नेपाल में पिछले रविवार, 20 नवंबर को नेपाली संसद तथा सात राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव संपन्न हुए। मतगणना के अनुसार सत्तारूढ़ सात दलों के गठबंधन को, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस कर रही है, बहुमत प्राप्त हुआ। इन दलों में नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ा और सबसे पुराना दल है और शेरबहादुर देउबा पांच बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं। लगभग 2,91,00,000 आबादी वाले इस देश में लगभग 1.8 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 68.7 % ने मतदान में भाग लिया। चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों में थे नेपाली कांग्रेस और उसके सहयोगी दल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल( माओइस्ट सेण्टर) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल(यूनिफाइड सोशलिस्ट)। विपक्षी दलों के गठबंधन में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (यूनिफाइड माओइस्ट लेनिनिस्ट) के सहयोग में परिवार दल, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी-नेपाल,राष्ट्रीय प्रजातान्त्रिक पार्टी, राष्ट्रीय प्रजातान्त्रिक पार्टी-नेपाल, पीपल्स प्रोग्रेसिव पार्टी आदि।
नेपाल का लोकतंत्र अपनी किशोरावस्था में पहुँच चुका है किन्तु अभी भी लंगड़ा कर चल रहा है। चौदह वर्ष पुराने इस लोकतंत्र ने इसी अल्पावस्था में दस प्रधान मंत्री देखे हैं (जिनमे से कई तो एकाधिक बार प्रधान मंत्री बने हैं), जो इसकी अविकसित प्रणाली को दिखाता है। हालाँकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था के पूर्व भी प्रधान मंत्री बार-बार बदले जाते रहे हैं, लेकिन ऐसा राजा की इच्छा पर जो नाराज़ होने पर प्रधानमंत्री बदल देता था। जिन देउबा ने अपने पिछले शासन काल में (देउबा पांचवीं बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं) माओइस्ट सेण्टर के अध्यक्ष पुष्पकमल दहल "प्रचंड" को कारावास में भेजने की कसम खाई थी, वही अपनी वर्तमान सरकार प्रचंड के समर्थन से चला रहे थे और अभी हुए चुनावों में भी प्रचंड की पार्टी के साथ गठबंधन में हैं।
इस चुनाव में प्रमुख मुद्दे थे- गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभालना, बढ़ती हुई मुद्रा स्फीति को रोकना, बढ़ती हुई बेरोज़गारी पर अंकुश लगाना, नेपालियों के विदेश- पलायन को रोकने के लिए देश में ही रोज़गार की व्यवस्था करना (अनुमानतः हर साल 5 लाख नेपाली काम की तलाश में बाहर जाते हैं) और विदेश नीति के स्तर पर दोनों बड़े पड़ोसियों-भारत और चीन के बीच संतुलनकारी सम्बन्ध बनाए रखना। अभी नेपाल के 38 अरब अमेरिकी डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद वाली अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मात्र 4 .7 % है, मुद्रा स्फीति 8 % पहुँच चुकी है और नेपाली सरकार के ही एक अनुमान के अनुसार, आबादी का पांचवां हिस्सा अभी भी 2 डॉलर प्रतिदिन से कम पर जीने को मज़बूर है। ज़ाहिर है, भारत की तरह नेपाल के नेताओं ने भी बेरोज़गारी कम करने के लिए लोकलुभावन वादे किए। जहां नेपाली कांग्रेस ने सालाना 2,50,000 नई नौकरियां देने का वादा किया, वहीं के पी ओली ने हर वर्ष 5 लाख नई नौकरियां देने की बात की। दोनों पक्षों ने चुने जाने पर देश की अर्थव्यवस्था को दुगुनीऔर प्रतिव्यक्ति आय को तिगुनी कर देने के सब्ज़बाग़ दिखाए। विदेश नीति के विषय में तो ओली ने अपना रुख साफ़ कर दिया की यदि उन्हें फिर सत्ता मिलती है, तो वे कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को भारत से ले कर रहेंगे।
चारों ओर से ज़मीन से घिरा नेपाल अपनी आवश्यकताओं के अधिकांश की पूर्ति भारत और चीन के रास्ते आयात से करता है। इसके वार्षिक बजट का लगभग 30 % पश्चिमी देशों से प्राप्त सहायता पर निर्भर करता है। हालाँकि यह बात सुनने में अटपटी लगती है, लेकिन नेपाल जैसे ग़रीब देश का वर्तमान विदेशी मुद्रा भण्डार 9. 48 अरब डॉलर है, जो पाकिस्तान के वर्तमान विदेशी मुद्रा भण्डार (7. 5 अरब डॉलर) से कहीं अधिक है!!
चुनाव के अब तक मिले नतीजों के अनुसार देउबा और उनका गठबंधन फिर से सत्ता में आ रहा है। देउबा और प्रचंड साथ मिल कर सरकार चलाने पर सहमत हो गए हैं, लेकिन उनके लिए यह राह आसान नहीं होगी। यदि उनका दल अपने गठबंधन में काफी फैसले के साथ सबसे बड़ा दल बनता है तब तो देउबा को कुछ कठोर निर्णय लेने में आसानी होगी, नहीं तो गठबंधन की रस्साकशी में फंसी उनकी सरकार पर गिरने का ख़तरा हमेशा बना रह कर नेपाली लोकतंत्र की अपरिपक्वता ही उजागर करेगा। नेपाली कांग्रेस के भारत के प्रति चिरपरिचित सद्भाव के कारण यह उम्मीद तो है कि हम देउबा की सरकार से सम्बन्ध अधिक अच्छे बना सकेंगे। लेकिन नेपाल द्वारा भारत के कुछ इलाकों पर दावा बार- बार उभारा जा रहा है, जिस पर विपक्ष जनता की भावनाओं को भड़का कर देउबा सरकार को घेर सकता है।
इन चुनावों का दूसरा दूरगामी प्रभाव नेपाल- चीन के संबंधों पर पड़ेगा, जो प्रकारांतर में भारत को भी प्रभावित करेगा। नेपाल की नई सरकार न तो चीन के साथ एकाएक रिश्ते बिगाड़ सकती है, न ही देउबा ऐसा चाहेंगे। चीनी क़र्ज़ के मकड़जाल में फंसे हुए नेपाल के लिए इससे तुरंत निकलना संभव भी नहीं है। अभी बेल्ट रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत चीन नेपाल में कई इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं चला रहा है जिनको अकस्मात् बंद नहीं किया जा सकता। हाँ, चीन कि एक अति-महत्वाकांक्षी परियोजना ट्रांस- हिमालयन रेलवे अभी शुरू नहीं हो पाई है, जिसकी घोषणा ओली की 2016 की चीन यात्रा के दौरान की गयी थी। तिब्बत की राजधानी ल्हासा को शिग्स्ते के रास्ते काठमांडू से जोड़ने वाली इस सड़क परियोजना के शिग्स्ते- काठमांडू सेक्टर पर नेपाल के लिए क़ीमत 4.8 अरब डॉलर बैठेगी जो स्पष्टतः नेपाली अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ज़्यादा है। नेपाल ने चीन को यह अवगत करा दिया है कि नेपाल कानूनन 2 % से अधिक दर पर ब्याज नहीं दे सकता और यह भी कि, जो भी ऋण चीन से नेपाल को मिले वह अनुकूल ऋण (सॉफ्ट लोन) होना चाहिए। संभवतः नेपाल की ये शर्तें चीन को स्वीकार्य नहीं हैं, इसीलिए इस परियोजना को आरम्भ करने में देर हो रही है। चीन वस्तुतः इस रेलमार्ग के द्वारा नेपाल में चीनी तैयार माल भर देना चाहता है, ताकि नेपाल को भारत से और विमुख कर सके। इस परियोजना के माध्यम से चीन नेपाल को अपने पूर्वी बंदरगाहों से जोड़ने का लालच दे रहा है जिसका उपयोग नेपाल अपना समस्त आयात के लिए कर सकेगा। इस प्रकार चीनी योजना को भारत के बंदरगाहों के रास्ते आयात के एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। हालांकि कई विशेषज्ञों की राय में यह योजना कई कारणों से अप्रायोगिक है। शिगास्ते से काठमांडू तक 70 किमी का मार्ग ऐसा है जो 8000 ऊंचाई से गुज़रता है और जहाँ सीधी चढ़ाई/ढलान है। इससे बचने के लिए लगभग 40 सुरंगें बनाने की योजना है जो इस क्षेत्रमें आने वाले भूकम्पों को देखते हुए बहुत खतरनाक हो सकता है।
लेकिन भारत के लिए यह डर या आपत्ति की बात नहीं है। हमें तो खतरा इस बात से है कि इस रेल मार्ग को काठमांडू से आगे बढ़ा कर भारत- नेपाल सीमा पर स्थित लुम्बिनी तक ले जाने की बात हो रही है। यदि ऐसा हुआ तो चीन की पैंठ तराई के रास्ते सीधी भारतीय सीमा तक हो जाएगी, जो हमारी सुरक्षा के लिए सीधा खतरा होगा। दूसरी ओर, चीन की भारत- विरोधी राजदूत हाउ यांकी भले ही नेपाल से जा चुकी हैं, चीन अपने नए राजदूत चेन सोंगके माध्यम से नेपाल में अपनी भारत- विरोधी नीतियां जारी रखेगा।
कुल मिला कर देउबा के नेतृत्व वाली हमारे लिए राहत की बात तो लग रही है, किन्तु स्थिति नई नेपाली सरकार द्वारा भारत से संबंधों के विषय में दिए जाने वाले शुरुआती बयानों के बाद ही साफ़ हो सकेगी।
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