अंतरराष्ट्रीय चर्चाओं में गुटनिरपेक्षता के विचार को अंतरराष्ट्रीय चर्चा में अक्सर बाबा आदम के जमाने का बताकर हंसी में उड़ा दिया जाता है और 21वीं सदी की पहचान वाली राजनीति में खास तौर पर ऐसा किया जाता है, जहां क्रूरता भरी ताकत इस्तेमाल की जाती है। बहुपक्षधरता और उसकी संस्थाओं को या तो नया बनाने की या नई दिशा देने अथवा नया जीवन देने की जरूरत है। साठ के फेर में पहुंच चुके उन बुजुर्गों की तरह इनकी जरूरत बहुत कम दिखती है, जिनका जिक्र समाज में किस्से-कहावतों में किया जाता है। बात करने के लिए यह विचार अच्छा है मगर कोई इसे आगे नहीं बढ़ाना चाहता। अंतरराष्ट्रीय चर्चा में पहला मकसद राष्ट्रहित ही रहता है और उसकी वजह से दुनिया का कुछ भला हो जाए तो होने दिया जाता है। अमेरिका फर्स्ट, इंडिया फर्स्ट, चाइना फर्स्ट और यूरोप फर्स्ट ऐसी ही एकसमान मगर कभी-कभी टकराने वाली मूल्य श्रृंखलाओं की कड़ियां हैं। “जिसकी लाठी उसकी भैंस” ही बातचीत का सिद्धांत बन गया है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम) को काम का बताना अंतरराष्ट्रीय हलकों में न तो शुद्धतावादियों को पसंद है और न ही यथार्थवादियों को, जबकि हरेक देश थोड़ा बहुत ही सही इस पर चलता है।
जब नए आजाद हुए देश शीतयुद्ध की रस्साकशी में फंस गए तो उनके नेताओं ने 1955 में इंडोनेशिया के बांदुंग में एक वैकल्पिक सहयोगात्मक व्यवस्था तैयार करने का रास्ता चुना, जिससे उन्हें दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए बोलने का मंच मिल सके। वे महाशक्तियों की राजनीति और दबदबे में फंसना नहीं चाहते थे। वे विकासशील दुनिया के लोगों की औपनिवेशिक शासन से आजादी की तमन्ना को भी सहारा देना चाहते थे। इसलिए इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो ने भारत, मिस्र, यूगोस्लाविया और घाना समेत कई देशों के नेताओं को एशियाई-अफ्रीकी देशों के बांदुंग सम्मेलन में आमंत्रित किया। उनमें यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसेप ब्रेज टीटो, भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति कमाल अब्दुल नासिर, वियतनाम के हो ची मिन्ह और चीन के झोउ एन लाई प्रमुख थे। वे “विश्व शांति एवं सहयोग की घोषणा” को अंगीकार करने पर सहमत हो गए। करीब छह दशक पहले 1961 में मार्शल टीटो ने गुटनिरपेक्ष देशों के राष्ट्राध्यक्षों या राज्याध्यक्षों के पहले सम्मेलन की मेजबानी बेलग्रेद में की। 1970 में लुकासा सम्मेलन में सदस्य “विवादों के शांतिपूर्ण समाधान करने एवं महाशक्तियों के साथ सैन्य गठबंधन तथा संधियों से दूर रहने” का सिद्धांत जोड़ने पर सहमत हो गए। उन्होंने विदेशी सेना की तैनाती तथा उनके ठिकानों की स्थापना का भी विरोध किया। उसके बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन संयुक्त राष्ट्र के बाद सबसे बड़ा संगठन बन गया, जिसके लगभग 120 सदस्य थे। बेशक कुछ लोगों ने इसे कमजोरों का गठजोड़ या मामूली बातों का अड्डा कहकर खारिज कर दिया। मगर लगभग सभी अफ्रीकी देश इसके सदस्य हैं।
गुटनिरपेक्ष देशों के 18 सम्मेलन हुए हैं, जिनमें आखिरी अजरबेजन के राष्ट्रपति इलहाम अलीव की अध्यक्षता में 28-29 अक्टूबर 3029 को बाकू में हुआ था। इस सम्मेलन में समसामयिक विश्व की चुनौतियों का संगठित एवं पर्याप्त उत्तर सुनिश्चित करने के लिए बांदुंग सिद्धांतों को बरकरार रखने पर जोर दिया गया। वास्तव में दुनिया बहुत बदल चुकी है और समय के साथ कई सदस्यों की प्राथमिकताएं भी बदल गईं। बांदुंग में 1955 में चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी कोशिश कर रही थी कि विकसित देश प्रतिद्वंद्वी कुओमिनतांग (चाइनीज नेशनलिस्ट पार्टी) की जगह उसे प्रतिनिधि मानें। ताइवान ने नैम के विचार का विरोध किया और साम्यवादी चीन, सोवियत संघ तथा बांदुंग के नए मंच से वैचारिक लड़ाई करने के लिए दक्षिण कोरिया और फिलीपींस की मदद से साम्यवादी विरोधी मंच (एपीएसीएल - एशियन पीपल्स एंटी कम्युनिस्ट लीग) बनाने की कोशिश की। बांदुंग में भी मतभेद थे और चीन को शामिल करने का विरोध हो रहा था। आज चीन आर्थिक विश्व शक्ति है, जिसने शीर्ष पर पहुंचने की दौड़ में कई देशों को पछाड़ दिया है। इस समय दुनिया कोविड-19 से जूझ रही है, जहां कोरोनावायरस के शुरुआती प्रसार के लिए जिम्मेदार चीन धोखे, लालच और अक्खड़पन की वजह से प्रमुख विपक्षी और सभी का निशाना बन गया है।
हालांकि गुट निरपेक्ष आंदोलन को परिभाषित करने वाले तरीकों, विषयों, उद्देश्यों और लक्ष्यों को लेकर मतभेद होता रहा है। कई लोग इसे तटस्थता भरा विचार करेंगे तो कई इसे नैतिकतावादी मूल्यों से भरा संगठन कहेंगे, जहां मौजूद तथ्यों और उद्देश्यों के आधार पर ही फैसले लिए जाते हैं। दूर बैठकर देखना एक विकल्प हो सकता है मगर नैम ने लंबे समय से चल रहे कई अंतरराष्ट्रीय मसलों पर सक्रियता से काम किया है और उसके असर और नतीजे पर बेशक बहस होती रहे वह उन मुद्दों पर ध्यान देता रहा है। नैम और उसके मुखर नेताओं से महाशक्तियां कितनी भी नफरत करें दोनों पक्ष उसे खुश रखने की कोशिश करते थे क्योंकि विकासशील दुयिा का बड़ा हिस्सा नैम में शामिल था। लेकिन ऐसा संयुक्त राष्ट्र समेत किसी भी बहुपक्षीय मंच के साथ होता है, जिसके संस्थागत ढांचे में ही उसके निष्प्रभावी होने के बीज छिपे हैं।
इसीलिए संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था विशेषकर सुरक्षा परिषद में सुधार की आवाजें उठ रही हैं क्योंकि वहां अब भी द्वितीय विश्व युद्ध की विजेता वाली मानसिकता चलती है और वहां नए जमाने की वास्तविकता नहीं दिखती। इसी तरह नैम को भी शक्ति की राजनीति और अल्पकालिक फायदों के लिए ही नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद निरोध और विश्व व्यापार संगठन एवं विश्व व्यापार संगठन के सुधारों जैसे प्रमुख मुद्दों के वैश्विक यथार्थों को के मुताबिक अपने लक्ष्यों में लगातार बदलाव करना होगा तथा सतत विकास के लक्ष्यों के क्रियान्वयन एवं वैश्विक वस्तुओं के उचित वितरण पर भी ध्यान देना होगा।
जहां तक कूटनीति संवाद एवं संपर्क के उपलब्ध साधनों का इस्तेमाल करने का सवाल है, भारत की विदेश नीति अभी तक एकाग्र नहीं रही है। गहराते द्विपक्षीय संबंध ही अंतरराष्ट्रीय चर्चा में प्रमुख कारक रहे हैं। लेकिन भारत ने दुनिया को हमेशा पारस्परिक हितों तथा उद्देश्यों के चश्मे से देखा है और अक्सर नए बहुपक्षीय मंच बनाने में वह अग्रणी रहा है। नैम ऐसा ही संगठन है मगर इकलौता संगठन नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना में अहम भूमिका निभाई और इस संगठन में सदस्यों की संख्या अब बहुत अधिक है।
इसी तरह जब ट्रंप जलवायु परिवर्तन और उसे रोकने के प्रयासों तथा प्रोटोकॉल पर आनाकानी कर रहे थे तो भारत ने मोर्चा संभाला। आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए भारत पूरी दुनिया को गंभीर वैश्विक प्रयास करने के लिए मना रहा है। आध्यात्मिक एवं स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भी अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित करने के भारत के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में पहली बार सबसे ज्यादा मत एवं समर्थन प्राप्त हुआ तथा विभिन्न देशों ने उसे प्रायोजित भी किया। अब इसे पूरी दुनिया में मनाया जाता है। यह भारत के प्रभाव का बड़ा प्रदर्शन और उपलब्धि भी है और सांस्कृतिक कूटनीति का ताकतवर साधन भी।
भारत ने अपने राष्ट्रहित को महफूज रखने और उन्हें पूरा करने के लिए 1971 से असली राजनीति करना शुरू किया। इसे देखते हुए कुछ लोग आलेचना करते हैं कि भारत नैम में सर्वोच्च स्तर पर हिस्सेदारी करना नहीं चाहता है। आलोचना तब और भी मुखर हो गई, जब प्रधानमंत्री मोदी 2016 और 2019 की शिखर बैठकों में स्वयं हिस्सा नहीं ले सके। यह बात अलग है कि वहां भारत का प्रतिनिधित्व ऊंचे स्तर पर किया गया। मेरे खयाल से ये दूरदर्शिताहीन बातें हैं क्योंकि क्षेत्रीय और वैश्विक आकांक्षाओं वाले भारत जैसे देश के लिए उच्च प्रतिनिधित्व वाले गुटनिरपेक्ष आंदोलन के मंच से दूर रहना असंभव ही है।
यह गठजोड़ों का और शीत युद्ध के बाद की परिस्थिति में नई आर्थिक एवं सुरक्षा चुनौतियों को देखते हुए पूरी दुनिया में तथा विभिन्न संगठनों में विभिन्न प्रकार की बहुपक्षीय पहलों का दौर है क्योंकि नए युग में शक्ति संतुलन के ताने-बाने को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। भारत “चुनिंदा एवं मुद्दा आधारित गठबंधन” और नैम समेत बहुपक्षीय मंचों के जरिये द्विपक्षीय संदर्भ में काफी सक्रिय है। प्रधानमंत्री मोदी ने डिजिटल कूटनीति को शिखर बैठक के स्तर पर पहुंचा दिया है और उन्होंने कोरोनावायरस के कारण आवाजाही एवं सीमाएं बंद होने के कारण इसे चलन में भी ला दिया है। यह सच है कि उन्होंने मृतप्राय दक्षेस की उम्मीदों को नया जीवन दिया और जी-20 के मौजूदा मेजबान सऊदी को वर्चुअल शिखर बैठक की मेजबानी के लिए उत्साहित किया।
द्विपक्षीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी तथा विदेश मंत्री एवं वरिष्ठ अधिकारी भारतीय समुदाय के कल्याण एवं प्रमुख हितों तथा उद्देश्यों की सुरक्षा के लिए विश्व नेताओं से संपर्क करत आए हैं और बांग्लादेश से ब्राजील तक विभिन्न मित्र देशों को हर संभव सहायता प्रदान करते हैं। वास्तव में ब्राजील के राष्ट्रपति ने तो भारत की जीवनरक्षक सहायता को “रामायण की संजीवनी बूटी” तक बताया।
कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में भारत ने एक बार फिर अद्भुत नेतृत्व कला का प्रदर्शन किया है और घरेलू चुनौतियों तथा संक्रमण के बावजूद वह क्षेत्र और विश्व में सबसे पहले मदद के लिए आगे आने वाला देश साबित हो रहा है चाहे लोगों की मदद करना हो या उन्हें संघर्ष तथा संक्रमण वाले इलाकों से निकालकर लाना हो। 4 मई को प्रधानमंत्री मोदी ने 30 अन्य नेताओं के साथ नैम संपर्क समूह की वर्चुअल शिखर बैठक में हिस्सा लिया, जिसमें कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए आगे के रास्तों पर चचा की गई तथा “अंतरराष्ट्रीय एकता एवं शांति दिवस” मनाया गया। मोदी ने फेक न्यूज, छेड़छाड़ किए वीडियो और दुनिया को परेशान कर रहे आतंकवाद जैसे प्रमुख शत्रुओं का भी जिक्र किया। भारत ने संकट की इस घड़ी में हर प्रकार की सहायता की पेशकश की।
विदेश मंत्रालय ने एक प्रेस विज्ञप्ति में नैम के प्रति भारत का संकल्प दोहराते हुए कहा, “प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिभागिता सिद्ध करती है कि नैम का अग्रणी संस्थापक सदस्य होने के नाते भारत इसके सिद्धांतों एवं मूल्यों के प्रति सदैव प्रतिबद्ध रहा है। प्रधानमंत्री ने अपने उद्बोधन में इस संकट के प्रति दुनिया की समन्वित, समावेशी एवं उचित प्रतिक्रिया के महत्व पर जोर दिया और भारत द्वारा घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाए गए कदमों को भी रेखांकित किया। उन्होंने यह भी दोहराया कि आंदोलन के साथ एकजुटता रखते हुए भारत हरसंभव सहायता प्रदान करने के लिए तैयार है।”
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