भाजपा कैसे जीती... और कांग्रेस कैसे हारी
Rajesh Singh

कांग्रेस के जिन गलियारों में निराशा के जाले और हार की सीलन मजबूत ये मजबूत इरादे वालों को भी उलटे पांव लौटा सकती है, और जहां उम्मीद भी हार की कहानी कहती है, वहां ताजी हवा का झोंका आया है। वह झोंका गुलाब के बगीचों की याद तो नहीं दिलाता है, लेकिन वह इस बात का भरोसा दिलाने के लिए काफी है कि इस बड़ी और नामी पार्टी के लिए सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। अभी तक तो ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है, जिससे पता चले कि कांग्रेस का चुनावी भाग्य बदलने वाला है - बल्कि आने वाले कुछ महीनों में तो बदतर ही रहने वाला है - लेकिन छोटे-मोटे दिलासों से खुश होने और कुछ बड़ा हाथ लगने की उम्मीद करना गलत भी तो नहीं है।

वह ताजी हवा, वह छोटा सा दिलासा, अच्छे प्रचार के रूप में आया है, जो कांग्रेस के उपाध्यक्ष और लंबे समय से अध्यक्ष बनने की प्रतीक्षा कर रहे राहुल गांधी को उनके हाल के अमेरिकी दौरे पर हासिल हुआ। बेशक अमेरिका के राष्ट्रपति से उनकी मुलाकात नहीं हुई, लेकिन उन्होंने दूसरों से बातचीत की और अच्छे नतीजहे भी दिखे। मीडिया का एक तबका उतना ही खुश हुआ है, जितने (दुर्गति के आदी हो चुके) कांग्रेसी मानो नेहरू-गांधी परिवार के इस कोहिनूर के बारे में उसका आकलन एकदम सही साबित हो गया है। बड़ी-बड़ी खबरें लिखकर बताया गया कि राहुल गांधी ने किस तरह अपने ‘ईमानदारी भरे और दोटूक’ जवाबों के जरिये - शायद साफगोई से यह स्वीकार कर कि भारत में खानदान की ताकत ही चलती है, चाहे राजनीति हो, कारोबार हो या मनोरंजन हो - अमेरिका के श्रोताओं पर जादू कर दिया। इतने से सब्र नहीं हुआ तो उन्होंने ‘असहिष्णुता’ को बढ़ावा देने और ‘असंतोष’ को दबाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार को आड़े हाथों भी लिया।

बंधकर बैठने वाले श्रोताओं - देश में तो अक्सर उन्हें रूखे से श्रोता मिलते हैं, जो उनकी समझदारी भरी बातों पर संदेह करते हैं और अंत में उन्हें बेकार या भ्रमित मानकर खारिज कर देते हैं - को पाकर कांग्रेस नेता का उत्साह इतना बढ़ गया कि वह मुश्किल में फंस गए। उदाहरण के लिए पर्याप्त रोजगार सृजित नहीं कर पाने के लिए मोदी सरकार को लताड़ते समय उन्होंने यह भी जाहिर होने दिया कि कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग को भी इसी भूल के कारण सत्ता से बेदखल कर दिया गया था। उन्हें अहसास भी नहीं हुआ कि इस स्वीकारोक्ति के साथ ही उन्होंने अपनी ही पार्टी के नेताओं के दावों की हवा निकाल दी, जो किसी भी मौके पर यह बताने से नहीं चूक रहे थे कि उनकी पार्टी ने कितने अधिक रोजगार का सृजन किया था। उसके बाद राहुल ने आजादी के आंदोलन के कई प्रमुख नेताओं को प्रवासी भारतीय (एनआरआई) बता डाला।

लेकिन विरोधाभास और चूक को फिलहाल छोड़ देते हैं। कांग्रेस इस बात से खुश हो सकती है - और कौन कहता है कि खुशी बुरी बात होती है, हालांकि खुश होने का अधिकार अभी तक हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों वाले हिस्से में दिए गए ‘जीवन जीने के अधिकार’ की लगातार बढ़ती परिभाषा में अलग से शामिल नहीं किया गया है - कि आखिरकार और 2014 में पार्टी की करारी हार के बाद तीन वर्ष से भी अधिक समय में शायद पहली बार राहुल गांधी के बारे में कुछ सकारात्मक लिखा गया है। इससे पहले की उनकी विदेश यात्राएं या तो गोपनीय होती थीं या इतनी महत्वहीन होती थीं कि उनके बारे में कुछ लिखा ही नहीं जाता था। हालांकि अमेरिका घर से दूर है और बर्कले विश्वविद्यालय के जिन युवाओं को भारतीय खानदानों की सत्ता (उसे लगभग स्वीकार्यता प्रदान करते हुए) के बारे में बताया गया, वे 2019 के लोकसभा चुनावों में वोट नहीं डालने जा रहे और न ही इसी वर्ष होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनावों में वोट देने जा रहे हैं। जैसा कि सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में कहा गयाः राहुल गांधी ने बर्कले को प्रभावित कर लिया होगा, लेकिन बीकानेर का क्या!

असली चुनौती यहीं पर है। बर्कले जैसे कार्यक्रमों से मीडिया की सहानुभूति या दुलार मिल सकता है; विदेश में प्रवासी भारतीयों को संबोधित करने से उनकी पार्टी को कुछ रकम मिल सकती है। लेकिन वोट तो इसी देश की जनता से मिलने हैं। क्या यह लक्ष्य हासिल करने के लिए कांग्रेस के पास कोई रणनीति है? घर में - पूरे देश में और हाल में उत्तर प्रदेश में - हुए नुकसान की भरपाई करने के लि बर्कले के कार्यक्रम से कुछ अधिक चाहिए होगा। हम आगामी चुनावों में मिलने वाली संभावित हार की तो बात ही नहीं कर रहे हैं। पार्टी में कई लोग 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए हथियार डाल चुके हैं या डाल चुके दिख रहे हैं।

जीत की राह पर लौटने के लिए सबसे पहले कांग्रेस को समझना पड़ेगा कि वह हारती क्यों आ रही है और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जीतती कैसे आ रही है। कहने का मतलब यह नहीं है कि हारने वाली पार्टी ने कोशिश नहीं की है, शायद उसने की है, लेकिन या तो उसका चिंतन उथला रहा है या चिंतन के दौरान सामने आए सबक सीखे नहीं गए हैं। कांग्रेस के नेताओं को उस पर ध्यान देना चाहिए, जो भाजपा की उत्थान भरी यात्रा (और साथ ही कांग्रेस की लुढ़कन) पर प्रकाश डाल सकें। उन्हें ‘दक्षिणपंथियों’ से सीखने की और मीडिया के भीतर तथा बाहर दक्षिणपंथियों के समर्थकों की जरूरत नहीं है। ‘तटस्थ’ समझदार स्वर भी हैं, जो इतने विश्वसनीय हैं कि उनके गंभीरता से सुना जाए और इतने संतुलित हैं उनका सम्मान किया जाए। हो सकता है कि वे कांग्रेस के समर्थक नहीं हों, लेकिन वे भाजपा के समर्थक भी नहीं हैं। वास्तव में वे दोनों के ही प्रति निर्मम हैं और उन्हें श्रेय देने में भी नहीं चूकते। हाल में ऐसी ही एक पड़ताल ‘हाउ द बीजेपी विन्सः इनसाइड इंडियाज ग्रेटेस्ट इलेक्शन मशीन’ नाम की पुस्तक के रूप में आई है, जिसे तटस्थ स्वर वाले लेखक तथा पत्रकार प्रशांत झा ने लिखा है।

पहली नजर में शीर्षक कांग्रेस वालों (पार्टी नेताओं और उनमें भरोसा करने वालों) को मायूस कर सकता है और हो सकता है कि वे पुस्तक को हाथ भी नहीं लगाएं। वे उसमें भाजपा की विजय यात्रा का प्रशस्ति गान होने की अपेक्षा भी कर सकते हैं। इसके अलावा हो सकता है कि वे दंभ के कारण भी उसे नहीं पढ़ना चाहें - दंभ क्योंकि उन्हें भरोसा है कि भाजपा की जीत का कारण सभी जानते हैं - सांप्रदायिकता की राजनीति। यदि वास्तव में ऐसा ही है तो कांग्रेस कुछ भी सीखने के लिए तैयार नहीं है। यदि कांग्रेस के नेता कुछ समय के लिए पूर्वग्रह छोड़ दें तो इस पुस्तक में उन्हें काम का बहुत कुछ मिल जाएगा। जिन्होंने इसे पढ़ा है, वे इस बात पर सहमत होंगे। प्रशांत झा की पुस्तक सत्तारूढ़ पार्टी के गुणगान से नहीं भरी है। वास्तव में भाजपा के समर्थकों को धक्का लग सकता है या वे लेखक के विश्लेषण से नाराज भी हो सकते हैं क्योंकि पुस्तक में जीतने वाली पार्टी के लिए भी खरी-खोटी लिखी गई हैं, जिन्हें अनदेखा करना आगे जाकर भारी पड़ेगा। झा ने भाजपा के कुछ तरीकों की तीखी आलोचना की है, लेकिन पार्टी को उसकी रणनीतियों का तथा तकनीक का इस्तेमाल कर जीत का मंत्र हासिल करने का श्रेय देने में भी उन्होंने कोताही नहीं बरती है। ऐसा करते समय झा ने बहुत स्पष्ट शब्दों में चाहे न की हो, लेकिन कांग्रेस की नाकामियों की बात की है। यह नपी-तुली पुस्तक है, लेकिन इसमें बारीक विश्लेषण की कमी नहीं है। झा की बड़ी ताकत यह है कि जमीनी रिपोर्टिंग के कारण उन्हें भारतीय राजनीति की सीधी समझ है। हाउ द बीजेपी विन्स में अधिकतर बात इसी वर्ष हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की है, लेकिन यह ठीक ही है क्योंकि भाजपा ने 2014 में और उसके बाद से देश भर के चुनावी संग्रामों में आजमाए जा रहे अपने हरेक राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल इस राज्य में भी किया है। पुस्तक रिपोर्टिंग की शैली में लिखी गई है और कथ्य को बेहतर बनाने तथा लेखक के निष्कर्ष को सही साबित करने के लिए कई किस्से भी शामिल किए गए हैं।

झा मानते हैं कि इस लड़ाई में भाजपा का पलड़ा दो कारणों से भारी हो गयाः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्यक्तिगत आकर्षण और विश्वसनीयता तथा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की बूथ स्तर तक तैयार की गई चुनावी रणनीति एवं मोबाइल फोन पर मिस्ड कॉल के जरिये चलाया गया भारी-भरकम सदस्यता अभियान। पुस्तक में कुछ शुरुआती अध्याय देश भर में फैले मोदी (और भाजपा) समर्थकों की सेना को खुश कर देंगे और हो सकता है कि सबसे पहला अध्याय ‘द मोदी हवा’ पढ़कर वे वाह-वाह करने लगें। लेखक अपनी बात ऐसे कथन से शुरू करते हैं, जिससे प्रधानमंत्री के विरोधी भी शायद ही असहमत हों: “भारतीय जनता पार्टी ने नहीं, राज्य के नेताओं ने नहीं, उम्मीदवारों ने नहीं और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी नहीं। उत्तर प्रदेश में भाजपा को केवल और केवल एक व्यक्ति ने जिताया - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी।” लेकिन ऐसा कैसे हुआ कि तीन वर्ष से कमान संभाल रहे किसी राजनेता को सत्ताविरोधी लहर का सामना तो बिल्कुल नहीं करना पड़ता है उलटे वह पहले से ज्यादा ताकतवर हो जाता है? झा कहते हैं, “सत्ता के कारण आत्मसंतुष्टि या लापरवाही आने और आगे की संभावनाएं कम होने के बजाय मोदी की लोकप्रियता में वृद्धि ही हुई है।” पुस्तक में एकदम सही कहा गया है कि लोकप्रियता बरकरार रहने के पीछे सबसे प्रमुख कारण लोगों का वह “भरोसा” है, जो प्रधानमंत्री में बना हुआ है। झा कहते हैं कि उस भरोसे के पीछे “सतर्कता के साथ बनाई गई छवि, एक नई छवि” है, जिसमें मोदी हिंदू नेता से विकास पुरुष (गुजरात का मॉडल उदाहरण है) बन गए और अब वंचितों के मसीहा (विभिन्न सामाजिक योजनाएं तथा नोटबंदी) बनते जा रहे हैं। लेखक उत्तर प्रदेश से किस्से सुनाते हैं, जहां तमाम तकलीफें झेलने के बाद भी लोग नोटबंदी की प्रशंसा कर रहे थे, मोदी के इस तर्क को स्वीकार कर रहे थे कि काले धन पर चोट करने के लिए और गरीबों को वह सम्मान देने के लिए, जिसके वे हकदार हैं, ऐसा करना जरूरी था। इस प्रकार एक आर्थिक निर्णय को राष्ट्रीय सम्मान बना दिया गया। लेखक ने मिर्जापुर में एक दुकानदार की बात बताई, जो कह रहा था, “मुझे लगता है कि यह बहुत अच्छा कदम है। अगर हमारे जवान सीमा पर अपनी जान जोखिम में डालते हैं और चौबीसों घंटे हमारी हिफाजत करते हैं तो क्या राष्ट्रहित में हम कुछ घंटों के लिए कतार में भी नहीं लग सकते?”

‘शाहज संगठन’ नाम के अध्याय में झा ने दूसरे कारक - पार्टी प्रमुख अमित शाह की रणनीतियों - की विस्तार से चर्चा की है। यहां भी लेखक की जमीनी मुद्दों की समझ, विभिन्न पार्टी नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के साथ उनकी बातचीत से प्रधानमंत्री के सबसे करीबी सहयोगी बनकर उभर रहे शाह का निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने में मदद मिली। अपने मार्गदर्शक जितने ही सख्त तथा निर्णायक शाह ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने और उन लोगों पर भरोसा करने में देर नहीं लगाई, जिन्हें कोई जिम्मेदारी सौंपी गई थी। लेखक सुनील बंसल की एक घटना सुनाते हैं, जिन्हें विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में पार्टी पदाधिकारियों की बैठक में उन्हें लाया गया था। शाह ने वहां मौजूद लोगों से कहा, “वह (बंसल) चुनाव प्रबंधन देखेंगे। और वह कुछ भी कहें तो मान लीजिए कि मैं कह रहा हूं।” लेखक बताते हैं कि भाजपा की उत्तर प्रदेश की रणनीति के केंद्र में एक कड़वी सच्चाई थी, जिसे पहचानने और ठीक करने में शाह को देर नहीं लगी। “शाह समझ गए कि पार्टी का गणित पूरी तरह गलत था। मुसलमान पार्टी को वोट नहीं देंगे। यादव सपा के प्रति वफादार रहेंगे। दलित समुदायों में जाटव मायावती के धुर समर्थक थे... भाजपा बाकी 55-60 प्रतिशत में ही कुछ कर सकती थी... उन्होंने ऊंची जातियों को इकट्ठा करने तथा पिछड़ों एवं दलितों के बीच पांव पसारने पर ध्यान केंद्रित किया।” इस प्रकार इन सभी ने मिलकर ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के लिए जमीन तैयार कर दी, जिससे पार्टी को अप्रत्याशित लाभ मिला और जिस पर झा ने एक अन्य अध्याय में विस्तार से चर्चा की है।

भाजपा तथा उसके समर्थकों और उसकी ओर झुकाव रखने वाले पाठकों के लिए अभी तक तो सब अच्छा है। लेकिन अब झा पलटते हैं और पार्टी के सामने हकीकत रखने का फैसला करते हैं। ‘द एच-एम चुनाव’ नाम के अध्याय में उत्तर प्रदेश चुनावों के दौरान हुए धार्मिक ध्रुवीकरण का विवादित मसला है। लेखक बिना लागलपेट के कहते हैं कि भाजपा और उसके वरिष्ठ नेताओं ने मुकाबले को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास किया, लेकिन वह स्वीकार भी करते हैं कि देश के कई राज्यों में चुनाव जीतने के लिए एक सीमा तक ध्रुवीकरण करना भाजपा के लिए जरूरी है। वह कहते हैं, “इन सभी राज्यों में मुस्लिमों की आबादी में 20 प्रतिशत या अधिक हिस्सेदारी है। और पार्टी -20 प्रतिशत नुकसान के साथ शुरुआत करती है क्योंकि न तो मुस्लिम पार्टी को वोट देते हैं और न ही पार्टी को उनके वोटों में दिलचस्पी होती है। चुनावी मैदान में बचे बाकी मतदाताओं को एकजुट करने के लिए उसे हिंदू जातियों के प्रति झुकाव रखना पड़ेगा...” झा इस विषय को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “इसके लिए भाजपा और उसके वैचारिक सहयोगियों ने सबसे आधुनिक लेकिन सबसे भद्दे प्रचार का सहारा लिया - आधुनिक इसलिए क्योंकि नए तरीके थे और तकनीक का इस्तेमाल था, भद्दा इसलिए क्योंकि संदेश पहुंचाने का तरीका ही ऐसा था और सफेद झूठ का भी सहारा लिया गया था। मुस्लिम विरोधी दंगों और हिंसा में उनकी सक्रिय मिलीभगत रही है और उस समय उत्पन्न हुए गुस्से और बेचैनी का फायदा भी उन्हें मिला है।” लेखक मानते हैं कि ऐसी रणनीति “हिंदू समाज को एकजुट करने के व्यापक वैचारिक लक्ष्य” की दिशा में काम करती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत में हिंदू वोटों की लामबंदी ने बहुत अहम भूमिका निभाई थी। यह भी सच है कि पार्टी ने मुस्लिम विरोधी भावना को भी एक हद तक हवा दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा नेताओं ने ऐसे नारे गढ़े, जिन पर सवाल उठाए जा सकते हैं। और इस प्रकार ऐसी धारणा बनाई गई, जिससे पार्टी को मदद मिली। यहां लेखक शायद यह भूल गए हैं कि धारणाएं महत्वपूर्ण तो होती हैं, लेकिन यदि जमीनी स्तर पर वे सही नहीं होती हैं तो उनका बहुत सीमित असर होता है। पिछली सरकारें अल्पसंख्यकों (यानी मुसलमानों) के तुष्टिकरण में लगी थीं और उसके कारण बहुसंख्यक समुदाय में नाराजगी थी, जो ठीक भी थी। मुस्लिम त्योहारों के दौरान बिजली आने और हिंदू त्योहारों के दौरान नहीं आने के आरोप में कुछ सच्चाई तो रही ही होगी वरना ऐसा कहा ही क्यों जाता। मुजफ्फरनगर की घटना में कई भाजपा नेताओं ने सांप्रदायिक भाषा का प्रयोग किया, लेकिन यह मान लेना भोलापन ही कहलाएगा कि पार्टी केवल उसी की वजह से जीत गईः तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा पक्षपाती रवैया अपनाए जाने के उदाहरण भी मौजूद हैं, जिनके कारण बहुसंख्यक वर्ग भड़क गया।

यदि भाजपा इतनी आक्रामक नहीं होती तो क्या मुस्लिम उसके पाले में आ गए होते? झा लिखते हैं कि देवबंद में एक मौलाना ने कहा, “वे (भाजपा) हमें समस्या की तरह दिखाना चाहते हैं ओर बाकी सभी को एकजुट करना चाहते हैं। फिर बातचीत ही कैसे हो सकती है?” यह गंभीर तर्क है, लेकिन ऐसा ही अल्पसंख्यक समुदाय के लिए भी कहा जा सकता हैः ‘मुसलमान भाजपा को समस्या की तरह दिखाना चाहते हैं। ऐसे में बातचीत कैसे हो सकती है?’ साफ है कि मामला एकतरफा नहीं है। दोनों पक्षों की शिकायतें हैं। साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यदि भाजपा जाति की दीवारें तोड़कर पूरे हिंदू समुदाय को आक्रामक तरीके से लुभा रही थी तो दूसरी पार्टियां भी उतने ही जोर से अल्पसंख्यक वोटों के पीछे पड़ी थीं। झा के तर्क में एक तरह का डर है कि भाजपा “हिंदू शासन” थोपने की कोशिश कर रही है, लेकिन उनकी यह धारणा बेबुनियाद नहीं है कि पार्टी “हिंदू एकता” की दिशा में काम कर रही है। हिंदू शासन की बात शायद पार्टी के मुस्लिम विरोधी रुख के कारण हिंदू वोटों को एकजुट करने में उसकी सफलता के कारण आई है और इस कारण भी क्योंकि उसने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया। लेकिन झा खुद ही एकदम सही तरीके से रणनीति बता चुके हैं: मुस्लिम और यादव वोट मिलने नहीं थे और जाटवों के ज्यादातर वोट मायावती की झोली में थे तो भाजपा के पास हिंदू समुदाय के ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल करने करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। हिंदू एकता का मतलब हिंदू शासन नहीं होता।

फिर भी झा ने चिंताएं सटीक तरीके से सामने रखी हैं। भाजपा कहती रही है कि वह मुस्लिम विरोधी नहीं है, लेकिन इस बात को विश्वसनीय बनाने के लिए बहुत कुछ करना होगा। साथ ही सांप्रदायिक दांव चलने के खतरे - और यह बात सभी पार्टियों पर लागू होती है - भी स्पष्ट हैं: सामाजिक विभाजन, हिंसा, जान-माल की क्षति ही इसके नतीजे होते हैं। चूंकि भाजपा अब सबसे आगे है, इसलिए उसने अपनी कथनी और करनी एक जैसी रखनी चाहिए।

इस बीच अगर कांग्रेस 2019 तक खुद को नहीं संभाल पाती है तो झा एक और पुस्तक लिखने के बारे में सोच सकते हैं, जिसका शीर्षक होगा, “हाउ द कांग्रेस लूजेस”।

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और सार्वजनिक मामलों के विश्लेषक हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: http://www.deccanchronicle.com/140310/nation-politics/article/congress-wants-do-politics-new-class-70-cr-people-rahul

Post new comment

The content of this field is kept private and will not be shown publicly.
3 + 0 =
Solve this simple math problem and enter the result. E.g. for 1+3, enter 4.
Contact Us