शिंजो अबे का “वृहत्तर एशिया” और भारत जापान संबंध
Dr Anil Rawat

जापान के उत्तर-युद्ध काल के राजनीतिक इतिहास में, उसका कोई प्रधानमंत्री वैश्विक मीडिया, राजनीतिक, राजनयिक और आम जनता के आकर्षण का इतना केंद्र नहीं रहा है, जितना कि शिंजो अबे अपने कार्यकाल और विशेष रूप से अपना पद अकस्मात छोड़ने के बाद भी सभी के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। और यह उस महान पुरुष के प्रति सभी का बिल्कुल स्नेह-आदर का भाव है, जिसने न केवल जापान की बीमार अर्थव्यवस्था को अच्छी तरह चंगा कर बेहतरी की तरफ अग्रसर कर दिया बल्कि जापान को एक ऐसे प्रक्षेपण पथ पर ला खड़ा किया जिसने जापान को अन्य राष्ट्र-बिरादरी के बीच पुनर्प्रतिष्ठित किया; बल्कि विकासशील बहु-ध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय की संरचना में जापान को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक-आर्थिक रणनीति के केंद्र के रूप में उभार दिया।

अबे कोई मामूली राजनीतिक नहीं हैं। उन्हें “जापानी राजनीति का राजकुमार” यों ही नहीं कहा जाता था। अबे को एक समृद्ध राजनीतिक विरासत मिली थी और उनमें जापानी राष्ट्र की एशियाई आत्मा की गहरी समझदारी थी। उनका परिवार दक्षिण-पश्चिम जापान के प्रांत के यामागुची-तात्कालीन चोसु-से ताल्लुक रखता है। यह ऐसा क्षेत्र है, जिसने मेइजी रेसटोरचिओन, 1868 में जापान की आधुनिक क्रांति का नेतृत्व किया था और आधुनिक जापान को आठ-आठ प्रधानमंत्री दिये थे। इससे भी ज्यादा युद्ध-पूर्व सेना का नेतृत्व किया था। अबे को अपने मूल निवास स्थान को लेकर काफी गर्व था। यद्यपि उनका जन्म टोक्यो में हुआ था और वह हमेशा अपने रजिस्टर्ड आवास यामागुची प्रांत के नागातो (होनसेकि चि) में रहते आए थे। उनके दादाजी कान अबे ने हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स (1937-1946) में यामागुची प्रांत का प्रतिनिधित्व किया था, जबकि उनके चचेरे दादाजी आइसाको सेतो (1964-72) देश के प्रधानमंत्री रहे थे। उनके पिताजी शिन्तारो अबे 1980 के दशक में जापान के विदेश मंत्री रहे थे। शिंजो अबे के नाना जी नोबुसुके किशी जापान के प्रधानमंत्री थे।अपने चचेरे दादाजी सेतो के माध्यम से, अबे परिवार का विदेश मंत्री मात्सुओका योसुके से संबंध जुड़ा था जिन्होंने जापान के धुर-गठबंधन के लिए वार्ता की थी। उत्तर-युद्धकालीन जापान की राजनीति में अबे के परिवार के प्रभुत्व ने एक अंतरंग संबंध की लहर पैदा की जिसने अबे को जापान के राजनीतिक पदानुक्रम में त्वरित विकास को संभव किया।

अबे की मानसिकता का निर्माण

जापान के प्रमुख राजनीतिक परिवार में जन्म लेने के कारण अबे की राजनीतिक शिक्षा घर की पाठशाला में ही हुई। घर पर होने वाली पारिवारिक सदस्यों की राजनीतिक बातचीत में उन्हें जापानी राजनीति की पेचीदगियों-जटिलताओं तथा विकसित होती राजनीतिक प्रक्रियाओं के विकास में योगदान करने वाले किरदारों और ताकतों के बारे में जानकारी मिली। अबे परिवार का टोक्यो स्थित घर नेपथ्य की लगातार होने वाली राजनीतिक बैठकों का एक अड्डा बना हुआ था, जहां अपने समय के सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक नेता आगे के अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने की रणनीतियां बनाने के लिए अक्सर वहां जमा होते थे। इन मौकों पर आने वाले वरिष्ठ राजनीतिक नेताओं की आवभगत करते और उन्हें विचार-विमर्श करते देखते हुए शिंजो अबे ने अपनी किशोरावस्था से ही राजनीतिक वार्ताओं की सूक्ष्म कला आत्मसात कर दिया था, जिसे उन्होंने अपने भावी राजनीतिक जीवन में बड़ी ही निपुणता से उपयोग किया।

फिर सेइकेइ यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान, युवा अबे को अपने घर पर हासिल इस व्यावहारिक अनुभवों को सैद्धांतिक अवधारणाओं में बदलने का एक अवसर मिला, जो आगे चल कर उनके राजनीतिक चिंतन में परिपक्व हुआ। वहां राजनीतिक विज्ञान के एक छात्र के रूप में उन्होंने कई सारे विषयों में ‘ए पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ जापान’ का अध्ययन किया, जिसने जापान राष्ट्र को “स्वर्गिेक शांति का द्वीप समूह” बनाने के कोजिकी और निहोनशोकी में प्रतिष्ठित पावनतम विचारों को उनके सामने उद्घाटित कर दिया। स्वर्गिक शांति का द्वीप समूह बनाने का यह विचार अबे के दिमाग में इतना गहरा प्रभाव डाला, कि उसे उन्होंने अपनी किताब “टुवार्डस ए ब्यूटीफुल कंट्री : माय विज़न फॉर जापान” में प्रतिपादित किया है। अबे ने कोजिकी और निहोनशोकी की कहानियां स्कूल में अपने इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में अवश्य पढ़ी होगी, लेकिन सेइकेइ यूनिवर्सिटी में उन्होंने इंटरनेशनल पॉलिटिक्स और हिस्ट्री ऑफ जापानी पॉलिटिकल थॉट पढ़ते हुए सुनी है। इस राजनीतिक विचार ने अबे को रूपांतरित किया और इतिहास के अनुक्रम में उन्हें विकसित किया।

स्वर्गिक शांति के प्रायद्वीप के विचार को ईडो खाड़ी में ब्लैकशिप के अवतरण से गहरा झटका लगा। इस घटना ने मीजी ईशीन के शासनकाल में क्रांतिकारी बदलाव ला दिया था, इसने जापान को नई स्थितियों में ढलने के लिए विवश किया, जो न केवल घरेलू राजनीति, आर्थिक और सामाजिक पद्धति को रूपांतरित होने का अवसर प्रदान किया बल्कि एक बार तो जापान के एक स्वतंत्र राष्ट्र के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप युग में विकसित राजनीतिक विचार न केवल जापानी राजनीति के आधुनिकीकरण को लेकर चिंतित था बल्कि जापान को अंतर्राष्ट्रीय हैसियत दिलाने का मुद्दा भी पढ़ाई के दौरान समान रूप से महत्वपूर्ण था। मीजी ईशीन के नेता तुरंत ही एक जगह जमा हुए और अपनी समस्त आबादी को घरेलू प्रणाली के सभी आयामों में मौलिक रूपांतरण के लिए प्रेरित किया और वैश्विक मामलों में सम्मानजनक स्थान सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत और आधुनिक जापान की बुनियाद रखी। उस “मीजी ईशीन की भावना” को फुकुओ क्योही (समृद्ध देश, शक्तिशाली सेना), बुनमेई काइको (सभ्यता और आमोद-प्रमोद) और शोकुसन कोग्यो (उद्योग को बढ़ावा) जैसे नारों में सम्पुटित किया गया था। ऐसे उदबोधक नारों ने जापानी लोगों की मानवीय भावनाओं को विह्वल कर दिया था और आधुनिक जापान की आधारशिला रखने में उनके राष्ट्रवादी उत्साह को प्रवर्तित कर दिया था।

मीजी ईशीन एक ऐसे अनुपातिक महत्व की घटना थी, जिसने ऐसे प्रत्येक जापानी के दिलों-दिमाग पर गहरा असर डाला, जिसने स्कूल तक की भी पढ़ाई की हो। लिहाजा, मीजी की भावना ने युवा अबे के मन-मस्तिष्क को गहरे प्रभावित किया था। एक प्रधानमंत्री के रूप में शिंजो अबे, जापान का कायाकल्प करने की धुन में मीजी युग के क्रांतिकारी और पुनरोत्थान के जोश का आह्वान किया-मौजूदा संकट से त्राण के लिए उस युग की भावना की याद दिलाने के लिए। “मीजी युग में हमारे अपने पूर्वजों के समान, हम एक बार फिर सभी जापानी लोगों के लिए अवसर पैदा करेंगे और निश्चित रूप से तेजी से बूढ़ी होती आबादी और घटती जन्म दर की समस्या पर भी ध्यान देंगे,” अबे ने खुराक पर दिये अपने भाषण में कहा, “यह नये जापान की रचना के लिए हमारे पास बेहद उपयुक्त समय है।”

चूंकि शिंजो अबे मीजी भावनओें को उभारने का आह्वान करते रहे हैं तो उन्होंने राजनीति-समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रियाओं और इसमें अपने समय के नेताओं द्वारा निभाए गये किरदारों के बारे में अवश्य ही अध्ययन किया होगा। चोसु-से कुल से आने वाले वाले नेता होने के कारण अबे को जापान के पहले प्रधानमंत्री एवं आधुनिक लोकतांत्रिक जापान के वास्तुकार की विरासत और चोसु-से पांच के प्रख्यात सदस्यों से ताल्लुकात रखने के कारण, शिंजो अबे ने इतो हिरोबुमि से प्रेरणा ली होगी और नये जापान के रूपांतरण-प्रक्रिया के मार्ग में आने वाली बाधाओें से पार पाना सीखा होगा, जिस जापान की आज उन्होंने परिकल्पना की थी। मेधावी और प्रभावी राजनीतिज्ञ के रूप में ख्यात हिरोबुमि ने वैश्विक मामलों में जापान के लिए एक प्रबुद्ध दृष्टि के साथ आधुनिकता की प्रक्रिया को देखा था, इसे अबे ने अनुकरण योग्य विजन माना था। अबे अब एक राजनीतिक पार्टी के नेता थे, जिसे उनके पूर्वजों ने स्थापित किया है। अबे ने जापानी राजनीति के लोकतांत्रिक रूपांतरण और दुनिया के लिए जापान को खोलना एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने जापानी राष्ट्र की बुनियाद को मजबूत किया ताकि वह राष्ट्रों के समुदाय में सम्मानजनक स्थान पा सके। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया लॉस एंजिल्स (यूसीएलए) में एक दौरे के दौरान अबे को बताया गया कि “चोसु पांच” (जिसके हिरोबुमि एक प्रख्यात सदस्य थे) के खुलेपन, अंतरराष्ट्रीयकरण, लोगों के लोगों से मेलजोल और समाज के प्रति योगदान करने के महत्तर मूल्यों को यूसीएलए में अंतर्गुम्फित किया गया है। लोकतंत्र, खुलापन, अंतरराष्ट्रीयकरण जैसे समान विचारों की तुलना ने एक मानसिकता का मॉडल बनाने में मदद की जो अबे के मन-मस्तिष्क में गहरे अंतर्निहित रहा। इसके तदन्तर, ताइशो लोकतंत्र के अंतर्गत विकसमान राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रियाओं ने अबे को मुतमईन किया कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और आर्थिक-समृद्धि के बीच कोई संबंध है। इस अवधि के दौरान जापानी लोगों ने आर्थिक समृद्धि और राजनीतिक स्वतंत्रता का भरपूर आनंद लिया। ये मूल्य और विचार ‘बृहतर एशिया’ और मुक्त एवं खुले हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की उनकी अवधारणाओं में बहुलता से गहरे प्रभावित हुए हैं।

विशिष्ट विशेषताओं के साथ लोकतंत्र का उभार मीजी ईशीन का एक महत्वपूर्ण आयाम था, जो उस समय उत्तर-एशियावाद और पश्चिमवाद के विरोध साथ राष्ट्र के मिजाज को प्रतिबिम्बित कर रहा था, जो आवश्यक रूप से एक ही सिक्के के दो पहलू थे। पश्चिमवाद का विरोध जल्द ही “पश्चिम चलो’’ के रूप में रूपांतरित हो गया, लेकिन उत्तर-एशियावाद जो जापानी राजनीतिक विचार दर्शन में जापानी राष्ट्र की जड़ों की तरफ लौटने का आग्रही था, वह एक सघन वाद-विवाद का विषय हो गया था और यह दूसरे विश्व युद्ध तक विविध रूपांतरणों से गुजरता रहा। जैसी कि बाद में नीति की घोषणाएं की गईं, अबे ने अपने प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान राजनीतिक और राजनयिक कदमों के जरिये यह सुझाया कि उन्होंने इन गुणों से किसी का भी पूरी तरह अनुमोदन नहीं किया था। जापानी राजनीतिक विचार में एशियावाद एक गतिशील धागा है, जिसे युवा अबे ने एक छात्र के रूप में सेइकेइ में अवश्य ही अध्ययन किया होगा तथा किता इक्की और शम्मी ओकावा के लेखन से परिचित हुए होंगे। लेकिन जैसे ही वह जापानी राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेने लगे, उन्होंने पाया कि एशियावाद ब्रांड की एक सीमा है और वह अपर्याप्त है। अबे आधुनिक समयों के लिए अपने दृष्टिकोण को स्वयं ही पल्लवित-पुष्पित कर रहे थे और इसे बिल्कुल इतो हिरोबुमि के प्रबुद्ध दृष्टिकोण की लाइन में जांच-परख रहे थे। अन्य पश्चिमी महाशक्तियों के मुकाबले, हिरोबुमि का एशिया में राजनीतिक रूप से एक भारी-भरकम, एक क्षेत्रीय महाशक्ति, के रूप में जापान को लेकर एक दीर्घकालीन दृष्टिकोण था। जापान का एशिया के नेता के रूप में इतो का विजन एशिया की भौतिक विजय के रूप में परिकल्पित नहीं था, बल्कि ठोस राजनीतिक-आर्थिक सहयोग पर आधारित एक सहकारी तंत्र पर था। न ही उन्होंने इसे पश्निम-विरोधी संघ के रूप में परिकल्पित किया था, इसके बजाय इसे सहयोग पर आधारित एक व्यवस्था के रूप में देखा था। अबे ने अपने बृहतर एशिया और मुक्त एवं खुले हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के बारे में अपने विजन को ऐसे ही मूल्यों से निरूपित किया था।

अबे का विजन और बृहतर एशिया

एशिया जापान की विदेश नीति का मुख्य आधार है। उत्तर-एशियावाद जापान में पहली बार मीजी काल में एक आदर्शवादी-सांस्कृतिक अभियान के रूप में विकसित हुआ। मीजी के परवर्ती काल और ताइशो युग में यह देश की राजनीति में प्रभावकारी होता गया। आज के जापान में भी एशियाई विचार की न केवल एशिया में जापान की भूमिका को लेकर होने वाले विमर्शों में बल्कि जापानी विदेशी नीति के संदर्भ में भी उसकी मौजूदगी है। वैश्विक मामलों में जापान के लिए, खासकर हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के लिए, शिंजो अबे का दृष्टिकोण इतिहास की उनकी समझ और वास्तविक राजनीति की दुनिया में एक राजनीतिक सहभागी के रूप में मिले अनुभवों के आधार पर समय के साथ विकसित हुआ है।

अमेरिका में तात्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ मुलाकात के बाद अपने पहले भाषण में अबे ने कहा था,“जापान टायर-टू देश नहीं है और न कभी होगा। एशिया के इस पुनरुत्थान के युग में जापान के लिए अपने साझा नियम-कायदों और मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए अधिक जवाबदेही वहन करने का समय है।” अबे उस राजनीतिक पीढ़ी से ताल्लुक रखते हैं, जो यह विश्वास करती है कि जापान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अवश्य ही अपनी पहचान पूरे दम-खम के साथ रखना चाहिए। अबे का मुख्य सरोकार विश्व राजनीति में प्रतिष्ठित स्थान सुरक्षित करना था और इस संदर्भ में खास तौर पर जापान के एशियाई मूल को मजबूती देना था। हालिया याददाश्त में, किसी भी नेता ने एशिया में रणनीतिक चिंतन को इस तरह से सम्पूर्णता और प्रचुरता में नहीं बदला है, जितना कि अबे ने। हालांकि, जापान के वैश्विक मामलों में जगह बनाने की खोज में उन्होंने जापान को एशिया के एक विजेता के रूप में देखने के बारे में नहीं सोचा, न ही एशिया के पुनरुत्थान को पश्चिम विरोधी रुख के रूप में ही परिकल्पित किया। इसके बजाय, वैश्विक संबंधों की एक सहकारी तलाश जापान को पुनर्स्थापित करने तथा उसके लिए इज्जत की एक जगह सुरक्षित करने के उनके टिकाऊ भरोसे पर आधारित थी। एशिया के प्रति ऐसे दृष्टिकोण और जापान ने इसे इतो हिरोबुमि, जो आधुनिक जापान के पहले प्रधानमंत्री थे और चोसु कुल-कटुम्ब के नेता थे, उनके साथ गहराई से पुष्ट किया था।

अबे के बृहतर एशिया के विजन में एक अन्य जो असाधारण तत्व था, वह था, भौगोलिक विस्तार जो सम्मिलित किये जाने की मांग करता है। एशियाई विमर्शों के इतिहास में कभी भी, युद्ध-पूर्व और युद्ध के पश्चात, एशिया के विस्तार की अवधारणा के बारे में नहीं सोचा-विचारा गया, जितना कि शिंजो अबे के बृहत्तर एशिया के विजन को समझा गया, इस पर खूब चर्चाएं भी हुईं। बृहतर एशिया के बारे में अपने विजन का विकास करते हुए और विशेष कर अपने दादाजी जी किशी से सुनी कहानियों में अबे ने स्वतंत्रता पश्चात भारत की विदेश नीति के एशियाई उन्मुखीकरण के बारे में अवश्य ही जाना होगा। इस संदर्भ में, 1947 में हुए एशिया रिलेशन्स कॉन्फ्रेंस (एआरसी) एक मील का पत्थर घटनाक्रम साबित हुआ। यद्यपि उसमें जापान एलायड ऑकुपेशन के कारण भाग नहीं ले सका था, लेकिन जापानी नेताओं के ऊपर उसका प्रभाव कभी कम नहीं रहा। अबे के बृहतर एशिया का भौगोलिक विस्तार मोटा-मोटी एशियाई संबंध कॉन्फ्रेंस के विस्तार जितने ही है। बृहतर एशिया की अपनी इस अवधारणा को प्रतिपादित करते हुए अबे ने जापान के युद्ध-पूर्व, उत्तर-एशियावाद को चीन-कोरिया केंद्रित एशिया की धारणा तथा पश्चिमवाद के धुर विरोध के दो कोलाहलमय विचारों से अपने देश को मुक्त कर लिया। ठीक इसी तरह, अबे ने विश्व की उभरती सामरिक संरचना और इसमें जापान की भूमिका के प्रति अपना विश्वास पुष्ट किया। उन्होंने जापान की मौजूदा एशियाई नीति के साथ जापान के युद्ध-पूर्व एशियावाद में तुलना को लेकर कुछ हलकों में लगाये जा रहे कयास पर पानी फेर दिया।

अबे और भारत-जापान संबंध

बचपन की कहानियां हमारे मूल्यों, विश्वासों, रवैयों, और सामाजिक रीति-रिवाजों पर गहरे असर डालती हैं, जो बदले में युवा विश्व दृष्टिकोण को एक आकार देती हैं और अबे ने अपने दादा नौवुसुको किशी की गोद में भारत के बारे में प्यारी-प्यारी कहानियां सुन रखी थीं, जो स्वयं भारत से बहुत प्यार करते थे। अनेक कारकों ने किशी में भारत के प्रति उनके प्यार भरे व्यवहारों को एक खाका बनाया था। युद्ध-पूर्व जापानी सरकार ने उनका मन बनाया होगा कि जापान का एशियावाद भारत की साझेदारी के बिना अधूरा रहेगा, जिसके लिए सुभाष चंद्र बोस जापान से सहायता की मांग कर रहे हैं। आइएमटीएफई मामले में राधाविनोद पाल का फैसला, जिसने उनके युद्ध काल के साथियों को दोषमुक्त किया था, यह अवश्य ही उन्हें आनंद से भर दिया होगा। इसके बाद, भारत की उत्तर-एशिया विदेश नीति और जापान के प्रति उसका नजरिया शांति-समझौते पर दस्तखत करने और क्षतिपूर्ति मामले के निबटारे ने किशी को भारत के अपने साथी एशियाई राष्ट्रों के प्रति जताये गये सरोकार ने भरोसा दिलाया होगा तथा भारत के प्रति अपने नजरिये को मजबूत किया होगा।

इससे भी महत्त्वपूर्ण, किशी को भारत दौरे के दौरान हुए हर्षित करने वाले अनुभवों ने एक शिखर का घटनाक्रम था, जिसने भारत के बारे में उनकी अवधारणा को एक आकार प्रदान किया। वास्तविकता है कि नोबुसुके किशी प्रधानमंत्री बनने के पहले ही साल में भारत दौरे पर आये थे, जिससे भारत के प्रति उनकी मित्रता के भाव को परिलक्षित करता है। किशी का सार्वजनिक स्तर पर अभिनंदन किया गया, जहां प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के यह कहने पर कि “यह जापान के प्रधानमंत्री हैं। एक ऐसे देश के, जिसका मैं बहुत आदर करता हूं,” हजारों लोगों ने करतल ध्वनि से आसमान गुंजा दिया था। एक पराजित और हतोत्साहित करने वाले देश तथा उसके नेता के प्रति प्रशंसा के ऐसे शब्दों और उत्कंठित कर देने वाले स्वागत समारोह ने किशी को बेपनाह शुक्रगुजारी से भर दिया गया होगा।

अबे अपने ह्रदय में ऐसे ही उदात्त भाव लिए भारत आए थे। जैसा कि उन्होंने जापानी राजनीति को उच्च स्तर पर ले जाने का प्रयास किया, उसी तरह से अपने कार्यकाल में भारत के साथ दोस्ताना संबंध को और ऊंचाइयां दीं। प्रधानमंत्री होने के काफी पहले से ही वह भारत के प्रति अपने नेक ख्याल जताने लगे थे। एक रणनीतिक योजना पर विचार के लिए बुलाई गई बैठक में उन्होंने घोषणा की कि “किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर अगले 10 साल में जापान-भारत कारोबारी और आर्थिक संबंध जापान-चीन और यहां तक कि अमेरिका के साथ व्यापार-संबंध को पार कर जाए।” भारत से अपने संवादों में अबे ने कई चीजें पहली बार कीं। वह जापान के पहले प्रधानमंत्री थे, जो अपने कार्यकाल में चार बार भारत दौरे पर आये थे। अबे जापान के पहले प्रधानमंत्री थे, जो गणतंत्र दिवस पर होने वाली परेड के मुख्य अतिथि थे। वह भारतीय संसद को संबोधित करने वाले पहले जापानी प्रधानमंत्री थे।

अबे के मन-मस्तिष्क में सबसे प्रमुख एजेंडा वैश्विक मामलों में जापान को प्रमुख स्थान दिलाना था। यह करते हुए अबे ने विदेश नीति में कई जबरदस्त पहलें कीं और अनेक मसलों पर रणनीति चिंतन को परिभाषित किया। मुक्त और खुला हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र (एफओआइपी) की उनकी अवधारणा अप्रतिम थी, जिसमें भारत को प्रमुख स्थान दिया गया है।
अपने दादा की ही तरह, अबे अपने प्रधानमंत्री होने के पहले वर्ष में ही भारत दौरे पर
आए थे, इसके नेताओं को यह बताने के लिए कि उनका विजन भारत के साथ गहरी साझेदारी के साथ इस क्षेत्र के लोकतांत्रिक देशों के बीच व्यापक सहयोग को बढ़ावा देना है।भारतीय संसद को अपने पहले संबोधन में उन्होंने दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक द्विपक्षीय लगाव की विरासत का आह्वान किया तथा “बुनियादी मूल्यों, जैसे स्वतंत्रता, लोकतंत्र, और बुनियादी मानवाधिकार के प्रति आदर एवं रणनीतिक हितों को बढ़ावा देने के लिए साझेदारी के एक क्षेत्र के गठन का आह्वान किया।”

भारत के साथ, अबे के संवादों में से प्रत्येक ने भारत के साथ अग्रणी समझौते किये हैं, जिनके परिणामस्वरूप भारत के आर्थिक विकास और भारत की अर्थव्यवस्था में जापान की संलग्नता में बढ़ोतरी के रूप में सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। अबे ने भारत की परवान चढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ जापान के आर्थिक संबंध स्थापित करने के महत्त्व का अनुभव कर लिया था कि यह एक गत्यात्मक, शांतिपूर्ण और समृद्ध एशिया बनाने के उनके प्रयासों में एक अहम कारक को संघटित करेगा।

यद्यपि इस वर्तमान शताब्दी की शुरुआत में भारत द्बारा “लुक इस्ट” नीति की पहल करने के साथ ही भारत-जापान संबंध में एक उठान प्रारम्भ हो गया था, लेकिन नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और “एक्ट इस्ट” नीति की उनकी परिकल्पना के बाद इसमें और ऊंच्चाइयां आईं। सबसे बड़ी बात यह थी कि दोनों नेता एक दूसरे के प्रति अजनबी नहीं थे। आर्थिक गतिविधि के हर संभव क्षेत्र तक अपने संबंध को विस्तारित करने के मोदी के लक्ष्य के साथ अबे के विजन साम्य रखते थे। जापान का प्रस्तावित विस्तारित गुणात्मक संरचनागत पहल, जो भारत के मेक इंडिया मिशन से मेल खाती है। अबे ने परिकल्पित किया कि गहरे आर्थिक संबंधों, औद्योगिक नेटवर्क और कनेक्टिविटी का पोषण तीसरे देशों के साथ संयुक्त उपक्रमों को प्ररित करेगा, जो उनके इस क्षेत्र को समृद्ध और शांतिपूर्ण बनाने के उनके प्रयास को आगे ले जाएगा। इस द्विपक्षीय संबंधों में अत्यधिक गत्यात्मकता इन दोनों नेताओं को दोस्ताना ताल्लुकातों की वजह से भी आई। उनकी दोस्ती ने स्वामी विवेकानंद और ओकाकुरा की याद ताजा करा दी। स्वामी जी ओकाकुरा को इस तरह अपनी बांहों में भर लेते थे जैसे “पृथ्वी के आखिरी दो छोरों से आ कर दो भाई परस्पर मिल रहे हों।”

भारत-जापान संबंध स्थापित होने के लिहाज से अबे-युग के विशेष कर तीन अहम मील के पत्थर हैं.

  1. मोदी के स्वत:स्फूर्त और ऊर्जास्वित पहलकदमी से प्रेरित द्विपक्षीय संबंध अर्थव्यवस्था के हरेक आयाम को, खास कर, व्यापक विकासात्मक और संरचनागत परियोजनाओं तक असाधारण रूप से विस्तारित हो गया है। इनमें से रणनीतिक महत्व के कुछेक उपक्रमों, जिनमें उत्तर-पूर्व और अंडमान और निकोबार प्रायद्वीपों के विकास की पहलकदमी अबे युग में की गई। उत्तर-पूर्व में जापान की प्रतिबद्धता असम में आगामी औद्योगिक नगर के बसाव को सड़कों से जोडने वाली परियोजनाओं में झलकती है, जो उच्च गुणवत्ता की संरचना करती है और उत्तर-पूर्व को क्षेत्रीय मूल्य संवर्द्धित श्रृंखला और दक्षिण-पूर्व एशिया के बाजारों से जोड़ती है। अब जापान ओवरसीज डवलपमेंट एंड (ओडीए) और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का एक बृहत स्रोत है।
  2. असैन्य परमाणु समझौते पर दस्तखत करने में देरी विक्षुब्ध करने देने वाले मसलों में से एक थी, जो कई वर्षों तक परस्पर संबंधों को हलकान करती रही थी। यह गतिरोध भी अबे-मोदी के दोस्ताना ताल्लुकात की वजह से ही दूर हो सका। इस समझौते ने परमाणु आपूर्ति समूह के देशों तक भारत की बाधाओं को दूर कर दिया, जो भारत को अपनी ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति में मदद को आसान बना देगा।
  3. अबे-मोदी की मित्रता का अन्य उल्लेखनीय परिणाम था-एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर(एएजीसी) की शुरुआत होना। यह भारत, जापान और अफ्रीका के कई देशों के साथ आर्थिक करार है। इस पहलकदमी की अप्रतिम विशेषता इसका सचेत रूप लोकान्मुखी होना है। एएजीसी के चार मुख्य कारक हैं: विकास और सहयोग की परियोजना, गुणवतापूर्ण संरचना और संस्थागत कनेक्टिविटी, क्षमता और कौशल विस्तार तथा लोगों से लोगों की साझेदारी। ये चारों संपूरक कारक दोनों महादेशों में संवृद्धि और सर्वांगीण विकास को बढ़ावा देने वाले हैं।

अबे की अनुपस्थिति भारत में खलेगी, लेकिन उन्होंने जो विरासत छोड़ी है, वह दीर्घकालिक होगी और उसका भारत-जापान संबंधों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। भारत को पूरे दिलो-जान से अबे के ‘बृहत्तर एशिया’ और ‘मुक्त एवं खुला हिन्द-प्रशांत (एफओआइपी) क्षेत्र’ के विजन को लगातार अंगीकार करते चलना है।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
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