संकटग्रस्त समुद्री पड़ोसी की मदद में: भारत और श्रीलंकाई वित्तीय संकट
Shashank Sharma

भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान और श्रीलंका गंभीर आर्थिक-राजनीतिक संकट से जूझ रहे हैं। इनमें पाकिस्तान तो हठपूर्वक अपनी आत्म-पराजय कराने की जिद में खुद को लगातार प्रताड़ित कर रहा है, वहीं श्रीलंका अपने विकल्प की ढालुवां पगडंडी पर पाता है। वह 1948 में आजादी हासिल करने के बाद से अब तक के सबसे बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा है।

कुछ साल पहले तक किसी को भी यह उम्मीद नहीं रही होगी कि श्रीलंका इस तरह के घातक आर्थिक-सामाजिक संकट में फंस जाएगा कि उसे विदेशों से कड़े ब्याज पर लिए भारी-भरकम कर्जे के सधान में सक्षम नहीं रहेगा और उसका विदेशी मुद्रा का भंडार घटता ही चला जाएगा। लोगों को भोजन, ईंधन, गैस और आवश्यक वस्तुओं के लाले पड़ जाएंगे। वे इनकी आसमान छूती कीमतों के खिलाफ सड़कों पर उतर आएंगे। इसके साथ ही वहां 12-13 घंटे की बिजली की कटौती होगी। यह दृश्य अभी वहां के रोजमर्रे का हिस्सा है। हालत यह है कि श्रीलंका के पास दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं की पूर्ति के लिए आयात बिलों को चुकता करने लायक भी पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं है।

आर्थिक संकट की शुरुआत कैसे हुई

ऐसा नहीं है कि श्रीलंका में चौतरफा बना संकट रातोंरात पैदा हो गया। इसकी जमीन तो बरसों से बन रही थी। इसके नेताओं की लंबे समय से जारी ऐय्याशी, उनके गलत नीतिगत निर्णय, और कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों और बाहरी कारकों के संचित होते गए दुष्प्रभावों के कारण देश की अर्थव्यवस्था धवस्त हुई है।

2009 में ईलम युद्ध में जीत के बाद देश की अर्थव्यवस्था में सुधार का चरण देखा गया था, और 2014 तक उसका जीडीपी काफी सुधार गया था, जिससे पर्यटन उद्योग में तेजी आई। हालांकि, उसकी अर्थव्यवस्था में बनीं हुईं कमजोर संरचनात्मक समस्याएं तब भी दूर नहीं की जा सकीं और इसने अर्थव्यवस्था को पनाला में बहाना जारी रखा। दरअसल, श्रीलंका की मौजूदा समस्याओं में कई बातें शामिल हैं। मसलन, देश की अर्थव्यवस्था में विविधता लाने में सरकार की असमर्थता, और केवल चाय, रबर और वस्त्रों आदि के निर्यात पर हद से अधिक निर्भरता, प्रवासी श्रीलंकाई द्वारा अपने घर भेजी गई धनराशि पर आश्रितता, सीमित घरेलू उत्पादन क्षमता आदि वे तमाम दिक्कतें हैं, जिनके चलते उसे यह दिन देखना पड़ा है। इसलिए देश के पास राजस्व का आधार बहुत कम है। जिसकी वजह से श्रीलंका दवाओं, खाद्यन्नों, उर्वरकों, ईंधन, डेयरी उत्पादों (मुख्य रूप से दूध पाउडर) आदि सहित दैनिक उपयोग की अधिकांश बुनियादी वस्तुओं के आयात पर अब पूरी तरह से निर्भर हो गया है। जाहिर है कि दैनिक उपयोग की वस्तुएं अब आयात बिल का एक प्रमुख हिस्सा हो गई हैं।

इसके बाद, 2014 से लेकर 2019 तक, श्रीलंका के ऋण में 38 फीसद की वृद्धि हुई। राजपक्षे सरकारों (2005 -2015 और 2019 - आज तक) द्वारा अपनाई गई हंबनटोटा बंदरगाह, हंबनटोटा हवाई अड्डे और कोलंबो बंदरगाह शहर परियोजना जैसी बुनियादी ढांचे की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक नहीं थीं और उनसे आज तक सरकार को कोई रिटर्न नहीं मिला है।

2019 में समस्याएं तब और बढ़ गईं जब गोटाबाया राजपक्षे ने चुनाव से पहले किए अपने वादे के तहत मूल्य वर्धित कर (वैट) को 15 फीसद से घटा कर 8 फीसदी कर दिया यानी लगभग 50 फीसदी की कटौती कर दी। फिर उन्होंने राष्ट्र निर्माण कर और कई अन्य शुल्कों को भी समाप्त कर दिया। हालांकि बाद में इस नीति को पलट दिया गया, तब तक तो इसने पहले से ही तनावग्रस्त अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचा चुकी थी।

सितंबर 2021 में, मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए, देश के सेंट्रल बैंक ने रुपये की ऊपरी सीमा 203 प्रति अमेरिकी डॉलर निर्धारित की, जिससे श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ा क्योंकि इससे प्रवासियों की तरफ से भेजे जाने वाले धन, निर्यात से एवं पर्यटन से होने वाली आय पर कड़ी चोट लगी। शिपिंग-एयरलाइन सेवाओं, और कोलंबो स्टॉक एक्सचेंज में विदेशी निवेश में भारी गिरावट आई।

2021 में राजपक्षे के एक और फैसले ने आर्थिक स्थितियों को बिगाड़ने में अपनी भूमिका निभायी। रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगाने और जैविक उर्वरकों की तरफ उन्मुख होने से चाय, धान और रबर के उत्पादन पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ा, जिससे निर्यात राजस्व को चूना लगा और खाद्यान्नों की कीमतें आसमानी हो गईं। इस निर्णय को भी उलट दिया गया, लेकिन इससे पहले अर्थव्यवस्था को उसके चलते काफी नुकसान हो चुका था।

अप्रैल 2019 की ईस्टर बमबारी और मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी जैसे अन्य अप्रत्याशित घटनाक्रमों ने पर्यटन उद्योग को अपने घुटनों पर ला दिया। गौरतलब है कि पर्यटन उद्योग श्रीलंका का तीसरा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा अर्जक क्षेत्र है। कोविड-19 के बाद पर्यटन में कुछ सुधार हुआ था, जो रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते ठप पड़ गया। इसी वर्ष के जनवरी-फरवरी महीने में श्रीलंका आनेवाले कुल पर्यटकों में रूस और यूक्रेन के लगभग 25 फीसद पर्यटक थे। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि भारत का श्रीलंका के पर्यटन उद्योग में सबसे बड़ा योगदान है।

विदेशी ऋण और विदेशी मुद्रा भंडार की वर्तमान स्थिति यानी अप्रैल 2022 तक, श्रीलंका का कुल बाहरी ऋण इस वर्ष अनुमानित $ 8.6 बिलियन के साथ $ 50 बिलियन से अधिक है। ऋण के विभिन्न घटकों के बीच, यह संप्रभु बांड है, जो श्रीलंका के गले में हड्डी की तरह फंसा हुआ है। इसलिए कि सरकारी ऋणों के विपरीत, इनमें फेरबदल नहीं किया जा सकता है। पिछले दो वर्षों में विदेशी मुद्रा भंडार में 70 प्रतिशत की गिरावट आई है और अब तक उपयोग योग्य भंडार 50 मिलियन डॉलर से भी कम रह गया है, जबकि 4.5 बिलियन डॉलर का पुनर्भुगतान इसी वर्ष किया जाना है। यह स्थिति देश के नागरिकों के लिए भोजन, ईंधन का इंतजाम करने और उन्हें अन्य आवश्यक सामान मुहैय्या कराने एवं बड़े पैमाने पर विदेशी ऋणों के पुनर्भुगतान के लिए बड़ी चिंताजनक है।

भारत-पड़ोस पहले

रणनीतिक नजरिए से निकटता एवं ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संबंध के चलते श्रीलंका के ताजा हालात भारत के लिए गंभीर चिंता के विषय हैं। श्रीलंका पर प्रतिकूल असर डालने वाले किसी भी संकट का सामना करने और भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिरता लाने के प्रयास के लिए भारत को उसकी मदद में पहले दौड़ पड़ना लाजिमी है। भारत ने ‘पड़ोसी पहले’ की अपनी नीति के तहत उसके वर्तमान संकट को दूर करने के लिए जनवरी 2022 से ऋण, क्रेडिट लाइन और मुद्रा स्वैप में $ 3 बिलियन से अधिक धन राशि देने का संकल्प दोहराया है।

और 02 मई को इसने 200 मिलियन डॉलर और दिया है जबकि इसके पहले ईंधन के लिए 500 मिलियन डॉलर दे चुका है। श्रीलंका ने उर्वरकों की मांग के साथ-साथ एशियाई समाशोधन संघ से 2.5 अरब डॉलर के सधान के लिए मोहलत भी मांगी है। भारत पहले ही 11,000 मीट्रिक टन चावल भेज चुका है और 270,000 मीट्रिक टन से अधिक ईंधन की भी आपूर्ति कर चुका है। नवंबर 2021 में, भारत ने 100 टन नैनो नाइट्रोजन तरल उर्वरक दिया था। अमेरिकी डॉलर के संकट के कारण दवाइयों की किल्लत हो जाने की वजह से भारत ने हाल ही में पेराडेनिया अस्पताल को दवाइयां डोनेट करने का वचन दिया है। वहां दवा तक खरीदना मुहाल हो गया है।

इनके बावजूद, श्रीलंका के एक वर्ग की प्रवृत्ति है भारत को साम्राज्यवादी और आधिपत्यवादी ताकत के रूप में देखना, और इसलिए भारतीय सहायता जबकि वह बेहदसौम्य है, पर उसको भी यह वर्ग आशंका, संदेह की नजर से देखता है और उनका विरोध करता है। इस संदेह की जड़ें श्रीलंकाई तमिल जातीय समुदाय और एलटीटीई से संबंधित मुद्दों में हैं। श्रीलंका में किए जाने वाले भारतीय निवेश और उसकी परियोजनाएं जैसे त्रिंकोमाली तेल फार्म, कोलंबो बंदरगाह पर पश्चिमी कंटेनर टर्मिनल आदि सरकार द्वारा भारतीय सहायता की एवज में दी जाने वाली अनुकूल रियायतें के रूप में देखी जाती हैं।

भारत और श्रीलंका के बीच फ्लोटिंग डॉक सुविधा और बिना कीमत लिए एक समुद्री निगरानी विमान डोर्नियर देने पर समझौता हुआ है। श्रीलंका के खोज और बचाव क्षेत्र में खोज और बचाव कार्यों में श्रीलंका नौसेना की सहायता के लिए 6 मिलियन डॉलर के अनुदान के साथ बीईएल बेंगलुरु द्वारा एमआरसीसी सुविधा कायम करने का एक समझौता हुआ है। इस पर श्रीलंका की संसद में सवाल उठाया गया था कि इससे देश की सुरक्षा और संप्रभुता पर खराब असर पड़ेगा। जनथा विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) पार्टी ने दावा किया कि श्रीलंका ने यह समझौता भारत की तरफ से इस साल मार्च में दिए गए 1 अरब डॉलर के लाइन ऑफ क्रेडिट की एवज में किया है ताकि देश को वर्तमान वित्तीय संकट से उबरने में मदद मिल सके। इस पर श्रीलंका के रक्षा मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी थी।

भारत राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) स्तर के कोलंबो सुरक्षा सम्मेलन (सीएससी) का संचालन भी कर रहा है, जिसका पांचवां सम्मेलन इसी साल मार्च में मालदीव में आयोजित किया गया था। सीएससी को 2011 में भारत, श्रीलंका और मालदीव के बीच बने त्रिपक्षीय समुद्री सुरक्षा समूह को विस्तारित कर मॉरीशस को इसके चौथे सदस्य के रूप में शामिल किया गया था। इस सम्मेलन में बांग्लादेश और सेशेल्स को भी पर्यवेक्षक के रूप में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था। उन्होंने इसमें शिरकत भी की थी। यह समुद्री पड़ोसियों के बीच क्षेत्रीय सहयोग और साझा सुरक्षा उद्देश्यों के लिए भारत की अगुवाई में शुरू किया गया आगे का उपक्रम है। इसका मकसद उचित प्रशिक्षण के माध्यम से परस्पर क्षमता निर्माण, उपकरणों की आपूर्ति, तटीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों का उन्नयन करने और खतरों का “एकजुट” मुकाबला करने के लिए “समुद्री पड़ोसियों के बीच घनिष्ठ सहयोग” कायम करना तथा संबंधित जानकारियों का आदान-प्रदान करना है। सीएससी के सदस्यों से उम्मीद की जाती है कि वे संकटों के समय में तथा मादक पदार्थों की तस्करी एवं संगठित अपराधों से निबटने, और श्रीलंका के समुद्री क्षेत्र में जहाज में लगने वाली आग जैसे समुद्री दुर्घटनाओं को कम करने में एक-दूसरे के लिए सबसे दौड़ कर आएंगे। सहयोग करेंगे। जैसा कि भारतीय तटरक्षक बल (आईसीजी) ने श्रीलंका के एमटी न्यू डायमंड और एक्स-प्रेस पर्ल जहाजों में लगी आग बुझाने में मदद की थी।

श्रीलंका को उसकी जरूरत के मुताबिक वित्तीय सहायता दिलाना भारत की क्षमता से परे होने की स्थिति में वह क्वाड देशों से समर्थन ले सकता है और कोलंबो को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से ऋण दिलाने में मदद कर सकता है।

भारत के कॉर्पोरेट क्षेत्र और निजी क्षेत्र को श्रीलंका के विकास के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में शामिल होना चाहिए। वहां की वर्तमान परिस्थितियों में दोनों पक्षों के लाभ के लिए निवेश के लिए आकर्षक अवसर मिल सकते हैं। इस प्रकार, भारत वहां की स्थिति को पटरी पर लाने में सहायता दिला सकता है।
इस बीच, श्रीलंका अपने यहां पर्यटकों के आगमन में वृद्धि के लिए कोई जतन कर सकता है। इसके लिए वह भारत के दूसरी कोटि एवं तीसरी कोटि के शहरों को लक्षित कर सकता है, जिनके पास खर्च करने लायक आय वाली एक बड़ी आबादी है। भारत इस मामले में श्रीलंका की मदद कर सकता है।

भारत पर पड़ेगा असर

इसमें भारत के लिए सुरक्षा निहितार्थ हैं। वैश्विक आतंकवादी समूह/संगठन श्रीलंका में मौजूदा सामाजिक अशांति, अराजकता और प्रशासन की कमी का लाभ उठा सकते हैं। श्रीलंका और दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों के बीच आतंकवादी नेटवर्क के क्रियाशील होने के पूर्व के उदाहरण हैं। इन सभी सक्रिय होने से हमारी सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा पैदा करेगा।

22 मार्च से ही श्रीलंका से आने वाले शरणार्थी तमिलनाडु तट पर उतरना शुरू कर दिया है। आज तक, लगभग 75 श्रीलंकाई तमिल शरणार्थी अपने देश में बनी आर्थिक कठिनाइयों से निजात पाने के लिए भारत में शरण ली है। इंटेलिजेंस इनपुट से पता चलता है कि मौजूदा वक्त में 2,000 लोग भारत में शरण ले सकते हैं।

श्रीलंका संकट का एक अन्य दुष्प्रभाव भारत के अंतरराष्ट्रीय कार्गो पर पड़ सकता है क्योंकि भारत के ट्रांस-शिपमेंट कार्गो का 60 फीसदी कोलंबो बंदरगाह के जरिए होता है। भारत से जुड़ा माल बंदरगाह की कुल ट्रांस-शिपमेंट मात्रा का 70 प्रतिशत है। श्रीलंका के लिए और उससे आगे ट्रांस-शिपमेंट के लिए भारत से हजारों कंटेनर बंदरगाह पर पड़े हुए हैं क्योंकि अधिकारी टर्मिनलों के बीच कंटेनर्स को इधर-उधर नहीं कर सकते। यह व्यवधान भारत के लिए लागत और जमाव के मसले को बढ़ा सकता है।

चीन की भूमिका

श्रीलंका के कुल विदेशी ऋण का 10 फीसदी हिस्सा चीनी कर्जें का है। और इसे संकट की वजह बताने की बजाय उसे इसका एक लक्षण कहा जा सकता है। श्रीलंकाई आर्थिक संकट के लिए चीनी प्रतिक्रिया संकीर्ण रही है। चीन अब 1.5 अरब डॉलर की क्रेडिट लाइन और 1 अरब डॉलर का ऋण दे रहा है। इसने स्वदेशी श्रीलंकाई वस्तुओं के निर्यात में मदद के लिए चीन और श्रीलंका के बीच एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने पर भी जोर दिया है। इसके अलावा, चीन ने भोजन की कमी को कम करने में मदद करने के लिए 2,000 टन चावल भेज कर भी मदद की है। हालांकि चीनी की यह जानी-पहचानी रणनीति है कि वह कर्ज लेने वाले देश से अपने ऋण सधान में उसकी रणनीतिक लिहाज से किसी अहम संपत्ति को हासिल कर लेता है। इसी प्रवृत्ति के तहत उसने हंबनटोटा बंदरगाह को 99 साल के पट्टे पर लिया था। चीन श्रीलंका के राजनीतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर भी गहरा असर डाल रहा है। इसके अलावा, श्रीलंका की अपने बुनियादी ढांचे के लिए चीन पर निर्भरता आगे भी बने रहने की संभावना है।

श्रीलंका में राजनीतिक संकट

कोलंबो की राजनीतिक स्थिति अनिश्चित और अस्थिर बनी हुई है। वित्तीय संकट को लेकर देश में बने अशांति का माहौल तथा सरकार विरोधी प्रदर्शनों के चलते पूरे मंत्रिमंडल ने 03 अप्रैल 2022 को इस्तीफा दे दिया था। प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अपने समर्थकों के हिंसक हमले के मद्देनजर 09 मई को इस्तीफा दे दिया था। राष्ट्रपति गोटाबाया ने इस राजनीतिक गतिरोध के बीच ही रानिल विक्रमसिंघे को 12 मई को अंतरिम प्रधान मंत्री नियुक्त किया था ताकि राजनीतिक स्थिति को सम्हाला जा सके। सरकार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से संपर्क कर सके, जब तक कि नए चुनाव नहीं हो जाते और नई सरकार नहीं बन जाती। नए प्रधानमंत्री की पार्टी के पास संसद में सिर्फ एक सीट है और ऐसा लगता है कि उनकी नियुक्ति पर कोई आम राजनीतिक सहमति नहीं है। ऐसे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार इस संकट से उबरने के लिए कड़वे और कड़े नीतिगत फैसले कैसे लेंगे,यह एक ज्वलंत सवाल बना हुआ है। इस बीच, राष्ट्रपति के पद से हटने के देशव्यापी आह्वान के बावजूद गोटाबाया इस्तीफा देने के मूड में नहीं है। इसे देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि राष्ट्रपति चुनाव कराएंगे, क्योंकि देश भर में लोगों की सरकार विरोधी उग्र भावनाएं उनकी पार्टी के लिए विनाशकारी परिणाम लाएंगी।

ईंधन और बुनियादी वस्तुओं को तत्काल आयात करने और जुलाई में आने वाले संप्रभु ऋणों के पुनर्भुगतान के लिए आईएमएफ श्रीलंका के लिए एकमात्र उपलब्ध विकल्प है। हालांकि आईएमएफ बेलआउट को उसके आर्थिक संकटों से निजात के लिए रामबाण नहीं माना जा सकता है, जैसा कि पाकिस्तान के मामले में देखा गया है।

आईएमएफ के साथ इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो गई है। इसकी संभावना है कि मुद्रा कोष श्रीलंका की आर्थिक नीति में बदलाव करने, राजकोषीय अनुशासन लाने जैसी कड़ी शर्तों पर ही कर्ज देगा। आईएमएफ के साथ बातचीत और आईएमएफ पैकेज पाने के लिए, दोनों ही सूरत में, श्रीलंका में एक स्थिर सरकार की दरकार होगी।

बहरहाल, आने वाले 6 से 8 महीने भारत के लिए श्रीलंका को उसके अब तक के सबसे बड़े संकट से उबारने में मदद देकर वहां के लोगों के बीच अपनी धारणा को बेहतर बनाने का एक अवसर है।

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
Image Source: https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/8/83/Anti-government_protest_in_Sri_Lanka_2022.jpg

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