पुस्तक समीक्षा: “फॉर्गाटन कश्मीर: दि अदर साइड ऑफ दि लाइन ऑफ कंट्रोल” लेखक : दिनकर पी. श्रीवास्तव। प्रकाशक : हर्पर कोलिन्स। प्रकाशन वर्ष : फरवरी 2021। पृष्ठ : 304। मूल्य : 699
Amb Satish Chandra, Vice Chairman, VIF

“फॉर्गाटन कश्मीर” किताब हालांकि पाकिस्तान के कश्मीर में किये गये आक्रमण को स्पर्श करती है और कश्मीर के लोगों के संदर्भ में आत्मनिर्णय के अधिकार के मसले को मुख्य रूप से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) पर फोकस करती है, जिसमें तथाकथित आजाद कश्मीर और गिलगिट-बाल्टिस्तान दोनों को ही समाहित कर लिया गया है। पाकिस्तान द्वारा अवैध तरीके से कब्जाये गये इस क्षेत्र को अनेक किताबों में केवल सतही तौर पर छुआ गया है और सामान्यत: उस तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया है। इसलिए यह किताब इस महत्वपूर्ण अंतराल को पाटने का सार्थक काम करती है। इसका महत्व इससे भी अधिक है क्योंकि यह किताब जिस तरीके से तथाकथित आजाद कश्मीर और गिलगिट-बाल्टिस्तान के अस्तित्व को कमतर कर उसे पाकिस्तानी उपनिवेश बना दिया गया है और उनके निवासियों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया गया है और उन्हें पाकिस्तानी राज्य के जैकबूट (घुटनों तक जूता) तले रहने को विवश किया जा रहा है, उन हालातों का श्रमसाध्य विवरण देती है, इससे वह और भी विशिष्ट हो गई है। इसलिए, इसके लेखक प्रशंसा के सही अधिकारी हैं और सबसे भी अधिक इस रूप में कि उन्होंने पाकिस्तानी सूत्रों, जैसे पीओके के जस्टिस सराफ और गिलानी, कुदरत उल्लाह शहाब, मेजर जनरल अकबर खान, सरदार इब्राहिम खान आदि पर अधिक भरोसा किया है। यह कहना प्रासंगिक होगा कि लेखक ने कश्मीर के साथ पूरा-पूरा न्याय किया है,क्योंकि वह इस विषय पर 1990 के दशक में भारत के प्वाइंट मैन रहे हैं, जब भारत के खिलाफ पाकिस्तान द्वारा एक प्रस्ताव लाने पर दबाव बनाने के लिए अभियान चलाया गया था। उसके इस अभियान को सफलतापूर्वक विफल करने का अधिक श्रेय अवश्य ही उनके प्रयासों को दिया जाना चाहिए।

यह किताब पाकिस्तान के इस तर्क का समग्रता में पर्दाफाश करती है कि कश्मीर में 1947 में जो कुछ हुआ, वह एक घरेलू विद्रोह का परिणाम था। वे निष्कर्षात्मक रूप से यह प्रमाणित करते हैं कि दरअसल पाकिस्तान की तरफ से जनजातीय घुसपैठ की बाकायदा योजना बनायी गई थी, जिसे बाद में पाकिस्तानी कर्नल अकबर खान के सैनिकों और साजो-समान द्वारा भरपूर मदद दी गई थी। इसके बारे में फैसला तात्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई एक बैठक में लिया गया था। दिलचस्प यह कि कश्मीर पर हो रही इस बैठक में एक भी कश्मीरी मौजूद नहीं था। तब मुस्लिम लीग की कश्मीर में कोई पकड़ नहीं थी। उसके वरिष्ठ नेतृत्व को एक प्रांतीय सरकार के गठन के फैसले का कोई ख्याल नहीं था। दरअसल, सरदार मोहम्मद इब्राहिम जो बाद में, अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में इसके अध्यक्ष नियुक्त किये गये थे, उन्हें इसके बारे में उसी रात कर्नल अकबर खान की पत्नी और रावलपिंडी के कमिश्नर ने जानकारी दी थी। कश्मीर के लोगों की सदिच्छाओं के प्रति पाकिस्तानियों के मन में कितना आदर-भाव है,इसका सही-सही पता जिन्ना की उस खीज भरी झिड़की से चलता है, जब उन्होंने इस बारे में पूछे गये एक सवाल के जवाब में कहा था, “जहन्नुम में जाएं वे लोग।”

कश्मीर में पाकिस्तान की घुसपैठ मुकम्मल तौर पर एक जनजातीय घुसपैठ की बारीक आड़ में की गई थी जबकि गिलगिट-बाल्टिस्तान में मेजर ब्राउन के नेतृत्व में विश्वासघाती तरीके से वहां का तख्तापलट कर दिया गया था। मेजर ब्राउन भारत में विलय के कश्मीर के महाराजा के फैसले से नाराज था। उसने 31 अक्टूबर 1947 को उनके गिलगिट में स्थित गवर्नर के खिलाफ स्काउट का नेतृत्व किया था। महाराजा के गवर्नर को बंदी बना लिया गया और गिलगिट को पाकिस्तान में शामिल करा दिया गया, यद्यपि यहां के लोग स्वतंत्र रहना चाहते थे। मेजर ब्राउन की पाकिस्तान से सांठगांठ थी और ब्रिटिश ने उसे आश्वस्त किया था कि गिलगिट-बाल्टिस्तान को पीओके से अलग रखा जाएगा। लेकिन उसने एनडब्ल्यूएफपी (नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस) का दास बना दिया और इस तरह उसने स्थानीय नागरिकों की इच्छाओं का अनादर किया। मेजर ब्राउन का पहला संवाद एनडब्ल्यूएफपी के प्रधानमंत्री के साथ हुआ था और यहीं से एक तहसीलदार को गिलगिट का राजनीतिक एजेंट नियुक्त किया गया था। मेजर ब्राउन और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की कार्यवाही तथा पाकिस्तान का रवैया भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम तथा निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन था।

मेजर ब्राउन की कार्यवाही अचानक नहीं थी बल्कि गिलगित-बालटिस्तान को तथाकथित आजाद कश्मीर से अलग-थलग करने की एक सुचिंतित योजना का हिस्सा थी। इसे 1949 में पाकिस्तान सरकार, मुस्लिम कान्फ्रेंस के चेयरमैन गुलाम अब्बास और आजाद कश्मीर के प्रेसिडेंट सरदार इब्राहिम खान के बीच हुए गुप्त कराची समझौते में अंजाम दिया गया था। आजाद कश्मीर के शासन में मुख्य रूप से पाकिस्तान के दखल का हक देने के अलावा गिलगित-बाल्टिस्तान को भी पाकिस्तान के सीधे नियंत्रण में रख दिया गया। यह समझौता भारत और पाकिस्तान के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र कमीशन के अगस्त 1948 तथा जनवरी1949 के प्रस्तावों का एकदम उल्लंघन था, जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह के जरिये पाकिस्तान के अतिक्रमण से मुक्ति की बात कही गई थी। कराची का वह गुप्त समझौता1993 तक गोपनीय बना रहा था, पीओके हाईकोर्ट में एक मामले की सुनवाई के दौरान उसका खुलासा हुआ। यह भी गौरतलब है कि सरदार इब्राहिम खान ने कराची समझौते पर दस्तखत करने से इनकार किया और गुलाम अब्बास ने संकेत दिया कि उनका दस्तखत केवल मुस्लिम कान्फ्रेंस की गतिविधियों तक ही सीमित है। इसका मतलब होगा कि जो कुछ भी कराची में किया गया, वह कश्मीरी जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता था और यह समझौता पाकिस्तान ने जबरदस्ती कराया था। इस बात की भी संभावना है कि सरदार इब्राहिम खान का दस्तखत फर्जी हो।

यह किताब कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र संघ आयोग के प्रस्तावों में कश्मीर में आत्मनिर्णय के मिथक पर बेबाकी से विराम लगा देती है और रेखांकित करती है कि उसमें जनमत की बात कही गई है। यह सुझाव दिया गया है कि इन दोनों संदर्भ को अदल-बदल कर उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा, कश्मीर पर अगस्त 1948 के यूएनसीआइपी के प्रस्तावों की गहरी समीक्षा की गई है और रेखांकित किया गया है कि जनमत संग्रह भारत और पाकिस्तान की दोनों की इच्छा पर है और यह केवल तभी कराया जा सकता है, जब पाकिस्तान कश्मीर में कब्जाये इलाकों को खाली करेगा। जनमत संग्रह न हो सकने की यही एकमात्र वजह है क्योंकि पाकिस्तान ने इस शर्त का कभी पालन नहीं किया।

यह किताब यह भी सलाह देती है कि स्वतंत्र कश्मीर का विचार पाकिस्तान को ही पसंद नहीं था बल्कि वह संयुक्त राष्ट्र द्वारा जनमत संग्रह कराए जाने के भी खिलाफ है। ऐसा इसलिए है कि पाकिस्तान को यह बात अच्छी तरह से पता है कि भारत के कश्मीर तथा उसके अधिकृत कश्मीर, दोनों में ही उसे लेकर बहुत कम समर्थन है। पहले के लोकप्रिय विचार, जैसा कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में व्यक्त किया गया, भारत के समर्थन में है और 1950 के दशक में हुए सुधन विद्रोह में यह प्रदर्शित हुआ कि पीओके के लोग वहां दमनकारी नीतियों के जारी रहने के कारण पाकिस्तान के खिलाफ हैं। यहां पाकिस्तान के सीधे नियंत्रण वाले इलाके में अल्प लोकतंत्र भी नहीं है।

जनमत संग्रह के मसले पर, इस तथ्य पर ध्यान देना उपयोगी होगा, जिसका जिक्र इस किताब में नहीं किया गया है कि सितम्बर 1947 के थोड़ा पहले ही जूनागढ़ को लेकर हुए झंझट के समय भारत ने यह तय किया था कि देशी रियासतों के भारत या पाकिस्तान में से किसी एक या दूसरे के साथ स्पष्ट विलय को लेकर किसी विवाद की स्थिति में उस राज्य के लोगों के मतों के आधार पर विलय का फैसला किया जा सकता है। यह बात लार्ड माउंटबेटन ने 30 सितम्बर को लियाकत अली खान को बता दी थी। पाकिस्तान ने तब इसमें कोई दिलचस्पी जाहिर नहीं की थी, क्योंकि उसे यह बात मालूम थी कि कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद में लोग उसके साथ विलय के पक्ष में वोट नहीं करेंगे।

किताब में एक शानदार शीर्षक “लोगों की इच्छाएं” के साथ एक महत्त्वपूर्ण अध्याय दिया गया है, जिसमें आत्मनिर्णय की अवधारणा के क्रमिक विकास की थाह ली गई है और जम्मू-कश्मीर में उसकी व्यावहारिकता की सीमा की समीक्षा की है। बहुत प्रारंभ से ही इस तथ्य को प्रासंगिकता के साथ रेखांकित किया गया है कि 1948 में कश्मीर मसले पर संयुक्त राष्ट्र में होने वाले विचार-विमर्श के साथ संयोगवश मानवाधिकार की सार्वजनीन उद्घोषणा का प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया था, जिसमें आत्मनिर्णय का अधिकार शामिल नहीं है। इसके अलावा, यह अवधारणा केवल संयुक्त राष्ट्र चार्टर में एक हल्की-सी गूंज भर है, जिसके अंतर्गत इस अधिकार का दायरा राष्ट्रों तक किया गया है, न कि उप राष्ट्रों के समूह या भूभाग के हिस्से तक। आत्मनिर्णय के क्षेत्र को पहले के उपनिवेश को स्वतंत्र करने (डिकॉलोनाइजेशन) के संदर्भ में (देखें संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली (यूएनजीए) प्रस्ताव संख्या 1514/1960) विस्तार किया गया। तदनंतर, इसका दायरा और बढ़ाते हुए 1966 और 1970 के आइसीसीपीआर द्वारा मित्रवत संबंधों की उद्घोषणा में “सभी लोगों” तक कर दिया गया। हालांकि इस विस्तार में हमेशा से एक चेतावनी थी। इसका आशय कभी किसी भूभाग की अखंडता और संप्रभु-स्वतंत्र राज्यों की राजनीतिक एकता के विरुद्ध कार्रवाइयों को प्रोत्साहन देना नहीं था। यह वह पृष्ठभूमि है, जिसमें बांग्लादेश के आत्मनिर्णय के अधिकार का उपयोग करने की मांग को यूएनजीए ने खारिज कर दिया था, यद्यपि वहां उसके लोकतांत्रिक अधिकारों की अवहेलना की गई थी और वह भूभाग नरसंहार से पीड़ित था। अंततोगत्वा, मानवाधिकार के मुद्दे पर 1993 में वियाना वर्ल्ड कान्फ्रेंस हुआ था, जिसमें “सभी लोगों” को आत्मनिर्णय के अधिकारों का उपभोग करने पर जोर देते हुए भी ताकीद की गई थी कि क्षेत्रीय अखंडता अथवा स्वतंत्र-संप्रभु राष्ट्र की एकता को नजरअंदाज करने के मामले में इसका उपयोग नहीं किया जा सकता, जब तक कि वहां एक प्रतिनिधि सरकार है और वह अपने लोगों के प्रति के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं करती है।
पहले की धारणा में और यह तथ्य कि कश्मीर का भारत में विलय कानूनी रूप से चुनौतियों के परे और लोकप्रिय इच्छाशक्ति के मुताबिक जैसा कि इसके तहत असेंबली में अभिव्यक्त किया गया तथा चुनावों में इसकी नियमित भागीदारी तथा उसका राष्ट्रीय जीवन के बीच आत्मनिर्णय अधिकार का सवाल इस राज्य के लिए कहीं मायने नहीं रखता।

यह किताब बेबाक तरीके से ब्रिटिश हुकूमत की दगाबाजियों तथा जम्मू-कश्मीर में भारत विरोधी एजेंडे को निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा बेनकाब करती है:

  • महाराजा हरि सिंह जबकि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय को स्वीकार कर रहे थे, तब लॉर्ड माउंटबेटन का यह दावा करना कि राज्य का भविष्य उसकी आबादी की इच्छा के मुताबिक कराये गये जनमत संग्रह के आधार पर होगा, यह भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के विपरीत था। इसके तहत, भारत पर इस तरह की कोई बाध्यता नहीं थोपी जा सकती थी। यह बिल्कुल उस भूभाग के शासक के अख्तियार में था कि वह अपने आधिपत्य के जाने की स्थिति में, अपनी मर्जी से फैसला ले।
  • कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार को थोपा गया, जिसने भारत के साथ कानूनी रूप से विलय को स्वीकार किया था और वह पाकिस्तान द्वारा आक्रमण का सामना कर रहा था। वह इस बात से भलीभांति अवगत था कि ब्रिटेन ने अपने साइप्रस उपनिवेश में आत्मनिर्णय के प्रस्ताव का विरोध किया था।
  • ब्रिटिश ने अपने सिद्धांत का अनादर किया जबकि उसने मेजर ब्राउन की मान्यताओ का विरोध न करने का पहले वचन दिया था। इसने कश्मीर में पाकिस्तान के अतिक्रमण की उपेक्षा की और बाद में आजाद कश्मीर तथा गिलगिट-बाल्टिस्तान ले लिया। इस तरह, कश्मीर के इन हिस्सों में पाकिस्तान द्वारा किए जा रहे मानवाधिकार के उल्लंघनों की बात को नकार कर उसने अपने हाथ खून से रंग लिए।
  • एनडब्ल्यूएफपी यद्यपि कश्मीर से जुड़ा नहीं था, फिर भी यह किताब पूरी शिद्दत से बताती है कि किस तरह यहां जनमत संग्रह कराया गया। यह भारत का अकेला प्रांत था, जहां ब्रिटिश की पहल पर यह जानने के लिए जनमत संग्रह कराया गया था कि वे पाकिस्तान के साथ रहना चाहेंगे या भारत के साथ। यह स्पष्ट तौर पर निर्वाचन में मिले जनादेश के विपरीत था। यह ब्रिटिश सेना की निगरानी में तोड़ा-मरोड़ा गया जनादेश था।
  • यह किताब पूरी शिद्दत के साथ संवैधानिक विकासों और आजाद कश्मीर एवं गिलगित-बालटिस्तान दोनों में शासनों का पूरी बारीकी से अध्ययन करती है और इसका विस्तार से ब्योरा देती है कि किस तरह पाकिस्तान द्वारा इस क्षेत्र में लोगों के मौलिक अधिकारों को सुनियोजित तरीके से नकारा गया है और उनका बेरहमी से दमन-शोषण किया जा रहा है।.

आजाद जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में निम्नलिखित बिंदुओं पर गौर करना लाजिमी है:

  • पाकिस्तान द्वारा 1951 और 1952 में व्यवसाय करने के लिए बनाए गए नियम-कायदों के मुताबिक पीओके सरकार ने कश्मीर मामलों एवं नॉर्दन एरियाज के संघीय मंत्रालय के रूप में कामकाज किया। पीओके सरकार एक कठपुतली सरकार थी और जो कश्मीर मामलों और नार्दन एरियाज मंत्रालय द्वारा नियुक्त प्रतिनिधियों की बिना पूर्व अनुमति के मंत्रिमंडल में किसी भी विधेयक का प्रारूप नहीं पेश कर सकती थी।
  • इस सीधे दखल देने और सरदार इब्राहिम खान की सत्ता को मई 1950 में बर्खास्त कर दिए जाने के कारण यह राज्य वर्षों चले सुधन विद्रोह से लुंज-पुंज हो गया था। निर्दयतापूर्वक अधिक बेरहमी के साथ इसका दमन कर दिया गया। इसके बाद पाकिस्तान की संविधान सभा ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कान्फ्रेंस की तरफ से एक ज्ञापन प्रस्तुत किया गया, जिसमें अन्य बातों के अलावा, पाकिस्तान द्वारा आजाद कश्मीर में बरपाये जा रहे कहर का विस्तार से ब्योरा दिया गया था। वास्तविकता तो यह थी कि वहां के लोगों को अपनी पसंद की सरकार चुनने की आजादी नहीं थी और आधे मिलियन (लगभग 5 लाख) की आबादी घोर अमानवीय स्थिति में रह रही थी।
  • संविधान सभा ने, 1956 के संविधान में निम्नलिखित क्लाज को स्वीकार किया जिसे बाद के सभी संघटकों का हिस्सा बनाया गया और जो पीओके के कश्मीर तक दखल को पहले से ही मान कर चलता है, चाहे जनमत संग्रह हो अथवा न हो: “जब जम्मू-कश्मीर के लोग पाकिस्तान में सम्मिलित होना स्वीकार कर लेंगे, तब उस राज्य और पाकिस्तान के बीच संबंध उस राज्य के लोगों की इच्छा के मुताबिक तय किया जाएगा।”
  • आजाद जम्मू-कश्मीर सरकार अधिनियम 1964 और 1968 ने आजाद कश्मीर की हैसियत को घटाकर एक नगरपालिका समिति के बराबर कर दिया है। इसके अंतर्गत सभी विधेयकों पर इसके प्रमुख सलाहकार की अनुमति लेना आवश्यक है और बिना उसकी सम्मति के यह प्रभावी नहीं हो सकता।
  • पाकिस्तान द्वारा अपेक्षित “अधिकार” दिए जाने के बाद आजाद जम्मू एवं कश्मीर अंतरिम संविधान अधिनियम 1974 को प्रेसिडेंट ने पेश किया, जिसे बिना बहस के ही 10 मिनट में पारित कर दिया गया। इस वाकयात को एक ब्रिगेडियर ने बताया था, जो उस वक्त दर्शक दीर्घा में मौजूद थे। अधिनियम का अनुच्छेद-56 दावा करता है कि “संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं जोड़ा जाएगा जो पाकिस्तान की सरकार को उसकी (यहां के प्रति) जवाबदेही से उसे विमुख करे….” । इसे पर्याप्त जाहिर होता है कि असली शक्तियां कहां निहित हैं।
  • यह अधिनियम फ्रीडम ऑफ एसोसिएशन के अनुच्छेद की मनाही है, जो राज्य की सभी पार्टियों और लोगों को ऐसी किसी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार करने या उनमें भाग लेने से रोकता है, जो पाकिस्तान में राज्य के अधिग्रहण की अवधारणा को नुकसान पहुंचाती हों या उसके विरुद्ध हों।” यह चेतावनी राज्य में प्रत्येक कार्यकारी और विधायी पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति के शपथ पत्र में समाहित कर दी गई है। स्पष्ट है कि राज्य में एक आजाद विकल्प अथवा भारत में शामिल होने के विकल्प को पूरी तरह से रोक दिया गया है। इससे यह भी साबित होता है कि पाकिस्तान की इच्छा राज्य में जनमत संग्रह कराने की नहीं है।
  • इस अधिनियम ने परिषद की एक स्वदेशी प्रणाली विकसित की है और राज्य में एक विधानसभा का गठन किया है। इनमें परिषद एक सुपर शासन सत्ता होती थी, जिसकी हैसियत पीओके सरकार और विधायिका, दोनों से ऊपर होती थी और जो कार्यपालिका और विधायिका, दोनों के कामकाज को संभालती थी। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित इस काउंसिल में पीओके विधानसभा के कुछ मेम्बरान शामिल होते थे, जो विधानसभा से ज्यादा ताकतवर होती थी। यह प्रणाली सत्ता के विभाजन एवं आत्मनिर्णय के सिद्धांतों का उल्लंघन थी,क्योंकि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री और कश्मीर मामलों के मंत्री पीओके विधानसभा के निर्वाचित सदस्य नहीं थे और इसलिए इस सदन के प्रति उनकी कोई जवाबदेही भी नहीं थी। यह काउंसिल विधानसभा के बनिस्बत ज्यादा ताकत का इस्तेमाल करती थी और उसे व्यापक मामलों की देखरेख का क्षेत्र का आवंटन किया गया था और इन सबसे बढ़कर यह असेंबली के प्रति जवाबदेही नहीं थी। संविधान के 13 में संशोधन के जरिए पाकिस्तान की शक्तियां प्रत्यक्ष रूप से पीओके तक बढ़ा दी गईं, जहां काउंसिल की शक्तियों को इसके अंतर्गत कर दिया गया। लिहाजा, कौंसिल की भूमिका महज सलाहकार तक सिमट कर रह गई है।

आजाद कश्मीर और नॉर्दन एरियाज,जिसे अब गिलगित-बालटिस्तान के रूप में जाना जाता है, दोनों ही पाकिस्तान के साथ घनिष्ठ रूप से योजित हैं। इनमें पीओके का कम से कम एक संविधान है जबकि दूसरा पाकिस्तान सरकार के एक आदेश द्वारा संचालित होता है, जो अन्य बातों के अलावा, इस क्षेत्र में किसी को भी पाकिस्तान की पहचान को क्षति पहुंचाने वाली किसी भी गतिविधियों के प्रचार-प्रसार करने या उसमें शिरकत करने से रोकता है। इस आदेश में पहले से ही यह मान लिया गया है कि यह क्षेत्र पाकिस्तान का हिस्सा है और किसी भी जनमत संग्रह के विचार को खारिज करता है!!!

पाकिस्तान के उस आदेश में, गिलगित-बालटिस्तान के लिए शासन का वही ढांचा रखा गया है, जो आजाद कश्मीर में है, जिसमें एक काउंसिल तथा एक निर्वाचित विधानसभा है। दोनों निकायों को विशेष विधायिका शक्तियां दी गई थीं, जो बेहतर तरीके से परिभाषित थीं। इनमें पहले का नेतृत्व प्रधानमंत्री द्वारा किया जाता था और इसके अधिकतर सदस्य संघीय सरकार का प्रतिनिधित्व करते थे और यह विधानसभा से कहीं ज्यादा शक्तिशाली हुआ करती थी क्योंकि अहम मसलों को इसकी विशेष समीक्षा कर सकती थी। विधानसभा में रखे गए मसले नगरपालिकाओं में रखे गए मुद्दों के समान होते थे। इसके अलावा, काउंसिल को मौजूदा कानून में संशोधन करने अथवा पाकिस्तान में लागू किसी नए कानून को यहां भी चलन में लाने का अधिकार था। इन सबसे बढ़कर फेडरल गवर्नमेंट को किसी भी सूची में नहीं शामिल किए गए विषय पर भी कानून बनाने का अधिकार था।

गिलगित-बालटिस्तान आदेश 2009 द्वारा क्षेत्र में सीमित लोकतंत्र की प्रस्तावना की गई थी जिसे बाद में 2018 में प्रतिबंधित कर दिया गया। इसके तहत काउंसिल की हैसियत को हटाकर उसे सलाह देने तक सीमित कर दिया गया और उसकी शक्तियों को अब सीधे प्रधानमंत्री में सन्निहित कर दिया गया। विधानसभा की परिभाषित शक्तियां उससे छीन ली गईं और इसे अस्पष्ट अपरिभाषित कामकाज के सहारे छोड़ दिया गया। इस आदेश के खिलाफ क्षेत्र में व्यापक प्रदर्शन किया गया तथा बालटिस्तान विधानसभा में इसकी प्रतियां फाड़ी गईं। गिलगित-बालटिस्तान की सर्वोच्च अपीलीय अदालत ने इस आदेश को खारिज कर दिया।

यह किताब पीओके या आजाद कश्मीर से संबंधित तीन ख्यात न्यायिक हस्तक्षेपों का भी विवरण देती है, जो संक्षेप में, पाकिस्तान की चालबाजियों और उसके पापों की गवाही देते हैं।

पहला मामला, मुस्लिम कॉन्फ्रेंस और पीओके सरकार द्वारा पाकिस्तान सरकार के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था। यह मुकदमा नॉर्दन एरिया को पीओके से अलग करने को लेकर था। इसके लिए पीओके हाईकोर्ट ने 1993 में वादियों के पक्ष में फैसला दिया था और पाकिस्तान से कहा कि वह नॉर्दन एरियाज को पीओके में फिर से शामिल कर दे क्योंकि उसका यह विभाजन अवैध है। अदालत ने रेखांकित किया कि पाकिस्तान का यह कदम संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का उल्लंघन था क्योंकि इसने बिना जनमत संग्रह कराए ही राज्य की स्थिति को बदल दिया था। इस फैसले से बुरी तरह खीझे पाकिस्तान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी जिसने इस फैसले को तकनीकी आधार पर रोक दिया कि इस मामले में हाई कोर्ट का कोई दखल नहीं बनता है। फिर भी, इस मामले ने इस बात की पुष्टि कर दी कि नॉर्दन एरियाज पूर्व की जम्मू-कश्मीर रियासत का एक हिस्सा है, पीओके का नहीं।

दूसरा मामला, अल जिहाद ट्रस्ट द्वारा दायर किया गया था, जिसमें नॉर्दन एरियाज के लोगों को मौलिक अधिकार देने तथा राजनीतिक प्रक्रियाओं में उन्हें हिस्सा लेने देने की मांग की गई थी। मई 1999 में पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में पाकिस्तान सरकार की लानत-मलामत की थी। इसने सरकार से कहा कि वह 6 महीने के भीतर ऐसे उपाय करे, जिससे वहां के लोग अपने मौलिक अधिकारों का उपभोग करते हुए ‘अपने चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार से शासित हों।’ फैसले में यह भी कहा गया था कि इन लोगों को “एक स्वतंत्र न्यायपालिका के जरिए न्याय तक पहुंच सुगम करें, जो अन्य बातों के अलावा उनके मौलिक अधिकारों को लागू करे।”
जिस मुकदमे का इस समीक्षा की शुरुआत में संकेत दिया गया था, वह पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से जनवरी 2019 में गिलगित-बालटिस्तान आदेश 2018 के विरुद्ध था।

यह किताब बेहद समझदारी से इस बात पर ध्यान केंद्रित करती है कि विगत 3 दशकों में न्यायिक हस्तक्षेप का क्षेत्र सिकुड़ गया है। पीओके के साथ नॉर्दन एरियाज का संबंध 1993 में पहले न्यायिक हस्तक्षेप का विषय था, जिसे एक तरफ रख दिया गया और बाद के हस्तक्षेप में भी इसकी समीक्षा नहीं की गई। दूसरे न्यायिक हस्तक्षेप का मुख्य विषय था-नागरिकों को मौलिक अधिकारों की बहाली,जिसे तीसरी न्यायिक दखल में बमुश्किल ही चर्चा की गई।

नॉर्दन एरियाज के मामले में पीओके हाई कोर्ट की न्यायिक हद को पीओके सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया गया था। ठीक इसी तरह, पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने गिलगित-बालटिस्तान सर्वोच्च अपीलीय अदालत के न्यायिक क्षेत्र को सीमित कर दिया था। हालांकि पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट को अपनी हद बढ़ाकर पीओके तथा नॉर्दन एरिया तक करने में कोई हिचक नहीं हुई। जैसा कि यह किताब गौर करती है कि पाकिस्तान की सर्वोच्च न्यायपालिका इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की नागरिक स्वतंत्रता के क्षेत्र को नहीं बढ़ा रही है जबकि उसने पाकिस्तान सरकार की केंद्रीय पकड़ को फिर से स्थापित कर दिया है।

यह किताब इस बात का ग्राफिक विवरण देती है कि पाकिस्तान ने किस तरह से और गिलगित-बालटिस्तान और पीओके का शोषण किया है और इन क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों का पाकिस्तान के हित में दोहन किया है। जैसा कि पीओके के मंगला डैम के बारे में कहा जा सकता है। यह 1000 मेगावॉट से अधिक बिजली पैदा करता है और इससे तीन मिलियन हेक्टेयर में सिंचाई होती है। इस योजना का मुख्य लाभार्थी पाकिस्तान है, जबकि इस योजना का सबसे ज्यादा खामियाजा पीओके की वह आबादी है, जिससे बड़े पैमाने पर विस्थापित होना पड़ा। जल प्लावन से कुल 42000 एकड़ जमीन में से मीरपुर को 22000 एकड़ की क्षति उठानी पड़ी थी। इसी तरह, पीओके में प्रति किलो वाट 1.1 रुपए की लागत से पैदा होने वाली बिजली का उपयोग पाकिस्तान के पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा प्रांतों में 0.15 पैसे प्रति किलोवॉट के सस्ते शुल्क पर किया जाता है, वह भी यह भुगतान 2003 में शुरू हुआ है, उसके पहले से नहीं। इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि 2006 में जब मंगला डैम की ऊंचाई बढ़ाई गई तो स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया था लेकिन वे पाकिस्तान को ऐसा करने से रोक नहीं सके। यद्यपि खैबर पख्तूनख्वा में ऐसी ही परिस्थितियां उत्पन्न होने पर पाकिस्तान ने कालाबाग डैम के निर्माण को रोक दिया था, लेकिन मंगला डैम को लेकर उसकी ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। कश्मीर के लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उस नुकसान से भी उसे कोई लेना देना नहीं था, जो पीओके में पहले ही हो चुका था, पाकिस्तान अब पीओके में सिंधु नदी पर 22,500 मेगावॉट बिजली उत्पादन के लक्ष्य के साथ पांच और डैम बनाने का प्लान बनाया है, जिससे बड़ी संख्या में विस्थापन और पारिस्थितिकी का व्यापक नुकसान होना है।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)


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