‘असहिष्णुता’ की रक्षा में
Dr Dilip K. Chakrabarti, Editor, VIF History Volumes

इस बात के अभी ज्यादा समय नहीं हुए हैं, जब नरेन्द्र मोदी सरकार के पहली बार सत्ता में आने के बाद भारतीय और पश्चिम देशों के विश्वविद्यालयों के कुछेक शिक्षाविदों ने सार्वजनिक रूप से एक वक्तव्य जारी किया था। इसमें नई सरकार के साथ आने वाली असहिष्णुता की नीति के खतरों के बारे में देश को आगाह किया गया था। इस पृष्ठभूमि में उनके दो अनुमान थे, और जिन भौतिक तथ्यों पर उनके वक्तव्य आधारित थे, वे देश में ‘अराजकता’ के बारे में जहां तहां से ली गई खबरों पर आधारित थीं। ये इस तरह की खबरें थीं, जिन्हें इतने बड़े आकार और आबादी वाले देश भारत में किसी दिन के अखबार से कोई भी व्यक्ति हमेशा एकत्र कर सकता है। कोई उल्लास-उमंग में एक दूसरे के हाथ पर रगड़ा होगा, अगर हमारे कैम्पस (कॉलेज-विश्वविद्यालयों) में सचमुच असहिष्णुता की सचमुच कोई घटना हुई होती तो कुछ बुजुर्ग महिलाएं और भद्रपुरुष जो पहले के समय में अपने,साथी-सहयोगियों की दारुण परिस्थितियों के लिए जवाबदेह थे, वे उपद्रवी भीड़ से जान बचाने के लिए भागते नजर आते। इस लेखक के मानस में जिस कैम्पस की अवधारणा है, वे दिल्ली के हैं। यह लेखक जिन लोगों को भीड़ द्वारा दौड़ा लिया जाना पसंद करता, वे कुछ खास तरह के इतिहासकार होते। लेकिन उसकी यह आशा पूरी नहीं हो सकी और 2014 से ही सरकार के खिलाफ असहिष्णुता का लगाया जा रहा आरोप अभी तक बरकरार है और मीडिया में जब तब उसकी अनुगूंज सुनाई दे जाती हैं।

वर्तमान में मीडिया का ध्यान एक निजी विश्वविद्यालय की तरफ गया है, जो अभी ताजा-ताजा ही स्थापित हुआ है, जिसका मकसद उदार शिक्षा के लिए भारतीय धनाढ्यों के बच्चों की आवश्यकता को संतुष्ट करने का प्रयास करना है। इस लेख का स्रोत इस प्रकरण में एनडीटीवी से तथा कुछ अन्य जगहों से जुटाई गई सूचनाएं हैं। हम इस बात पर ताज्जुब करते हैं कि यह यूनिवर्सिटी एक अपने ‘प्रख्यात’ प्रोफेसर के विचारों को कृपापूर्वक ग्रहण नहीं करता कि देश मौजूदा सरकार में ‘अराजकता’ का बोलबाला है और संविधान की लगातार अवहेलना की जा रही है। एनडीटीवी हमें बताता है कि इसी यूनिवर्सिटी के एक अन्य ‘ख्यातिलब्ध’ प्रोफेसर ने इस्तीफा दे दिया है। कुछ विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर के इस्तीफा दे देने के मुद्दे को राष्ट्रीय मसले में नहीं बदला जा सकता, जैसा कि इस मामले में कुछ मीडिया घरानों ने बिना किसी ठोस वजह के किया है। लिहाजा, मुझे इस मसले के एक-एक बिंदु की विवेचना करने की दरकार है।

पहला, इन ‘प्रख्यात’ प्रोफेसरों में एक ने सरकार पर असहिष्णुता की ‘अराजक’ नीति पर अमल करने का आरोप लगाते रहे हैं। इस आरोप का मिलान 2014-15 की शुरुआत में कुछ अकादमिशियनों द्वारा लगाये गये आरोपों से किया जा सकता है। इसमें कोई सार नहीं था और इसका सरल मतलब था कि उस वक्तव्य पर दस्तखत करनेवाले लोग उस सरकार की पसंदीदा सूची में थे, जो 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के साथ विदा हो गई थी और इसीलिए उनकी निजी इच्छाएं इस नई सत्ता में पूरी नहीं हो सकती थीं। इसे समझना बिल्कुल आसान था। इसी तरह, जो आदमी नई हुकूमत के कामकाजी तरीकों में अराजक तत्व को खोजना शुरू किया और जिनके प्रति सहानुभूति में उनके सहयोगियों ने त्यागपत्र दे दिया, उन्होंने अंधरे में गुम होने से इनकार कर दिया और किसी न किसी तरह नेशनल मीडिया की निगाह में रहने की कोशिश करता रहा। यह ठीक है, जब तक कि कोई उसे बदल नहीं दे। चीजें तब बिगड़ती हैं, जब वे अकादमिक क्षेत्र में प्रदर्शन करते हैं और सवालों के घेरे में आये ये दो महाशय मीडिया में यश को भोगने के अधिकारी माने जाते हैं।

दूसरा सवाल अधिक महत्वपूर्ण है। इन महाशयों को क्या चीज ‘प्रख्यात’ बनाती है और क्यों मौजूदा सरकार के कामकाज को लेकर उनके विचार मायनेखेज बनते हैं? इस सवाल के पहले हिस्से का जवाब पहले दिया जाए, मौजूदा सरकार के खिलाफ आरोप मीडिया के कुछ हिस्सों में स्वीकार्य है और इसे चस्पां करने का कोई मौका जाया नहीं होने देना चाहेंगे। पहला मसला-उन महाशयों में से एक से संबंधित है-वह महत्वपूर्ण है और जो विगत कुछेक वर्षों में भारतीय अकदामिक जगत में कुछ चीजों के तेजी से जोर पकड़ने से संबंधित है।

अकादमिक जगत पर लम्बे समय से निगाह रखने वाले के रूप में, हमें इन बातों को स्पष्टता से रखने दें। जब इस लेखक ने 1977 में दिल्ली विश्वविद्यालय में एक अकादमिशयन के रूप में नियुक्त हुआ तो उस समय एक शिक्षाविद की अहमियत और शोहरत का पैमाना यह था कि वह व्यक्ति कितनी बार विश्व के प्रथम श्रेणी के विश्वविद्यालयों का दौरा या दौरे किये हैं। दूसरा, पैमाना यह होता था कि नौकरशाही तक उसके या उसकी किस हद तक पहुंच है। विश्वविद्यालय के किसी खास ‘स्कूल’ की ऊंची रसूख आंशिक रूप से इस बात पर निर्भर होती थी कि उसके एक या कई सदस्य योजना आयोग, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया आदि के भी सदस्य हैं। यद्यपि यह स्थिति 1970 के दशक में दिल्ली में नौकरशाही के दायरे और भारतीय नवधनाढ्यों की दुनिया के बाहर किन्हीं अर्थों में विरल थीं तो अब यह और अधिक स्थानिक हो गया है।

अमेरिकी मॉडल पर नौकरशाही और अकादमिक के बीच जुड़ाव बिल्कुल हाल का परिदृश्य है। वैसे इसमें कुछ गलत भी नहीं है। विवेकानंद इंटरनेशनल फांउडेशन में भी अवकाश प्राप्त राजनयिकों और रक्षाकर्मियों की बड़ी संख्या है, जिनकी विशेषज्ञता का बहुत ही अकादमिक उपयोग है, वे हमारे विश्वविद्यालयों को अपनी मेधाविता के उपयोग से शोधार्थियों एवं छात्रों को लाभ पहुंचा सकते हैं। पर भारतीय संदर्भ में ऐसा बहुत ही कम घटित होता है।

बुनियादी कहानी यह है कि सामाजिक विज्ञानों एवं मानविकी में भारतीय शिक्षाविदों के विशेषाधिकार वर्ग की निरंतर संवृद्धि है। यह एक जटिल कहानी है लेकिन बात यह है कि यह पोस्कर्स और चार्लटन्स के झुंड की वृद्धि की कहानी है, जो हमारे प्रौद्योगिकीविदों और वैज्ञानिकों के मुकाबले आधे नहीं हैं।

ईमानदारी की बात करें तो यह अरुचिकर परिदृश्य सामाजिक विज्ञानों एवं मानविकी क्षेत्र के वैश्विक अकादमिक परिदृश्य का लगभग अपरिहार्य हिस्सा है। किंतु हमारे देश में ये पोस्कर्स और चार्लटन्स बेरोकटोक फलते-फूलते हैं। देश की सत्ता-संरचना के प्रति उनका हाव-भाव पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें वे अपने लिए कितना काढ़ पाते हैं। किसी की यह इच्छा हो सकती है कि वह असहिष्णुता अथवा अराजकता (फासिज्म) की पूरी श्रृंखला को अमल में लाए,लेकिन यह हमारे देश की लोकतांत्रिक संरचना में एक असंभव परिघटना हो सकती है। इस वर्ग को राष्ट्रीय योजना अर्थात भारतीय इतिहास के गटर में उसके स्थान को स्पष्ट रूप से दिखाया जाना चाहिए जिसकी वह हैसियत रखता है।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)


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