16 जून को जिनेवा में अमेरिका-रूस शिखर-सम्मलेन बैठक के बाद सार्वजनिक रूप से बताए गए "निष्कर्षों" के बारे में सभी जानते हैं: दोनों देशों के राजदूतों की उनके संबंधित स्टेशनों पर वापसी; उनके राजनयिक और वाणिज्यिक मिशनों में राजनयिक परिसंपत्तियों और कार्मिकों की संख्या को पुराने स्तर पर बहाल करने के बारे में दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों में चर्चा; कैदियों की अदला-बदली पर चर्चाएं; (हथियार नियंत्रण के लिए) "रणनीतिक स्थिरता" वार्ताओं की शुरूआत; दोनों देशों से साइबर/रैनसमवेयर (फिरौती मांगने के लिए साइबर हमले) हमलों को रोकने के लिए तंत्र स्थापित करना; और आर्कटिक में सहयोग पर परामर्श।
शिखर सम्मेलन के बाद इस पहल से उलझन में पड़े पत्रकारों ने राष्ट्रपति बाइडेन से तीखे प्रश्न पूछे। पत्रकारों को उत्तर देते हुए श्री बाइडेन ने इस वार्तालाप के बारे में उनसे उल्लेखनीय रूप से बेहद स्पष्टवादी विवरण साझा किया और साथ ही बैठक के लिए उनकी पहल के पीछे की रणनीतिक सोच भी स्पष्ट की।
बाइडेन ने इस अलंकार पूर्ण प्रश्न से अमेरिकी वैश्विक रणनीति का सारांश प्रस्तुत किया: "हम किस तरह विश्व में अग्रणी, सबसे शक्तिशाली और सबसे लोकतांत्रिक देश के रूप में अपनी स्थिति बरकरार रख सकते हैं?" इस एक बात ने शीत युद्ध के बाद अमेरिकी विदेश नीति की मुख्य दिशा का संक्षेप में वर्णन कर दिया, भले ही अमेरिका में प्रशासन का राजनीतिक झुकाव कुछ भी हो। सोवियत संघ का विघटन होने के बाद और इसके परिणामस्वरूप एक ध्रुवीय विश्व के उदय होने पर अमेरिकी रणनीति इस बात पर केंद्रित रही है कि विश्व व्यवस्था को इस तरह से प्रभावित किया जाए जिससे भविष्य में अमेरिकी वैश्विक प्रभुत्व के लिए किसी भी चुनौती को रोका जा सके और अमेरिका ने इस बात को कभी छिपाया भी नहीं। बाइडेन का प्रश्न इसी बात की अनौपचारिक पुष्टि थी कि अमेरिका विदेश नीति के माध्यम से इसी उद्देश्य को आगे बढ़ाता रहेगा और इसे आगे बढ़ाने के लिए प्रत्येक उपलब्ध बहुपक्षीय और द्विपक्षीय साधन का उपयोग करेगा।
शीत युद्ध के बाद की उथल-पुथल ने अमेरिकी प्रभुत्व के लिए चुनौतियां पेश की हैं। रूस लगातार इसके लिए प्रयास कर रहा है कि उसकी महाशक्ति होने की स्थिति फिर से बहाल हो और उसे इसी रूप में मान्यता मिले। वैश्वीकरण और प्रौद्योगिकी ने कई उभरती हुई शक्तियों की इन आकांक्षाओं को मजबूत किया है कि विश्व के नए उभरते क्रम में वे अपने राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव का विस्तार करें। सबसे बढ़कर, चीन के तेजी से हुए उदय ने उसे निकट भविष्य में अमेरिका के बराबर पहुंचाने के मार्ग पर अग्रसर कर दिया है, जिससे अन्य महत्वाकांक्षी महाशक्तियों के लिए उपलब्ध राजनीतिक गुंजाइश सीमित हो गई है।
राष्ट्रपति बाइडेन ने इन सभी बिंदुओं पर बात की। उन्होंने रूस की इस धारणा को स्वीकारा (और इस पर विरोध नहीं जताया) कि अमेरिका और इसके सहयोगियों ने इसे "घेर" रखा है। रूस ने जब से राष्ट्रपति पुतिन के नेतृत्व में पश्चिम की पकड़ से मुक्त होने और अपनी सैन्य ताकत को फिर से मजबूत करने और राजनीतिक एवं आर्थिक साझेदारी का स्वतंत्र नेटवर्क विकसित करके वैश्विक प्रभाव हासिल करने का उद्देश्य रखा है, तब से इस देश में यह धारणा विकसित हो रही है। (तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्बाचेव को दिए मौखिक आश्वासनों को नकारते हुए) अपनी सीमाओं तक नाटो के विस्तार और इससे सटे हुए एवं आसपास के पड़ोसी देशों में रूसी प्रभाव को रोकने के लिए पश्चिमी देशों की कार्रवाइयों को रूस इसे रोकने के लिए घेरेबंदी के रूप में समझ रहा है। कथित खतरों के प्रति रूस की प्रतिक्रियाओं (जो कि कई बार जरूरत से अधिक होती हैं) और पश्चिमी की जवाबी प्रतिक्रियाओं (जो कि कई बार बेतहाशा होती हैं) ने विभिन्न क्षेत्रों में रूस-अमेरिका टकरावों को जन्म दिया है। क्रीमिया पर "कब्जा" या "एकीकरण"; एकतरफा प्रतिबंध (अन्य देशों पर प्रभाव डालकर द्वितीयक प्रतिबंधों सहित); अन्य देशों में सैनिकों या भाड़े के सैनिकों की तैनाती; और लोकतांत्रिक तरीकों के अलावा अन्य साधनों से शासन परिवर्तन को प्रोत्साहित करना – इन सब कार्रवाइयों में शामिल होकर इन दोनों ने अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया है।
राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा कि वह यह जानने के लिए राष्ट्रपति पुतिन से मिलना चाहते हैं कि क्या वे दोनों व्यापक "आम नियमों" पर सहमत हो सकते हैं। वह अपने साथ यह धारणा लेकर आए थे कि ऐसा होना संभव था क्योंकि राष्ट्रपति पुतिन भले ही ऐसा महसूस करते हों कि पश्चिमी देश "उसे अवनति की ओर ले जाना चाहते हैं", परंतु फिलहाल उनकी बड़ी समस्या यह थी कि चीन की बढ़ती शक्ति से रूस लगातार "सिमटता" जा रहा है। अमेरिका के साथ शीत युद्ध शुरू करने से अपनी अर्थव्यवस्था को नया जीवन देने और महाशक्ति के रूप में उभरने की रूसी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो पाएगी। इसलिए अपने इस स्वार्थ के कारण रूस अमेरिका से अस्थायी शांति-व्यवस्था कायम करने के लिए प्रेरित होगा। इस तर्क में हालांकि भौगोलिक-राजनीतिक समझदारी निहित है, फिर भी इसके मूर्त रूप लेने में संदेह था क्योंकि यह अमेरिका में राष्ट्रपति पुतिन की बनाई गई उस व्यापक छवि के विपरीत है जिसमें उन्हें विश्व व्यवस्था के लिए द्वेषपूर्ण और बेपरवाह खलनायक के रूप में चित्रित किया जाता है।
राष्ट्रपति बाइडेन की टिप्पणियों और अन्य संबोधनों से यह समझ बनती है कि अमेरिका ने इस भौगोलिक-राजनीतिक ज्ञान को अपना लिया है कि रूस को चीन की तरफ धकेलकर उसे अपने मुख्य रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी चीन के हाथ मजबूत नहीं करने चाहिए। राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा कि समूह-7, नाटो और यूरोपीय संघ सहित अपने यूरोपीय दौरे में वह जिस भी नेता से मिले, उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन के साथ उनकी बैठक का समर्थन किया। दूसरी ओर अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने राष्ट्रपति बाइडेन के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए इस बात पर प्रकाश डाला कि किस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन के मामले में विश्व भर के लोकतंत्रों से संबंध बनाए: नाटो को उसके द्वारा खड़ी की गई सुरक्षा चुनौतियों को स्वीकारने के लिए प्रेरित किया और समूह-7 और यूरोपीय संघ देशों द्वारा चीन के "गैर-बाजारवाद के आर्थिक व्यवहार" का मुकाबला करने और इस पर नकेल कसने के लिए समूह-7 और यूरोपीय संघ देशों में सहमति के लिए समन्वय किया।
इस घटनाक्रम को फिलहाल एक सुदृढ़ धारा के रूप में देखना उचित नहीं होगा: इस मार्ग पर ज्ञात और अज्ञात विभिन्न बाधाएं बिखरी हुई हैं। अमेरिकी राजनीतिक दुनिया में दोनों ही पार्टियों में रूस (और राष्ट्रपति पुतिन) के प्रति शत्रुता की जड़े बेहद गहरी हैं। बाइडेन प्रशासन द्वारा नियुक्त कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इस तरह का दृष्टिकोण रखते हैं। इसके साथ ही मुख्य अमेरिकी कॉर्पोरेट संस्थाओं के चीन से गहरे आर्थिक संबंध विद्यमान हैं। रूस के साथ तनाव ने ऐसे संघर्ष (या उनके भय) पैदा किए हैं जिनके चलते यूरोप और एशिया में अमेरिका के अत्याधुनिक हथियारों की बिक्री होती है।
अमेरिका-रूस में तनाव कम होने से यूरोप में विभिन्न अमेरिकी सहयोगियों के रणनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक हितों पर अलग तरह से प्रभाव होंगे। राष्ट्रपति बाइडेन भले ही यह दावा करें कि यूरोपीय नेताओं ने राष्ट्रपति पुतिन के साथ उनकी बैठक का स्वागत किया, फिर भी उनमें से कुछ इस वार्ता के भविष्य के उतार-चढ़ाव के बारे में चिंतित होंगे। यह बात हाल की इन खबरों से भी जाहिर होती है कि यूरोपीय संघ ने यूरोपीय संघ-रूस शिखर सम्मेलन के लिए फ्रांस और जर्मन के प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दी थी।
रूस में भी यह नई पहल बहुत सहज नहीं होगी। रूस से "अच्छे व्यवहार" की अपेक्षा इस धारणा पर आधारित है कि रूस से या उसके द्वारा होने वाला प्रत्येक "दुर्भावनापूर्ण" कार्य क्रेमलिन द्वारा प्रायोजित है, परंतु जो लोग रूस में राजनीतिक, सरकारी और कॉर्पोरेट जीवन के उतार-चढ़ाव (या यहां तक कि इसकी सोशल मीडिया) से परिचित हैं, वे जानते हैं कि यह पूरा सच नहीं है। रूस में कुछ लोग अमेरिका-रूस टकराव से लाभ उठाते हैं। इनमें विपक्षी समूहों और साइबर अपराधियों सहित विभिन्न लोग शामिल हैं।
इसलिए इस प्रक्रिया को रूस के गैर-सरकारी आपराधिक तत्वों, आर्थिक हितधारकों या राजनीतिक संस्थाओं द्वारा या पश्चिमी देशों द्वारा पटरी से उतारा जा सकता है।
यदि यह बात आगे बढ़ती भी है तो भी अमेरिका-रूस संबंध की कुछ सीमाएं हैं। अमेरिका के दीर्घकालिक रणनीतिक लक्ष्य बदल नहीं सकते। बाल्टिक देशों की खतरे की धारणा, यूक्रेन एवं जॉर्जिया की आकांक्षाएं और मध्य यूरोपीय नाटो देशों के रणनीतिक लक्ष्यों के कारण अमेरिका रूस को ज्यादा "रियायतें" नहीं दे पाएगा। इसलिए जब तक इनमें से कुछ सीमाओं के हालात में बदलाव नहीं होता है, तब तक "नियंत्रित टकराव" दोनों पक्षों के संबंधों के लिए सबसे अच्छी स्थिति होगी, जिसमें यह सुनिश्चित करने के लिए सुदृढ़ व्यवस्था हो कि स्थितियों का पलड़ा अनियंत्रित होने की नहीं झुक पाए।
भारत के दृष्टिकोण से, अमेरिका-रूस के संबंधों में नई शुरूआत अच्छी खबर होगी। परमाणु और पारंपरिक, आक्रामक और रक्षात्मक सहित सभी सामरिक हथियारों के बारे में हथियार नियंत्रण वार्ता स्वागत योग्य घटनाक्रम है क्योंकि इससे अंततः चीन की आक्रामक हथियारों की क्षमता पर भी विश्व का ध्यान जाएगा। यदि साइबर सुरक्षा परामर्श के परिणामस्वरूप अंतरराष्ट्रीय साइबर अपराध को रोकने, पता लगाने और दंडित करने के लिए कोई ढांचा तैयार होता है तो यह इससे अन्य द्विपक्षीय व्यवस्थाएं प्रोत्साहित हो सकती हैं और इससे अंतर्राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा सहयोग के लिए नियम-कानून बनाए जाने को गति मिल सकती है।
इस नई शुरूआत से भारत-रूस संबंधों पर अमेरिकी दबाव कम हो सकता है (भले ही इसका सीमित प्रभाव हो)। जिनेवा शिखर सम्मेलन से पहले, अमेरिका ने रूस-जर्मनी गैस पाइप लाइन परियोजना, नॉर्ड स्ट्रीम 2 पर प्रतिबंधों से छूट दी थी। भारत भी रूस से हमारे हथियारों के आयात के संदर्भ में भारत के सुरक्षा हितों के प्रति अमेरिका से ऐसी ही संवेदनशीलता के लिए दबाव डाल सकता है। अफगानिस्तान से अमेरिका और नाटो के बाहर निकलने से यूरोपीय-एशियन क्षेत्र में भारत की रणनीतिक चुनौतियां और अधिक जटिल हो गई हैं। ये चुनौतियां इस क्षेत्र से हमारे गहन जुड़ाव को निर्देशित करती हैं जिसमें रूस के साथ सहयोग करना शामिल है ताकि वहां रूस-चीन सह-व्यवस्था रोकी जा सके। इसके लिए कनेक्टिविटी महत्वपूर्ण है जिससे ईरान के माध्यम से भारत को अफगानिस्तान, मध्य एशिया और रूस से जोड़ने वाले बहुविध परिवहन योग्य उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे का महत्व बढ़ जाता है। बाइडेन प्रशासन को यह स्वीकार करना चाहिए कि ये उद्देश्य उन व्यापक अमेरिकी रणनीतिक हितों के अनुकूल हैं जिन्हें राष्ट्रपति बाइडेन ने जिनेवा में वर्णित किया था।
Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
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