बांग्लादेश चुनाव: हिफाजत का बढ़ता प्रभाव
Abhijit Chakravertty

शेख हसीना ने 26 अक्टूबर को पार्टी के एक मंच पर ऐलान किया कि दो कट्टर चरमपंथी गुटों जमात-ए-इस्लामी ओर हिफाजत-ए-इस्लाम के साथ अलग-अलग बर्ताव होना चाहिए। इसके फौरन बाद 29 अक्टूबर ने चुनाव आयोग की काफी समय से लंबित अधिसूचना आई, जिसमें जमात का राजनीतिक पार्टी के तौर पर पंजीकरण रद्द कर दिया गया।

हिफाजत के साथ साल भर पहले शुरू हुई हसीना की नजदीकी उस समय और बढ़ गई, जब 4 नवंबर को वह ढाका में हिफाजत की एक सभा में पहुंचीं। वह सभा कौमी मदरसा दौरा-ए-हदीथ की डिग्रियों को दूसरे विश्वविद्यालयों की स्नातकोत्तर डिग्रियों के बराबर घोषित करने वाला कानून बनाने के लिए उनका धन्यवाद करने के इरादे से आयोजित की गई थी। संसद द्वारा 19 सितंबर को पारित किए गए इस कानून से इस्लामी एवं अरबी अध्ययन में मदरसे से डिग्री लेने वालों को सरकारी सेवाओं में प्रवेश मिल जाएगा। हिफाजत की ओर से इतना धन्यवाद सुनकर शायद हसीना बह गईं और उसी के मंच से उन्होंने ऐलान कर दिया कि सरकार 500 से अधिक मदरसे बनाएगी और जरूरत पड़ने पर सऊदी अरब से वित्तीय मदद लेगी।

अतीत में शेख हसीना पर काफिर होने के आरोप लगते रहे हैं और उनकी पार्टी अवामी लीग को इस्लाम-विरोधी कहा गया है। बांग्लादेश के अधिकतर कट्टर इस्लामी गुट अतीत में विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के समर्थन में रहे हैं और खालिदा जिया के प्रधानमंत्री रहते समय मंत्रिमंडल में जमात के मंत्री भी थे। अवामी लीग के समर्थन में इस्लामी पार्टियां रही हैं, जैसे अपेक्षाकृत उदार सूफी इस्लाम धारा से जुड़ी बांग्लादेश तरीकत फेडरेशन और जाकिर पार्टी।

पिछले कुछ वर्षों में मुख्य कट्टर इस्लामी पार्टी जमात-ए-इस्लामी की ताकत काफी कम हुई है क्योंकि उसके कई शीर्ष नेताओं को युद्ध अपराध ट्रिब्यूनल ने अपराधी करार दिया है। उनमें से कुछ को फांसी दे दी गई है और कुछ उम्रकैद काट रहे हैं। लेकिन पार्टी का सांगठनिक ढांचा बेशक चरमरा रहा हो, जमीन पर उसके सदस्यों की ताकत जस की तस है और कट्टरपंथी इस्लाम की विचारधारा देश की बड़ी आबादी को आकर्षित करती रही है। निस्संदेह इस जमीनी हकीकत को महसूस करके ही शेख हसीना ने दूसरे कट्टर इस्लामी गुट हिफाजत से नजदीकी बढ़ाईं और आने वाले आम चुनावों में उसका समर्थन हासिल किया।

युद्ध अपराधों की लगातार सुनवाई कराकर और न्यायिक फैसलों के जरिये साहसिक फैसले लेकर जमात के टुकड़े करने का पूरा श्रेय हसीना को मिलना चाहिए, लेकिन हिफाजत को रिझाने वाली उनकी हरकतें इस बात की स्वीकारोक्ति हैं कि लगातार दो बार प्रधानमंत्री रहने के बाद भी वह बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतों को काबू नहीं कर सकीं। पिछले कुछ साल में ढाका की सड़कों पर हिजाब ओढ़े महिलाओं की; दाढ़ी बढ़ाए, टखने से ऊंचे पायजामे पहने पुरुषों की बढ़ती संख्या और अबोध मन को दूषित करने के लिए पाठ्यपुस्तकों में की जा रही तब्दीली - जिसमें गैर मुस्लिम लेखकों की किताबें हटना शामिल है - कट्टरपंथी इस्लामी विचारों के बढ़ते प्रभाव का स्पष्ट सबूत हैं। ये कट्टरपंथी विचार समन्वय वाली संस्कृति के उस विचार को खत्म करना चाहते हैं, जो 1971 के मुक्ति संग्राम की ताकत था। 2015-16 में उदारवादी ब्लॉगरों पर एक के बाद एक हुए हमले और मई, 2016 में कॉफीघर पर हुआ कायराना हमला इस बात का सबूत है कि पैठ बढ़ाता यह इस्लामीकरण सच्चे धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश के लिए कितना बड़ा खतरा है। इससे भी बुरी बात यह है कि लड़ाकू इस्लामी विचारधारा समाज के उच्च वर्ग में भी पैठ बढ़ा रही है, जो होली बेकरी के हमलावरों की पृष्ठभूमि जांचने से पता चला।

शेख हसीना को शायद अपनी धर्मनिरपेक्ष पहचान खोने और 1971 के युद्ध अपराधियों पर कार्यवाही करके हासिल हुई प्रशंसा गंवाने का खतरा महसूस हुआ, इसीलिए उन्होंने सफाई देने की कोशिश की है कि हिफाजत इस्लामी गुट होने के बाद भी जमात से अलग है। 26 अक्टूबर को अपने आवास पर पार्टी नेताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने सलाह दी कि जमात और हिफाजत को एक जैसा नहीं माना जाए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जमात राष्ट्रविरोधी ताकत है, जो बांग्लादेश की मुक्ति के खिलाफ थी, लेकिन हिफाजत खुद को देश के साथ मानती थी। लेकिन उनकी इस बात में यह तथ्य दब गया कि 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान हिफाजत का वजूद ही नहीं था और इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया गया कि दोनों गुट इस्लामी धर्मसत्ता का समर्थन करते हैं और दूसरे धर्मों की निंदा करते हुए उनके प्रति असहिष्णु रवैया रखते हैं। विडंबना है कि मई, 2013 में ही हिफाजत ने ढाका में डेरा डाल दिया था और शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग को चुनौती दी थी। उस समय हसीना ने हिफाजत के की 13 मांगें नकार दी थीं, जिनमें ईशनिंदा विरोधी कानून बनाना, महिलाओं के अधिकार कम करना और ऐसे कई दकियानूसी प्रस्ताव शामिल थे। हिफाजत के नेता मध्य ढाका में इस धर्मसभा में भड़काऊ भाषण दे रहे थे और उन सभी को हटाने के लिए सुरक्षा एजेंसियों को बल प्रयोग करना पड़ा था। उसके बाद से इस गुट ने सार्वजनिक रूप से अपनी एक भी मांग वापस नहीं ली है और शेख हसीना ने उनमें से कुछ मांगें मान ली हैं जैसे कौमी मदरसा की डिग्रियों को मान्यता देना और हाल ही में सार्वजनिक संवाद में हिफाजत को अच्छा दिखानेे का प्रयास करना। हालांकि अवामी लीग के समर्थक मौजूदा रुख को आम चुनावों से पहले राजनीतिक रूप से फायदेमंद बताते हैं क्योंकि इन चुनावों में शेख हसीना लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करेंगी। लेकिन तटस्थ पर्यवेक्षकों के लिए यह अवामी लीग के बुनियादी मूल्यों से हटने वाला वैचारिक परिवर्तन है।

राजनीतिक बाध्यता हो या विचारधारा का बदलाव, अवामी लीग पर अपनी धर्मनिरपेक्ष पहचान बनाए रखने और कट्टरपंथी इस्लामी तत्वों को लुभाने के फेर में पिस जाने का खतरा तो मंडरा ही रहा है। यह तो पता नहीं है कि शेख हसीना की रणनीति का चुनाव परिणाम पर क्या असर होगा, लेकिन यह निश्चित है कि कट्टरपंथी इस्लामी गुटों को दुलार देने से क्षेत्र में इस्लामी आतंकवाद बढ़ने का खतरा पैदा होता है। भारत के लिए यह खास तौर पर चिंता की बात है क्योंकि अवामी लीग को बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथ के खिलाफ इकलौती बड़ी राजनीतिक ताकत माना जाता है। इसलिए यह दुर्भाग्य ही है कि नरम और अधिक सहिष्णु इस्लाम की बात कहने वाले गुटों को बढ़ावा देने के बजाय सत्तारूढ़ पार्टी कट्टरपंथी हिफाजत को खुश करने में लगी है।

दुनिया भर में इतिहास गवाह है कि ऐसे कट्टर दक्षिणपंथी गुटों पर नियंत्रण करना या उनका नजरिया बदलना लगभग नामुमकिन है; और इसीलिए यह शेख हसीना का यह उम्मीद करना जगते हुए सपने देखने से अधिक नहीं है कि चुनाव के बाद वह हिफाजत पर लगाम कस लेंगी। कट्टरपंथी गुटों के साथ किसी भी तरह का समझौता इस क्षेत्र में बांग्लादेश की सीमाओं से भी परे सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है। पश्चिम एशिया में आईएसआईएस की हार और वहां से उसे भगाए जाने के बाद यह खतरा और भी बढ़ जाता है।

(लेखक, भारत सरकार के कैबिनेट सविचवालय में विशेष सचिव रह चुके हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: https://media.dhakatribune.com/uploads/2017/02/Hefazat-1.jpg

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