अनुच्छेद 370 निरस्तीकरण के भारत के निर्णय का मूल्यांकन और कश्मीर की आगे की यात्रा
Abhinav Pandya

केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को भारतीय संविधान में वर्णित अनुच्छेद 370 को अमान्य कर दिया। इसके साथ ही, अनुच्छेद 35 अ को भी रद्द कर दिया, जो अनुच्छेद 370 का मेरुदंड था। वास्तव में यह भारत के लिए ऐतिहासिक क्षण था क्योंकि अनुच्छेद 370, एक तरह से दुसह भार हो गया था, जो राज्य में जारी भ्रष्टाचार, आतंकवाद, भाई-भतीजावाद, इस्लामी जेहाद और खराब प्रशासन का एक जबर्दस्त ढाल बना हुआ था। संविधान में जम्मू-कश्मीर को एक विशेष राज्य का दरजा देने वाला अनु.370 एक अस्थायी प्रावधान था, जिसने काफी समय पहले से ही अपनी उपादेयता और औचित्य खो दिया था। पिछले कई दशकों से तो यह कश्मीर के सामाजिक-आर्थिक विकास और भारत के साथ उसके पूर्ण एकीकरण के मार्ग में ‘‘विशेष व्यवधान’’ ही पैदा कर रहा था।

भारत सरकार के उस फैसले का एक साल बीत गया है। ऐसे में बहुत स्वाभाविक है कि उस निर्णय और इस दरम्यान जम्मू-कश्मीर के सभी हिस्सों में हुए विकास का आकलन किया जाए। यह उल्लेख करना यहां जरूरी हो जाता है कि कश्मीर मामले में दिल्ली की ऐतिहासिक मुहिम के प्रभाव का समग्र आकलन करने और उसके आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। हालांकि, मौजूदा हालात पर किसी सख्त फैसले की मुनादी के बजाय थोड़ी सी सराहना वर्तमान मामले और लम्बे समय में पड़ने वाले उसके प्रभावों के प्रति हमारी समझदारी को बढ़ाएगी। इससे भविष्य में बेहतर नीतिगत हस्तक्षेप किया जा सकेगा।

सबसे पहले तो यह ठीक से समझ लेना आवश्यक होगा कि अनु.370 के निरस्तीकरण का निर्णय चुनावी वादे को पूरा करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। बाध्यकारी हालात और रणनीतिक-सुरक्षात्मक वे सरोकार थे, जिन्होंने कश्मीर को एक खास चरण में पहुंच गया था, जहां अल कायदा और आइएसआइएस जैसे जिहादी समूहों ने अपनी गहरी जड़ें जमा ली थीं। इस्लामी संगठनों जैसे जमात-ए-इस्लामी वास्तविक सरकार की तरह काम करने लगी थी। सलाफी कट्टरता, हवाला कारोबार, और मादक द्रव्य की तस्करी चरम पर थी, जो य़ुवा पीढ़ियों को बरबाद कर रही है। अरब वसंत के बाद, कश्मीर की य़ुवा पीढ़ी उत्तर-इस्लामिक और खिलाफत विचारधाराओं के गहरे प्रभाव में थी। ऐसे में भारत के पास दो ही विकल्प थे-य़ा तो वह कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय़ जेहाद के साथ जाने दे य़ा अनुच्छेद-370 को निरस्त कर दे, अपने राजनीतिक और आर्थिक ढांचे को पुनरुज्जीवित करे, खुशहाली, अमन और स्थिरता के य़ुग में प्रवेश करे और भारत की मुख्य़धारा में उसे सूत्रबद्ध करे। भारत के सूझबूझ वाले राजनीतिक नेताओं ने इस तात्कालिक चुनौतिय़ों और कठिनाइय़ों की कीमत पर दूसरे विकल्प को चुना।

दिल्ली के निर्णय़ के बाद, राज्य़ की आंतरिक स्थिति को बखूबी संभाला गय़ा है। हालांकि सूबे में संचार और सुरक्षा को लाँकडाउन में रखा गय़ा था। इस तरह की खास परिस्थितिय़ों में जनाक्रोश भड़कने का खतरा था और पाकिस्तान के उकसावे पर आतंकवादी घटनाएं हो सकती थीं। लिहाजा, आजादी से ज्य़ादा लोगों के जीवन बचाने को तरजीह देना लाजिमी था। परिणामस्वरूप, हिंसा की घटनाएं न के बराबर हुईं और जनाक्रोश की छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़कर कोई बड़ी घटना नहीं हुई। लॉकडाउन के दौरान, स्थानीय प्रशासन ऐन समय पर लोगों के लिए उपयोगी आवश्यक सामानों की आपूर्ति करने के प्रति प्रतिबद्ध था। ईद के त्योहार के दिन, धर्मावलम्बियों तक जरूरी चीजें वक्त पर मुहैया कराने और इस मौके पर कानून-व्यवस्था को बनाये रखने के लिए स्थानीय प्रशासन खास तौर पर सचेत था। तो, प्रशासन ने अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के बाद के हालात को जिस सूझ-बूझ से संभाला वह भविष्य के प्रशासकों और प्रबंधन के छात्रों के लिए एक दिलचस्प केस-स्टडी हो सकता है।

भारत के दक्ष राजनय और ईमानदारी के चलते उसकी इस मुहिम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक वैश्विक ताकतों, यहां तक कि अरब जगत के अधिकतर देशों तक का समर्थन मिला। केवल पड़ोसी पाकिस्तान और तुर्की ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के खिलाफ अभियान चलाया, जिसकी वजह सब जानते हैं। आतंक को पालने-पोसने वाले ये दोनों देश भारत के इस निर्णय के विरुद्ध एक भी ठोस विचार रखने में बुरी तरह विफल रहे। बाद में उनके प्रतिनिधि कश्मीर में संचार और सुरक्षा के लॉकडाउन का मसला उठाने लगे। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की एक मजबूत लोकतांत्रिक देश होने की साख है। भारत ने कश्मीर में यूरोपीय सांसदों के दौरे का आयोजन कर दुनिया को यह जता दिया कि इस मसले पर उसनेकुछ भी नहीं छिपाया है।

सुरक्षा परिदृश्य

अनुच्छेद 370 के उन्मूलीकरण ने कश्मीर में जिहादी आतंकवादी ढांचे में आखिरी कील ठोक दी है। सरकार ने अलगाववादी और उनको सहायता देने वाले तंत्र को निष्क्रिय कर देने के लिए सूबे के सभी अलगाववादी नेताओं, गड़बड़ साख रखने वाले मुख्यधारा के राजनीतिकों और कट्टरपंथिय़ों को गिरफ्तार कर लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि हिंसा की शायद ही कोई घटना हुई और जनाक्रोश जताने वाले प्रदर्शन भी नहीं हुए। पाकिस्तान तो भारत की मुहिम पर स्थानीय़ लोगों की इस कदर चुप्पी देखकर एकदम से हक्का-बक्का रह गया था। लोगों की चुप्पी से यह भी साबित हुआ कि सूबे में पहले हुए प्रदर्शन पाकिस्तान की कठपुतलियों द्वारा आयोजित और संगठित किये जाते थे, जो अब सीखचों के भीतर थे।

परिणामत: आइएसआइ के मास्टरमाइंड आतंकवादी समूहों और यूनाइटेड जिहाद कांउसिल (यूजेसी) कश्मीर में हिंसा और रैलियां-प्रदर्शन करने के लिए उकसाने लगे, लेकिन सुरक्षा स्थितियों पर दिल्ली का पूरी तरह नियंत्रण होने के चलते वे अपने मंसूबों में भी मात खा गए। इसके अतिरिक्त, इलाके में संचार व्यवस्था को ठप रखने से आतंकवादी समूहों का पुलवामा की तर्ज पर अनेक आत्मघाती आतंकी वारदातों और आइईडी विस्फोटों को अंजाम देने का मंसूबा भी पूरा नहीं हुआ। इन सबसे पाकिस्तान को जल्दी ही भान हो गया कि जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद-आतंकवाद जारी रखने की रणनीति और चाल को बदलने की जरूरत है। इसके बाद, पाकिस्तान ने बेहद पारंगत विदेशी आतंकवादियों को भारी तादाद में भारतीय सीमा में घुसपैठ करना शुरू किया। इनमें कुछ तो पाकिस्तान के स्पेशल सर्विसेज ग्रुप (एसएसजी) के ट्रेंड किये हुए थे। आज उत्तरी कश्मीर भाड़े के विदेशी आतंकवादियों का एक हब बन गया है। खास कर, सोपोर, कुपवाड़ा, बांदीपुर और हाजिन इनसे बुरी तरह पीड़ित हैं। इस क्षेत्र में कार्यरत हिजबुल मुजाहिदीन (एचएम) तथा हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे किरदारों को आइएसआइ के मास्टर माइंड का समर्थन नहीं मिल रहा है। इसलिए कि वे इलाके में आतंकी हमले करने और विरोध-प्रदर्शन कराने में विफल रहे हैं।

अब जरा आंकड़ों पर गौर करें। अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद, आतंकी समूहों में शामिल होने वाले कश्मीर युवाओं की तादाद में 40 फीसद की गिरावट आई है। वहीं, आतंकी वारदातें 188 से 120 हुई हैं। पिछले सात महीनों (जनवरी से 30 जुलाई 2020) के दौरान 136 आतंकवादी मारे गए हैं, जिनमें 110 स्थानीय आतंकी थे और बाकी विदेशी। पिछले साल यानी 2019 में 128 आतंकवादी मारे गए थे। हालांकि ये आंकड़े पूरी कहानी नहीं बयान करते। कश्मीर में आतंकी कारगुजारियों में छायी यह तात्कालीन शांति कोरोना महामारी, संचार व्यवस्था को ठप रखने, सुरक्षा चौकस रखने और साथ ही, सोची-समझी रणनीति के एक हिस्से के रूप में है। ऐसा इसलिए है कि क्योंकि आधिकारिक सूत्र घुसपैठ की कोशिशों में भारी बढ़ोतरी की बात करते हैं।

इस लेखक के अपने सूत्रों ने भी इसकी पुष्टि की है कि पाकिस्तान ने अल बदर के आतंकियों और अफगान तालिबान के लड़ाकों को कश्मीर भेजना शुरू कर दिया है। हाल ही में, अफगानिस्तान के नेशनल डायरेक्टोरेट ऑफ सिक्युरिटी (एनडीएस) ने जलालाबाद में चल रहे तालिबान के प्रशिक्षिण शिविर पर धावा बोला था, जिसमें जैश के 10 लड़ाके मारे गए थे। ऐसे में, इस बात की गुंजाइश ज्यादा है कि तालिबानी लड़ाके कश्मीर में जैश और लश्कर के साथ मिल कर लड़ रहे हैं। विदेशी आतंकवादी कश्मीर में हमले के लिए शायद सही वक्त और पाकिस्तान के हुक्म का इंतजार कर रहे हैं। लिहाजा, अपने प्रयासों को लेकर भारत के आत्म-संतुष्ट हो जाने का कोई कारण नहीं है। हालांकि गृह मंत्रालय ने जमात-ए-इस्लामी (जेआइ) पर पाबंदी लगा दी है, लेकिन इसको लागू करने में कई खामिया हैं। वास्तव में, उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई उनके दफ्तर, बैंक अकाउंट को सील करने या उनके कुछेक मशहूर नेताओं की गिरफ्तारियों के आगे नहीं बढ़ पाती। यद्यपि, इन संगठनों की दूसरी और तीसरी लाइन के नेता ग्रामीण क्षेत्रों में फैल गए हैं, जहां वे चुपचाप अपने अभियानों को गति देने तथा विदेशी आतंकियों के लिए कार्यनीतिक मदद कर रहे हैं।

इसके अलावा, अल कायदा इन इंडियन सबकंटिनेंट (एक्यूआइएस) भी कश्मीर में सक्रिय हो गया है। उसके हालिया वीडियो और ऑडियो संदेशों में, एक्यूआइएस ने कश्मीरियों से अपील की है कि वे भारत के खिलाफ उनके जेहाद का समर्थन करें। आइएसआइएस ने भी कश्मीर को अपना प्रांत होने की मुनादी है।

कश्मीर में आतंकवाद के काम-काज का तरीका बहुत तेजी से बदल रहा है। तुर्की जैसे नये किरदार भी कश्मीर मामलों में तेजी से संलिप्त हो रहे हैं। इसकी प्रबल संभावना है कि आगे चल कर तुर्की भी लीबिया और सीरिया की तरह कश्मीर के जेहादी समूहों को प्रशिक्षण देने तथा उनको रसद-पानी देने लगे। आधिकारिक रिपोर्ट यह भी बताती है कि आतंकवादी समूह रिहायशी इलाकों में रहने वाले नागरिकों और सैन्य ठिकानों पर द्रोन से हमले कर सकते हैं। इससे बढ़कर यह कि कश्मीर में सूफी समुदाय, जो अब तक भारत के हिमायती माने जाते रहे हैं, वे भी अतिवाद को बढ़ावा देने तथा राष्ट्रविरोधी भावनाओं को भड़काने में लगे हैं। यह भी रिपोर्ट है कि पाकिस्तान शियाओं को कट्टरपंथी बनाने और फिर उन्हें उग्रवाद फैलाने के काम में शामिल करने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। हाल में ही भारत और ईरान के रिश्तों में आई खट्टास और ईरान तथा चीन में बढ़ते याराने को इसी संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। इनके अलावा, तुर्की अपने इस्लामिक नैरेटिव के साथ कश्मीर के युवाओं के दिलो-दिमाग पर कब्जा जमाने के लिए हद से बाहर जा कर व्यापक प्रयास कर रहा है। इन सभी विदेशी आतंकवादियों और अन्य देशों के सरकारी और गैर सरकारी किरदारों की संलिप्तता को देखते हुए आने वाले दिनों में कश्मीर में आतंकवाद में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी की आशंका है। पश्चिमी एशिया के कुछ देशों की कार्यनीति जैसे आत्मघाती बम, आइईडी हमले हो सकते हैं और ये आतंकी कुछ नये उभरते राजनीतिकों तथा गैर-कश्मीरी नागरिकों पर हमले करेंगे। तो, सुरक्षा की ये कुछ चुनौतियां हैं, जिन्हें दिल्ली को कश्मीर में सामना करना पड़ेगा।

प्रशासन और उसकी पहुंच

सरकार के मोर्चे पर यह कहने की जरूरत है कि तमाम जारी लॉकडाउन के बीच कश्मीरियों के मन में अनुच्छेद 370 के पूर्ण निरस्तीकरण के बाद अगर कोई उम्मीद बची है तो वह है उनके आर्थिक विकास के सपने और रोजगार की बेहतर संभावनाओं को लेकर संजोयी गई भावनाएं। वहां की खदबदायी सियासी फिजां में पहले लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) को भ्रष्टाचार-मुक्त और सक्षम शासन-प्रशासन देने तथा रोजगार के अवसर बनाने की महत्ती जिम्मेदारी से भेजा गया था। इस लक्ष्य को पाने के लिए केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर के पहले बजट (2020-21) में सभी अनुपूरक मांगों के लिए आवंटन जारी कर दिया गया। पहली बार 1 लाख करोड़ से ज्यादा बजटीय आवंटन किया गया।

भारी आवंटन के जरिये पंचायतों को मजबूत बनाया जा रहा है। कहा गया है कि यूटी की 4483 पंचायतों को 366 करोड़ रुपय़े की धनराशि दी गई है। सभी महकमों में वार्षिक बजट का 10 फीसद हिस्सा जनजाति के कल्याण के लिए सुरक्षित रखा गया है। प्रधानमंत्री आवास योजना, किसान क्रेडिट कार्ड तथा आयुष्मान भारत जैसी केंद्र सरकार की योजनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन ने 50,000 नये रोजगार सृजन का वादा किया है। कैबिनेट सचिव गौवा की अध्यक्षता में, मार्च 2020 में विभिन्न विभागों के अधिकारियों की हुई एक बैठक में यह फैसला किया गया कि सभी योजनाओं में सक्षम लाभार्थियों को 100 फीसद लाभ दिये जाएं ताकि सरजमीं पर बदलाव प्रत्यक्ष दिखाई दे। हालांकि तमाम ईमानदार प्रयासों व उपायों के बावजूद उनके क्रियान्वयन का स्तर खस्ता है। जैसे, नेशनल स्कॉलरशिप पोर्टल के मुताबिक जम्मू-कश्मीर को अकादमिक वर्ष 2019-20 में प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप के लिए कुल 517,000 नये प्रस्ताव ही मिले हैं किंतु इनमें से मात्र 8,294 मामलों में ही छात्रवृत्ति दी जा सकी है। इसी तरह, क्षेत्र के गरीबों के लिए 62,932 भवन निर्माण के लक्ष्य के बनिस्बत 26 फरवरी तक मात्र 36,780 निर्माण की स्वीकृति दी गई थी और उनमें भी मात्र 122 घरों का ही निर्माण हो सका था। ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़े यही बताते हैं।

जद्दोजहद के चलते, कश्मीर में शासन और प्रशासन का ढांचा हमेशा से ही खराब हालात में रहा है। विकास योजनाओं के क्रियान्वयन की दयनीय दशा रही है और अब भी वह इसी दशा में है। इससे लोगों में, यह धारणा बढ़ती जा रही है कि जम्मू-कश्मीर को नौकरशाहों की मर्जी और सनक पर छोड़ दिया गया है। प्रदेश में, सुरक्षा एजेंसियां और सुरक्षा बल लम्बे समय से दखल रखते आए हैं। हालांकि, अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के बाद, दिल्ली की सरकार को यह समझना होगा कि लोगों तक सरकारी मशीनरी की पहुंच का अभाव, नौकरशाही को पद का मद और उसकी असंवदेनशीलता कश्मीर को भारत से एकीकृत करने के बेहतर तरीके नहीं हैं। संघर्षशील क्षेत्रों को खास तरह के व्यवहार और उनमें व्यापक पहुंच की आवश्यकता होती है। लोगों के तसव्वुर में, यह मामला सारा का सारा आर्थिक विकास का ही नहीं है बल्कि आबादी की बढ़ी तादाद के लिए केंद्र का यह फैसला उसकी कश्मीरियत की पहचान पर खतरा है। लिहाजा, सरकारी योजनाओं की केवल मुनादी पर मुनादी संवाद और संवेदनाओं में भयानक खाई पैदा करेगी जिसका राष्ट्र-विरोधी तथा पाकिस्तान-समर्थक जेहादी ताकतें भरपूर फायदा उठाएंगी।

ऐसी ताकतें ही घाटी में ये अफवाह फैलाती हैं कि कश्मीर में बेशुमार बाहरी लोगों का जमघट लग रहा है, खनन के पट्टे इन्हीं लोगों को दिये जा रहे हैं और सेना के जवानों के बल पर प्रदेश का औपनिवेशिकरण किया जा रहा है। ऐसे अफवाहों की फैक्टरियों के सभी सिलिंडर तब से फटे जा रहे हैं, जब से अनुच्छेद 370 का खात्मा हुआ है। इसे देखते हुए प्रदेश का प्रशासन लोगों तक व्यक्तिगत, अधिकारिक और सामूहिक हैसियत से पहुंच बनाये। विवेकानन्द फांउडेशन के लिए लिखे एक संयुक्त आलेख में रॉ के पूर्व चीफ श्री सीडी सहाय ने कश्मीर में जन-जन तक सरकारी पहुंच की कार्यनीति पर विस्तार से प्रकाश डाला है। । साथ ही, बेहतर शासन-प्रशासन देने के तरीके सुझाए हैं तथा जेहाद से निबटने की एक नैरेटिव दी है।

जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दरजे को भंग कर देने का वहां की मुख्यधारा की राजनीतिक पर गहरा धक्का लगा है। वहां मुख्यधारा की राजनीति प्रक्रिया सालों तक यह थी कि भारत अलगाववाद, आतंकवाद और जेहादवाद को रोकने का ताकतवर कवच है। डॉ. फारूक अब्दुल्ला का 1996 में मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव ने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के विरुद्ध भारत को एक भारी नैतिक विजय दिलाया था। हालांकि, समय के साथ, मुख्यधारा की राजनीतिक प्रक्रिया अलगाववादी और जेहादी नैरेटिव की शिकार हो गई और कई तरह से यह उसके पारिस्थितिकतंत्र का हिस्सा हो गई जो धार्मिक उग्रवाद और अलगाववाद को खुराक देता है। हालांकि, दिल्ली की अगर इच्छा कश्मीर को एक संवेदनात्मक स्पर्श देने की है और अखंडता तथा आर्थिक विकास की प्रक्रियाओं को पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रतिबद्धता के साथ लागू करना है तो प्रदेश में मुख्यधारा की राजनीति का पुनरुत्थान करना होगा। पंचायतों का सशक्तिकरण करने की बड़ी पहल की गई है, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति के महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती, उसे नगण्य नहीं किया जा सकता। इसलिए मुख्यधारा की राष्ट्रवादी राजनीति को सशक्त और उसका पोषण करने के लिए गंभीर प्रयास शुरू किये जाने चाहिए। छोटे-छोटे लाभों के लिए उग्रवादियों एवं राष्ट्र-विरोधी ताकतों को पुचकारने का खुफिया एजेंसियों का पुराना खेल अब अवश्य ही खत्म होना चाहिए। दिल्ली को बेबाक बात करनी होगी, राष्ट्रवादी ताकतों को उनके आर्थिक विकास व शांति का माहौल देने की गारंटी के साथ गर्मजोशी से अपनाना होगा। इसके साथ ही, राष्ट्र-विरोधी तथा उग्रवादी ताकतों के साथ कठोर से कठोर कार्रवाई करनी होगी।

इसके अलावा, एक साल तक जारी रहने वाले विलम्बन, लॉकडाउन और वैश्विक महामारी कोरोना ने जम्मू-कश्मीर की आर्थिक जीवन-रेखा कहे जाने वाले पर्यटन उद्योग को बुरी तरह झकझोर दिया है। यहां की आबादी का 20 फीसद हिस्सा पर्यटन से होने वाली आय पर आश्रित है, जबकि सैलानियों की तादाद में आठ गुना कमी आई है। झीलों में शिकारा के व्यवसाय में लगे लोग सब्जियां बेचने पर मजबूर हो गए हैं। इसलिए प्रदेश में कारोबार और उद्योग को फिर से शुरू करने की महत्ती आवश्यकता है।

वहीं, कश्मीरियों को यह भी शिद्दत समझना होगा कि पाकिस्तान के उकसावे पर जारी धार्मिक उग्रवाद, आतंकवाद और मादक द्रव्यों की खेपों ने उनकी पहचान और सांस्कृतिक जड़ों को नष्ट कर दिया है। इस जड़ता को तोड़ने के लिए अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण एक विलम्बित मांग थी। घाटी के लोगों को इस अफवाहों पर कान नहीं देना चाहिए कि कश्मीर में जनसांख्यिक बदलाव किया जा रहा है। इसके बजाय उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अपनी ऊर्जा तथा प्रयास रचनात्मक आर्थिक विकास करने और अमन कायम करने में लगाना चाहिए।

कश्मीर की मुख्यधारा के राजनीतिकों को यह समझने की जरूरत है कि अनुच्छेद 370 मर चुका है, कश्मीर की नियति भारत से जुड़ी है और अंत में, पाकिस्तान या उसके किसी प्रतिनिधि द्वारा कश्मीर में शांति, स्थिरता को भंग करने के कुत्सित प्रयासों का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। इस पुकार को उन्हें पूरे होश-हवास में सुनना चाहिए और उन्हें जिहाद एवं मौदुदी की इस्लाम की आदिम, बर्बर अवधारणाओं की असभ्य प्रवृत्ति को प्रश्रय देने के बजाय लोकतांत्रिक, ताकतवर, बहुसांस्कृतिक और सहिष्णु भारत के साथ शांति से रहना चाहिए।

अब लद्दाख पर आते हैं। यह इस पूरे विमर्श में पहला स्थान पाने का अधिकारी है। इसलिए कि अनुच्छेद 370 के उन्मूलन का स्वागत करने वाला यह पहला क्षेत्र है। इस कदम से घाटी-केंद्रित इस्लामी ताकतों के वर्चस्व वाले राजनीतिक नेतृत्व के लद्दाख के प्रति चले आ रहे भेदभाव और पक्षपात का भी खात्मा हो गया है। यह भेदभाव इसलिए किया जा रहा था क्योंकि लद्दाख की पहचान गैर-मुस्लिम की थी। अब लद्दाख विकास के रास्ते पर कुलांचे भरने लगा है। हाल ही में, उसे एक केंद्रीय विश्वविद्यालय भी मिला है।

सारांश यह कि, आने वाले समय में, कश्मीर में सुरक्षा चुनौतियां बेहद गंभीर होंगी। पाकिस्तान तथा विस्तारवादी चीन को देखते हुए ये उपाय काफी नहीं होंगे। संभवत: ये दोनों उग्रवाद और जनाक्रोश को और बढ़ावा देंगे। लिहाजा, दिल्ली को आतंकवाद के विरुद्ध दृढ़, निर्णयकारी और प्रतिबद्ध होना होगा। न केवल कश्मीर में कार्यरत इस्लामी संगठनों और आतंवादी समूहों का उन्मूलन किया जाना आवश्यक है बल्कि पाक अधिक्रांत कश्मीर में चल रहे आतंकी प्रशिक्षण शिविरों तथा पाकिस्तान-अफगानिस्तान में मौजूद आतंकवाद के सरगनाओं के खिलाफ भी कठोर कदम उठाने होंगे।


Translated by Dr Vijay Kumar Sharma(Original Article in English)
Image Source: https://www.organiser.org/Encyc/2020/3/5/2_12_03_17_7_1_H@@IGHT_350_W@@IDTH_650.jpg

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