ततमादॉ दिवस 27 मार्च 2020: विश्वसनीय और प्रासंगिक बने रहने के लिए क्या करें म्यांमार की सशस्त्र सेनाएं
Jaideep Chanda

ततमादॉ यानी म्यांमार की सशस्त्र सेनाएं 27 मार्च 2020 को यानी आज अपना 75वां स्थापना दिवस मना रही हैं। इसे ततमादॉ नेय भी कहा जाता है और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापानी कब्जे के खिलाफ विद्रोह की याद में इसे मनाया जाता है। यही वह दिन था, जब बोगयोक आंग सान और उनके 30 साथियों यानी थाकिन्स ने जापानी फासीवादियों के खिलाफ जंग छेड़ी थी और उन्हें तत्कालीन बर्मा से बाहर खदेड़ दिया था। शुरू में इसे फासीवादी विरोधी दिवस कहा जाता था, लेकिन आज इसे ततमादॉ दिवस कहा जाता है। इस दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है और नेयपीडॉ में बड़ी परेड होती है। पिछले वर्ष सीनियर जनरल आंग मिंग लाएंग के स्थान पर वाइस सीनियर जनरल सो विन ने भाषण दिया था। जनरल लाएंग घुटने की चोट के कारण भाषण नहीं दे सके थे। इस वर्ष कोविड-19 के कारण सामाजिक दूरी जरूरी होने की वजह से परेड को अनिश्चित काल के लिए टाल दिया गया है। यह हीरक वर्षगांठ यानी डायमंड जुबिली वर्ष है और सेना के शीर्ष पर बैठे कमांडर इन चीफ ऑफ डिफेंस सर्विसेज सीनियर जनरल मिन आंग लाएंग ने शुभकामना संदेश जारी किया, जिसमें उन्होंने ततमादॉ के सदस्यों के तीन राष्ट्रीय ध्येय और चार संकल्प दोहराए।1

इस 75वें स्थापना दिवस पर मौजूदा ततमादॉ पुरानी ततमादॉ की छाया भर रह गई है। आचरण, जीवन स्थिति, आय के स्रोत और वेतनमान आदि के मामले में जवानों और वरिष्ठ अधिकारियों के बीच व्यापक असमानता सभी पर्यवेक्षकों को दिखाई देती है। हाल ही में अराकान आर्मी द्वारा एक बटालियन पर हमला किया जाना और उसके कमांडर को पकड़ा जाना सेना की क्षमता पर धब्बा है। रखाइन और चिन राज्यों में रणनीति और अभियान के मामले में अराकान आर्मी के हाथों बार-बार मात मिने से पता चलता है कि अभियान और रणनीति के स्तरों पर उच्च नेतृत्व की योग्यता कम है। हवाई हमले और बमबारी के लिए गोलाबारूद और लड़ाकू विमानों का अंधाधुंध और अप्रभावी इस्तेमाल तथा उससे होने वाला भारी नुकसान उस मानसिकता की ओर इशारा करता है, जो भूभाग, खुफिया क्षमता और प्रशिक्षण के मामले में अपारंपरिक कमियों की भरपाई के लिए पारंपरिक तरीकों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करती है। ऐसी हरकतों के कारण ततमादॉ स्थानीय लोगों से और भी कट गई है और स्थानीय खुफिया जानकारी से वंचित हो गई है, जो उग्रवाद से मुकाबले के लिए अनिवार्य होती है। ततमादॉ ने पूरे देश के ऊपर जो रोहिंग्या संकट थोपा है, वह इस बात का उदाहरण है कि सैन्य नेतृत्व में दूरअंदेशी की कमी की सरकार को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है।

कुल मिलाकर आज ततमादॉ राष्ट्रीय स्तर की आकांक्षाएं पूरी करने के लिए काम करने में पिछड़ती दिख रही है। क्षमताओं ओर आकांक्षा के बीच यह बहुत बेमेल है, जिसे सैन्य नेतृत्व सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करता क्योंकि या तो उसे इसका अहसास ही नहीं है या वे देश भर में शर्मिंदगी उठाने या रुतबा खोने के डर से यह बात सामने नहीं आने देना चाहते।

फिर ततमादॉ के लिए खोई जमीन, प्रतिष्ठा और प्रासंगिकता दोबारा हासिल करने का क्या रास्ता है? पहली बात तो यह है कि समस्या को स्वीकार करने का मतलब आधी जंग जीतना है। ततमादॉ में वरिष्ठ कमांडरों को वे समस्याएं पहचानने और स्वीकार करने की जरूरत है, जिनसे संगठन घिरा हुआ है। संगठन में ईमानदारी के साथ आत्मावलोकन बिल्कुल नहीं होता क्योंकि किसी भी संगठन की रचनात्मक आलोचना करने वालों को भी म्यांमार में लागू देशद्रोह कानून से खतरा हो गया है। प्रथम दृष्टया उच्च स्तर के सेनाधिकारियों को उच्च पदों पर मिलने वाला धन, राष्ट्रीय सुरक्षा का आरामदेह तामझाम और राष्ट्रीय नेतृत्व में अपना पद तथा रसूख बरकरार रखने की जरूरत से ही प्रेरणा मिलती है। स्वाभाविक है कि ईमानदारी भरे आत्मावलोकन से निर्णय करने वालों को ततमादॉ को पुनर्जीवित करने का सही रास्ता दिख जाएगा।

दूसरी बात, दुनिया भर की सेनाओं के लिए राजनीति अभिशाप रही है। ततमादॉ के मामले में भी ऐसा ही है। सच है कि ततमादॉ ऐसी स्थिति में है, जिसे कोई हिला नहीं सकता। जहां यह दशकों तक राज करती रही है, खुद को मुकदमों से बचाती रही है, उस व्यवस्था से खुद को निकालना मुश्किल भी है और जोखिम भरा भी है। अगर यह सत्ता अपने हाथ से निकलने देती है तो नागरिक विधि निर्माता उस पर मुकदमे चला सकते हैं। इसलिए सेना के पास सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। जब तक सेना खुद को राजनीति से अलग नहीं करती तब तक उसमें तैयार होने वाले जवानों की गुणवत्ता सुधर नहीं सकती। जब श्रृंखला में मौजूद कमांडर सियासत में लगे रहते हैं तो सेना की कुशलता पर असर पड़ता है। राजनीतिक ऐसी सेना के लिए बड़ा महंगा भटकाव हो गई है और उसकी कीमत जवानों को अपने खून से चुकानी पड़ती है। सवाल यह है कि चुनाव नजदीक हैं और सेना पर आंग सान सूची का अच्छा दबदबा है तो क्या वह सेना को इस शर्त पर पीछे हटने के लिए मना सकती हैं कि सेना को एक सीमा तक अभयदान दिया जाएगा, जिसकी उसे बेहद जरूरत भी है? द इकनॉमिस्ट में प्रकाशित आलेख ‘जनरल मायोपियाः व्हाई म्यांमार्स आर्मी इज रॉन्ग टु रिजेक्ट लिमिट्स ऑन इट्स पावर’ में लेखक कहते हैं:

सशस्त्र सेनाओं के ऊपर नागरिकों के प्रभुत्व का आभास भर देने वाला संविधान संशोधन अच्छी शुरुआत होगा। उदाहरण के लिए सेना विभिन्न सुरक्षा मंत्रालयों पर अपना नियंत्रण खत्म कर सकती है या आपातकाल घोषित करने के अधिकार वाली विशेष सरकारी समिति में अपना बहुमत छोड़ सकती है। एक स्तर पर यह प्रतीक भर होगाः सूची निश्चित रूप से जानती हैं कि यदि सेना को खतरा महसूस हुआ तो वह एक बार फिर तख्तापलट से बिल्कुल नहीं हिचकिचाएगी। लेकिन वक्त गुजरने के साथ नए नियम संस्थागत नियमों में बदल सकते हैं।2

तीसरी बात, एक बार सेना राजनीति से दूर हो गई तो उसे बहुप्रचारित मानक सेना बनने के लिए बड़े स्तर पर आंतरिक सुधार करने होंगे। इसका मतलब है कि एक बार फिर किसी अभियान में लगने से पहले उसे हटना होगा, आत्मावलोकन करना होगा, बुनियादी बिंदुओं पर लौटना होगा, दोबारा तैयार होना पड़ेगा, प्रशिक्षण हासिल करना पड़ेगा। इसके अलावा ढेर सारे जातीय सशस्त्र संगठनों के खिलाफ एक साथ सभी मोर्चों पर अभियान छेड़ने की रणनीति फौज को एक साथ रखने के बुनियादी सैन्य सिद्धांत के ही विपरीत है। ब्रदरहुड अलायंस के नाम से एकजुट हुए जातीय सशस्त्र संगठनों के खिलाफ यह बात खास तौर पर सही है। विश्लेषक अक्सर इस बात का जिक्र करते हैं कि इन जातीय संगठनों के लड़ाकों की संख्या और हावभाव म्यांमार की सशस्त्र सेनाओं से बहुत बेहतर होते हैं, जिससे पता चलता है कि उनमें अधिक आत्मविश्वास है और अधिक क्षमता है, जिस कारण इन संगठनों को बेहतर सैन्य सफलता हासिल होती है।

चौथी बात, उसे अपने जवानों से फिर संवाद करना होगा। मानक सेना बनानी है तो सामंती रुख खत्म करना होगा और अधिकारियों तथा जवानों का पेशेवर रिश्ता बनाना तथा बरकरार रखना होगा, जिसमें पेशेवर असंतोष को देशद्रोह नहीं माना जाता। ततमादॉ की टुकड़ियों ने उत्तर रखाइन में रोहिंग्या की आबादी वाले क्षेत्रों में अपने अभियान वाले क्षेत्रों तथा अराकाम आर्मी पर जिस तरह के जुल्म किए हैं, वे अधिकारियों की प्रभावी निगरानी के बगैर काम कर रही अनुशासनहीन तथा गैर पेशेवर सेना का नतीजा हैं। ‘जो मन चाहे वह करने’ के अनकहे सिद्धांत की जगह सबसे निचले स्तर पर भी जवाबदेही तय करनी पड़ेगी।

पांचवीं बात, उग्रवादियों के अभियानों का मुकाबला करने के लिए बुनियादी सिद्धांतों की ओर लौटना होगा, जिसमें गोला-बारूद और हवा पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता छोड़नी पड़ेगी। उसे गुपचुप खुफिया सूचना देने वाला नेटवर्क विकसित करना होगा, जिसके लिए उसे जिम्मेदार और अनुशासित सेना की तरह काम करना होगा। ततमादॉ सबसे पहले छोटी-छोटी सफलताएं हासिल करे, उसके बाद ही भारी भरकम उग्रवादी गुटों को, अराकान सेना की प्रेरणा और चतुराई से निपटने की कोशिश करने का सपना देखे।

अंत में, उसे म्यांमार की असैन्य सरकार से या अपने ही भीतर से रणनीतिक दिशानिर्देश हासिल करने की जरूरत है। ऐसे उग्रवादी संगठन के साथ लड़ने की विडंबना पचाना आसान नहीं है, जो संगठन म्यांमार से अलग होने की मांग भी नहीं कर रहा। शांति की मामूली सी उम्मीद भी दिखे तो ततमादॉ को उसका पूरा फायदा उठाना चाहिए। इसका ऐतिहासिक उदाहरण भी है। 1988 की क्रांति के बाद ततमादॉ ने जातीय सशस्त्र संगठनों और नशे का कारोबार करने वाली सेनाओं को शांत करने के लिए कई रियायतें दी थीं और उन्हें अपने वश में कर लिया था। इसका असर कम ही रहा था। लेकिन इससे ततमादॉ को संभलने और अपना ध्यान केंद्रित करने का मौका मिल गया। उसे संघवाद को व्यावहारिक व्यवस्था मानना चाहिए क्योंकि पूरी दुनिया में राष्ट्रीय एकता और संप्रभुता को नुकसान पहुंचाए बगैर यह काम कर रहा है।

ततमादॉ को अपनी ताकत राष्ट्रनिर्माण की और भी सार्थक गतिविधियों के लिए बचाकर रखनी चाहिए। यदि साहसिक और कठोर कदम उठाए गए तभी ततमादॉ सुनिश्चित कर पाएगा कि इतिहास उसे ऐसे संगठन के रूप में भलाई के साथ याद रखेगा, जिसने राष्ट्र के हित में काम किया। अपना रास्ता नहीं बदला तो वह ऐसे संगठन के रूप में याद की जाएगी, जिनसे राष्ट्र हित की कोशिश करते-करते उसका ठीक उलटा कर डाला।

संदर्भः
  1. तीन राष्ट्रीय ध्येय हैं; संघ का विघटन नहीं होने देना, राष्ट्रीय एकता खंडित नहीं होने देना और राष्ट्रीय संप्रभुता बरकरार रखना। चार संकल्प हैं; राज्य तथा जनता के प्रति वफादारी, शहीद जवानों के प्रति वफादारी, वरिष्ठों द्वारा दिए गए कार्य और आदेशों का निष्ठा से पालन करने का संकल्प तथा अपने राज्य, अपनी जनता और अपनी ततमादॉ के लिए जीवन बलिदान करने का संकल्प।
  2. द इकनॉमिस्ट, ‘जनरल मायोपियाः व्हाई म्यांमार्स आर्मी इज रॉन्ग टु रिजेक्ट लिमिट्स ऑन इट्स पावर’, 10 मार्च, 2020 https://www.economist.com/leaders/2020/03/10/why-myanmars-army-is-wrong-to-reject-limits-on-its-power (27 मार्च 2020 को देखा गया)

Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/4/44/Tatmadaw-emblem.jpg

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