ण परमाणु तिकड़ी वाली शक्ति बनने के प्रयास में भारत को अधिक लंबी दूरी वाली मिसाइलों से युक्त बड़ी एसएसबीएन बनाने के लिए जरूरी जटिल प्रौद्योगिकी प्रगति हासिल करने में अधिक समझदारी तथा कौशल दिखाना होगा। दूसरी बात, उसे अपनी कमान एवं नियंत्रण व्यवस्था मजबूत करनी होगी, जिसके लिए लगातार बजट आवंटन की जरूरत होगी। तीसरी बात, भारत को समयसीमा में यथासंभव कमी लानी होगी और उसके लिए जरूरी विशेषज्ञता वाले मुख्य व्यक्तियों को बनाए रखना होगा। वह पूरी तरह से चालू परमाणु तिकड़ी वाली शक्तियों के अनुभव से भी सीख सकता है। चौथी बात, सार्वजनिक-निजी साझेदारी चलती रहनी चाहिए और निजी कंपनियों को इस परमाणु परियोजना से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अंत में, भारत अरिहंत के निर्माण के दौरान हुई गलतियों से सबक ले सकता है।

आईएनएस अरिहंत के आने के साथ परमाणु तिकड़ी का काम शुरू कर देना भविष्य की दिशा में बड़ा कदम है। भारत की परमाणु हमले टालने की क्षमता को और भी मजबूत तथा भरोसेमंद बनाने की दृष्टि से आगे की राह और भी चुनौतीपूर्ण होगी।

(लेखक पूर्व राजदूत हैं और संयुक्त राष्ट्र एवं जिनेवा स्थित अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रह चुके हैं)

(आलेख में लेखक के निजी विचार हैं। लेखक प्रमाणित करता है कि लेख/पत्र की सामग्री वास्तविक, अप्रकाशित है और इसे प्रकाशन/वेब प्रकाशन के लिए कहीं नहीं दिया गया है और इसमें दिए गए तथ्यों तथा आंकड़ों के आवश्यकतानुसार संदर्भ दिए गए हैं, जो सही प्रतीत होते हैं) . (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
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