क्षेत्रीय पार्टियों और गठबंधन की राजनीति का उदय तथा इसके खतरे
RNP Singh

भारत में बहुदलीय व्यवस्था है। अनुमान है कि आजादी के बाद से भारत में 2100 से अधिक पंजीकृत राजनीतिक पार्टियां हुई हैं। इस समय केंद्र और राज्य दोनों की राजनीति में केवल छह राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां और 30 क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां सक्रिय हैं। कांग्रेस पार्टी के वर्चस्व के कारण पहले क्षेत्रीय पार्टियां केंद्र में बड़ी भूमिका नहीं निभा पाती थीं। लेकिन बाद में क्षेत्रीय पार्टियों के उभार ने भारत में ‘एक पार्टी के प्रभुत्व की प्रणाली’ के सामने सबसे मजबूत चुनौती खड़ी की है। 1967 से क्षेत्रीय पार्टियों का राजनीतिक आकर्षण बढ़ा है और अधिकतर राज्यों की राजनीति उनके हाथ में रही है। वे बड़ी ताकत बनकर उभरीं और केंद्र में सरकारों के गठन में उन्होंने अहम भूमिका निभाई।

भारतीय समाज के भीतर ढेरों जातीय, सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक एवं जातीय समूहों का होना ही क्षेत्रीय पार्टियों के जन्म एवं विकास का कारण है। हालांकि क्षेत्रीय पार्टियां छोटे से इलाकों में ही काम करती हैं और उनके उद्देश्य भी बहुत सीमित होते हैं, लेकिन केंद्र तथा राज्य दोनों की राजनीति में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की हैं। इन पार्टियों ने कई राज्यों में सरकारें बनाई हैं और अपनी नीतियां तथा कार्यक्रम लागू करने का प्रयास किया है। कुछ क्षेत्रीय पार्टियां केंद्र में गठबंधन की सरकार में साझेदार भी रही हैं। आंध्र प्रदेश की क्षेत्रीय पार्टी तेलुगुदेशम आठवें लोकसभा चुनावों (1984) में मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी थी।

इस समय कोई भी एक पार्टी केंद्र में सरकार बनाने में सक्षम नहीं है। इससे पता चलता है कि एक पार्टी के शासन का युग खत्म हो गया है और बहुदलीय गठबंधनों का नया दौर शुरू हो गया है। क्षेत्रीय पार्टियों ने भारत में केंद्र-राज्य संबंधों पर गहरा प्रभाव डाला है। अब वे अपने-अपने क्षेत्रीय हितों के साथ भारत की एकता और अखंडता की बात को मजबूती से उठाती हैं। उन्होंने सुदूर क्षेत्रों के लोगों का ध्यान भी विभिन्न राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों की ओर खींचा है तथा राजनीतिक जागरूकता लाने में योगदान किया है।

वे दिन गुजर गए, जब क्षेत्रवाद को राष्ट्रवाद या राष्ट्र निर्माण के लिहाज से नकारात्मक माना जाता था। क्षेत्रीय पार्टियों ने राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में नया आयाम जोड़ा है। क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों की सकारात्मक भूमिका के कारण क्षेत्रवाद की आक्रामकता खत्म हो गई है। क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने केंद्र सरकार के गठन में भी सक्रिय तथा निर्णायक भूमिका निभानी आरंभ कर दी है। 1996 के बाद से 23 क्षेत्रीय पार्टियों ने राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में साझेदारी की है। उनका नजरिया अब टकराव भरा नहीं रह गया है बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों में उन्होंने सहयोग भरा मोलभाव शुरू कर दिया है।

इसके अलावा गठबंधन की राजनीति के नए दौर में क्षेत्रीय पार्टियां भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में सक्रिय प्रतिभागी बनकर उभरी हैं। 1996 के बाद से भारतीय राजनीति में जिस तरह गठबंधन की राजनीति हकीकत बनकर उभरी है, उससे यह पता चला है कि भारतीय राजनीति में अपनी भूमिका तथा स्थिति मजबूत करने के लिए राष्ट्रीय पार्टियों को क्षेत्रीय पार्टियों से हाथ मिलाने ही पड़ेंगे। 2004 और 2009 में क्षेत्रीय पार्टियों के सहयेाग से केंद्र में गठबंधन सरकार बनाने के बाद कांग्रेस ने भी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन की आवश्यकता को समझ लिया और मान लिया है।

गठबंधन सरकार का अर्थ है साझी समझ अथवा एजेंडा के आधार पर एक से अधिक राजनीतिक पार्टियों या समूहों का एक साथ आना। गठबंधन सरकारों में एक ढांचा होता है, जिसमें सभी पार्टियां कार्य करती हैं। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि आम चुनावों के बाद किसी भी एक पार्टी को निर्णायक वोट नहीं मिल पाता है। आजादी के बाद पहली गठबंधन सरकार केरल राज्य में बनी थी। केंद्र में पहली गैर कांग्रेस सरकार 1977 में बनी थी। यह गठबंधन गैर-कांग्रेस पार्टी तथा इंदिरा गांधी की पार्टी कांग्रेस (आई) के खिलाफ खड़ी ताकतों के एकजुट होने से बना था।

गठबंधन सरकारों में कुछ बड़ी खामियां होती हैं। बड़ी समस्याएं सुलझाने में इसे दिक्कत होती है क्योंकि बड़ी समस्याओं के लिए विभिन्न गठबंधन साझेदारों की सहमति और समर्थन की दरकार होती है। इसके अलावा विभिन्न पार्टियों के नेता और आलोचक सरकार तथा प्रशासन के रोजमर्रा के काम पर आपत्तियां जताते हैं और दिक्कतें खड़ी करते हैं। वे अक्सर निर्णय लेने और उसे लागू करने की प्रक्रिया का विरोध करते हैं और उसमें रुकावट डालते हैं। परिणामस्वरूप सरकार के लिए ठीक से काम करना मुश्किल हो जाता है। गठबंधन की राजनीति में राष्ट्रीय, राज्य तथा स्थानीय स्तर पर सामंजस्य बिठाना पड़ता है क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था की ताकत बरकरार रखने के लिए स्थिरता तथा प्रशासन दोनों महत्वपूर्ण हैं।

क्षेत्रीय पार्टियों और गठबंधन की राजनीति के आने के बाद केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव आया है। संविधान लागू होने के समय से ही संबंध इसलिए मधुर थे क्योंकि केंद्र तथा राज्यों में एक ही राजनीतिक पार्टी का वर्चस्व था। लेकिन 1967 के बाद से ही संविधान के संघीय व्यवस्था से संबंधित विभिन्न अनुच्छेदों की व्याख्या ने और इन क्षेत्रों में उन पर विभिन्न कारकों तथा पार्टियों के नजरियों ने केंद्र-राज्य संबंधों में समस्या पैदा की हैं।

सबसे गंभीर समस्या यह है कि केंद्र तथा राज्य में जिन पार्टियों की सरकार नहीं होतीं, उन्होंने विभिन्न सम्मेलनों तथा प्रस्तावों के जरिये केंद्र-राज्य संबंधों में परिवर्तन की मांग उठाई है। जिस तरह से वे परिवर्तन चाहती हैं, उससे तो संघवाद का सिद्धांत ही खत्म हो जाएगा। केंद्र-राज्य संबंधों में वित्तीय समस्याओं पर सबसे अधिक ध्यान रहता है। भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय पार्टियों का प्रभाव घट रहा है और वे हाशिये पर जा रही हैं क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत हो रही हैं। भारतीय समाज में बढ़ता क्षेत्रीय तनाव इस देश की राजनीतिक संस्कृति में सबसे स्पष्ट दिख रही घटनाओं में से एक है।

दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय सुरक्षा का क्षेत्र भी केंद्र-राज्य संबंधों की बहस में फंस गया है। इसीलिए आतंकवाद, नरक्सलवाद और बढ़ती हिंसा जैसी गंभीर समस्याओं पर नियंत्रण से संबंधित कानून भी ऐसी बहसों में अटक गए हैं। 26 नवंबर, 2008 के मुंबई हमले के बाद भारत सरकार ने ऐसे अपराधों की समुचित जांच और गोपनीय सूचनाओं के एकीकरण तथा मिलान के लिए दो सुरक्षा एजेंसियों राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) और राष्ट्रीय अपराध निरोधक केंद्र (एनसीटीसी) के नाम सामने रखे। काफी आपत्तियों और बहस के बाद एनआईए पर तो रजामंदी हो गई, लेकिन एनसीटीसी का गठन नहीं हो सका क्योंकि इसी बात पर बहस होती रही कि कानून-व्यवस्था राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती है। सांसदों और राज्यों को समझना चाहिए कि सुरक्षा के मौजूदा वातावरण में भारत सरकार के सामने भारी चुनौतियां हैं और देश की सुरक्षा का ध्यान रखना सचमुच बहुत बड़ा काम है।

सुरक्षा की समस्याएं राज्य सरकारों की पहुंच से बाहर चली गई हैं। इसीलिए केंद्र तथा राज्यों को तालमेल के साथ काम करने की जरूरत है। दुर्भाग्य से शक्तियों का संवैधानिक विभाजन दोनों को आंतरिक एवं राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे सबसे महत्वपूर्ण मसलों को साथ मिलकर सुलझाने से रोकता है।

(लेख में संस्था का दृष्टिकोण होना आवश्यक नहीं है। लेखक प्रमाणित करता है कि लेख/पत्र की सामग्री वास्तविक, अप्रकाशित है और इसे प्रकाशन/वेब प्रकाशन के लिए कहीं नहीं दिया गया है और इसमें दिए गए तथ्यों तथा आंकड़ों के आवश्यकतानुसार संदर्भ दिए गए हैं, जो सही प्रतीत होते हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
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