अनुच्छेद 35ए पर कड़वाहट भरी रस्साकशी
Rajesh Singh

पिछले कुछ महीनों और वर्षों में जम्मू-कश्मीर में की कहानी कश्मीर घाटी में नियमित अशांति, सीमा पार से बार-बार आतंकी हमलों तथा भारतीय सुरक्षा बलों एवं आतंकियों के बीच मुठभेड़ के इर्दगिर्द ही घूमती रही है। इससे अलग एक टकराव भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 पर होता आया है, जिसके तहत राज्य को “अस्थायी प्रावधानों” के जरिये विशेषाधिकार दिए गए हैं। उसे समाप्त करने की आवाजें इस आधार पर उठती रही हैं कि वह राज्य को भारतीय संघ में प्रभावी रूप से जोड़ने में असफल रहा है और उसे जारी रखने की आवाजें इस आधार पर उठती रही हैं कि वह शब्दों में नहीं बल्कि वास्तव में भी एकीकरण करने का प्रमुख सिद्धांत है। प्रावधान की बारीकियों पर ध्यान दिए बगैर इसके केवल दो उप-प्रावधानों से ही पता चल जाता है कि यह विवादित क्यों है। अनुच्छेद 370(1) के दो उप-प्रावधान कहते हैं: “इस संविधान में कुछ भी लिखा होने के बावजूद” - उप-प्रावधान (ए): “अनुच्छेद 238 के प्रावधान जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होंगे”; और उप-प्रावधान (बी): “इस राज्य के लिए कानून बनाने का संसद का अधिकार सीमित रहेगा...।” संविधान के सातवें भाग में उल्लिखित भाग 7 को अंत में संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 के द्वारा समाप्त कर दिया गया। इसे समाप्त तब किया गया, जब ‘भाग बी’ के राज्यों को हटा दिया गया और संशोधन में राज्यों के तौर पर शामिल किया गया। ये 9 राज्य थे, जिनका शासन राज प्रमुखों के हाथ में था और उनमें हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर, मध्य भारत, मैसूर, पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ, राजस्थान, सौराष्ट्र, त्रावणकोर-कोचीन तथा विंध्य प्रदेश शामिल थे।

राजनीतिक वर्गों में अनुच्छेद 370 पर विवाद जारी है। लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में बातचीत का केंद्र अनुच्छेद 370 के बजाय अनुच्छेद 35ए (दोनों ही भेदभाव पूर्ण हैं) हो गया है, जिसकी प्रमुख वजह यह है कि यह अनुच्छेद फैसले के लिए उच्चतम न्यायालय के दरवाजे पर पहुंच गया है और अदालत ने मामला स्वीकार कर लिया है। दूसरी समानता यह है कि दोनों प्रावधान जम्मू-कश्मीर से संबंधित हैं। एक याची चारु वली खन्ना ने अनुच्छेद 35ए (साथ में जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 6 को, जो स्थायी निवासी के दर्जे से संबंधित है) की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी है कि अनुच्छेद राज्य के संविधान के कुछ अधिकारों की रक्षा करता है और संविधान राज्य से बाहर विवाह करने वाली स्थानीय महिलाओं से संपत्ति का अधिकार छीन लेता है।

याची की दलील है कि राज्य के संविधान की धारा 6 “महिलाओं से अपनी पसंद के पुरुष के साथ विवाह करने का अधिकार छीन लेती है क्योंकि यदि महिला किसी ऐसे पुरुष से विवाह करती है, जो स्थायी निवासी नहीं है तो उसके वारिसों को संपत्ति पर किसी तरह का अधिकार नहीं मिलता। उसकी संतानों को स्थायी निवास का प्रमाणपत्र नहीं दिया जाता और इस तरह उन्हें अवैध माना जाता है...।” खन्ना इकलौती याची नहीं हैं, एक गैर सरकारी संगठन ‘वी द सिटिजंस’ ने भी प्रावधान को चुनौती देते हुए याचिका दायर की है और शीर्ष न्यायालय ने दोनों याचिकाओं को एक साथ कर दिया है। वी द सिटिजंस का तर्क है कि अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए के तहत जम्मू-कश्मीर का स्वायत्त राज्य का दर्जा राज्य से बाहर के लोगों के साथ सरकारी नौकरियों और जमीन-जायदाद की खरीद में भेदभाव करता है। यदि सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई का फैसला करता है तो संभवतः मामला पांच न्यायाधीशों के पीठ के समक्ष जाएगा। न्यायमूर्ति दीपक मिश्र के नेतृत्व वाला एक पीठ याची वली खन्ना की ओर से पेश हुए वकील से कह चुका है कि “यदि हमें लगता है कि वैधता को दी जा रही चुनौती विचार के योग्य है तो मामला पांच सदस्यीय पीठ के पास जाएगा।” इसलिए अब हम ऐसे मोड़ पर हैं, जहां या तो शीर्ष न्यायालय (बड़ा पीठ) याचिकाओं की सुनवाई करेगा या उन्हें स्वीकार ही नहीं किया जाएगा। हमें जल्द ही पता चल जाएगा, लेकिन दोनों ही सूरतों में मामला ठंडा नहीं पड़ेगा - कम से कम राजनीतिक तौर पर तो नहीं।

यहां दिलचस्प बात यह है कि अपनी जाति से बाहर विवाह करने वाली और जम्मू-कश्मीर के बाहर बसी वली खन्ना ने केवल भेदभाव का ही नहीं बल्कि स्त्री-पुरुष भेदभाव का मामला भी उठाया है। उन्होंने मीडिया से कहा कि “जन्म से कश्मीरी पंडित होने के बावजूद राज्य मुझे अपना नागरिक ही नहीं मानता... पुरुष और महिलाओं तथा महिलाओं और पुरुषों के बीच बेतुका भेदभाव करना भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 की भावना के विरुद्ध है।” उन्होंने कहा कि ये कानून भेदभाव करने वाले हैं क्योंकि वे भारतीय महिलाओं जैसे लाभ पाते रहने के लिए महिलाओं को विवाह के लिए साथी चुनने की आजादी से वंचित करते हैं।

अनुच्छेद 35ए को शामिल करने से संसद एवं राज्य के अधिकारों के संबंध में अनुच्छेद 35 के प्रावधान कमजोर हो गए। अनुच्छेद 35 कहता है कि अनुच्छेद 32, 33 और 34 के विभिन्न प्रावधानों के संदर्भ में “कानून बनाने के अधिकार संसद के पास होंगे, किसी राज्य की विधानसभा के पास नहीं”, लेकिन अनुच्छेद 35ए में कहा गया हैः “इस संविधान में कुछ भी लिखा होने के बावजूद जम्मू-कश्मीर राज्य में पहले से लागू कोई भी कानून और जम्मू-कश्मीर विधानसभा द्वारा आगे बनाया जाने वाला कोई भी कानून इस आधार पर खत्म नहीं किया जाएगा कि वह इस भाग के किसी भी प्रावधान द्वारा भारत के अन्य नागरिकों को दिए गए किसी अधिकार के विपरीत है अथवा उस अधिकार को समाप्त करता है या कम करता है।” यहां उल्लिखित कानून स्थायी निवासी के दर्जे, राज्य सरकार की नौकरी, राज्य में अचल संपत्ति की खरीद, जम्मू-कश्मीर में बसने और राज्य सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली छात्रवृत्तियों अथवा अन्य प्रकार की सहायताओं पर अधिकार से संबंधित हैं। अनुच्छेद 35ए नहीं होता तो जम्मू-कश्मीर के मामले अनुच्छेद 35 के प्रावधानों से निपटाए जाते, जो आज विवादित हो चुके हैं। आपराधिक मामलों में आज भी एक हद तक वे प्रावधान ही चलते हैं और मुकदमों के निपटारे का अधिकार उच्चतम न्यायालय के पास है, लेकिन उन्हें कहीं और हल्का बना दिया गया है।

अनुच्छेद 35ए का अधिकतर प्रभाव जम्मू-कश्मीर के स्थानीय निवासी को मिलने वाले विशेष दर्जे पर पड़ा है और इस तरह उन नागरिकों के साथ भारत के शेष नागरिकों से अलग व्यवहार किया जा रहा है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि ‘स्थायी निवासी’ की परिभाषा राज्य विधानसभा के हाथों में है। इसके अलावा अनुच्छेद ऐसे कानूनों को यह सोचे बगैर ही वैध करार देती है कि वे भारतीय नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए अनुच्छेद 15(1), 16(1), 19(1)(ई-एफ) के जरिये भारत के संविधान में लिखे गए मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हैं। इसलिए यह समझना आसान है कि शीर्ष अदालत में अनुच्छेद 35ए की वैधता को चुनौती देने वाले याची ही नहीं बल्कि राजनीतिक, शैक्षिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में उन लोगों के लिए भी असंतोष का कारण कहां से आता है, जो ‘पक्षपाती’ प्रावधान के खिलाफ खड़े हो गए हैं। चूंकि अनुच्छेद 35ए भारत के उन नागरिकों, जो जम्मू-कश्मीर के स्थानीय निवासी नहीं हैं, के खिलाफ होने वाले भेदभाव के जरिये उत्पन्न हो रही विसंगतियों को सिरे से खारिज कर देता है, इसलिए यह जरूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले को निर्णायक ढंग से निपटा दे। संक्षेप में कहें तो सर्वोच्च न्यायालय को यह बताना है कि भेदभावकारी प्रावधान प्रत्येक भारतीय को संविधान के तहत मिले मौलिक अधिकारों के अनुरूप हैं अथवा पक्षपात होने के बाद भी वैध हैं या इतना उल्लंघन करते हैं कि उन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिए।

1956 में बनाया गया जम्मू-कश्मीर के संविधान में दी गई परिभाषा के अनुसार “राज्य में 1911 से पूर्व जन्मे अथवा बस चुके सभी व्यक्ति अथवा राज्य में उससे कम से कम दस वर्ष पूर्व कानूनी तरीके से अचल संपत्ति खरीद चुके व्यक्ति स्थायी नागरिक हैं।” उसके अलावा कहा गया है कि “जम्मू कश्मीर छोड़ने वाले सभी व्यक्ति, जिनमें पाकिस्तान जाने वाले भी शामिल हैं, राज्य की जनता माने जाते हैं। उनकी दो पीढ़ियों को राज्य की जनता माना जाता है।” सीधे शब्दों में कहें तो जम्मू-कश्मीर से पाकिस्तान गया पाकिस्तानाी नागरिक इस राज्य में संपत्ति खरीद सकता है और बस सकता है क्योंकि उसे ‘स्थायी निवासी’ माना जाता है, जबकि राज्य से संबंध नहीं रखने वाले भारतीय नागरिक ऐसा नहीं कर सकते।

शीर्ष न्यायालय को अभी इस बात पर फैसला करना है कि अनुच्छेद 35ए की वैधता के मुकदमे को स्वीकार किया जाए या नहीं, लेकिन चिर-परिचित वर्गों से प्रावधान के समर्थन और विरोध में आवाज आने लगी हैं। कुछ बयान तो शब्दों और लहजे के मामले में बहुत चिंताजनक हैं क्योंकि वे मामले को जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ जुड़े रहने से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने नाटकीय तरीके से घोषणा की कि यदि अनुच्छेद 35ए के साथ छेड़छाड़ की गई तो “राज्य में कोई तिरंगा उठाने वाला भी नहीं बचेगा।” पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ऐलान किया कि अनुच्छेद की वैधता पर प्रश्न खड़ा करना राज्य के अधिग्रहण को चुनौती देने के बराबर है। एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला - जिन्हें पिछले कुछ समय से विवादित टिप्पणियां करने की आदत हो गई है - ने प्रावधान को चुनौती देने के ‘कदम’ में कश्मीर की जनांकिक तस्वीर बदलने की साजिश ही ढूंढ डाली। जाहिर तौर पर उन्हें लगता है कि स्थानीय निवासी की परिभाषा हल्की किए जाने से कश्मीर गैर-कश्मीरियों से भर जाएगा। तब उन्हें वली खन्ना जैसी जम्मू-कश्मीर की महिलाओं की तकलीफों के बारे में क्या कहना है? ऐसे राजनेताओं प्रावधान के खिलाफ आवाज उठाना जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को कम करने तथा भारत के साथ इसके जुड़ाव को खतरे में डालने के बराबर है। साफ तौर पर उन्हें लगता है कि राज्य के भारत से अलग होने का डर भेदभावकारी प्रावधानों को चलाते रहने में मददगार साबित होगा।

अनुच्छेद 35ए की वैधता को चुनौती दिए जाने का विरोध कुछ शिक्षाविद भी कर रहे हैं। नई दिल्ली के एक प्रमुख विचार संस्थान से जुड़े सम्मानित विद्वान एवं लेखक श्रीनाथ राघवन ने इस कवायद पर सवाल खड़ा किया है। अंग्रेजी भाषा के एक प्रमुख दैनिक में राघवन लिखते हैं, “अनुच्छेद 35ए की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी जा रही है कि उसे अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में नहीं जोड़ा गया। यह गलत दलील है।” वह बताते हैं कि अनुच्छेद 370 को अपनाने से जम्मू-कश्मीर राज्य से जुड़े कई विशिष्ट कानूनों का रास्ता साफ हुआ। उदाहरण के लिए 1952 में केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार के बीच हुई चर्चा - जिसके कारण दिल्ली समझौता हुआ - के कारण राज्य के स्थायी नागरिकों के अधिकारों का नियमन करने वाले प्रावधानों को जन्म दिया। राघवन यह भी कहते हैं कि अनुच्छेद 35ए स्थायी नागरिक के मसले पर “जम्मू-कश्मीर के अलग दर्जे को ही स्पष्ट करता है” और “इस अनुच्छेद की वैधता पर प्रश्न खड़ा करने से राज्य की जनता के अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।” वह यह भी कहते हैं कि 1954 का राष्ट्रपति आदेश, जो दिल्ली समझौत के बाद आया, एकदम स्पष्ट था और “राज्य के संविधान में संशोधन के लिए ऐसे आदेशों का समय-समय पर प्रयोग किया गया है।” राघवन अपनी बात को भेदभावकारी प्रावधानों के पक्ष में खड़े राजनेताओं की ही तरह इस चेतावनी के साथ खत्म करते हैं कि “उनके (विशेष कानूनों के) साथ छेड़छाड़ के किसी भी प्रयास का भारी विरोध होगा” और “जिस समय जम्मू-कश्मीर में स्थिति विस्फोटक है, उस समय केंद्र सरकार स्थिति को नजरअंदाज करने का खतरा नहीं उठा सकती।”

लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनुच्छेद 35ए के समर्थन में उठ रही आवाजों को ठीक उसी तरह न तो कुचला जाना चाहिए और न ही कुचला जा सकता है, जिस तरह इसे जारी रखे जाने के विरोध में उठ रही आवाजहों को राजनीतिक दुष्प्रचार कहकर खारिज नहीं किया जा सकता; लेकिन मोदी सरकार को उलाहना देने से पहले यह याद रखना चाहिए कि अनुच्छेद को शीर्ष अदालत में केंद्र ने नहीं बल्कि निजी पक्षों ने चुनौती दी है। अदालत ने कंेद्र सरकार को नोटिस जारी किया है और केंद्र उचित तरीके से जवाब देने के लिए बाध्य है। हो सकता है कि केंद्र सरकार याचियों के रुख का समर्थन करती हो - जैसा उसने मुस्लिम समुदाय में प्रचलित तीन तलाक की वैधता के मामले में किया था (उच्चतम न्यायालय उस प्रथा को अब असंवैधानिक करार दे चुका है)। लेकिन इस घटनाक्रम का फायदा उठाना और यह दावा करना कि केंद्र आग से खेल रहा है तथा जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने का रास्ता तैयार कर रहा है, डराने वाला भी है और गलत भी है।

अंत में अनुच्छेद 35ए के समर्थक खेमे से दूसरा और उतना ही डरावना तर्क आया है। यह तर्क है कि यदि प्रावधान को समाप्त किया जाता है तो जम्मू-कश्मीर राज्य 1954 से पहले (राष्ट्रपति आदेश से पूर्व) की स्थिति में पहुंच जाएगा। इसका अर्थ है कि अन्य मुश्किलों के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय और भारत के चुनाव आयोग का अधिकार क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में बहुत कम हो जाएगा। राज्य पर केंद्र का कानूनी नियंत्रण उतना ही रह जाएगा, जितना आरंभ में था अर्थात् रक्षा, विदेशी मामलों तथा संचार के क्षेत्र में। साथ ही राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री के बजाय सद्र-ए-रियासत और वजीर-ए-आजम की उपाधियां भी लौट आएंगी!

अनुच्छेद 35ए के समर्थकों को और भी ठोस आधार पर दलीलें देनी पड़ेंगी। उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया मामला उपरोक्त अनुच्छेद के भेदभावकारी प्रावधानों के बारे में है। यदि अदालत मामले की सुनवाई का निर्णय करती है तो निश्चित रूप से पुराने जमाने की संवैधानिक उपाधियां लौटाने की संभावना पर विचार करने के बजाय उसके सामने कई अधिक गंभीर मसले होंगे। जहां तक शीर्ष अदालत अथवा चुनाव आयोग के अधिकारों में कमी का डर है तो अनुच्छेद को बदलने अथवा कम भेदभावकारी बनाए जाने पर भी ऐसा होने की संभावना नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार एवं जन मामलों के विशेषज्ञ हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: http://kashmirstudygroup.com/awayforward05/p6_kj_popdist.html

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