मध्य-पूर्व और अमेरिका के अगले राष्ट्रपति : चिंताएं भरपूर
Amb Anil Trigunayat, Distinguished Fellow, VIF

अमेरिका परंपरागत रूप से मध्य-पूर्व की सुरक्षा का मध्यस्थ रहा है। इस क्षेत्र के प्रति पिछले कुछ दिनों से अमेरिकी रवैया में यकीनन कुछ उदासीनता और और निष्क्रियता के संकेत मिले हैं। इसलिए कि हिंद-प्रशांत महासागर की भू-आर्थिकी और भू-राजनीति ने शक्ति-संतुलन को बदल दिया है। जैसा कि अमेरिका शेल और गैस सहित तेल का सबसे बड़ा उत्पादक देश हो गया है। इसने उसके पहले की रणनीतिक उपभोक्ता की हैसियत को एक प्रतियोगी उत्पादक में बदल दिया है। इस वजह से एशियाई देशों की तेजी से समृद्ध होती अर्थव्यवस्था की बढ़ती मांगों ने उसे एक युद्ध के मैदान में बदल दिया है। सभी मुख्य उत्पादक पाई के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे और अपने बाजारों को सुरक्षित-सुनिश्चित करना चाहेंगे। जैसा कि कोविड-19 के चलते अधिकतर अर्थव्यवस्थाएं लड़खड़ा गई हैं और समृद्ध तेल उत्पादक एवं हाइड्रोकार्बन पर आश्रित देशों की हालत बुरी तरह खस्ता है। लेकिन जब अमेरिका के राष्ट्रपति, खासकर जब ट्रंप, हों तो वे मौजूदा संकट को अप्रत्याशित तरीके से बदल सकते हैं। जैसा कि उन्होंने अपने पहले और एकमात्र कार्यकाल में संभव किया था। ऐसे में ट्रंप के अनेक फैसलों के पश्च-प्रभावों को उनके उत्तराधिकारी बाइडेन को सहन करना पड़ेगा।

राष्ट्रपति ट्रंप की विदेश नीति का बुनियादी अहाता परंपरागत दृष्टिकोणों से एकदम अलग अधिकतम दबावकारी नीति के जरिये अधिक से अधिक लाभ हासिल करने वाला है। यह साफ दृष्टिगोचर हो रहा था क्योंकि उन्होंने न केवल बहुपक्षीय संस्थाओं के प्रति अपना तिरस्कार जताया और कुछ जवाबदेही से अपने को अलग भी कर लिया। किंतु ईरान की परमाणु आकांक्षा को नियंत्रित करने की मांग को लेकर संयुक्त समग्र कार्ययोजना ( ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन, जेसीपीओए) से उनका अलग होना और आईआरजीसी के जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या ने इस क्षेत्र को लगभग जंग की दहलीज पर ही ला दिया था।

हालांकि ट्रंप का यह निर्णय रियाद, तेल अवीव और अबू धाबी को तो खुश कर सकता है लेकिन ...यूरोपियन, जो P5+1 आयोजन के हिस्सा थे, उन्होंने ईरान को संधि से जोड़े रखने और परमाणु कक्षा से उसे बाहर न जाने देने के लिए के लिए अपने तई बेहतर कोशिश की। इजरायल के बड़े समर्थक तथा उसके प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के दोस्त होने के कारण ट्रंप ने अमेरिकी दूतावास को विवादित यरूशलम में ले जाने की घोषणा की। यह एक तरह से यरूशलम को इजरायल की वास्तविक राजधानी बनाने की कोशिश थी। उन्होंने यह भी माना कि गोलन हाइट्स इजरायल का हिस्सा है।

डोनाल्ड ट्रंप का बहु प्रचारित, “शताब्दी का समझौता(डील ऑफ द सेंचुरी)” उतना खिंचाव न ला सका हो, लेकिन उनकी विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता राजनयिक संबंधों की औपचारिकताओं की प्रौद्योगिकी और इजरायल-संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) तथा बहरीन-सूडान के बीच अब्राहम समझौते हैं। उन्होंने यह भी दावा किया कि पांच और अरब देश फिलिस्तीनी नेतृत्व और यहां तक कि उनके मार्ग के अनुगामी होने के इच्छुक हैं। जो बाइडेन ने उनके इस कदम को “शांति से समृद्धि की ओर” (पीस टू प्रोस्पेरिटी) बताते हुए सराहना की है और इसे आगे बढ़ने में संभावित सहयोगी होने की बात कही है।

फिलिस्तीन ने ट्रंप की इस मुहिम में अपनी उपेक्षा महसूस की और अरब देशों पर “पीठ में छुरा भोंकने” (विश्वासघात करने) का आरोप लगाया। फिलिस्तीन ने उम्मीद जताई कि उसके मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन समय से पहले बुलाया जाएगा क्योंकि फिलिस्तीन के सरोकारों पर अरब बिरादरी क्रमिक रूप से प्रहार कर रही है, जबकि यमन, लीबिया, सीरिया और इराक पर ट्रंप प्रशासन का दृष्टिकोण चिंतातुर करनेवाला और तदर्थवादी था। लेकिन सऊदी अरब और यूएई के नेतृत्व में कतर और चतुष्टय के बीच 3 साल से चले आ रहे संघर्ष को कम करने में कामयाबी नहीं मिली। अमेरिकी विदेश मंत्री पोंपियो रियाद, दोहा, अंकारा और तेल अवीव के दौरे में इस दिशा में अंतिम प्रयास किया। खाड़ी वार्ता के भरोसेमंद मध्यस्थ माने जाने वाले ओमान के प्रतिष्ठित सुल्तान और कुवैत के आमिर के निधन के बाद क्षेत्रीय शांति बनाने के प्रयासों में अंतर आ सकता है। इसी बीच, चीन, रूस और तुर्की इस क्षेत्र में अपने प्रभाव जमाने की लगातार कोशिश में लगे हैं।

दरअसल, मध्य-पूर्व में ट्रंप प्रशासन की नीतियां ने अरबों, इजरायल और अमेरिका के विरुद्ध चीन, पाकिस्तान, रूस, तुर्की, कतर और ईरान जैसे उनके विरोधियों का एक अनौपचारिक गठबंधन बना दिया है। implicit U.S. support, which of course had to be paid for. बेशक, ईरान ने अपने हाउथिस, हिज्बुल्लाह और हमास के जरिए कम से कम 4 अरब देशों में अपने फायदे और प्रभाव को बरकरार रखा है। लिहाजा, बाइडेन और कमला हैरिस के लिए पश्चिम एशिया में काफी जवाबदेहियां हैं।

इस पृष्ठभूमि में, अभी ट्रंप हार मानने के लिए तैयार नहीं है, क्षेत्र के अनेक नेताओं ने निर्वाचित राष्ट्रपति जोए बाइडेन और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को अपनी बधाइयां दे दी हैं। क्षेत्र के लगभग सभी नेताओं ने बाइडेन के साथ अपने पुराने संबंधों की यादें ताजा की हैं। वाशिंगटन डीसी में मुख्य डेमोक्रेटिक मध्यस्थकारों/वार्ताकारों ने अपने दांव पर लगे होने से अधिक हासिल कर लिया है। इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने ट्रंप को बहुत-बहुत धन्यवाद देते हुए बाइडेन के साथ तब की अपनी पुरानी दोस्ती को याद किया है, जब वे वाशिंगटन डीसी में इजरायल के राजदूत थे। नेतन्याहू ने बाइडेन को जल्द से जल्द तेल अवीव की यात्रा पर आने का न्योता भी दे डाला है। अमेरिका में यहूदी लॉबी बहुत ताकतवर है और अक्सर वहां की द्वि-दलीय राजनीति इजरायल का समर्थन करती है। इजरायली राष्ट्रपति रिवलिन ने भी बाइडेन को अपना पुराना मित्र बताते हुए कहा, “पहले मैं यरूशलम में आपको अमेरिका के उपराष्ट्रपति के रूप में स्वागत करके प्रसन्न हुआ था और अब अमेरिका के नये राष्ट्रपति के रूप में आपका यहां स्वागत करने के लिए बेताब हो रहा हूं।” इस स्वागत में यरूशलम को अवश्य ही रेखांकित किया जाना चाहिए। इस स्थिति में बहुत बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती। बजाय इसके कि फिलिस्तीन के साथ शांति प्रक्रिया आगे बढ़ेगी और उम्मीद है कि दोनों पक्षों के बीच सुरक्षा-सहयोग जारी रहेगा।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ कटुतापूर्ण संबंध रखने वाले फिलिस्तीनी राष्ट्रपति अब्बास, ने बाइडेन के निर्वाचन का स्वागत किया है। उन्होंने कहा,“मैं निर्वाचित राष्ट्रपति और उनके प्रशासन के साथ मिलकर फिलिस्तीन-अमेरिकी संबंधों को मजबूती देने तथा हमारे क्षेत्र के लोगों को स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता, न्याय तथा सम्मान दिलाने के लिए काम करने के लिए इच्छुक हूं। साथ ही, हमारे समस्त क्षेत्रों में तथा समूचे विश्व में शांति लाने, स्थिरता और सुरक्षा देने के लिए मिलकर काम करने को लेकर उत्सुक हूं।” वे आशा और विश्वास कर रहे हैं कि अमेरिका का नया प्रशासन यरूशलम पर ट्रंप के निर्णय को पलट देगा, जैसा कि बाइडेन ने कहा है कि वह फिलिस्तीनियों को आर्थिक सहायता देना जारी रखेंगे तथा वाशिंगटन में पीएलओ का दफ्तर फिर से खोलेंगे। उनके अलावा, कमला हैरिस ने भी अरब-अमेरिकन को दिए एक इंटरव्यू में कहा है, “हम फिलिस्तीनी लोगों को आर्थिक और मानवीय सहायता देने के लिए तत्काल कदम उठाएंगे, गाजा में जारी मानवीय संकट का हल निकालेंगे और वाशिंगटन में पीएलओ मिशन को फिर से खोलने के लिए काम करेंगे।” लिहाजा, दो देशों की समस्या का हल निकालने का एजेंडा फिर से मेज पर आ गया है।

बाइडेन ने ट्रंप की शांति योजना और पश्चिमी बैंक में इजरायल की दखल का जब तब विरोध किया है। हालांकि उन्हीं नीतियों पर अमेरिका पहले की तरह ही कुछ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के आयोजनों का प्रयास कर सकता है, जो बेनतीजा साबित हुए हैं। फिर भी फिलिस्तीनी की मौजूदा दशा को सुधारने और उनकी वित्तीय दिक्कतों को दूर करने के लिए तत्काल पहल की जा सकती है। इस तथ्य की पुष्टि हाल ही में फिलिस्तीनी पॉलिसी एंड सर्वे रिसर्च (पीआर) द्वारा कराए गए सर्वे से भी होती है, जिसमें 21 फीसद प्रतिभागियों को बाइडेन के शासनकाल में किसी तरह के सुधार की उम्मीद दिखती है। 35 फीसद प्रतिभागियों का मानना है कि चीजें और भी बदतर होंगीं जबकि 34 फीसद फिलिस्तीनियों को अमेरिकी नीति में किसी भी प्रकार की बदलाव की गुंजाइश नहीं दिखती है। किसी निर्णय में अमेरिकी कांग्रेस और सीनेट एवं प्रभावी राजनीतिक लॉबी के चलते यरूशलम और गोलन हाइट पर ट्रंप के लिए गए फैसलों को एकदम से पलट देना मुश्किल होगा।

ईरान के मसले पर कोई त्वरित निर्णय हो सकता है क्योंकि बाइडेन ने स्पष्ट कहा है कि अमेरिका ईरान के साथ पूरे मन से जेसीपीओए में फिर शामिल होगा। वह लक्ष्यों में बिना लगातार परिवर्तन के मौजूद मसलों को हल करने के प्रति उत्सुक हैं। अधिकतर यूरोपियन नेताओं, उत्तरार्ध-अटलांटिक वजहों से भी, बाइडेन के राष्ट्रपति होने का स्वागत किया है। खासकर, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने बाइडेन के राष्ट्रपति चुने जाने का स्वागत किया है और जैसी की संभावना है, वे अमेरिका-ईरान के बीच मेल-जोल करा कर समझौते को बचाने का वाहक वन सकते हैं। किंतु उसके लिए अमेरिका को पहले ईरान के विरुद्ध लगाए गए गैर-परमाणु प्रतिबंधों को हटाते हुए अपनी संवेदनशीलता दिखानी होगी और उसे कुछ तेल बेचने की इजाजत देनी होगी। ईरान को भी इस दिशा में अपेक्षित प्रयास करना होगा और अपने क्रिया-कलाप में पारदर्शिता लानी होगी। शक-शुबह इसलिए होता है कि ईरानी संसद ने उस समझौते के दायरे में मौजूदा 3.67 फीसद के बजाय 20 फीसद यूरेनियम को संवर्धित करने का एक प्रस्ताव लाने के लिए राय-विचार शुरू किया है। इससे करार में यूरेनियम संवर्धन की जांच के तकनीकी पहलुओं को शामिल कर देगा। इसके अलावा, रियाद और तेल अवीव में बैठे उनके रणनीतिक भागीदारों की चिंताओं को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता।

ईरान के सर्वोच्च नेता खामेनेई ने दोहराया है कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का ईरान की नीतियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उन्होंने कहा, “दुनिया के किसी भी मुल्क में अमेरिका की मौजूदगी असुरक्षा, विध्वंस और गृह युद्ध के अलावा और कुछ नहीं है।’’ यद्यपि ईरान के ही राष्ट्रपति रूहानी और उनके विदेश मंत्री जावेद जरीफ ने “राष्ट्रपति के रूप में बाइडेन के आगामी शासनकाल को तनाव दूर करने की दिशा में अधिक संभावनाशील बताया है। साथ ही, अमेरिका को पहले की भूलों को सुधारने और समझौते की तरफ लौटने एक अवसर बताया है, क्योंकि ईरान इसे विश्व के साथ रचनात्मक जुड़ाव के लिए एक रणनीति के रूप में देखता है।” इजरायल के सेटलमेंट मिनिस्टर हानेग्बी ने समझौते की तरफ बाइडेन के लौटने के खतरे से आगाह करते हुए कहा, “यह ईरान और इजरायल के बीच मुठभेड़ करा देगा।’’ लेकिन यह तथ्य है कि किसी भी कार्रवाई की पहले अमेरिका की रजामंदी का होना आवश्यक है। इसी बीच, ट्रंप प्रशासन ने अपने कार्यकाल के अंतिम 70 दिनों के दौरान वैश्विक महामारी के तीसरे चरण के बावजूद ईरान के खिलाफ और प्रतिबंध ठोक दिये हैं। कुछ विश्लेषकों को डर है कि अंतरिम व्यवस्था के दौरान कुछ और प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। ऐसे में ये मामले राष्ट्रपति बाईडेन के लिए काफी जटिलता पैदा करेंगे।

खाड़ी के देशों ने भी बाइडेन और हैरिस के साथ अपनी निजी दोस्ती तथा उनके डेमोक्रेटिक प्रशासन के साथ संबंध मजबूत बनाने पर जोर दिया है, लेकिन ये सब के सब ट्रंप शैली की कूटनीतिक चालों और अमेरिका की अधिकाधिक दबावकारी रणनीतियों की अपेक्षा नए निजाम से नहीं करते। सऊदी किंग सलमान और क्राउन प्रिंस एमबीएस, जो हाल ही में समूह-20 के अध्यक्ष बनाये गये हैं, उन्होंने भी निर्वाचित राष्ट्रपति बाइडेन को बधाई दी है। मानवाधिकार के कुछ मसले जैसे कि खशोगी की मौत और यमन में जारी युद्ध का मुद्दा फिर से उठ सकते हैं। लेकिन सऊदी अरब के अमेरिकी हथियारों के बड़े बाजार होने की वजह से दोनों के बीच संवाद संयमित तरीके से हो सकता है। यद्यपि कतर और ईरान के साथ खाड़ी विवाद में कुछ सामंजस्य की गुंजाइश हो सकती है, क्योंकि ट्रंप की अतिशय दबावकारी रणनीति का कुछ नतीजा निकला है। यद्यपि तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने आखिरकार निर्वाचित राष्ट्रपति बाइडेन का स्वागत किया है। लेकिन बाइडेन के लिए तुर्की के साथ अपने मतभेदों खासकर कुर्दों, आर्मीनियाई, साइप्रस, ग्रीस, पूर्वी भूमध्यसागर, इजरायल और रूस जैसे मसले को लेकर तुर्की से अपने मतभेदों को भुला पाना आसान नहीं होगा।

इसके अलावा, सऊदी नेतृत्व चीन और रूस के और करीब जा सकता है, लेकिन उसके लिए अमेरिका को छोड़ने का कोई विकल्प नहीं है। ऐसे कि इसी हफ्ते चीन और जीसीसी देशों के विदेश मंत्रियों के बीच जीसीसी-चाइना डायलॉग हुआ है। इसके बाद जारी किये गये एक संयुक्त वक्तव्य में कहा गया है, “चूंकि हम बीजिंग की वैश्विक आर्थिक स्थिति और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाय़ी सदस्य के रूप में इसकी विशिष्ट राजनयिक भूमिका के आधार पर चीन की क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावकारी हैसियत को स्वीकार करते हैं। जीसीसी परस्पर सम्मान और साझा हितों के आधार पर क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय संबंध बनाने के लिए बेहद इच्छुक होते हुए वैश्विक महामारी कोविड-19 से मिलजुल कर मुकाबला करने पर बल देता है।” चाइना का जीसीसी देशों के साथ कारोबार में बढोतरी हो रही है। 2001 में जहां व्यापार 16.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, वहीं 2018 में कारोबार में 10 फीसद की बढ़ोतरी के साथ 167.7 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। इस तरह चीन जीसीसी का सर्वाधिक संभावनाशील कारोबारी सहयोगी बना हुआ है। साथ ही, चीन-जीसीसी मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत हो जाने के बाद से परस्पर रणनीतिक सहयोग और भागीदारी में विस्तार होगा। बाइडेन का चीन के प्रति दृष्टिकोण क्षेत्रीय पहुंच के ढांचे को निर्धारित करेगी।

सौभाग्य से, हम मध्य-पूर्व में पहले से ही कुछ सकारात्मक और आशाजनक संकेतों के साक्षी रहे हैं; जैसे कि सऊदी अरब और यूएई के नेतृत्व वाले गठबंधन ने रियाद समझौते के तहत यमन में संघर्ष विराम कराने और मसले का राजनीतिक समाधान निकालने की दिशा में काम कर रहा है। इस काम में ईरान ने भी अपना सहयोग देने की पेशकश की है। लीबिया के मामले में अस्थाई रूप से संघर्ष विराम है तथा ट्यूनिस में राजनीतिक संवाद जारी है। आगे इनके क्या नतीजे निकलते हैं, यह भी देखना होगा। रूस सीरियाई राष्ट्रपति के साथ बातचीत कर रहा है। यूएई, ओमान और अन्य खाड़ी देश सीरिया के पुनर्निर्माण में मदद की आस लगाए हैं। उन्हें उम्मीद है कि सीरिया पर लगे प्रतिबंधों और सीजर अधिनियम हटाए जा सकते हैं। सीरियाई शरणार्थी प्रत्यावर्तन के मसले पर 11 और 12 नवंबर को दमिश्क में हुए कान्फ्रेंस को इसी प्रयास की एक कड़ी के रूप में जोड़ा जा सकता है। फिलहाल तो सभी लोग अपनी सुरक्षा का दोहरा इंतजाम कर रहे हैं और भविष्य में किसी तरह के बदलाव और संशोधनों के लिए अमेरिका के साथ सहयोग के विकल्प को खुला रखे हुए हैं। चाहे वह तुर्की हो, जीसीसी या अन्य अरब देश, ईरान और मिस्र; सभी के सभी संभव है कि वे बड़ी चुनौतियों का सामना करें और मानवाधिकार की उनकी नीतियों और विदेशों में सैन्य दुस्साहसिकता के लिए आलोचना झेलें।

इसमें कोई शक नहीं कि कुछ के लिए अनिश्चतता के स्तर और अमेरिका के आगे की नीतियों के नतीजे को लेकर अनिश्चतता हो। बाइडेन को सावधानी से चलना होगा क्योंकि क्षेत्रीय आयाम अब भी जटिल बने हुए हैं और उन पर गांठ पर गांठ पड़ी हुई है। किंतु क्षेत्रीय देश अगर अपनी अंतर-क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा को नरम नहीं रखते, शब्दाडम्बर करते हैं और संकुचित भू-राजनीतिक फायदों के लिए एक दूसरे को लगातार कमतर आंकते रहते हैं तो उन्हें अपने आंतरिक मामलों में टांग अड़ाने का दोष दूसरों पर मंढ़ने का कोई आधार नहीं है। इस बीच, वे कमला हैरिस के इस वक्तव्य से आश्वस्त हो सकते हैं कि, “हम अपने कार्यालय के पहले दिन, जोए और मैं, गैर-अमेरिकी मुसलमानों की यात्रा और शरणार्थियों पर लगी पाबंदी को हटा देंगे। एक बार फिर प्रवासियों और शरणार्थियों के लिए अमेरिका को एक स्वागतयोग्य ठिकाना बनाएंगे। यहां तक कि शरणार्थियों के आगमन की तय संख्या सीमा को और बढ़ाएंगे।” क्षेत्रीय ताकतें शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के बातचीत का चुनाव करें, एक दूसरे की संप्रभुता का आदर करें एवं एक दूसरे के मामले में दखल देने, धार्मिक श्रेष्ठता का अहंकार जताने और अपने पड़ोसियों तथा भाइयों को डावांडोल करने के लिए कट्टरतावादियों को छद्म रूप से मदद करना अवश्य ही बंद कर देना चाहिए।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
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