ग्लासगो सम्मेलन और भारत का ऊर्जा संक्रमण
Amb D P Srivastava, Distinguished Fellow, VIF

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट के निष्कर्षों को 'मानवता के लिए कोड रेड' के रूप में वर्णित किया [1] । लिहाजा, उन्होंने इस मसले पर दुनिया की सरकारों से तत्काल कार्रवाई का आह्वान किया। गुटेरेस के भाषण के बाद अधिकतर विश्व नेताओं ने भी अपने भाषणों में अपनी चिंता जाहिर की। इसके चलते ग्रीन हाउस गैस के शुद्ध शून्य उत्सर्जन की मांग की गई। हालांकि इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सभी देशों ने अलग-अलग समय सीमा तय करने की बात कही पर एक मध्यवर्त्ती लक्ष्य गैस के शीर्ष उत्सर्जन को कम करना हो सकता है। उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य ने गैर-जीवाश्म ईंधन पर प्रीमियम लगाया है। इनमें जल विद्युत और परमाणु ऊर्जा के अलावा पवन और सौर ऊर्जा भी शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) की रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि विश्व की 90 फीसदी बिजली की मांगों को वर्ष 2050 तक गैर-नवीकरणीय संसाधनों के माध्यम से पूरी की जाए। बाकी ऊर्जा-जरूरतों के अधिकांश हिस्से की आपूर्ति परमाणु ऊर्जा से की जानी है। ये मुद्दे ब्रिटेन के ग्लासगो में 31 अक्टूबर 2021 से होने जा रहे COP 26 में चर्चा के लिए आएंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस सम्मेलन में भाग लेंगे।

हालांकि अर्थव्यवस्था की डी-कार्बोनाइजेशन की समस्या पर सभी देशों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं, परंतु प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के ऊर्जा मिश्रण में परमाणु ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा है। यह भारत के मामले में बहुत अधिक है। यह यूएस क्लीन एनर्जी स्टैंडर्ड का हिस्सा है। इसे जापान की पांचवीं ऊर्जा योजना में भी शामिल किया गया है। परमाणु ऊर्जा के भविष्य के लिए ऊर्जा मिश्रण का अमेरिका का (20 फीसदी), यूरोपीय संघ का (20 फीसदी) और चीन (10 फीसदी) का प्रमुख हिस्सा बना रहेगा। [2] यह भारत की तुलना में काफी अधिक है, जहां वर्तमान में परमाणु ऊर्जा का योगदान 2 फीसदी से भी कम है। जापान के नए प्रधान मंत्री फुमियो किशिदा ने अपनी संसद में हो रही एक बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा: 'यह महत्त्वपूर्ण है कि हम परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को फिर से शुरू करें।' [3] उनका यह नजरिया विश्व युद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिकी बमबारी की विध्वंसक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और फुकुशिमा दुर्घटना (2011) के बावजूद बना है।

यूरोप में ऊर्जा संक्रमण पर जारी बहस बिजली की कीमतों में वृद्धि की पृष्ठभूमि में हो रही है। यह उत्तरी सागर के ऊपर हवाओं की धीमी गति और गैस की कीमतों में उछाल के रुझान से शुरू हुआ था। इन स्थितियों से ब्रिटेन और जर्मनी सबसे बुरी तरह पीड़ित हुए हैं, जो अपनी बिजली आवश्यकताओं के एक बड़े हिस्से की पूर्ति के लिए पवन ऊर्जा पर निर्भर हैं। इसने न केवल ब्रिटेन और जर्मन मॉडलों पर, बल्कि आइईए रिपोर्ट में अंतर्निहित मान्यताओं पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है, जो ग्रिड में नवीकरणीय ऊर्जा के एक बहुत अधिक हिस्से पर निर्भर करती है। आइईए निदेशक ने इस बात से इनकार किया है कि यूरोप में हाल ही में बिजली की कीमतों में वृद्धि में नवीकरणीय ऊर्जा एक कारक है। आइईए के लाए विश्व ऊर्जा आउटलुक 2021 यूरोप में चल रहे बिजली संकट पर चुप है। लेकिन, नवीकरणीय ऊर्जा शक्ति का एक आंतरायिक (रुक-रुक कर आने वाला) स्रोत है। जब सूरज नहीं चमक रहा हो और हवा नहीं चल रही हो, तो उन्हें ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत पर निर्भर होना पड़ता है। यह 'संतुलन' शक्ति यूरोप में गैस द्वारा साधा जाता है। विडंबना यह है कि इसने पवन ऊर्जा और जीवाश्म ईंधन के बीच एक सहजीवी संबंध बनाया है। अगर बिजली उत्पादन में गैस एक कारक नहीं होती तो गैस की कीमतों में बढ़ोतरी से बिजली की कीमतों पर वैसा असर नहीं पड़ता।

गैस का उपयोग भी ऊर्जा के लिए भी किया जाता है। लेकिन बिजली की कीमतों में पांच गुनी बढ़ोतरी सितंबर में सर्दी शुरू होने से पहले हुई। गैस की कीमत में वृद्धि ने वास्तव में यूरोप में बिजली की कीमतों में तेज वृद्धि की है। लेकिन वर्तमान संकट को बढ़ाने वाला यही एकमात्र कारक नहीं है। इस साल की शुरुआत में गैस की कीमतें बढ़ने लगी थीं। इस प्रवृत्ति के शुरू होने से पहले ही, जर्मनी में दुनिया में बिजली-शुल्क सबसे अधिक था। इसके बाद डेनमार्क का नंबर आता है। दोनों ही मामलों में सामान्य तत्व यह है कि वे अक्षय ऊर्जा का बहुत अधिक दोहन करते हैं। पिछले साल जर्मनी में अक्षय ऊर्जा के लिए सब्सिडी का बोझ 28 अरब डॉलर तक पहुंच गया था।

सीईए के आंकड़ों के अनुसार, 2018-19 में नवीकरणीय ऊर्जा से 9.2 फीसदी ही ऊर्जा मिलती थी जबकि कोयले से 71 फीसदी उर्जा उत्पादन होता था। स्पष्ट रूप से, भारत के मामले में, यह नवीकरणीय ऊर्जा नहीं, बल्कि आयातित कोयला ही वह वजह है, जिससे बिजली उत्पादन में कमी होने और उसकी कीमतों में वृद्धि का खतरा हो सकता है। दरअसल, यह ट्रेंड चीन से शुरू हुआ, जिससे भारत पर भी असर पड़ा। चीन का ऊर्जा प्रोफ़ाइल भारत के समान ही है, जहां कोयला थोक में ऊर्जा उत्पादन कराता है। कोयले की कीमतों में वृद्धि और ऑस्ट्रेलिया से कोयले के आयात पर प्रतिबंध के कारण चीन में कोयले की कीमतों में वृद्धि हुई। कोयले की खपत चीन में दुनिया की कुल खपत की 50.5 फीसदी होती है। यह भारत के 11.4 फीसदी हिस्से से चार गुनी से अधिक है। [4] कोयले की चीन की मांग ही इसके वैश्विक मूल्य को तय करती है, जिससे भारत भी इसकी बढ़ी कीमतों के चपेटे में आ जाता है।

परमाणु ऊर्जा आयातित गैस या कोयले की कीमतों में वृद्धि के अंतरराष्ट्रीय रुझानों से सापेक्षिक इन्सुलेशन प्रदान करती है जबकि भारत यूरेनियम का आयात करता है, पर परमाणु ऊर्जा उत्पादन में ईंधन की लागत नगण्य है। भारत मामले में परमाणु ऊर्जा संयंत्र का शुल्क 2019 में प्रति यूनिट 3.47 रुपये था। इसमें यदि भंडारण समाधान की लागत को शामिल किया जाए तो यह शुल्क नवीकरणीय शुल्क से भी कम बैठता है। बैटरी समाधान के साथ नवीकरणीय ऊर्जा के लिए हाल ही में निविदाओं में, ग्रीनको ने 4.04 रुपये प्रति किलोवाट घंटे आपूर्ति के लिए अनुबंध जीता जबकि रिन्यू पॉवर ने 4.30 रुपये प्रति किलोवॉट घंटे के लिए अनुबंध जीता था। [5]

हालांकि विभिन्न देशों में राष्ट्रीय अनुभव भिन्न हो सकते हैं, पर यह स्पष्ट है कि परमाणु ऊर्जा उत्सर्जन मुक्त बिजली के लाभ से युक्त है और स्थिर, बेस-लोड पावर प्रदान करती है। जैसा कि बिल गेट्स ने अपनी पुस्तक हाउ टू अवॉइड ए क्लाइमेट डिजास्टर में लिखा है, 'यह एकमात्र कार्बन-मुक्त ऊर्जा स्रोत है, जो हर मौसम में, पृथ्वी पर लगभग कहीं भी, दिन-रात मज़बूती से बिजली की आपूर्ति कर सकता है। यह बड़े पैमाने पर काम करने में सिद्ध हुआ है। बड़े पैमाने पर। इस मामले में कोई भी अन्य स्वच्छ ऊर्जा स्रोत इसके आसपास भी नहीं आता है, जो आज परमाणु ऊर्जा पहले से ही उपलब्ध करा रहा है।’ [6]

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर तो दुनिया में आम सहमति है, पर इस समस्या से कैसे निपटा जाए, इस पर कोई सर्वसहमति अभी तक नहीं बन पाई है। उपलब्ध कुल कार्बन बजट ग्लोबल कॉमन्स का हिस्सा है। हालांकि, शुद्ध शून्य उत्सर्जन की अवधारणा सदस्य देशों के लिए अलग-अलग कार्यान्वयन की गुंजाइश बनाती है। प्रत्येक देश को उस स्तर तक पहुंचना है, जहां उसका उत्सर्जन उसके द्वारा प्रदान किए गए अवशोषण या सिंक से संतुलित होता है। यह नजरिया स्पष्ट रूप से विकसित और विकासशील देशों को एक ही तुला पर रखता है। जाहिर है कि इस क्रम में यह विकसित देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारी की अनदेखी कर देता है, जो कार्बन बजट का 80 फीसदी खत्म कर चुके हैं। चूंकि उनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन व्यापक रूप से भिन्न होता है, इसका मतलब यह है कि विकसित देश भविष्य में भी शेष कार्बन बजट के एक बड़े हिस्से का उपयोग करना जारी रखेंगे।

यूरोपीय संघ कार्बन का मूल्य-निर्धारण के जरिए उद्योग द्वारा किए जा रहे कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के लिए एक बाजार तंत्र का उपयोग कर रहा है। यूरोपीय संघ में अन्य देशों से आयात पर कार्बन टैक्स लगाने का रुख बहुत मजबूत है, जिसमें या तो ऐसी व्यवस्था नहीं है या जहां कार्बन टैक्स का स्तर कम है। यह इस आधार पर उचित है कि कार्बन रिसाव से बचने के लिए यह आवश्यक है, जहां कंपनियां विदेशों में इसके उत्पादन को स्थानांतरित करके अपने देश में कर-राजस्व पाने का प्रयास करेंगी। यूरोपीय आयोग ने कार्बन सीमा व्यापार तंत्र का प्रस्ताव दिया है।[7]इसका मतलब विश्व व्यापार संगठन के नियम का उल्लंघन करने वाले व्यापार पर पर्यावरण संबंधी शर्तें थोपना होगा। यूरोपीय संघ के देशों द्वारा ग्लासगो में COP26 में कार्बन टैक्स के लिए एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर जोर देने की संभावना है। यह अनिवार्य रूप से एक संरक्षणवादी कदम है। अगर इसे स्वीकार कर लिया जाता है तो इससे घरेलू उद्योग की लागत बढ़ जाएगी। भारत के पास पहले से ही 400 रुपये प्रति टन कोयला है। हालांकि यूरोप में कार्बन की कीमत बहुत अधिक है। उसका मौजूदा कारोबार 57.78 यूरो प्रति टन है। [8]

COP 26 का नतीजा चाहे अनिश्चित हो सकता है लेकिन उत्सर्जन को कम करने के बढ़ते दबाव को नकारा नहीं जा सकता है और यह ग्लासगो सम्मेलन के बाद भी जारी रहेगा। भारत पेरिस सम्मेलन के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं को हासिल करने की राह चल पड़ा है। हालांकि, वनीकरण के मामले में और अधिक काम करने की जरूरत है। भारत ने 2030 तक 2.5 बिलियन टन से 3 बिलियन टन 'अतिरिक्त कार्बन सिंक' बनाने की प्रतिबद्धता जताई थी। अभी तक मात्र 81 मिलियन टन तक ही पहुंचा जा सका है। हमें इस बारे में अभी और काम करने की जरूरत है। अनुकूलन उपायों के संदर्भ में और अधिक उपाय करने की आवश्यकता है। अनुकूलन कार्यों को बढ़ाने के लिए मनरेगा और राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन जैसी योजनाओं का उपयोग किया जा सकता है।

इस परिदृश्य में, दुनिया से ग्लासगो में और अधिक 'महत्वाकांक्षी' होने की मांग की जाएगी। पर इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीय रुझानों-विचारों के दबाव को जाने भी दें तो हमें खुद ही एक स्वच्छ वातावरण की आवश्यकता है। भारत को अपने ऊर्जा विकल्प सावधानी से बनाने होंगे। परमाणु ऊर्जा हमारे जलवायु लक्ष्यों को घर में ऊर्जा सुरक्षा के साथ सामंजस्य स्थापित करने का एक आदर्श तरीका प्रदान करती है। हालांकि इसके लिए सरकार द्वारा नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है। अन्य क्षेत्रों के विपरीत, परमाणु क्षेत्र को अभी तक निजी निवेश के लिए खोला नहीं गया है। इसलिए, इस क्षेत्र का विस्तार स्टॉक एक्सचेंज या पूंजी बाजार से संसाधन नहीं किया जा सकता। परमाणु क्षेत्र में तेजी लाने के लिए संसाधन सरकार को उपलब्ध कराने होंगे। परमाणु ऊर्जा को भी अक्षय ऊर्जा के समान 'चलना चाहिए' का दर्जा चाहिए। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और कई अन्य देशों के जैसे मामले में, परमाणु ऊर्जा को भारत के ऊर्जा-मिश्रण के हिस्से को निम्न कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने के उपक्रम के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।

पाद-टिप्पणियां

[1]https://www.un.org/press/en/2021/sgsm20847.doc.htm, accessed on 26.9.2021, 11.39 pm
[2]वीआइएफ टॉस्क फोर्स रिपोर्ट, न्युक्लियर पॉवर: इंपरेटिव फॉर इंडिया’ज डवलपमेंट, पृष्ठ 16
[3] ‘एशिया पैसिफिक, जापान के नये प्रधानमंत्री ने अपनी संसद में दिए गए भाषण में परमाणु ऊर्जा का समर्थन किया’, 11 अक्टूबर 2021
[4] (स्रोत: वर्ल्ड ओ मीटर, https://www.worldometers.info/coal/coal-consumption-by-country/)
[5] [6] ‘हाउ टू अवॉइड ए क्लाइमेट डिजास्टर’ रिटेन वाइ बिल गेट्स, पृष्ठ 84
[7]https://ec.europa.eu/commission/presscorner/detail/en/qanda_21_3661
[8]https://ember-climate.org/data/carbon-price-viewer/


Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
Image Source: https://eustafor.eu/event/cop26-un-climate-change-conference-uk-2021/

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