वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत-चीन टकराव का विश्लेषण
Lt Gen AS Bedi (Retd.)

हाल ही में एक प्रतिष्ठित लेखक ने एक प्रमुख भारतीय अखबार में एक लेख में भारत-चीन सीमा विवाद के बारे में विस्तार से बात करते समय कुछ उचित और प्रासंगिक तथ्य सामने रखे हैं। हालांकि तथ्य उपयुक्त हो सकते हैं मगर पश्चिमी सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण रेखा एलएसी पर स्थिति को खतरनाक बताने के लिए इन्हें तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। आलेख में कहा गया है कि चीन 1980 के दशक से ही बड़े विवादित क्षेत्र पर नियंत्रण कर चुका है क्योंकि भारत “एलएसी की अलग-अलग धारणा” की नीति पर काम करता है। लेकिन यह बात तथ्यों के आधार पर नहीं कही गई है। भारत पश्चिमी क्षेत्र में विभिन्न गश्ती बिंदुओं द्वारा चिह्नित की गई सीमा तक ही नियंत्रण रखने की नीति पर चलता आ रहा है। इन गश्ती बिंदुओं को चाइना स्टडी ग्रुप ने विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अच्छ तरह जांच-परखकर तय किया है। इस नियंत्रण में कोई कमी नहीं आने दी गई है और मौजूदा घटना भारतीय सेना द्वारा इसी नीति पर चलने का नतीजा है।

वर्तमान विवाद का कारण भारत द्वारा हाल के दिनों में सीमावर्ती क्षेत्रों विशेषकर गलवान घाटी में बुनियादी ढांचा तैयार किया जाना और उसके परिणामस्वरूप भारतीय सैन्यकर्मियों में कम समय में ही प्रतिक्रिया देने की क्षमता आना है। 2013 में देप्सांग, 2014 में चुमार और आज लद्दाख में हुए टकरावों का तुलनात्मक विश्लेषण करने पर कई समानताएं दिखती हैं। 2014 में टकराव का कारण यह था कि चीनी सेना क्षेत्र में भारतीय सेना के मुकाबले कमतर पड़ रही थी और वह बढ़त लेना चाहती थी। चुमार में भारत जिसे एलएसी मानता है, वहां तक वाहन ले जाने लायक सड़क उसके पास थी, जबकि चीनी सेना को उस इलाके में पैदल गश्त करनी पड़ती थी। जब वहां सड़क बनाने के चीन के प्रयासों का विरोध किया गया तो टकराव हुआ।

सीमा पर बुनियादी ढांचे के मामले में चीन आगे है क्योंकि उस मोर्चे पर उसने पहले काम किया। उत्तर में समार लुंगपा से लेकर देमचौक तक पश्चिमी क्षेत्र के अधिकतर इलाकों में चीन के पास वास्तविक नियंत्रण रेखा तक वाहन ले जाने लायक सड़कें हैं और वह समय-समय पर उन्हें बेहतर भी बनाता रहता है। केवल चुमार में ऐसा नहीं है, जहां चीन ने सड़क बनाने की कोशिश की। भारतीय जवान उनकी लाल रेखा तक तैनात थे और उन्होंने सड़क निर्माण नहीं होने दिया, जिससे टकराव हुआ। सीमा पर बुनियादी ढांचे में यह असमानता चीन को तब तक अच्छी लगती है, जब तक भारत आगे के इलाकों में बुनियादी ढांचा बनाकर समीकरण बिगाड़ता नहीं है।

अग्रिम क्षेत्रों में अपना बुनियादी ढांचा सुधारने के प्रयास टुकड़ों में होते रहे हैं। चीन यह देखकर इसका विरोध करता रहा है कि भारतीयों को इनसे कितना फायदा मिल रहा है या सीमा पर चीन की गतिविधियों पर इसका कितना असर होगा। यह बात हाल के वर्षों में एलएसी के तीनों सेक्टरों में चीन के टकराव भरे रवैये से साबित होती है।

चीनी पैंगोंग सो झील के इलाके में पिछले कुछ समय से निगरानी की अपनी क्षमताएं भी बढ़ाते गए हैं और जमीनी गतिविधियां भी। उन्होंने फिंगर 8 इलाके में परंपरागत बिंदु तक गश्त करने के भारतीय प्रयासों को रोककर भारत पर दबाव बनाया है। यह दबाव खत्म करने के भारत के उपायों का अभी तक फायदा नहीं हुआ है; न तो आमने-सामने और न ही सीमा संबंधी वार्ता के जरिये।

भारतीय सेना उत्तरी सब सेक्टर के उत्तरी इलाकों में लंबे समय से ठीक से काम नहीं कर पा रही थी क्योंकि समुचित सड़क नहीं होने के कारण उसके लिए आगे बढ़ना मुश्किल हो रहा था। गर्मियों में स्थिति गंभीर हो जाती थी क्योंकि श्योक नदी को पार करना असंभव होता था, जिसके कारण पूरा उत्तरी सब सेक्टर टापू में तब्दील हो जाता था। मगर यह तस्वीर पिछले साल बदल गई, जब दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी (डीएसडीबीओ) सड़क पूरी हो गई। भारी प्रयासों के बाद बनी इस सड़क से ही भारत के पास उत्तरी इलाकों में एलएसी तक कम समय में पहुंचने के कई विकल्प आ गए।

अन्य इलाकों में दबाव खत्म करने के प्रयासों के तहत भारत ने डीएसडीबीओ की मुख्य सड़क से एलएसी तक कई फीडर सड़कें बना दीं। मौजूदा दिक्कत तब शुरू हुई, जब गलवान घाटी में ऐसी ही सड़क बनाई जा रही थी। जब चीन को लगा कि उसकी बढ़त खत्म हो रही है तो उसने बल के जरिये उसे रोकने की कोशिश की।

जैसा पहले से होता रहा है, जब एक पक्ष दूसरे पक्ष पर दबाव डालता है तो टकराव का क्षेत्र बढ़ता जाता है। चीन ने 2013 में चुमार और 2014 में देमचोक में दखल देकर ऐसा ही किया था। टकराव की पुरानी घटनाओं और दोकलाम संकट में चीन को महसूस हुआ कि उसके पास सीमा पर जवान कम हैं और वह अपनी योजना को अमल में भी नहीं ला पा रहा है। लगता है कि उन्होंने सबक सीख लिए हैं और इन खामियों से निपटने के लिए एलएसी के नजदीक भारी संख्या में जवान और सैन्य उपकरण तैनात कर दिए हैं। इस नए आत्मविश्वास से उनका व्यवहार भी आक्रामक हुआ है।

इस बार चीन को लगा कि भारत के मुकाबले उसे बढ़त हासिल है, इसलिए उसने गलवान घाटी में ही कार्रवाई नहीं की है बल्कि टकराव के क्षेत्र को बढ़ाकर हॉट स्प्रिंग, पैंगोंग सो और देमचोक तक फैला दिया है। ये वही इलाके हैं, जहां अभी तक चीन बेहतर स्थिति में है।

पश्चिमी सेक्टर में टकराव बड़े स्तर पर है, लेकिन बुनियादी तौर पर पिछले टकरावों जैसा ही है। उत्तरी सिक्किम के नाकुला में हो रही गतिविधियों को पश्चिमी सेक्टर की घटनाओं में जोड़ना भी ठीक नहीं होगा। चीन ने कुछ समय से नाकुला में आक्रामक रुख अपनाया है, जो शायद पठारी इलाके में दबाव कम करने के लिए है, जहां चीन कमजोर पड़ता है।

मौजूदा घटनाक्रम देखकर लगता है कि ये घटनाएं किसी स्थानीय कमांडर के जोश के बजाय उच्च स्तर की योजना और समन्वय का नतीजा हैं। बहरहाल हो सकता है कि ड्रैगन दक्षिण चीन सागर में अपने विषदंत दिखा रहा हो मगर यहां उसका मकसद बेहद सीमित लगता है और ऐसा नहीं लगता कि वह बड़ी जमीन पर कब्जा करना चाहता है।

यह समस्या सुझाने के लिए सैन्य, राजनयिक और राजनीतिक स्तर पर सुस्थापित प्रणालियों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। सैन्य प्रयासों का बहुत फायदा नहीं हुआ है तो बातचीत के लिए कूटनीतिक रास्ते और जरूरत पड़े तो राजनीतिक रास्ते जल्द से जल्द खोले जाएं। अपने रुख पर अड़े रहना और चीनियों के दबाव में नहीं आना भारत के हित में होगा क्योंकि ईंट का जवाब पत्थर से मिलने पर पीछे हट जाना चीन की आदत है।


Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

Image Source: https://c.tribune.com.pk/2020/05/2228931-main-1590510511.png

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