इज़राइल-फिलिस्तीन मुद्दे पर दक्षिण-एशियाई देशों के मध्य बढ़ती दूरियां
Nikhil Sahu
परिचय

7 अक्टूबर 2023 को हमास ने एकाएक 20 मिनट के अंदर करीब पांच हज़ार रॉकेट इज़राइल पर दागकर पश्चिम एशिया में सारे शांति प्रयासों पर पानी फेर दिया। लंबे समय से अमेरिकी मध्यस्थता की मदद से पश्चिम एशिया के देश इजराइल के साथ शांति वार्ता में संलग्न थे परंतु हमास द्वारा किए गए इस आतंकी हमले ने सारे कूटनीतिक प्रयासों को सालों पीछे धकेल दिया। हमास द्वारा किए गए इस आतंकी हमले में 10 नेपाली नगरीक सहित 1200 इजरायली नागरिकों की मृत्यु हो चुकी है।

जैसा की अपेक्षित था इजरायली सेना ने अपनी पूरी क्षमता के साथ गाज़ा पट्टी पर पलटवार किया। इजरायल के इस चौतरफा किए गए हमले में अब तक (19 दिसम्बर 2023) उन्नीस हज़ार लोगों के मारे जाने की पुष्टि की जा चुकी है। कई लोगों के मृत शरीर अभी भी इजरायली हवाई हमले में गिरी इमारतों के नीचे दबे हुए हैं और इनका कोई भी निश्चित आंकड़ा फिलिस्तीन प्राधिकरण के पास नहीं है। दूसरी ओर, आर्थिक मोर्चे पर खाड़ी देशों के अधिकांश शेयर बाजार इजरायली हमले की शुरुवात के साथ लड़खड़ाते नजर आए जिसमे अभी तक कोई भी स्थिरता नहीं आई है। और यही हाल क्रूड ऑयल एवं इजराइल की अर्थव्यवस्था का भी हुआ। रिपोर्ट्स मुताबिक इजराइल की अर्थव्यवस्था 11% तक सिकुड़ चुकी है। इज़राइल-हमास की इस जंग ने न केवल पश्चिम एशिया बल्कि पूरे विश्व पर प्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव डाला है और दक्षिण एशिया इसका अपवाद नहीं है।

दक्षिण एशिया के प्रत्येक देश ने अपने राजनीतिक और कूटनीतिक हितों को आगे रखकर इज़राइल-हमास संघर्ष पर अपनी प्रतिक्रिया विश्व के सामने रखी। इस प्रकार दक्षिण-एशियाई देश इज़राइल -फिलिस्तीन मुद्दे पर बटे हुये नज़र आये। हालांकि अगर सतही तौर पर देखा जाए तो मालदीप और बांग्लादेश को छोड़कर दक्षिण सभी दक्षिण-एशियाई देशों ने इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष पर नरम रुक ही अख्तियार किया हुआ है।

दक्षिण एशिया की प्रतिक्रिया

हमास द्वारा रॉकेट हमले में नेपाल के 10 नागरिकों की मृत्यु हो गई थी जो पश्चिमी नेपाल में सुदूर पश्चिम विश्वविद्यालय के छात्र थे जो की इजराइल में शिक्षा प्राप्त करने गए हुए थे। ध्यान रहे कि नेपाल-इज़राइल संबंध बरसों पुराने हैं । जब दुनिया के अधिकांश देश नवीन स्थापित इजरायल के साथ संबंध स्थापित करने को लेकर असंमजस में थे तब नेपाल ने ना केवल 1960 में इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित किये बल्कि तात्कालिक प्रधानमंत्री बीपी कोइराला ने इजरायल की आधिकारिक यात्रा भी की। तदुपरांत नेपाल के राजा महेंद्र शाह द्वारा भी इस सिलसिले को दोहराया गया। यहां इस बात को स्पष्ट करना आवश्यक है कि नेपाल हमास को मान्यता नहीं देता है और नेपाली हमास द्वारा किए गए हमले की कड़ी निंदा करता है। नेपाल प्रारम्भ से ही शांति हेतु टू स्टेट सॉल्यूशन का समर्थक रहा है और सभी पक्षों को कूटनीतिक तरीकों से विवाद सुलझाने का का पक्षधर है। साथ ही नेपाल द्वारा इजराइल से फिलीस्तीन के सम्बन्ध में मानवीय आधारों पर संयम बरतने की अपेक्षा करता है।

श्रीलंका भी इस मामले में नेपाल की राह पर चलता हुआ नजर आ रहा है। श्रीलंका टू स्टेट सॉल्यूशन का समर्थक रहा है हालांकि श्रीलंका द्वारा यूनाइटेड नेशन जनरल असेंबली में इजराइल फिलिस्तीन के मुद्दे पर हमेशा से फलस्तीन के पक्ष में ही मतदान करता रहा है और यही परंपरा इस बार भी श्रीलंका सरकार द्वारा बखूबी दोहराई है।

दूसरी और दक्षिण एशिया के मुस्लिम बाहुल्य जनसंख्या वाले देश हैं जिसमें बांग्लादेश, मालदीप, पाकिस्तान और अफगानिस्तान सभी एकतरफा रूप से फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं परंतु इस संबंध में जहां मालदीप और बांग्लादेश ने इजरायल के खिलाफ अतिकड़ा रुख अपनाया है। वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान और अफगानिस्तान द्वारा तुलनात्मक रूप से इस बार इजरायल के खिलाफ नरम लहजे का प्रयोग किया गया।

मालदीव के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जु द्वारा फ़िलिस्तीनी लोगों के साथ अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस पर कहा गया की "मैं मालदीव के लोगों की और से फ़िलिस्तीन राज्य की पूर्ण संप्रभुता और शांति से रहने के उनके वैध अधिकार का दृढ़ता से समर्थन करता हूँ।" इसमें आगे जोड़ते हुए मालदीव सरकार द्वारा कहा गया की "मालदीव फ़िलिस्तीन के ख़िलाफ़ इज़रायल के युद्ध, और फ़िलिस्तीन के निर्दोष नागरिकों के ख़िलाफ़ इज़रायल द्वारा क्रूरता के साथ किये जा रहे कब्जे और सामूहिक प्रताड़ना की कड़े शब्दों में निंदा करता है। इज़रायली रक्षा बल द्वारा जानबूझकर की गई कार्रवाई युद्ध अपराधों के समान है और अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का पूर्ण उल्लंघन है। मालदीव ने अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय से फिलिस्तीनी लोगों के खिलाफ इजरायल द्वारा किए गए संभावित युद्ध अपराधों की जांच करने का आह्वान किया है।"

कुछ इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हुए बांग्लादेश ने इस संघर्ष में केवल इज़राइल को गुनहगार ठहरा दिया और बांग्लादेशी विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमेन ने इज़राइल की सेना को " कब्ज़ा करने वाली सेना" कहा और इज़राइल द्वारा लिए जा रहे फैसलों को " बर्बर" कहा। विदेश मंत्री ने आगे कहा की इज़राइल की और से जो किया जा रहा है वो “नरसंहार” और “मानवता के खिलाफ अपराध” है जिससे तत्काल प्रभाव से बंद होना चाहिए। जो हो रहा है वह अस्वीकार्य है। हालांकि उन्होंने इस बात पर भी जोर डाला की खाड़ी क्षेत्र में शांति हेतु केवल टू स्टेट सॉल्यूशन ही एक मात्र हल है एवं इजरायली सेना व सरकार को 1967 से पहले वाली स्थिति पर लौट जाना चाहिए।

ध्यान रखने योग्य बात है कि बांग्लादेश के फिलिस्तीन के साथ शुरुआत से ही गहरे संबंध रहे हैं। वर्ष 1948 में अरब-इजरायल युद्ध के दौरान तात्कालिक पूर्वी-पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से लोगों ने मुस्लिम ब्रदरहुड की और से युद्ध में भाग लिया था। वर्तमान समय में बांग्लादेश समय-समय पर राहत सामग्री और आर्थिक मदद फिलिस्तीन को भेजता रहता है साथ ही फिलिस्तीनी विद्यार्थियों के लिए बांग्लादेश सरकार द्वारा स्कॉलरशिप उपलब्ध करा रही है।

बांग्लादेश विश्व में तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है जिसकी खाड़ी देशों के तेल पर अत्यधिक निर्भरता है। बांग्लादेश सेंट्रल बैंक के डाटा के मुताबिक बांग्लादेशी लोगों के कुल प्रवासन का दो-तिहाई केवल खाड़ी देशों में होता है जो न केवल बांग्लादेश की सॉफ्ट पावर को बढ़ाते हैं बल्कि बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा का इस्त्रोत भी हैं।

दूसरी और पाकिस्तान और अफगानिस्तान ने संयम बरतते हुए इज़राइल के खिलाफ सरल व कूटनीतिक भाषा का प्रयोग किया। पाकिस्तानी केयरटेकर प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार पश्चिम एशिया में तेजी से बदलते हुए समीकरणों को लेकर चिंतित है एवं मानवीय मूल्यों की रक्षा, शांति एवं सुहाद्र हेतु टू स्टेट सॉल्यूशन का समर्थन करती है। उन्होंने आगे कहा कि शांति स्थापित करने हेतु इज़राइल को अनिवार्य रूप से 1967 से पहले वाली स्थिति पर लौट जाना चाहिए।

पाकिस्तान की सरकार का यह नरम तेवर के पीछे पाकिस्तान की चरमारती हुई अर्थव्यवस्था प्रमुख कारणों में एक है। साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान द्वारा रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान क्रेमलिन में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ वार्ता ने उन्हें पूरे पश्चिमी देशों के खिलाफ खड़ा कर दिया था। इसलिए इस बार सरकार अपनी पिछली गलतियों से सीखते हुए फुक-फुक के कदम रख रही है। हालांकि इसकी बिल्कुल विपरीत स्थिति पाकिस्तान की सड़कों पर देखी जा सकती है जहां फिलिस्तीन के समर्थन में बड़ी-बड़ी रैलियां की जा रही है। जिसका उपयोग पाकिस्तान की विपक्षी राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने राजनीतिक लाभांश के लिए कर रही है। ध्यान रहे की फरवरी 2024 में पाकिस्तान में आम चुनाव होने जा रहे हैं और इजराइल- फिलिस्तीन मुद्दा पाकिस्तान की राजनीति में सुर्खिया बटोरता रहेगा।

पाकिस्तान के पड़ोसी देश अफगानिस्तान इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार के तीखे बयान-बाजी करने से बचा हुआ है। तालिबान सरकार किसी भी कीमत पर अमेरिकी खेमे को नाराज नहीं करना चाहती है साथी वह पश्चिमी देशों से अपनी मान्यता की अपेक्षा करती है ताकि पश्चिमी देशों के साथ फिर से कूटनीतिक संबंध स्थापित किया जा सके। कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक अफगान लड़ाके हमास की ओर से युद्ध में लड़ना चाह रहे थे। परंतु अफगानिस्तान सरकार द्वारा इस प्रकार की सभी खबरों का खंडन किया और यह भी जोड़ा कि सरकार इस प्रकार के किसी भी गतिविधि का समर्थन नहीं करती है।

दक्षिण एशिया के अधिकांश देश जहां खेमों में बटे नजर आए वहीं भारत और नेपाल ने संतुलित और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति का पालन किया। अक्टूबर को हमास द्वारा किए गए हमले को प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकवादी हमला कहकर संबोधित किया और इजरायल के साथ इस विकट परिस्थिति में खड़े होने की बात कही। भारत सरकार का इजरायल के प्रति समर्थन इस बात से पता चलता है कि जब ब्रिक्स प्लस मीटिंग में साउथ अफ्रीका द्वारा आईसीसी से इजरायल के युद्ध अपराध की जांच की मांग की तो प्रधानमंत्री मोदी ने मीटिंग से अपने आप को दूर कर लिया जबकि इस वर्चुअल मीटिंग में अन्य राष्ट्रों के प्रमुख मौजूद थे।

इसी कड़ी में 27 अक्टूबर को यूनाइटेड नेशन जनरल असेंबली में जॉर्डन द्वारा लाये गये प्रस्ताव, जोकि इजरायल-फिलिस्तीन के मध्य संघर्ष विराम की वकालत करता है, को भारत ने जर्मनी, यूके, जापान, सहित अन्य राज्यों के साथ वोटिंग करने से दूरी (एब्स्टेंड) बना ली। कई भारतीय नागरिक द्वारा इज़राइली राजदूत को पत्र लिखकर इजरायल की ओर से युद्ध लड़ने की मांग की। हालांकि राजदूत ने भारतीयों को धन्यवाद देते हुए कहा कि, वह अपने युद्ध खुद लड़ने में सक्षम है। अगर यह कहा जाये की भारतीयों के मन में इजरायल के प्रति जो भावना और सहजता है वह शायद ही विश्व के किसी और देश के लिए होगी तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

हालांकि कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि भारत सरकार के बदले हुए रुख के पीछे भारत में कट्टर हिंदूवादी सरकार का होना है जिसका नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। परंतु भारत की
इजरायल-फिलीस्तीन नीति को गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह भ्रम टूट जाएगा।

सर्वप्रथम, यह है कि भारत सरकार किसी भी प्रकार के आतंकवादी हमले का विरोध करती है भले वह विश्व के किसी भी क्षेत्र में किसी भी देश पर हुआ हो। ध्यान रहे कि भारत और इज़राइल रणनीतिक साझेदार हैं जो की गहरी सैन्य संबंध साझा करते हैं। दूसरा, जहां भारत द्वारा हमास के हमले को आतंकवादी हमले की संज्ञा दी वहीं दूसरी और पश्चिमी देशों के भारी दबाव के बावजूद भारत द्वारा हमास को आतंकवादी संगठित घोषित नहीं किया गया। तीसरा, 27 अक्टूबर को भले भारत द्वारा जनरल असेंबली में एब्स्टेंड करके इज़राइल को समर्थन दे दिया था। परंतु आने वाले महीना में जब प्रस्ताव मे अनधिकृत इजरायली बसावट पर और 13 दिसंबर के प्रस्ताव मे संघर्ष विराम की बात की गयी तो भारत सरकार ने मानवीय मूल्यों को आगे रखकर फिलिस्तीन के पक्ष में मतदान किया। चौथा, भारत सरकार द्वारा वर्तमान तक 70 टन जिसमें 16.5 टन दवाइयां हैं, को फिलिस्तीनी राहत कैम्प पहुंचाकर राहत कार्य में तेजी लाई है।

उपरोक्त विविरण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत सरकार द्वारा फिलिस्तीन को लेकर अपनी विदेश नीति सतत और समग्र रही है। हालांकि भारत द्वारा इजराइल के साथ बढ़ते संबंधों के पीछे भारत की रणनीतिक समाज वैश्विक समीकरण और वैश्विक आकांक्षाएं हैं। इसलिए यह कहना कि भारत द्वारा इजराइल के साथ मधुर संबंध फिलिस्तीन के खिलाफ होंगे पूर्वाग्रह से ग्रसित प्रतीत होता है।

निष्कर्ष

दक्षिणी एशिया के आठ देश में जहां चार देशों के किसी भी प्रकार की कूटनीतिक संबंध इजरायल के साथ नहीं है, वही नेपाल जैसे भी देश हैं जिन्होंने बहुत पहले ही अपने कूटनीतिक संबंध इजरायल के साथ स्थापित कर लिए थे, साथ ही भूटान जैसे देश भी हैं जिन्होंने इजरायल के साथ वर्ष 2020 में कूटनीतिक संबंध स्थापित किये और इज़राइल-फिलिस्तीन मामले से अपने आप को बहुत दूर बनाये हुए है।

दक्षिण एशिया से बहुत सारे कामगार खाड़ी देशों में ब्लू कॉलर जॉब्स में संलित है साथ ही खाड़ी देशों में कच्चे तेल के मुख्य उत्पादक देश भी आते है। इस प्रकार खाड़ी देशों में किसी भी प्रकार के संकट का गहरा प्रभाव दक्षिण एशियाई राष्ट्रों पर पडना अनिवार्य है। जहां दक्षिण एशिया के सारे राष्ट्र मिलकर इस प्रकार के प्रभाव को न्यूनतम कर सकते थे। परन्तु आपसी विवाद और धर्म आधारित विदेश नीति ने ना केवल इस संकट के नकारात्मक प्रभावों को अधिक प्रभावी बना दिया है बल्कि दक्षिण एशियाई राष्ट्रों के मध्य और गहरी खाई पैदा कर दी हैं। संभव है की आने वाले कुछ महीनो में युद्ध समाप्त हो जाए परंतु पश्चिम एशिया के मुस्लिम बहुल देशों और इज़राइल के मध्य जो कूटनीतिक प्रगति हुई थी वह पुनः शून्य पर आ गई है। इस संघर्ष का गहरा प्रभाव जी-20 के दौरान प्रस्तावित भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा प्रोजेक्ट (आईएमईसी) पर पड़ेगा जिसका लाभ पूरे दक्षिण एशिया को होता।

निश्चित रूप से विश्व के अधिकांश देशों ने अपने-अपने गुटों में जाकर इस विवाद को लेकर अपने आप को सुरक्षित कर लिया है परंतु बिना वैश्विक बिरादरी की मदद से ना तो टू नेशन सॉल्यूशन अमल में आ पायेगा और ना ही किसी प्रकार की शांति की अपेक्षा भविष्य में की जा सकती है। अतः कहा जा सकता है कि दक्षिणी एशिया सहित सारे देशो को इज़राइल को वर्ष 1967 से पहले की स्थिति पर लौटकर सारे अनधिकृत बसावटों को खत्म करने को लेकर दबाव बनाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रस्तावित टू नेशन सॉल्यूशन को लागू करने हेतु खाड़ी देशों में सहमति बनाने हेतु सभी देशो को कूटनीतिक प्रयास करने चाहिए। तभी पश्चिम एशिया में किसी प्रकार की शांति की अपेक्षा की जा सकती है और आतंकवाद-कट्टरवाद से हटकर मानव विकास पर अधिक काम किया जा सकता है।

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


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