मानव ढाल: कश्मीर में सेना के युवा अधिकारियों के सामने रोज़ रहती हैं असामान्य परिस्थितियां
Brig Gurmeet Kanwal

बडगाम की घटना को सही संदर्भ में देखा जाना चाहिए। किसी बंधक को मानव ढाल की तरह इस्तेमाल करना न तो सेना की सामान्य कार्रवाई का हिस्सा है और न ही इसे कभी बढ़ावा दिए जाने या दोहराए जाने की संभावना है। किंतु बैठे-बैठे रणनीति बनाने वालों और मानवाधिकारों को बढ़ावा देने वालों (जिनके लिए मानवाधिकार आतंकवादियों की बपौती हैं) का ध्यान कभी सेना के युवा अधिकारियों पर गया है, जिन्हें ऐसी असामान्य और चुनौतीपूर्ण स्थितियों से दिन-रात जूझना पड़ता है? मेजर गोगोई के साहस और असाधारण युक्ति की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि उससे कई प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों की जान बच गईं। यह लेख पूरी बात सामने रखता है। - जनरल एन सी विज, निदेशक, वीआईएफ

9 अप्रैल, 2017 को जब कश्मीर घाटी में उपचुनावों के दौरान मतदान हो रहा था, उस समय संकट में फंसी स्थानीय पुलिस ने राष्ट्रीय राइफल्स की एक बटालियन के कंपनी कमांडर मेजर बीतुल गोगोई से गुहार लगाई और बडगाम जिले में एक मतदान केंद्र पर कर्मचारियों तथा पुलिसकर्मियों को पत्थरबाजों की हिंसक भीड़ से बचाने के लिए कहा। अधिकारी ने स्वयं ही त्वरित प्रतिक्रिया दल (क्यूआरटी) लेकर निकल पड़े।

प्रतिक्रिया दल मतदान केंद्र तक पहुंचने और मतदान कर्मियों के दल को बचाने में सफल रहा, जिसमें जम्मू-कश्मीर सरकार के 10-12 कर्मचारी, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के 9-10 जवान, जम्मू-कश्मीर पुलिस के दो कर्मचारी तथा एक चालक शामिल थे। तब तक भीड़ बढ़ गई थी, उसमें 400 से अधिक आक्रोशित युवक (और कुछ युवतियां) शामिल थे, जो मतदान रोकने पर आमादा थे। खून के प्यासे पत्थरबाज मतदानकर्मियों और उन्हें बचाने वालों को पीट-पीटकर मार डालने की धमकी दे रहे थे। उन्होंने जल्दी ही आने-जाने के रास्ते बंद कर दिए। उनमें से कुछ हाथों में पत्थर लिए छतों पर खड़े थे।

मेजर गोगोई मुश्किल में फंस गए थे क्योंकि जवानों की संख्या बहुत कम थी और उम्मीद की कोई किरण नहीं दिख रही थी। उनके पास कोई अच्छा विकल्प नहीं था - केवल खराब विकल्प थे और उनमें से एक और भी बदतर था। अगर वे भीड़ की तरफ बढ़ने की कोशिश करते तो उनके काफिले पर पत्थर फेंके जाते और चोटें आतीं, जुनूनी भीड़ कुछ असैन्य सरकारी कर्मचारियों और शायद पुलिसकर्मियों को भी वाहनों से बाहर खींचने और पीट-पीटकर मार डालने की कोशिश कर सकती थी और हो सकता था कि कुछ कश्मीरी उनके वाहनों के पहियों तले कुचलकर मर जाते। यदि वह कार्रवाई की सामान्य प्रक्रिया का पालन करते और भीड़ को फौरन रास्ते से हटने की चेतावनी देते या लाचार होकर अपने जवानों को गोली चलाने का आदेश देते तो भीड़ दोगुनी गति से पत्थर फेंकने लगती और अधिक गुस्से के साथ उन पर हमला करती। उसके बाद उन्हें आत्मरक्षा में गोली चलाने पर विवश होना पड़ता। उस कत्लेआम के बीच कुछ भी हो सकता था। दोनों पक्षों को भारी नुकसान होता। 20 से 30 लोग या शायद और भी ज्यादा जान गंवा देते और कई घायल हो गए होते।

गोगोई उन असैन्य कर्मचारियों और पुलिसकर्मियों, जिन्हें उन्होंने बचाया था और अपने जवानों की सुरक्षा के लिए ही जिम्मेदार नहीं थे, बल्कि उन्हें इस बात की चिंता भी थी कि आंदोलन कर रहे कश्मीरियों को चोट न पहुंचे। वास्तव में जब वह बचाव अभियान पर निकले थे तब तक चुनावी हिंसा में पुलिस के साथ करीब 200 झड़पों में कई लोग अपनी जान गंवा चुके थे। दुनिया में कहीं भी किसी भी पैमाने से देखें तो यह बेहद असामान्य स्थिति थी। मेजर गोगोई देर नहीं कर सकते थे क्योंकि उनके पास वक्त नहीं था - भीड़ लगातार करीब आ रही थी। ऐसी सूरत में मैदान में खड़े युवा अधिकारी के पास कोई सहारा नहीं होता है, सलाह-मशविरे के लिए कोई नहीं होता है। उसके पास केवल उसका प्रशिक्षण होता है और उसकी सूझबूझ होती है, जो उसे बताती है कि सही क्या है। फैसला उन्हें ही करना था।

मेजर गोगोई के दिमाग में ये सभी बातें आईं और उन्होंने सभी विकल्पों को अपने दिमाग में तोला, ठंडे दिमाग से काम लिया। उसी पल उन्होंने एक कश्मीरी मतदाता को मानव ढाल के तौर पर इस्तेमाल करने का फैसला किया ताकि उनका काफिला वहां से निकल सके। उन्होंने मतदान करने आए कश्मीरी युवक फारूक डार को अपनी जीप के बोनट पर बांधा और आगे बढ़ने लगे। अपने साथी कश्मीरी को बोनट पर देखकर उन्मादी भीड़ को पत्थरबाजी बंद करनी पड़ी ताकि उसे चोट न लग जाए। किस्मत से यह तरकीब काम कर गई। क्रोधित भीड़ अचरज में पड़ गई, एक तरफ हो गई और काफिला वहां से निकल गया। मेजर गोगोई जिन कर्मचारियों और पुलिसकर्मियों को बचाने पहुंचे थे, उनमें से कोई हताहत नहीं हुआ क्योंकि उन्हें गोलीबारी की जरूरत ही नहीं पड़ी; प्रदर्शनकारी भी सुरक्षित थे और कश्मीरी मतदाता को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचा, जिसे पुलिस को सौंप दिया गया।

मेजर गोगोई की अनूठी तरकीब दोनों के लिए फायदेमंद रही। किंतु इस घटना को वहीं खड़े एक व्यक्ति ने कैमरे में कैद कर लिया, जैसा कि मीडिया के इस दौर में आम बात है, जहां सोशल मीडिया ही लोगों के विचार तैयार करता और बदलता है। जीप के बोनट पर बंधे कश्मीरी युवक की वीडियो तस्वीरें जल्द ही ट्विटर तथा फेसबुक पर पहुंच गईं और चारो ओर फैल गईं। मुख्यधारा का मीडिया भी पीछे नहीं रहा और दो दिन तक वही तस्वीर बार-बार दिखाई जाती रही। कया गोगोई ने उन परिस्थितियों में जो किया वह सही था? क्या उन्होंने दंडनीय अपराध किया? अथवा जैसा कि अटॉर्नी जनरल ने कहा, क्या उस फैसले के लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए? इन प्रश्नों पर लंबे समय तक अनंत बहस होती रहेंगी।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मेजर गोगोई की असाधारण तरकीब ने उस खूनखराबे को रोक लिया, जिसका होना लगभग तय था और कई कीमती जानें भी बचा लीं। लेकिन पत्थरबाजों की भीड़ के बीच से निकलने के लिए एक कश्मीरी युवक को इस्तेमाल किए जाने की तस्वीरों से कश्मीर की जनता पर नकारात्मक प्रभाव हुआ है और दिलोदिमाग जीतने के सतत अभियान को इससे धक्का पहुंचा है। सेना पर बंधकों को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया जा रहा है। टकराव की प्रकृति धीरे-धीरे बदल रही है और पारंपरिक टकराव से इतर टकराव दिखने लगा है। इस तरह के टकराव में उग्रवाद निरोधक और आतंकवाद निरोधक अभियान सबसे जटिल सैन्य अभियान होते हैं। ऐसा मुख्यतया इसीलिए होता है क्योंकि विपक्षी कोई शत्रु देश नहीं है बल्कि आपके अपने असंतुष्ट लोग हैं, जिनमें अधिकतर भटके हुए युवा हैं। उनसे निपटने के लिए पारंपरिक अभियान के लिए मिलने वाले प्रशिक्षण और शिक्षा से अधिक ऊंचे स्तर की शिक्षा और प्रशिक्षण चाहिए। इसे “रणनीतिक नायकों” (स्ट्रैटेजिक कॉरपोरल) का जमाना कहा जाता है। स्ट्रैटेजिक कॉरपोरल उन कनिष्ठ अधिकारियों को कहा जाता है, जिन्हें स्वतंत्र रूप से काम करना होता है और बड़े फैसले स्वयं ही लेने होते हैं। कभी-कभार, जब उनमें से कोई फैसला गलत साबित होता है तो उसका रणनीतिक प्रभाव हो सकता है।

अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कश्मीरी घाटी धीरे-धीरे, स्पष्ट रूप से और लगतार नियंत्रण से बाहर हो रही है। हिंसा की घटनाएं दिनोदिन बढ़ती जा रही हैं। जुलाई, 2016 से लेकर अभी तक अर्थात लगभग 1 वर्ष में 4,000 से अधिक सुरक्षा बल - अधिकतर सीआरपीएफ से - उग्र कश्मीरी युवाओं की पत्थरबाजी में घायल हो चुके हैं। इनमें से अधिकतर युवाओं को पत्थर फेंकने के एवज में पाकिस्तान के आईएसआई से रकम मिलती है। आंतरिक सुरक्षा के लिए जम्मू-कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों ने बेहद चुनौतीपूर्ण और कठिन परिस्थितियों में भी बहुत शानदार काम किया है। उन्होंने राष्ट्र के लिए बहुत बलिदान किए हैं। हमें उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, उन्हें प्रोत्साहन देना चाहिए, उनका तिरस्कार नहीं करना चाहिए।
विशेष रूप से सेना ने कम से कम बल और अधिक से अधिक मानवीय भावना के साथ जटिल उग्रवाद निरोध अभियान सफलतापूर्वक चलाए हैं। केवल एक घटना के कारण उसकी छवि बिगाड़ी नहीं जानी चाहिए। सौभाग्य से सरकार इस खेदजनक मामले में सेना के साथ है।

(लेखक वीआईएफ में विजिटिंग फेलो और इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (इडसा), नई दिल्ली में विशिष्ट फेलो हैं।)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: https://ceasefiremagazine.co.uk

Post new comment

The content of this field is kept private and will not be shown publicly.
1 + 8 =
Solve this simple math problem and enter the result. E.g. for 1+3, enter 4.
Contact Us