संवाद – टोक्यो में संपन्न चौथी संगोष्ठी – रिपोर्ट
Arvind Gupta, Director, VIF

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने टकराव दूर रखने और एशियाई क्षेत्र के प्रमुख धर्मों हिंदू धर्म तथा बौद्ध धर्म की दार्शनिक एवं सांस्कृतिक विरासत पर चर्चा करने के लिए 2015 में एशियाई देशों के बीच नियमित वार्ता ‘संवाद’ आयोजित करने का अनूठा विचार दिया था। उसके बाद से संवाद प्रारूप के तहत नई दिल्ली (2015), टोक्यो (2016), यांगून (2017) और टोक्यो (2018) में चार संगोष्ठी आयोजित हो चुकी हैं।

जापान फाउंडेशन ने नाकामुरा हजीमे इंस्टीट्यूट, जापान के विदेश मंत्रालय और निक्केई कॉर्पोरेशन के साथ मिलकर 5 जुलाई, 2018 को संवाद वार्ता माला के अंतर्गत टोक्यो में ‘एशिया में साझा मूल्य एवं लोकतंत्र’ शीर्षक वाली संगोष्ठी आयोजित की। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने वीडियो संबोधन में संवाद संगोष्ठियों में मदद करने और उनका आयोजन करने के लिए प्रधानमंत्री आबे का धन्यवाद किया। हिंदू धर्म तथ बौद्ध धर्म के खुलेपन की बात करते हुए उन्होंने कहाः “खुलापन, हठधर्मिता नहीं होना और विचारधारा के बजाय दर्शन की बात करना लोकतांत्रिक भावना की हमारी साझी विरासत हैं। दो प्राचीनतम एशियाई धर्मों हिंदू और बौद्ध में वार्ता की यह दार्शनिक एवं सांस्कृतिक विरासत बेहतर समझ को बढ़ावा देने में हमारी मदद करती है।” प्रधानमंत्री मोदी ने टोक्यो में आयोजित हो रहे चौथे ‘संवाद’ के लिए वीडियो संदेश, ‘एशिया में साझे मूल्य एवं लोकतंत्र’, साझा किया।

प्रस्ताव को “अनूठा” बताते हुए प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने समापन सत्र में अपने संबोधन में कहा, “बातचीत के लिए यह बेहद खास स्थान है। दुनिया में किसी स्थान पर ही नहीं बल्कि इतिहास में किसी भी समय इसकी बराबरी का कुछ नहीं है। इसकी शुरुआत भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मेरे उस संयुक्त प्रस्ताव से हुई है, जो हमने उस समय रखा था, जब चार वर्ष पहले वह शरद ऋतु में वह यहां आए थे।” प्रधानमंत्री आबे ने यह भी याद किया कि संगोष्ठी का विचार कैसे आया। उन्होंने बताया कि वह लंबे समय से भारत और जापान में लोकतंत्र की प्रकृति पर विचार करते आए हैं। उन्होंने कहा, “लोकतंत्र कोई बाहरी तत्व नहीं है, जो पश्चिम से आया हो। लोकतंत्र का अनुवाद नहीं किया जाता बल्कि अपने देसी शब्दों और विचारों से बताया जाता है। यह कैसा होता है? मने इसी पर और विचार करने का फैसला किया।”

भारत, जापान, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, श्रीलंका, फिलीपींस और चीन से आए विद्वानों की उपस्थिति में टोक्यो संगोष्ठी को तीन हिस्सों में बांटा गया - पहला उद्घाटन सत्र और उसके बाद दो चर्चा सत्र। पहली चर्चा ‘एशिया में साझे मूल्यों तथा परंपरा’ पर था और दूसरा चर्चा सत्र ‘एशिया में स्वतंत्रता तथा लोकतंत्रीकरण का अनुभवः महात्मा गांधी की विरासत’ विषय पर था। ‘जापान तथा एशिया के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान की उपलब्धि एवं चुनौतियां’ विषय पर विशेष सत्र आयोजित किया गया। समापन सत्र को प्रधानमंत्री आबे ने संबोधित किया। प्रधानमंत्री मोदी का वीडियो संदेश भी पढ़ा गया। संवाद के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए प्रधानमंत्री आबे ने वक्ताओं को अपने आवास पर रात्रिभोज के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने प्रतिभागियों से अनौपचारिक बातचीत की।

भारत सरकार ने एक उच्चस्तरीय आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल को टोक्यो भेजा, जिसमें तमिलनाडु के राज्यपाल श्री बनवारीलाल पुरोहित और अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री पेमा खांडू शामिल थे। अनाधिकारिक प्रतिनधिमंडल में विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के वाइस चेयरमैन श्री एस गुरुमूर्ति, निदेशक डॉ. अरविंद गुप्ता, वरिष्ठ फेलो प्रोफेसर सुजीत दत्ता और संयुक्त सचिव सुश्री अनुत्तमा गांगुली थीं।

श्री पुरोहित ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि हिंदू दर्शन बातचीत के माध्यम से मतभेदों के साथ चलते रहने पर बहुत जोर देता है। प्रत्येक विचार पर चर्चा होती है। ईश्वर भी वाद-विवाद और चर्चा से परे नहीं हैं। धर्म के सिद्धांतों पर भी बहस होती है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की सफलता बहस में ही निहित है। व्यक्ति और समाज दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। दोनों के बीच सामंजस्य आवश्यक है। इससे मूल्यों पर आधारित सामाजिक पूंजी तैयार होती है। आत्मसंयम और साझा हित की दिशा में कार्य करना महत्वपूर्ण मूल्य हैं।

श्री एस गुरुमूर्ति ने अपने विशेष उद्बोधन में बताया कि किस तरह प्रधानमंत्री मोदी और प्रधानमंत्री आबे ने यह महसूस किया कि वर्तमान विश्व की समस्याओं से निपटने के लिए हमें एशियाई अनुभव एवं मूल्यों पर आधारित पूर्वी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। लोकतंत्र का एशियाई अनुभव हजारों वर्षों में विकसित हुआ है। पश्चिमी लोकतंत्र व्यक्तिवाद में निहित है। पूर्व व्यक्ति और समाज दोनों पर ध्यान देता है। बाजार और परिवार के बीच में चयन करना है। टकराव से दूर रहना ही पूर्व की चर्चा पद्धति का मूल है। असहमति से सहमति भी चर्चा का ही अंग है। एशिया ने अपनी विविधता को चर्चा एवं विचार के जरिये ही सहेजा है।

फिलीपींस की पूर्व राष्ट्रपति सुश्री ग्लोरिया मैकापगल अरोयो ने अपने भाषण में कहा कि क्षेत्र में सौहार्द बरकरार रखना बहुत जरूरी है। एशिया में लोकतंत्र का अच्छा खासा अनुभव है। फिलीपींस के इतिहास के महत्वपूर्ण क्षणों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि फिलीपींस ने अमेरिकियों के आने से पहले ही लोकतंत्र को अपना लिया था। एशियाई देशों में एक समान मूल्य हैं, जो सामाजिक सौहार्द को बढ़ावा देते हैं। एशिया में लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है। एशिया में लोकतंत्र पश्चिम के लोकतंत्र से अलग दिख सकता है, लेकिन दोनों का सार एक ही है। उन्होंने कहा कि एशिया में भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है और जापान सबसे विकसित लोकतंत्र है।

नाकामुरा हजीमे ईस्टर्न इंस्टीट्यूट, जापान के अध्यक्ष श्री सेंगाकू माएदा ने कहा कि प्राकृतिक विज्ञान आधुनिक विश्व की समस्याओं का उत्तर प्रदान नहीं कर सकता। आतंकवाद और परमाणु हथियारों के साथ लोकतंत्र कैसे रह सकता है? नाकामुरा हजीमे ईस्टर्न इंस्टीट्यूट की स्थापना प्रोफेसर नाकामुरा ने की थी, जिन्होंने हिंदू एवं बौद्ध दर्शनों का गहन अध्ययन किया था। अपने जीवन काल में और अपने विभिन्न अध्ययनों के जरिये प्रो. नाकामुरा ने इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया था। उन्होंने बौद्ध धर्म में ‘दया’ के सिद्धांत की प्रासंगिकता पर जोर दिया। उन्होंने भारतीय दर्शन का अध्ययन किया और पाया कि लोकतंत्र सार्वभौमिक है और संपूर्ण विश्व एक ही है। दया के सिद्धांत का मूल ‘करुणा’ के भारतीय सिद्धांत में निहित है और कनफ्यूशियस की शिक्षा में गुण के विचार तथा ईसाई धर्म में प्रेम के विचार के निकट है। प्रो. नाकामुरा हिंदू धर्म के प्रख्यात विद्वान थे और इस विषय पर उन्होंने एक हजार से भी अधिक पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने पूरी दुनिया भर में बड़ी संख्या में शिष्यों को पूर्वी दर्शनों में प्रशिक्षित किया। प्रधानमंत्री आबे ने प्रो. नाकामुरा को और हिंदू तथा बौद्ध दर्शनों के विकास एवं शिक्षा में उनके योगदान को श्रद्धांजलि दी।

चीन की चाइना एकेडमी ऑफ साइंसेज से आए वेदांत दर्शन के विशेषज्ञ श्री सुन चिंग ने हिंदू धर्म एवं बौद्ध धर्म के उन विचारों का उल्लेख किया, जिन्होंने चीनी संस्कृति पर प्रभाव डाला है।

विभिन्न वक्ताओं ने अपने-अपने देशों में लोकतंत्र के विकास के अनूठे अनुभवों को याद किया। लेकिन एक बार समान थी कि एशिया लोकतंत्र में किसी से कम नहीं है। एशियाई दर्शनों में पारस्परिक सम्मान, समानता, आत्मसंयम और दया के मूल्यों का भंडार है। ये मूल्य लोकतंत्र के लिए बहुत प्रासंगिक हैं और पश्चिम में लोकतंत्र के सीमित विचार से भी आगे जाते हैं। विद्वानों ने माना कि एशियाई होने अथवा एशियाई मूल्यों का पालन करने के कारण रक्षात्मक होने की कोई जरूरत नहीं है। कई लोगों ने सिंगापुर के पूर्व राष्ट्रपति ली कुआन यू और मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर बिन मोहम्मद के विचारों को याद किया, जो इस बात पर जोर देते थे कि एशिया के लोगों की अपनी मूल्य व्यवस्था है, जिसे बचाए रखना चाहिए और बढ़ावा दिया जाना चाहिए। एशियाई देश तेज वृद्धि कर रहे हैं और एशिया विश्व की धुरी बनता जा रहा है, इसलिए ये विचार अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।

संगोष्ठी में अपने विदाई भाषण में प्रधानमंत्री आबे ने संवाद सम्मेलन शृंखला को पूरा समर्थन देने की बात कही। उन्होंने प्रसन्नता जताई कि संयुक्त पहल ने जड़ें जमा ली हैं और बेहद रोचक चर्चा हुई हैं। अपने भाषण में उन्होंने लोकतंत्र के विचार तथा लंबे समय से एशिया में उसके लगातार विकास की बात की। उनका स्पष्ट मानना था कि एशियाई मूल्य किसी भी तरह अलोकतांत्रिक नहीं हैं। लोकतंत्र लगातार विकसित होता विचार है। एशिया में इतनी वृद्धि होने के कारण एशियाई मूल्यों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। श्री आबे ने भविष्य में भी वार्ता की संवाद शृंखला जारी रखने में पूरा सहयोग देने की प्रतिबद्धता जताई।

यह स्पष्ट था कि ज्यादातर लोगों ने एशिया से जुड़े विषयों पर संवाद के विचार का स्वागत किया है। प्रधानमंत्री मोदी और प्रधानमंत्री आबे की संयुक्त पहल चलती रहेगी। संवाद सम्मेलन भविष्य में भी जारी रहेंगे। आशा है कि ईमानदारी भरे संवाद की प्रक्रिया से रचनात्मक विचार उत्पन्न होंगे, जो विश्व का कल्याण करेंगे। अगला संवाद आयोजित करने की बारी भारत की है। विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन ने अगले संवाद की मेजबानी की प्रक्रिया आरंभ कर दी है।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

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