अनिश्चित भविष्य देख रहा अफगानिस्तान
Arvind Gupta, Director, VIF

अमेरिकी फौज अफगानिस्तान से लौट रही है। वहां किसी राजनीतिक प्रणाली को काबिज किए बगैर ही उसकी वापसी हो रही है। 20 साल की लोकतांत्रिक अवधि के बाद, अफगानिस्तान को उन उपलब्धियों के नष्ट हो जाने का खतरा मंडराने लगा है, जो उसने पिछले दो दशकों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दौरान हासिल किया था।

अमेरिका और तालिबान के बीच 29 फरवरी 2020 को हुए दोहा समझौते के अनुसार, अमेरिका 1 मई 2021 को अफगानिस्तान से अपनी फौज की वापसी को लेकर प्रतिबद्ध है। तालिबान अपनी सरजमीं से अल कायदा को गतिविधियां संचालित नहीं करने देने की प्रतिबद्ध जताई हुई है। एक अंतर-अफगान संवाद पर भी सहमति बनी है। हालांकि रजामंद तारीख पर अमेरिकी फौज की वापसी नहीं हुई। इसके बदले, राष्ट्रपति जोए बाइडेन ने एक नई समय-सारिणी की घोषणा की। इसके मुताबिक, 11 सितम्बर 2021 तक अमेरिकी फौज की वापसी मुकम्मल हो जाएगी। यह तारीख न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 2001 में हुए आतंकी हमले की बरसी है।

इसीलिए तालिबान ने अपने को नैतिकता के ऊंचे सिंहासन पर बैठाते हुए अमेरिका पर दोहा समझौते के उल्लंघन का आरोप लगाया है। यह अलग बात है कि तालिबान ने भी अफगानिस्तान में राजनीतिक व्यवस्था बनाने और हिंसा घटाने के मसले पर बातचीत जारी रखने के लिए अपनी तरफ से किसी भी तरह की पहल नहीं की है।

दोहा समझौता सभी राजनीतिक मकसदों को खोलता है। अंतर-अफगान संवाद के आयोजन पर कोई प्रगति नहीं हुई है। तालिबान अलकायदा के साथ अपने संपर्क को जारी रखे हुए है।

बाइडेन के चुनाव के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री ने अमेरिकी फौज की वापसी की नई समय सारिणी तय करने और इस्तांबुल में साझेदारों की बैठक करने के नए प्रस्तावों पर विचार करने एवं संयुक्त राष्ट्र में एक कान्फ्रेंस बुलाने की संभावना पर गौर करने के लिए तुर्की का दौरा किया था। लेकिन तालिबान के इसमें शामिल होने से इनकार करने की वजह से तुर्की में बैठक नहीं हो सकी। तालिबान की स्ट्रेटेजी अमेरिकी फौजी की वापसी तक इंतजार करने की और उसके बाद वहां की सरकार पर अपनी सत्ता का रास्ता साफ करने के लिए कड़े दबाव बनाने की है।

अमेरिकी फौज की वापसी पहले ही शुरू हो चुकी है। बाइडेन ने कभी न खत्म होने वाली जंग को खत्म करने और अपनी फौज को घर बुलाने का इरादा दोहराया है। अब यह दायित्व अफगान गुटों का है कि वह एक व्यवस्था बनाने के लिए काम करें। अमेरिका ने ऐसे किसी भी काम से अपना हाथ झाड़ लिया है। दरअसल, अमेरिका ने अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों को वाशिंगटन पर ‘मुफ्त सवारी’ करने के लिए आलोचना की है। अब अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों पर है कि वे अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के लिए प्रयास करें।

यह व्यापक समझदारी है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान और अपराधियों को 20 साल बाद त्याग दिया है। इतिहास की तरफ पलटें तो यह डर जताया जा रहा है कि इसके बाद अफगानिस्तान रक्त-रंजित नागरिक युद्ध की तरफ जा सकता है। यह खौफ एकदम से गलत भी नहीं है।

अमेरिकी फौज वापसी के समय से ही अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति तेजी से बिगड़ गई है। 8 मई 2021 को काबुल में गर्ल्स स्कूल के समीप हुए धमाके में 80 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। मृतकों में अधिकतर लड़कियां थीं। इसका ठीकरा सरकार ने तालिबान पर फोड़ा है। गर्ल्स स्कूल के पास हुए बम विस्फोट का केवल एक ही प्रतिकात्मक अर्थ नहीं है। तालिबान यह संकेत दे रहा है कि जब वह सत्ता में आएगा तो किस तरह की हुकूमत करेगा। स्त्री शिक्षा और स्त्रियों के अधिकार उसके प्राथमिक निशाने पर होंगे।

1 मई से ही तालिबान उग्रवाद में काफी तेजी देखी जा रही है। अफगानिस्तान के रक्षा मंत्रालय के मुताबिक 1 से 2 मई के बीच, तालिबान ने 24 घंटों के बीच 141 जगहों, हेलमंद, पक्तिका, लोगर, तखर, उरुजगन और अफगानिस्तान के अन्य प्रांतों में अपने अभियान चलाएं हैं।1 पक्तिका के पुलिस अधिकारी भी उसी बम विस्फोट में मारे गए हैं। अफ़गानिस्तान नेशनल सिक्योरिटी फोर्स तालिबान को पीछे करने में व्यस्त है लेकिन जान माल का भी काफी नुकसान हो रहा है।

तालिबानी इस बात को लेकर उत्साहित हैं कि अमेरिकी फौज अफगानिस्तान छोड़ रही है। इसे वे अमेरिका पर अपनी जीत के रूप में दर्शा रहे हैं। तालिबान ने सरकार से बातचीत करने से इनकार कर दिया है। उन्होंने मौजूदा सरकार के साथ किसी भी तरह की सत्ता साझेदारी को खारिज कर दिया है। इसके बजाय उन्होंने शरीयत पर आधारित इस्लामी अमीरात की शासन पद्धति पर जोर दिया है। इससे यह आशंका पैदा होती है कि लोकतंत्र और महिला अधिकारों की स्थापना के लाभ समाप्त हो जाएंगे। आज का अफगानिस्तान जिसने स्वतंत्रता लोकतंत्र और अधिकारों का स्वाद चख लिया है, वह शरीयत पर आधारित अमीरात की व्यवस्था को कबूल नहीं करेगा। ऐसे में एक आधुनिक अफगान और तालिबान के बीच हिंसक मुठभेड़ होना या होते रहना लगभग तय है। हां, यह आकलन सही नहीं है कि विगत 20 सालों में तालिबान निस्तेज हो गया है और उसका प्रभाव से छीज गया है।

अफगानी आपस में इस बुरी तरह बंटे हुए हैं कि वह तालिबान के विरुद्ध एकजुट होने में अक्षम हैं। अभी तक एकजुटता के एक भी प्रस्ताव का संकेत नहीं मिला है, जिस पर अफगानी तालिबान के साथ बातचीत कर सकते हैं; राष्ट्रपति घानी का अपना एक अलग प्रस्ताव है, जबकि अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह के नेतृत्व वाली हाई काउंसिल फॉर नेशनल रिकॉन्सिलिएशन ने उस प्रस्ताव पर बातचीत के लिए अभी तक हामी नहीं भरी है। ऐसा माना जाता है कि अब्दुल्लाह ने तालिबान के साथ बातचीत का समर्थन किया था।

यहां यह याद किया जा सकता है कि अतीत में अफगान मुजाहिदीन में हुए मतभेद ने ही नजीबुल्लाह सरकार के पतन के बाद देश को खून-खराबा की तरफ धकेल दिया था। मुजाहिदीन सरकार 1992-96 की अवधि में काफी बंटी हुई थी। काबुल में नियमित रूप से हिकमतयार के समर्थक बम बरसाते थे। पाकिस्तान प्रायोजित तालिबान ने 1996 में मुजाहिदीन सरकार का तख्ता पलट दिया था, क्योंकि वे लोग आपस में एकजुट नहीं थे। तालिबानी जब सत्ता में आए तो वह अहमद शाह मसूद और उनके समर्थकों के साथ झगड़े के निपटारे के लिए किसी समझौते पर नहीं पहुंच सके थे। 2001 में 9/11 की आतंकवादी घटना के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप किया था, जिसकी मदद से तालिबान को उखाड़ फेंका गया था। अफगानियों में एकता का अभाव किसी भी शांति समझौते तक पहुंचने में बहुत बड़ा बाधक है।

क्षेत्रीय खिलाड़ी भी संशयग्रस्त हैं। अफगानिस्तान की मौजूदा विकट परिस्थिति से बाहर निकालने की कोई भी क्षेत्रीय योजना मौजूद नहीं है। अधिकतर क्षेत्रीय खिलाड़ी तालिबान के साथ इतरा रहे हैं और उनको पनाह देने वाले पाकिस्तान की भूमिका को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया है। कोई भी क्षेत्रीय खिलाड़ी मौजूदा स्थिति को एक निश्चित आकार देने के लिए निर्णायक रूप से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है। विस्तारित त्रोइका जिसमें रूस, अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान और अमेरिका, शामिल हैं, के बीच बातचीत अप्रैल में हुई थी। इसके बाद जारी एक वक्तव्य किया गया था लेकिन उसमें भी तालिबान को हिंसा से रोकने के लिए नाम मात्र का दबाव डाला गया है। वहीं दूसरी ओर, तुर्की की मध्यस्थता से इस्तांबुल में विभिन्न समूहों के बीच तय बैठक अभी तक नहीं हो पाई है।

अमेरिकी फौज की वापसी पाकिस्तान को, जिसने तालिबान का समर्थन किया और अपनी पनाह दी, उसको एक दुविधापूर्ण स्थिति में छोड़ देगा। उसका तालिबान पर कुछ प्रभाव होगा, लेकिन वह अमेरिका से मिलने वाले अपने फायदे को गंवा बैठेगा, जिसका वह विगत 20 वर्षों में बहुत ही चतुराई से दोहन करता रहा है। अफगानिस्तान में अस्थिरता से पाकिस्तान में शरणार्थियों की भीड़ बढ़ेगी। इस समय पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से लगी अपनी सीमा पर बाड़ लगा दी है। लेकिन निश्चयपूर्वक यह कोई नहीं कह सकता कि जब शरणार्थियों का प्रवाह एक बार शुरू हो गया तो फिर उसे रोकने में यह बाड़बंदी कितनी कारगर होगी।

रूस बातचीत के तथाकथित मास्को प्रारूप पर बातचीत करता रहा है और वह भी त्रोइका का हिस्सा रहा है और अब इसके विस्तारित रूप के साथ भी सक्रिय है। अभी तक इनमें से किसी ने भी सद्भावनापूर्ण परिणाम नहीं दिया है। रूस का आर्थिक कद बहुत बड़ा नहीं है, जो किसी भी एक पार्टी या दूसरे को आर्थिक प्रोत्साहन दे सके। लेकिन वह तालिबान के प्रति नरम भाव रखता है और इसी वजह से वह किसी समझौते के लिए तालिबान को प्रभावित करने के मद्देनजर पाकिस्तान पर निर्भर रह सकता है।

अफगानिस्तान में चीन एक अपेक्षाकृत नया खिलाड़ी है। कई लोग महसूस करते हैं कि अमेरिका की वापसी के बाद अफगानिस्तान में चीन का प्रभाव एवं उसकी भूमिका और बढ़ेगी। उसके पास इस देश में आधारभूत ढांचा खड़े करने और यहां की खनिज संपदा का भी दोहन करने की वित्तीय ताकत है। उसने तालिबान के साथ भी अपने संबंध ठीक रखा हुआ है। चीन की दिक्कत हालांकि यह है कि अनेक उइगर मुसलमानों ने अफगानिस्तान में शरण लिया हुआ है। ऐसे में, यह बहुत संभव है कि चीन उइगर उग्रवादियों के मुद्दे पर तालिबान से कोई डील करे। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

ईरान का पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान पर अच्छा प्रभाव है। हालांकि उसको इस बात पर खुश होना चाहिए कि अमेरिकी फौज यहां से वापस लौट रही है, लेकिन दूसरी तरफ वह अपने कट्टर शत्रु सुन्नी अमीरात के अफगानिस्तान की सत्ता में आने के लेकर फिक्रमंद भी है। अफगानिस्तान में अस्थिरता ईरान के लिए भी नुकसानदेह होगा। ईरान इस बात को नहीं भूला है कि तालिबान ने कई साल पहले उसके राजनयिक की हत्या कर दी थी।

अफगानिस्तान की स्थिरता भारत के लिए बहुत बड़ा जोखिम है। विगत 20 वर्षों में उसने अफगानिस्तान में 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश वहां के भौतिक संरचना के विकास में किया है। और वह अनेक क्षेत्रों में क्षमता निर्माण में अफगानियों की मदद कर रहा है। लेकिन भारत इस स्थिति में नहीं होगा कि वह इस देश की गिरती सुरक्षा स्थिति को संभाल सके। वहां की सरजमीं पर सेना उतारना उसके लिए बहुत मुश्किल होगा। इसीलिए भारत को अन्य क्षेत्रीय खिलाड़ियों, जैसे रूस और ईरान को मिलाकर समन्वय की स्थिति बनाने की दरकार होगी कि कैसे अफगानिस्तान में शांति लाई जा सकती है। रूस, ईरान और भारत गठबंधन, जिसने अहमद शाह मसूद का समर्थन किया था, उसका पुनरुत्थान, बदली परिस्थितियों में तो संभव नहीं है। भारत को देखना होगा कि यह नया प्रारूप आने वाले महीनों में किस तरह मजबूत स्वरूप ग्रहण करता है।

अमेरिका का एकमात्र स्वार्थ यह सुनिश्चित करना है कि अफगानिस्तान में उस पर कोई आतंकवादी हमला न हो। उसका लक्ष्य सीमित है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका मध्य एशिया और खाड़ी देशों में एक सैन्य अड्डा बनाने की संभावनाओं पर गौर कर रहा है।

हालांकि अमेरिका यह वादा कर रहा है कि फौज वापसी के बाद भी वह अफगान को समर्थन देना जारी रखेगा, लेकिन यह एक सामान्य वक्तव्य है, जिसमें कोई ठोस बात नहीं कही गई है। यह स्पष्ट नहीं है कि अफगान सरकार को अमेरिका से पहले की तरह ही ठोस आर्थिक और सुरक्षा सहायता मिलती रहेगी।

अमेरिका के विशेष राजदूत ज़ाल्मय खलीलज़ादी ने हाल ही में अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान और तजाकिस्तान का दौरा किया था। अमेरिका की स्थिति यह है कि भले उसकी फौज की वापसी हो जाए, लेकिन वह अफगान के साथ खड़ा रहेगा। यह एक अबूझ स्थिति है। अमेरिका ने खुले रूप में नहीं कहा है कि वह घानी सरकार को समर्थन देने के लिए प्रतिबद्ध है। घानी सरकार बहुत कमजोर विकेट पर है। कई सारे अफगानी ही उनकी सरकार का समर्थन नहीं करते।

इतना तो तय है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी क्षेत्रीय भू राजनीति के परिदृश्य को बदल देगी। अफगानिस्तान में उसकी दिलचस्पी काफी घट जाएगी। इसलिए भी कि अमेरिका अब चीन और रूस के साथ बड़ी शत्रुता और प्रतिद्वंदिता के मुकाबले में है। चीन और ईरान दोनों ही अपनी सामरिक साझेदारी को और बढ़ाने पर सहमत हुए हैं। चीन वन बेल्ट वन रोड योजना का उपयोग इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने में कर रहा है। इस परिदृश्य में अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी ऐसे समय हो रही है, जब चीन अपना विस्तार कर रहा है। लिहाजा, अमेरिकी फौज की वापसी के बाद क्षेत्रीय सत्ता संतुलन में बदलाव हो सकता है। अमेरिका अपने शत्रु और प्रतिद्वंद्वी रूस और चीन को स्पेस देना बंद करेगा।

अंतर-अफगान व्यवस्था के लिए अवसर तेजी से निकलते जा रहे हैं। इस वजह से अफगानिस्तान एक बार फिर अस्थिरता और हिंसा के नए दौर में फंस सकता है। अफगानिस्तान और अफगानी अपने बारे में एक अनिश्चित भविष्य देख रहे हैं। यह एक दयनीय स्थिति है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि अगर बड़े खिलाड़ियों ने अपने संकीर्ण एजेंडा को आगे बढ़ाने के बजाय अफगानिस्तान के व्यापक हित का ध्यान रखा होता तो आज ऐसी नौबत नहीं आती।

पाद-टिप्पणियां
  1. https://www.hindustantimes.com/world-news/taliban-carries-out-141-attacks-in-last-24-hours-across-afghanistan-says-report-101620046915498.html, 10.5.2021 को देखा गया।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)


Image Source: https://foreignpolicy.com/wp-content/uploads/2021/04/afghanistan-us-army-troop-withdrawal-1.jpg?resize=1535,1024&quality=90

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