भारत-ताइवान सम्बन्ध में एक मजबूत पहल
Dr Rishi Gupta

अगस्त महीने की 8 तारीख को भारत के तीन पूर्व सशस्त्र सेना प्रमुखों ने ताइवान के एक महत्वपूर्ण केटागालन सुरक्षा वार्तलाप में भाग लिया जिसका आयोजन ताइवान के विदेश मंत्रालय द्वारा किया गया था। ताइवान और चीन के बीच चल रहे तनाव के बीच एक उच्चस्तरीय भारतीय सुरक्षा प्रतिनिधिमंडल की ताइवान यात्रा भारतीय कूटनीति का एक महत्वपूर्ण कदम था। हालाँकि इस घटनाक्रम पर चीन ने कोई शुरुआती टिपण्णी नहीं की लेकिन 31 अगस्त को एक प्रेस वार्ता के दौरान चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि “चीन ताइवान के अधिकारियों और चीन के साथ राजनयिक संबंध रखने वाले देशों के बीच सभी प्रकार की आधिकारिक बातचीत का दृढ़ता से विरोध करता है (और) हमें उम्मीद है कि संबंधित देश ‘वन चाइना’ सिद्धांत का पालन करेगा” ।

ज्ञात है कि चीन मानता है कि ताइवान चीन का हिस्सा है और वन चाइना पालिसी के तहत अन्य देशों से भी इसे स्वीकार करने के लिए कहता रहा है। और वह देश जो ताइवान से किसी भी तरह से जुड़े हुए हैं, चीन उन सभी को धमकियाँ देता रहा है चाहे वह अमेरिका हो या भारत। हालाँकि भारत ने भी वन चाइना पालिसी को शुरुआती दशकों में प्रयोग किया था लेकिन 2008 के बाद से भारत ने चीन कि गलत नीतियों के चलते और सीमा पर उसकी आक्रामकता को देखते हुए इसका प्रयोग बंद कर दिया था । चीन ने भारत के ताइवान के साथ किसी भी तरह के संबंधों पर अपनी मनमानी वाली बहस छेड़ी हुई है जिस पर भारत का रवैया साफ़ है कि भारत किस तरह से अपनी कूटनीति करता है और किस देश से राजनयिक सम्बन्ध रखता है इस पर केवल भारत ही फैसला करेगा। ऐसे में भारत के तीन पूर्व सशस्त्र सेना प्रमुखों के ताइवान दौरे पर चीन का बयान चीन की उत्तेजित कूटनीति का बस एक पैतरा है।

ताइवान पर भारतीय सोच में बदलाव

ताइवान के सम्बन्ध में भारत की नीतियों को काफी समय तक उलझा हुआ माना जाता रहा है । हालाँकि पश्चिमी देश, प्रमुख रूप से अमरीका और खुद ताइवान भी, भारत की ताइवान नीति का एक स्पष्ट रुख़ देखना चाहेंगे । यह मुख्यता इसलिए कि यदि चीन कभी भी ताइवान पर हमला करता है और जबरन हथियाने की कोशिस करता है तो क्या भारत ताइवान के सहयोग को किसी तरह से आगे आएगा? भारत किसी भी देश पर किसी तरह के बहरी आक्रमण की निंदा करता है और शांति स्थापना कि वकालत करता रहा है वो चाहे यूक्रेन का मुद्दा हो या फिर ताइवान का । क्योंकि भारत की तरफ से ताइवान पर एक साफ़ नीति नहीं उभरी है, ऐसे में विश्व मंच पर तमाम तरह की अटकलें लगाई जाती रही हैं । ऐसे में पूर्व सशस्त्र सेना प्रमुखों का ताइवान जाना ताइवान के प्रति भारत के गंभीर दृष्टिकोण को दर्शाता है और साथ ही भारत की स्थिति में एक महत्वपूर्ण बदलाव के रूप में देखा जा सकता है।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की आज ताइवान पर गहराता अमेरिका-चीन विवाद विश्व स्तर पर और एशिया में व्यापक चिंता का कारण बन रहा है जिससे भारत भी अछूता नहीं है । भारत निश्चित रूप से जानता है कि ताइवान जलडमरूमध्य संकट के परिणामों से उसकी सुरक्षा और अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ेगा। हिमालय में चीन के साथ लंबी और विवादास्पद सीमा पर अस्थिर स्थिति को देखते हुए, दिल्ली इस बात से अवगत है कि ताइवान भी एक भारतीय आकस्मिकता है। वन चाइना नीति पर भारत के बदलते रुख और ताइवान से जुड़ने के भारत के दृष्टिकोण को अब बारीकी से देखा जा रहा है । चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद के चलते यह कहना भी गलत नहीं होगा की भारत को ताइवान के साथ संबंधों को मजबूत करने से एक सामरिक संतुलन मिलेगा । साथ ही भारत आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में ताइवान के साथ मजबूती से आगे बढ़ रहा है और मौजूदा हालातों में इस बात पर मंत्रणा कर रहा है की अगर चीन ने ताइवान पर हमला किया तो भारत के पास किस तरह के विकल्प उपलब्ध होंगे । भारत की ताइवान पर मौजूदा नीतियों से यह भी साफ़ है की भारत ताइवान मुद्दे पर एक ऐतिहासिक हिचकिचाहट से बहार निकल आया है।

क्या रही है नीति

भारत का ताइवान के साथ कोई औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं है लेकिन 1990 के दशक से नीतिगत बदलावों के चलते एक मजबूत अनौपचारिक सम्बन्ध बने । भारत सरकार ने 1991 की शुरुआत में “लुक ईस्ट” नीति शुरू की जिसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ गहरे सार्थक संबंध बनाना, आर्थिक सहयोग बढ़ाना, और क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ाना था । इससे भारत की राजनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण में मजबूती हासिल करने और सुरक्षा संदर्भ में भी फायदा पहुंचाने का प्रयास किया गया। जिसके चलते ताइवान और भारत ने एक-दूसरे से संपर्क करना शुरू किया और वीज़ा प्रतिबंधों में ढील दी।

वर्ष 1995 में दोनों देशों ने एक-दूसरे की राजधानियों में प्रतिनिधि कार्यालय स्थापित किये । भारत की राजधानी दिल्ली में ताइपे आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र (टीईसीसी) की स्थापना हुई और ताइवान की राजधानी ताइपे में भारत-ताइपे एसोसिएशन (आईटीए) स्थापित हुआ। दिसंबर 2012 में टीईसीसी का एक केंद्र चेन्नई में ओर इस वर्ष जुलाई में मुंबई में भी खुला । टीईसीसी ताइवान के लिए भारत से आर्थिक और वाणिज्यिक रूप से सहयोग को बढ़ावा देने का एक सफल प्रयास रहा है । वर्ष 2000 के बाद से जब चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति बदलने की कोशिश की तो भारत ने वन चाइना नीति के समर्थन को कम करने और ताइवान के साथ राजनयिक संबंधों बढ़ने की ओर काम करना शुरू किया । वर्ष 2008 में भारत ने आखिरी बार वन-चाइना नीति का समर्थन किया था और आज तक भारत ने वन चाइना नीति को नहीं दोहराया है जो चीन को चुभता है।

हालांकि यह सवाल हमेशा से उठता रहा है की भारत ने ताइवान के साथ जुड़ने में काफी समय लगा दिया । यह कहना गलत नहीं होगा की पिछली सरकारों की उदारवादी नीतियों के कारण ऐसा रहा । आज के सन्दर्भ में देखा जाए तो भारत जिस तरह से तीन को आड़े हाथों ले रहा है वह चीन को न केवल परेशान करता है बल्कि सोंचने पर भी मजबूर करता है की भारत आज अधिक शक्तिशाली और मजबूत है और युद्ध की स्थिति में कमजोर नहीं पड़ेगा ।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा की मोदी सरकार की दूरदर्शी नीतियों के चलते आज भारत अपनी विदेश और सुरक्षा नीतियों में तमाम तरह की हिचकिचाहट से उबर चुका है । आज का भारत चीन को कड़े शब्दों में जवाब दे रहा है और साथ ही ताइवान से संबंधों के मजबूत करने की ओर काम कर रहा है । इस बात की एक झलक नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही हुई थी जब जून 2014 में दौरे पर आए चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ अपनी पहली बैठक में, ऐसा माना जाता है कि भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने चीन को वन चाइना नीति के बिगुल से हटकर “एक-भारत” नीति को स्वीकार करने लिए कहा था जो चीन को रास नहीं आया क्योंकि चीन आज भी कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की वकालत करता है । ऐसे में तीन पूर्व सशस्त्र सेना प्रमुखों की ताइवान के महत्त्वपूर्ण सुरक्षा संवाद में भागीदारी भारत की ताइवान जलडमरूमध्य में संकट फैलने की स्थिति में संभावित नीति विकल्प खोजने के प्रयास के रूप में देखा जाता है।

मजबूत आर्थिक सम्बन्ध

ताइवान के साथ भारत का द्विपक्षीय व्यापार 2022 में रिकॉर्ड 8.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया जो एक रिकॉर्ड है । साथ ही लगभग 106 ताइवानी कंपनियों का भारत में निवेश 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक है । ताइवान की कंपनी फॉक्सकॉन एप्पल मोबाइल का एक महत्वपूर्ण उत्पादक है और वही फॉक्सकॉन भारत में विनिर्माण इकाइयाँ संचालित करता है और सेमीकंडक्टर क्षेत्र में भारत ताइवान के साथ जुड़ रहा है । 2022 में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने फॉक्सकॉन के सीईओ का स्वागत करते हुए कहा था की, “मैं सेमीकंडक्टर्स सहित भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण क्षमता का विस्तार करने की उनकी (फॉक्सकॉन) योजनाओं का स्वागत करता हूं”। ज्ञात है की मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग, संपूर्ण टेलीकॉम इंडस्ट्री, सुरक्षा, स्पेस तकनीक और बिजली से चलने वाले वाहनों में सेमि-कंडक्टर एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं और ऐसे में भारत का ताइवान के साथ संबंधों का मजबूत करना सामरिक और आर्थिक रूप से एक दूरदर्शी कदम है। हाल ही में गुजरात में सेमीकॉन इंडिया 2023 सम्मेलन के दौरान, फॉक्सकॉन के सीईओ, यंग लियू, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भेंट की थी । तकनीकी क्षेत्र में द्विपक्षीय संबंधों में हालिया घटनाक्रम के मद्देनजर यह बैठक महत्वपूर्ण थी, खासकर जब ताइवानी कम्पनी फॉक्सकॉन ने भारत के वेदांता समूह के साथ 19.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के संयुक्त उद्यम से अलग हो गया था । हालांकि फॉक्सकॉन द्वारा संयुक्त उद्यम से हटने के सटीक कारण अभी भी स्पष्ट नहीं हैं लेकिन भारत फॉक्सकॉन के साथ सहयोग को नवीनीकृत करने के लिए आशान्वित है।

फॉक्सकॉन द्वारा वेदांता के साथ संयुक्त उद्यम से हटने के बावजूद, ऐप्पल द्वारा फॉक्सकॉन संयंत्र के माध्यम से तमिलनाडु में अपने 'नेक्स्ट जनरेशन' के आईफोन 15 का उत्पादन करने का कथित कदम भारत के सेमीकंडक्टर उद्योग में एक महत्वपूर्ण विकास है । यह कदम भारत की बढ़ती सेमीकंडक्टर जरूरतों और खुद को इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित करने के प्रयास के अनुरूप है। साथ ही ख़बरों की माने तो ओर ताइवान कुशल भारतीय कामगारों को आकर्षित करने के लिए भारत के साथ “लेबर मोबिलिटी” समझौते को भी अंतिम रूप दे रहे हैं । इस बीच, ताइवान लंबे समय से भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) का इंतजार कर रहा है। नीतिगत तौर पर भारत के साथ मजबूत सम्बन्ध बनाना ताइवान की मौजूदा सरकार की “साउथ बॉउन्ड पालिसी” से प्रेरित है जिसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ गहरे संबंध और व्यापारिक मिलान को बढ़ावा देना है। यह नीति भारत के साथ भी गहरे संबंध बनाने की वकालत करती रही है।

ताइवान संकट की स्थिति में भारत के लिए दांव

केटागलन फोरम में बोलते हुए भारत के पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह ने शीत युद्ध की बढ़ती भावना और बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव से जूझ रही दुनिया के बीच भारत की विकसित होती विदेश नीति की जटिलताओं पर प्रकाश डाला। एडमिरल सिंह ने विशेषकर संभावित ताइवान संकट के आलोक में स्थिरता और संतुलन बनाए रखने की महत्ता को रेखांकित किया । उनके भाषण से जो उभर कर सामने आता है वह संभावित ताइवान संकट के प्रति एक सूक्ष्म दृष्टिकोण है । संयम बरतने, एकतरफा कार्रवाई से बचने और तनाव कम करने के प्रयास क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने के लिए भारत की वैश्विक शांति के प्रति प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। भारत स्पष्ट रूप से समुद्री सुरक्षा, नौवहन और अर्थव्यवस्था पर संभावित व्यापक प्रभावों को देखते हुए शांति के हर एक प्रयास पर जोर देने का पक्छ्धर रहा है।

यदि ताइवान संकट उभरता है, तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के लिए जोखिम को समझना महत्वपूर्ण हैं । हिंद-प्रशांत क्षेत्र में संघर्ष समुद्री व्यापार मार्गों को बाधित करेगा, जो भारत की आर्थिक वृद्धि और ऊर्जा सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। केटागलन फोरम में, भारत के पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह ने इस बात पर प्रकाश डाला कि 2025 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की भारत की महत्वाकांक्षा समुद्री सुरक्षा और वैश्विक बाजारों तक पहुंचने की क्षमता पर निर्भर करती है। ऐसे में कोई भी संकट दूरगामी प्रभावों को जन्म दे सकती है, जो भारत की प्रगति पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है। इसके अलावा, केटागलन फोरम पर भारत-चीन संबंधों पर संभावित प्रभावों पर भी प्रकाश डाला गया और संभावित रणनीतिक विकल्पों में तनाव कम करने के लिए सहयोगात्मक, बहुपक्षीय दृष्टिकोण के साथ-साथ संयम, बातचीत और मध्य शक्तियों की भागीदारी शामिल होने जैसे विकल्पों पर भी बात हुई । ऐसे में समान विचारधारा वाले देशों, विशेष रूप से वैश्विक दक्षिण, को एकजुट करने की भारत की क्षमता, इंडो-पैसिफिक में इसके राजनयिक प्रभाव को बढ़ा सकती है।

शिक्षा और सांस्कृतिक सम्बन्ध

पिछले दशक में, ताइवान सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली छात्रवृत्तियों का लाभ उठाया है। वर्तमान में ताइवान में लगभग 130,000 विदेशी छात्र हैं, जिनमें से 2,800 छात्र भारत से हैं । अंतरराष्ट्रीय शिक्षा में सहयोग के लिए ताइवान ने भारतीय विश्वविद्यालयों के संघ के साथ समझौते भी किये जिसके तहत शैक्षिक डिग्री और प्रमाण पत्र दूसरे द्वारा मान्यत होंगे, जिससे शिक्षा और शिक्षा प्रशासनकर्ताओं के बीच अधिक अनुसंधान और आदान-प्रदान की स्थापना होगी। वर्तमान में भारत में विभिन्न विश्वविद्यालयों में कई ताइवान शिक्षा केंद्र (TEC) हैं, जिनमें से ताइवान से शिक्षक चीनी भाषा पढ़ाने भारत आते हैं। ताइवान में बोली जाने वाली चीनी भाषा चीन की चीनी भाषा से थोड़ी ही अलग है। आज भी ताइवान में ट्रेडिशनल चीनी भाषा बोली और लिखी जाते है वहीँ चीन ने पचास के दशक में भाषा में कई तरह के बदलाव किये था। भाषा के आलावा सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी दोनों देशों के बीच मजबूती का कारक हैं। ताइवान और भारत के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान हाल के वर्षों में बढ़ते रहे हैं। भारत के प्रमुख फिल्म महोत्सवों में हर साल ताइवानी फिल्मों की प्रस्तुति के अलावा, ताइवान से प्रदर्शन कला समूहों का भी भारत में स्वागत होता रहा है।

निष्कर्ष

ताइवान के सन्दर्भ में भारत एक जटिल और उभरते संकट के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपना रहा है । जैसे-जैसे भू-राजनीतिक तनाव बढ़ता जा रहा है और ताइवान संकट की आशंका मंडरा रही है, भारत को अपने हितों की रक्षा करने, क्षेत्रीय स्थिरता और शांति बनाए रखने के लिए नीतिगत और सुरक्षा की दृष्टि से हर तरह के प्रयास कर रहा है। ऐसे में सुरक्षा वार्ता के लिए एक के पूर्व सशस्त्र सेना प्रमुखों का ताइवान जाना ताइवान पर संकट उत्पन्न होने की स्थिति में सभी संभावित विकल्पों का पता लगाने के प्रयासों को प्रदर्शित करता है, खासकर यदि अमेरिका और उसके सहयोगी चीन के खिलाफ ताइवान के सहयोग में आगे आते हैं। लेकिन यह साफ़ है की भारत जो भी निर्णय लेगा उसमें आर्थिक और तकनीकी सहयोग निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा ।

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


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