भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र को नया जीवन
Arvind Gupta, Director, VIF

कोविड-19 के खिलाफ हमारी जंग में चिकित्सक और स्वास्थ्यकर्मी नायक रहे हैं। इसीलिए निजी सुरक्षा उपकरणों की कमी के कारण उनमें से कई को संक्रमित होते देखकर कष्ट होता है। देश के सामने अस्पताल की शैया, वेंटिलेटर, जांच किट, मास्क जैसे जरूरी उपकरणों की भारी किल्लत है। किल्लत दूर करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन ये सब अल्पकालिक उपाय ही हैं।

कोरोनावायरस महामारी ने यह भी बताया है कि स्वास्थ्य सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा का आवश्यक अंग है।

कोरोनावायरस संकट ने भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र का पूरी तरह कायाकल्प करने का ऐसा मौका दिया है, जो जीवन में एक ही बार मिलता है। स्वास्थ्य क्षेत्र का कायाकल्प ही कोरोनावायरस के बाद भारत के पुनर्निर्माण की कुंजी हो सकता है।

भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की ये मुख्य बातें हैं1:

  • भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1 प्रतिशत के आसपास हिस्सा ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। ब्रिक्स देशों में यह सबसे कम खर्च है। स्वास्थ्य पर अमेरिका जीडीपी का 8.5 प्रतिशत, जर्मनी 9.4 प्रतिशत और ब्रिटेन 7.9 प्रतिशत खर्च करते हैं। हमारे पड़ोसी देश तक अधिक खर्च करते हैं।
  • स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का स्वास्थ्य बजट 2020-21 में लगभग 65,000 करोड़ रुपये है, जो भारतीय नागरिकों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए ही बहुत कम है, कोविड-19 जैसी घातक महामारी का मुकाबला क्या करेगा।
  • भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक और निजी खर्च का अनुपात 3:7 है, जबकि ब्रिटेन में आंकड़ा 9:10 है।
  • विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत प्रति व्यक्ति सबसे कम (23 डॉलर) खर्च करने वाले देशों में शुमार है। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय 23 डॉलर है, जो इंडोनेशिया (38 डॉलर), श्रीलंका (71 डॉलर) और थाईलैंड (177 डॉलर) जैसे अन्य विकासशील देशों की तुलना में सबसे कम है। विश्व बैंक के सार्वभौम स्वास्थ्य बीमा सूचकांक में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च के मामले में भारत 190 देशों में 143वें स्थान पर है।
  • भारत की आबादी के बड़े हिस्से के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है, हालांकि समाज के गरीब और वंचित वर्गों के लिए सरकार की प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना से हालात बदल रहे हैं।
  • राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2015 के अनुसार अस्पताल में भर्ती होने के ज्यादा मामले निजी अस्पतालों (शहरी क्षेत्रों में 68 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 58 प्रतिशत) में देखे गए, जिनमें अधिकतर अनियमित अस्पताल थे। इलाज का खर्च बहुत अधिक होने का एक बड़ा कारण यह भी है। निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के नियमन के लिए नीतिगत उपाय आवश्यक हैं।
  • सभी को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के लिए सरकार को जीडीपी का लगभग 3.8 प्रतिशत खर्च करना पड़ेगा।
  • भारत स्वास्थ्य अनुसंधान एवं विकास पर बहुत कम खर्च करता है। स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग को 2020-21 के बजट में 1,900 करोड़ रुपये मिले, जो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के कुल बजट का केवल 3 प्रतिशत हिस्सा है। यह रकम लगभग 25 करोड़ डॉलर होगी, जो भारत जैसे बड़े आकार के देश में स्वास्थ्य अनुसंधान एवं विकास के लिए एकदम नाकाफी है।
  • देश चिकित्सकों की भारी कमी से भी जूझ रहा है। 2015 के आंकड़ों के अनुसार 83 प्रशित सर्जन, 76 प्रतिशत महिला रोग विशेषज्ञों एवं प्रसूति विशेषज्ञों, 83 प्रतिशत फिजिशन और 82 प्रतिशत बाल रोग विशेषज्ञों की कमी है। 2018 में देश में केवल 1.14 लाख एलोपैथिक चिकित्सक थे। इसी तरह स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों की अन्य श्रेणियों जैसे नर्सों, तकनीशियनों आदि में भी कर्मियों की किल्लत है। हाल ही में स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में सीटें बढ़ाने के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं। यह स्वागतयोग्य कदम है मगर स्वास्थ्य व्यवसाय की सभी श्रेणियों में और भी कदम उठाए जाने चाहिए।
  • भारत में स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा खस्ताहाल है और उसके उन्नयन की जरूरत है। 2018 में भारत में 5624 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 25,743 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 1,58,417 उपकेंद्र थे। उनमें से अधिकतर बहुत बुरी हालत में हैं।
  • चिकित्सा उपकरण क्षेत्रः एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैन्युफैक्चरर्स ऑफ मेडिकल डिवाइसेस के अनुसार भारत में खुदरा और संस्थागत बिक्री के लिहाज से 10 अरब डॉलर से अधिक का चिकित्सा उपकरण उद्योग है। भारत में विभिन्न प्रकार के डिस्पोजेबल और कंज्यूमेबल सामग्री, इलेक्ट्रो-मैकेनिकल निदान एवं उपचार उपकरणों, स्टेंट तथा पीसमेकर का किफायती तथा विकास करने की व्यापक क्षमता है।
  • किंतु इस क्षेत्र में विदेशी कंपनियों का दबदबा है, जो विशाल भारतीय बाजार पर कब्जा करना चाहते हैं। किंतु भारत में हजार से भी अधिक देसी विनिर्माता हैं, जो विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सस्ते चीनी आयात का मुकाबला करने के लिए बहुत छोटे हैं। उनमें से कई विनिर्माता से आयातक बनते जा रहे हैं। उन्हें कीमतों में वरीयता, तार्किक आयात शुल्क ढांचे आदि जैसे प्रोत्साहनों एवं सुरक्षा की आवश्यकता है। कई देश अपने घरेलू उद्योग को इस प्रकार का संरक्षण प्रदान करते हैं।
  • उद्योग के कई सुझावों के बाद भी सरकार ने अभी तक स्वदेशी विनिर्माण के लिए मजबूत नीतिगत सहायता योजना तैयार नहीं की है। क्षेत्र स्वास्थ्य मंत्रालय नहीं बल्कि उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग के अंतर्गत आता है। औषधियों को एकदम अलग विभाग देखता है। अलग-अलग होने के कारण विभिन्न सरकारी विभागों में तालमेल की कमी है।
  • औषधः भारत औषधियों का अग्रणी निर्माता एवं निर्यातक है। इंडियन फार्मास्यूटिकल अलायंस (आईपीए) के अनुसार भारतीय औषण उद्योग 2030 तक 120-130 अरब डॉलर तक पहुंच जाना चाहता है, जबकि अभी इसका आकार केवल 38 अरब डॉलर है।2 लेकिन आंकड़े भ्रामक भी हो सकते हैं। भारत विभिन्न प्रकार के बल्क ड्रग और एक्टिव फार्मास्यूटिकल इन्ग्रेडिएंट (एपीआई) बनाता था। लेकिन चीन से सस्ते आयात की तपिश के कारण कुछ अरसे में ही देसी कंपनियां बंद हो गईं। नतीजतन भारत एपीआई और दूसरे कच्चे माल के लिए चीन पर ही निर्भर हो गया है, जो दुखद है। वित्त वर्ष 2019 में चीन से 2.4 अरब डॉलर का बल्क ड्रग और इंटरमीएिट आयात हुआ था और इनके कुल आयात में चीन की 67 प्रतिशत हिस्सेदरारी थी। कोरोनावायरस के कारण आपूर्ति श्रृंखला का भट्ठा बैठ जाने से भारतीय औषधि उद्योग को दिक्कत होगी। लगभग 19 संयंत्रों को अमेरिकी औषधि एवं खाद्य प्रशासन से कार्रवाई के संकेत और चेतावनी के आधिकारिक पत्र मिल चुके हैं।
सुझाव

उपरोक्त स्थिति को देखते हुए इन सुझावों पर विचार किया जा सकता हैः

  • स्वास्थ्य बजट को बढ़ाकर जीडीपी का कम से कम 3 प्रतिशत किया जाए। धन जुटाने के लिए शिक्षा उपकर की तरह स्वास्थ्य उपकर पर विचार किया जा सकता है। भारत को अगले 5 वर्ष में सार्वभौम स्वास्थ्य बीमा की दिशा में बढ़ना चाहिए। स्वास्थ्य अनुसंधान एवं विकास बजट अभी 1,900 करोड़ रुपये है, जिसे बढ़ाकर कम से कम 10,000 करोड़ रुपये सालाना किया जाना चाहिए। भारत को सताने वाली बीमारियों के टीकों, दवा एवं उपचार पर उच्च अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
  • इंडस्ट्री 4.0 और बिग डेटा एनालिटिक्स, कृत्रिम मेधा जैसी नई तकनीकें औषधि अनुसंधान में क्रांति ला रही हैं। भारतीय औषधि विनिर्माताओं को इन्हें अपनाना चाहिए। चिकित्सकों, नर्सों, अर्द्धचिकित्सा कर्मियों, तकनीशियनों और स्वास्थ्य सेवा कर्मचारियों की किल्लत को पहचाना जाए और पूरा किया जाए। लक्ष्य के साथ पांच वर्ष का समयबद्ध कार्यक्रम तैयार किया जाए।
  • देश में चिकित्सा शिक्षा को फौरन नया रूप दिया जाना चाहिए। देश में हरेक जिला प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के साथ एक मेडिकल कॉलेज जुड़ा होना चाहिए।
  • स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकार को चिकित्सा उपकरण एवं निदान क्षेत्र पर समग्र नीति लानी चाहिए। घरेलू विनिर्माताओं को स्वदेश निर्मित चिकित्सा उपकरणों और निदान उपकरणों पर 15 प्रतिशत अधिक मूल्य दिया जाना चाहिए ताकि वे चीन से सस्ते आयात की चुनौती का मुकाबला कर सकें। शुल्क ढांचे, कर प्रोत्साहन आदि को तर्कसंगत बनाया जाना चाहिए।
  • भारत सरकार को अपने अनिवार्य भारतीय मानक विकसित करने चाहिए और अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन जैसे विदेशी मानकों पर जोर नहीं देना चाहिए।
  • स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के कौशल और प्रशिक्षण को अधिक वरीयता देनी चाहिए। भारतीय कौशल विकास परिषद को इसके लिए विशेष कार्यक्रम तैयार करना चाहिए।
  • टेलीमेडिसिन दुर्लभ नहीं रहे बल्कि नियम बन जाए। टेलीमेडिसिन को बढ़ावा देने के लिए सरकार को नीतियां और दिशानिर्देश तैयार करने चाहिए। अस्पतालों में भीड़ कम होनी चाहिए।
  • प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों को स्वच्छता, चिकित्सा तथा चिकित्सा उपकरणों एवं चिकित्सकों तथा अन्य कर्मचारियों के लिए निश्चित न्यूनतम मानकों का पालन करना चाहिए। राज्यों से सलाह कर स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे की विभिन्न श्रेणियों के लिए न्यूनतम मानक विकसित किए जाने चाहिए और पर्याप्त संसाधन प्रदान किए जाने चाहिए।
  • भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का समुचित नियमन किया जाए ताकि न्यूनतम मानक, गुणवत्ता एवं किफायत सुनिश्चित हो सके।
  • रोग निरोधक स्वास्थ्य सेवा सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि इसके बहुत फायदे होते हैं। सीजीएचएस और ऐसी अन्य योजनाओं के तहत जीवनशैली से जुड़े रोगों से बचने के लिए सलाह एवं सहायता प्रदान की जानी चाहिए। साथ ही स्वच्छता, भोजन और पोषण एवं व्यायामक बारे में भी सलाह देनी चाहिए।
  • आशाकर्मियों जैसे स्वास्थ्यकर्मियों का मजबूत समूह तैयार किया जाना चाहिए ताकि वे प्रत्येक पंचायत और घर तक पहुंच सकें। जहां तक संभव हो घर पर ही स्वास्थ्य सेवा प्रदान करनी चाहिए। सचल स्वास्थ्य क्लिनिकों पर भी विचार होना चाहिए। आम आदमी को चिकित्सकों तथा पेशेवरों तक नहीं बल्कि चिकित्सकों एवं पेशेवरों को आम आदमी के पास तक जाना चाहिए।
  • पारंपरिक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य पद्धतियों पर अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए एलोपैथिक पद्धतियों में योग और ध्यान को भी शामिल किया जाना चाहिए।
  • रोग निगरानी प्रणालियों को मजबूत किया जाना चाहिए ताकि महामारी की शुरुआत में ही चेतावनी दी जा सके।
  • स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में गठबंधन का फायदा हो सकता है बशर्ते उसकी योजना सतर्कता से बनाई जाए। भारत को स्वास्थ्य क्षेत्र में ऐसे पड़ोसी देशों के साथ पारस्परिक लाभप्रद सहायता व्यवस्था तैयार करनी चाहिए, जिन देशों में भारत जैसी ही मांग है। स्वास्थ्य क्षेत्र भारत की पड़ोसियों के प्रति नीति को सुदृढ़ बनाने में मदद कर सकता है।

भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र का कायाकल्प करने के लिए विभिन्न मंत्रालयों और विभागों, केंद्र तथा राज्यों, सरकार एवं निजी क्षेत्र, गैर सरकारी संगटठनों, शिक्षा संस्थानों, उद्योग एवं कई अन्य हितधारकों के लिए सर्वांगीण नीति बनानी पड़ेगी। नीतिगत क्षेत्र बुरी तरह बंटा हुआ है और उसे एकजुट करने की जरूरत है।

संदर्भः
  1. ये बिंदु पार्लियामेंट्री रिसर्च सर्विस इंडिया द्वारा 2020-21 के स्वास्थ्य बजट के विश्लेषण एवं अन्य स्रोतों से लिए गए हैं। यह लेख तैयार करने के लिए कुछ स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों से भी सलाह ली गई है। देखें https://www.prsindia.org/parliamenttrack/budgets/demand-grants-analysis-health-and-family-welfare (7 अप्रैल 2020 को देखा गया)

  2. https://economictimes.indiatimes.com/industry/healthcare/biotech/pharmaceuticals/indian-pharma-industry-aspiring-to-grow-to-120-130-billion-by-2030-ipa/articleshow/69861213.cms (8 अप्रैल 2020 को देखा गया)

Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: https://static.businessworld.in/article/article_extra_large_image/1489146824_dBDfLn_pharma-ST.jpg

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