नागरिकता संशोधन अधिनयम 2019 पर कुछ विचार
Dr Dilip K. Chakrabarti, Editor, VIF History Volumes

जहां तक मुझे समझ आता है, यह कानून उप महाद्वीप के बंटवारे से पैदा हुई अशांति और भ्रम को खत्म करता है।

मुझे वह दिन साफ याद है, जब मेरे माता-पिता ने अपने बच्चों और विधवा मां को ट्रेन के खचाखच भरे डिब्बे में लादा था और भारत के त्रिपुरा राज्य से सटी पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर बसे अखौरा के लिए चल पड़े थे। मैं उन बच्चों में सबसे बड़ा हूं और उस अनिश्चितता तथा बेबेसी को अब भी याद कर सकता हूं, जो सफर पर निकलते समय हमें महसूस हो रही थी। मानो उस दिन एक जलती हुई सलाख उस दिन हमारे और हम जैसे लाखों हिंदुओं के कलेजों के आर-पार कर दी गई थी और इतने साल गुजरने के बाद भी मैं यकीन से नहीं कह सकता कि उस दर्द, गुस्से और दिल पर लगे जख्मों से मैं अब भी उबर पाया हूं या नहीं।

हमने नई जगह पर जो जबरदस्त असुरक्षा और अनिश्चितता महसूस की थी, उसे भुलाया कैसे जा सकता है? चाहे शरणार्थी शिविरों में गए हों या दूसरी जगहों पर गए हों, एकदम अनचाहा सा महसूस हुआ और यह जिंदगी का सबसे खौफनाक दौर था। तमाम बातों के बीच मुझे अगरतला सरकारी अस्पताल के सामने रोजाना रखी जाने वाली लाशों की कतारें अब भी याद हैं। शिविरों में हैजा की महामारी फैली हुई थी और अस्पताल के लोगों के सामने दूसरा कोई चारा भी नहीं था।

हम सभी को पता है कि बंटवारा हुआ था। असल में इसीलिए हुआ था क्योंकि हमारे मुसलमान भाइयों की एक बड़ी तादाद को ऐसा लगा कि वे अलग ‘राष्ट्र’ हैं और उनका अपना घर होना चाहिए। हम धर्म को इससे अलग नहीं कर सकते क्योंकि हिमालय और सएमुद्र के बीच पड़ने वाली इस जमीन - वह जमीन, जहां भारत की संतानें रहती हैं - को धर्म के नाम पर बांटा गया था और पाकिस्तान को खास तौर पर मुसलमानों के लिए बनाया गया था। यह बात शायद कभी साफ नहीं की गई, लेकिन ‘भारत’ या ‘इंडिया’ नाम का नया देश काफिरों को पनाह देने के लिए था चाहे वे किसी भी धर्म या समुदाय के हों।
मौजूदा कानून इस मायने में अच्छा है कि उसने इस स्पष्ट अर्थ को स्वीकार किया है और इसे कानून का दर्जा दिया है। यह कानून इन काफिरों को सरहद के इस पार सुरक्षा का जो अहसास देता है, उसकी थाह ही नहीं ली जा सकती और केवल इसलिए भी इस कानून का स्वागत किया जाना चाहिए।

यहां मैं एक और मुद्दा उठाऊंगा। ‘बंटवारा’ हमारे लिए ‘सर्वनाश’ जैसा था। उप महाद्वीप ने बंटवारे से पहले के बंगाल और पंजाब में 1946 में और उसके बाद बड़े पैमाने पर जो हत्याएं (‘दि ग्रेट कैलकटा किलिंग’) देखीं, क्रूरता के साथ विस्थापित होते लोगों को देखा और लोगों को लंबे अरसे तक तकलीफें सहते देखा, उन्हें इस देश के इतिहास से कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए। हम इतना तो कर ही सकते हैं कि इन सभी हत्याओं, विस्थापन और ‘शरणार्थी शिविरों’ की तकलीफों को ढंग से दर्ज करें। यह सोचने की कोई वजह ही नहीं है कि यहूदियों को अपनी तकलीफों और दर्द की जितनी टीस लगती है, हमें हमारे दर्द और तकलीफों की उससे कम टीस होती होगी।

‘बंटवारा’ अब भी कई तरह से हम पर असर डालता है। मिसाल के लिए पुरातत्व विज्ञानी के तौर पर मैं अपनी पूरी जिंदगी पाकिस्तान के पुरातत्व का अध्ययन करता रहा हूं और कुछ पाकिस्तानी पुरातत्व विज्ञानी मेरे दोस्त और छात्र भी रहे हैं। मगर पाकिस्तान में कानूनी तौर पर दाखिल होना किसी भी भारतीय के लिए इतना मुश्किल है कि मैं छपी हुई सामग्री से ही पाकिस्तानी स्थलों को जानना पसंद करता हूं!

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/201912/CAA-Gujaratjpg-647x363.jpeg?iPGsZXE1zAZAZ.A5k5.0o.39lVB8G_rA

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