युद्ध टालने के लिए क्या बेहतर: आक्रामकता या शांति?
Martand Jha

कोई जिम्मेदार देश युद्ध के लिए तभी तैयार होगा, जब कुछ ‘असाधारण’ घट जाए। ऐसा इसलिए है क्योंकि युद्ध का खर्च ‘बहुत अधिक’ होता है। विश्लेषक कितना भी अच्छा हो, उसके लिए युद्ध के परिणाम का सटीक परिणाम लगाना कभी आसान नहीं होता। युद्ध के परिणाम अक्सर कल्पना से परे होते हैं। फिर भी सरकारें अपनी जनता को संतुष्ट करने के लिए यह धारणा गढ़ती हैं कि ‘युद्ध’ से समस्या का दीर्घकालिक समाधान निकल सकता है।

भारत और पाकिस्तान को ही लीजिए, दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। दोनों ही पक्षों में ‘शांतिप्रिय’ लोगों की अपेक्षा ‘आक्रामक’ लोग अधिक हैं। ‘आक्रामक’ लोग वे हैं, जो युद्ध छेड़ देने में विश्वास रखते हैं, बिल्कुल वैसे ही, जैसे बाज करते हैं। दूसरी ओर ‘शांतिप्रिय’ लोग युद्ध टालने में यकीन करते हैं, वे स्वभाव से ही शांत होते हैं। भारत और पाकिस्तान के मामले में ‘युद्धप्रिय’ लोग हमेशा ही लोकप्रिय रहे हैं, इतने लोकप्रिय मानो सम्मोहन कर देते हों। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे मानते हैं कि पूरी शक्ति के साथ युद्ध छेड़कर वे ‘शत्रु देश’ को सबक सिखा देंगे और वह युद्ध अंतिम तथा निर्णायक होगा।

ऐसी धारणा के कारण ही कई नागरिकों, राजनेताओं और मीडिया को युद्ध अच्छा लगता है। ये वर्ग ही युद्ध के पक्ष में सबसे ज्यादा हुंकार भरते हैं क्योंकि उनमें से कोई भी ‘युद्धगस्त क्षेत्र’ में नहीं रहता, जहां उनकी जिंदगी ही दांव पर लग जाती। निश्चित रूप से कभी-कभी सरकार के पास युद्ध चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता, लेकिन युद्ध हमेशा आखिरी विकल्प होना चाहिए, पहला नहीं।

सरकार उन ‘युद्ध समर्थक’ नागरिकों की तरह नहीं सोच सकती, जिन्हें घर में बैठकर युद्ध के दृश्य देखना पसंद है या उस मीडिया की तरह नहीं सोच सकती, जिसका अंतिम लक्ष्य यही है कि युद्ध को भोले-भाले नागरिकों के सामने अद्भुत और आकर्षक बताकर टेलीविजन रेटिंग पॉइंट बटोरे जाएं। ऐसा इसलिए है क्योंकि आज सरकार तंत्र में बैठी विभिन्न सक्रिय ताकतों के मुकाबले सबसे जिम्मेदार ताकत है। यह बात समझनी चाहिए कि सेना सरकार के आदेश पर आगे बढ़ती है। लोकतंत्रों में सेनाओं के निजी स्वार्थपूर्ण हित नहीं होते, इसीलिए कहा जाता है कि अच्छी सेनाएं अपने नागरिकों और उस जमीन के लिए लड़ती हैं, जिस पर नागरिक रहते हैं यानी देश।

पिछले कुछ हफ्तों में जनता के बीच यह मांग जोर पकड़ती दिखी है कि भारत को पाकिस्तान पर चढ़ाई कर देनी चाहिए क्योंकि हमारे जवान लगातार शहीद हो रहे हैं। वर्तमान सरकार से लोगों को यही अपेक्षा है कि वह ‘आक्रामकता’ के साथ देश के हितों की रक्षा करेगी और केवल बोलेगी नहीं बल्कि करके भी दिखाएगी। सरकार से ऐसी अपेक्षा क्यों रही है? क्या प्रत्येक सरकार से ऐसी ही अपेक्षा रहती है अथवा अपेक्षा बदलती रहती है और इस बात पर निर्भर करती है कि सत्ता में कौन है?

उत्तर आसान है, लेकिन जटिल भी है। प्रत्येक सरकार देश की अखंडता एवं संप्रभुता बरकरार रखने के लिए जिम्मेदार है और नागरिकों की भी यही अपेक्षा है। लेकिन एक पेच है, ऊपर कही गई बात देश की संप्रभुता की ‘रक्षा’ के बारे में है, जहां ‘युद्ध’ को अंतिम विकल्प माना जाता है। हालांकि जब लोग उन्हें वोट देते हैं, जो विपक्ष में रहते समय विदेश नीति के मसलों पर आक्रामक रुख अपनाते हैं तो तस्वीर पूरी तरह बदल जाती है।

जब वही लोग सत्ता में आते हैं तो स्वाभाविक रूप से नागरिक उनसे वैसे ही ‘आक्रामक’ रुख की अपेक्षा करते हैं, जैसा रुख पहले रहता था। नागरिक यहीं गलती कर देते हैं, सरकार में मौजूद राजनीतिक प्रतिनिधियों से उसी तरह के व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जैसा वे विपक्ष में रहते हुए करते थे। अपने नागरिकों और जवानों के जीवन की कीमत समझने वाली सभी जिम्मेदार सरकारें ‘आक्रामकता के मामले’ में संयम बरतती हैं।

इसीलिए लोग कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्ष में रहते हुए बेहद आक्रामक और ‘युद्ध समर्थक’ रवैया अपनाते थे और हाथ पर हाथ धरे रहने के लिए तत्कालीन सरकार पर हमला बोलते थे, लेकिन अब वे बिल्कुल वही कर रहे हैं, जो पिछली सरकारों ने किया था। इससे पता लगता है कि विदेश नीति के मामले में लगभग सभी सरकारें एक जैसा ही काम करती हैं। आलोचकों को समझना होगा कि जब राजनीतिक दल विपक्ष में होते हैं तो उनके पास कठोर रुख अपनाने की छूट होती है, लेकिन जब वे सत्ता में आ जाते हैं तो वह छूट नहीं रहती।

दूसरी बात, यदि ‘आक्रामक’ लोग सत्ता में आ जाते हैं तो संभावना इसी बात की होती है कि ‘शांतिप्रिय’ लोगों के मुकाबले वे युद्ध को अधिक टालेंगे। सुनने में यह गलत लगता है, लेकिन सच यही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब ‘युद्ध समर्थक’ सत्ता में आते हैं तो वे संयम की सुपरिचित राह ही पकड़ते हैं और वार्ता, संवाद, कूटनीति, समझौते पर आधारित समाधान ढूंढते हैं। ‘आक्रामक’ सरकार के लिए शांति के पक्ष में जनमत तैयार करना अधिक आसान होता है क्योंकि विपक्ष में बैठे ‘शांतिप्रिय’ लोग तो शांति के लिए हरदम तैयार रहते हैं। इसीलिए ‘शांतिप्रिय प्रयासों’ के पक्ष में एकजुट मत दिखता है।

किंतु यदि सत्ता ‘शांतिप्रिय’ लोगों के हाथ में होती है तो शत्रु देश के साथ शांति बनाए रखने के पक्ष में जनमत को एकजुट करना उनके लिए असली चुनौती होता है। इसका कारण यह है कि ‘शांतिप्रिय’ सरकार के ऊपर युद्ध छेड़ने का जबरदस्त राजनीतिक दबाव होगा, जो ‘आक्रामक’ विपक्ष द्वारा बनाया गया होगा। चूंकि लोगों को युद्ध का आकर्षण भाता है, इसीलिए भारी संख्या में जनता ‘आक्रामक’ विपक्ष के साथ खड़ी होने लगती है, जिससे ‘शांतिप्रिय’ सरकार पर युद्ध छेड़ने का दबाव और भी बढ़ जाता है। उस स्थिति में ‘सत्तारूढ़ शांतिप्रिय’ लोगों के लिए दो बातें हो सकती हैं और दोनों ही ‘नकारात्मक’ होती हैं।

पहली बात, सरकार सारी आलोचना सहती है, लेकिन युद्ध नहीं छेड़ती। यह अगले चुनाव में उनके लिए महंगा साबित होगा, जहां विपक्ष के हाथों उनकी हार की संभावना बहुत अधिक होती है और आम जनता उन्हें ‘कमजोर सरकार’ मानने लगती है, जो दुश्मन के साथ लड़ नहीं सकती। दूसरी बात यह हो सकती है कि ‘शांतिप्रिय’ सरकार वास्तव में ‘आक्रामक’ विपक्ष के दबाव और जनता की युद्ध छेड़ने की मांग तले घुटने टेक दे और केवल यह दिखाने के लिए युद्ध शुरू कर दे कि उसे भी राष्ट्रीय हितों की परवाह है। दबाव के कारण युद्ध करने का यह कदम बेहद महंगा साबित हो सकता है क्योंकि जैसा कि पहले ही बताया गया है “युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है बल्कि स्वयं ही एक समस्या है।”

अंत में ‘शांतिप्रिय’ सरकार के बजाय ‘आक्रामक’ सरकार का सत्तारूढ़ होना बेहतर है क्योंकि युद्ध के समर्थक शांतिप्रिय विपक्ष द्वारा युद्ध के लिए डाले जा रहे दबाव में आसानी से नहीं आते और उन्हें शांतिप्रिय लोगों की तरह यह साबित नहीं करना होता कि उन्हें ‘राष्ट्रीय हितों’ की परवाह है।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: http://www.funplaces.in

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