अंतरराष्ट्रीय वेसक दिवस के उद्घाटन के लिए भारतीय प्रधानमंत्री की दो दिन (11-12 मई) की श्रीलंका यात्रा की देसी और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में वैसी ही चर्चा हुई, जिसकी उम्मीद थी। यात्रा के संबंध में मीडिया की बहसें और खबरें बौद्ध आयाम से लेकर पड़ोस पर जोर तक, तमिल आकांक्षाओं पर असर से लेकर श्रीलंका में चीन की पैठ तक वही कहती रहीं, जो सामने नजर आ रहा था। यह द्विपक्षीय यात्रा नहीं थी और जैसा कि राष्ट्रपति सिरीसेना ने स्वयं भी कहा कि उसमें किसी तरह के समझौते अथवा संधियां नहीं होनी थीं।
जो सामने है, उससे परे देखने पर यात्रा के दो प्रमुख पहलू दिखते हैं, जिनमें से एक को स्थानीय मीडिया ने जरूरत से ज्यादा महत्व दे दिया और दूसरे पर बहुत कम ध्यान दिया। दूसरे के जिन प्रभावों की सार्वजनिक मंच पर अभी तक चर्चा की गई है, वास्तव में उसके उससे भी अधिक बारीक और व्यापक प्रभाव होने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लंका यात्रा सामान्य द्विपक्षीय यात्रा नहीं थी, लेकिन जो दिखाई पड़ा, यह उससे भी ज्यादा थी और अगर इसे उतना ही माना जाएगा, जो दिखाई दे रहा है तो तस्वीर बेहद धुंधली हो जाएगी। रिचर्ड बैच ने कहा है, “उस पर यकीन मत कीजिए, जो आपकी आपकी आंखें आपको दिखा रही हैं क्योंकि उनके देखने की सीमा है। अपनी समझ से देखिए।”
जिस पहले मुद्दे को नजरअंदाज किया गया, वह था प्रधानमंत्री की यात्रा और वहां बसे तमिलों को उनका संबोधन। इसे श्रीलंकाई तमिल समुदाय के कल्याण के लिए साथ खड़े होने की भारत की नीति को जारी रखना भर माना गया। इस धारणा में विश्वसनीयता होने के बावजूद लंका के बंधुआ तमिलों के लिए इस यात्रा के कई दूसरे निहितार्थ भी हैं। भारतीय मूल के तमिलों की ओर प्रधानमंत्री मोदी ने उस समय हाथ बढ़ाया है, जब बंधुआ प्रथा अथवा दासता समाप्त हुए एक शताब्दी पूरी हुई है। ‘भारतीय/मलैयका तमिलों’, जिन्हें एस्टेट तमिल अथवा भारतीय मूल के तमिल भी कहा जाता है, को अंग्रेज 19वीं और 20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में बागानों में काम करने के लिए यहां लाए थे। इन मजदूरों को श्रीलंका के साथ ही बेहद पीड़ादायक और अमानवीय परिस्थितियों में मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, फिजी, त्रिनिदाद एवं टोबैगो और सूरीनाम जैसे अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में भी भेजा गया था। 2017 में बंधुआ मजदूरी अथवा दासता समाप्त हुए 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं, इसलिए भारत के प्रधानमंत्री द्वारा श्रीलंका के विकास में मलैयका तमिलों के योगदान का उल्लेख किया जाना और बहुसंख्यकों के साथ शांतिपूर्वक घुल-मिल जाने तथा श्रीलंका की एकता का सम्मान करने के साथ ही अपनी विशिष्ट संस्कृति एवं पहचान बनाए रखने के उनके प्रयासों की सराहना भी किया जाना एकदम उचित था।
आजादी के बाद भारतीय तमिलों के इलाकों का दौरा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के दौरे का एक अन्य अहम पहलू लंका के तमिल नेतृत्व को स्पष्ट संदेश देना था। याद रखें कि श्रीलंका में तमिल एकसमान समुदाय नहीं हैं और उन्हें मोटे तौर पर तीन समूहों में बांटा जा सकता है - उत्तरी तमिल (उत्तरी प्रांत से ताल्लुक रखने वाले, जो जाफ्ना तमिल भी कहलाते हैं), पूर्वी तमिल (पूर्वी प्रांत से ताल्लुक रखने वाले और बट्टीकलोआ तमिल कहलाने वाले) तथा मध्य, उवा एवं सबरंगामुवा प्रांत के एस्टेट तमिल। गृहयुद्ध के पहले और तमिल नेतृत्व तथा बुद्धिजीवी वर्ग पर उत्तरी तमिलों का अधिक नियंत्रण था, पूर्वी तमिलों के लिए कम गुंजाइश थी और भारतीय तमिलों के लिए कोई जगह ही नहीं थी। साथ ही, संसद में विपक्ष में बैठा प्रमुख तमिल राजनीतिक मोर्चा “तमिल नेशनल अलायंस (टीएनए)” लंकाई तमिलों का ही पक्ष लेता दिखता है।
विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर तमिल समुदाय की गतिविधियां युद्ध के उपरांत समाधान की प्रक्रिया में लगी नेशनल यूनिटी सरकार की राह में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई हैं। समुदाय उत्तरी तथा पूर्वी प्रांतों के विलय पर तथा ईलम संघर्ष के अंतिम चरण में श्रीलंकाई सेना द्वारा किए गए कथित युद्ध अपराधों की जांच में अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों और अभियोजकों को शामिल करने की मांग पर अड़ा है, जो असंभव और अव्यावहारिक है। टीएनए के इस रवैये से सिंहलियों और तमिलों के बीच ध्रुवीकरण और भी बढ़ गया है क्योंकि सिंहली विलय के खिलाफ हैं। उन्हें डर है कि एकीकृत तमिल प्रांत देश की एकता के लिए और भी बड़ी चुनौती बन जाएगा। अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों को शामिल करने की उनकी मांग भारत सरकार की नीति के अनुरूप भी नहीं है क्योंकि भारत सरकार युद्ध के अंतिम चरण का सत्य पता करने के लिए ‘श्रीलंकाइयों द्वारा जांच’ के पक्ष में है। भारत टीएनए के नेताओं को श्रीलंका और भारत की सरकारों का समर्थन करने की सलाह देता आया है और उसने यह भी कहा कि बहुत जल्दी बहुत कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। लेकिन उन्हें समझाने में उसे मामूली सफलता ही मिली है।
दूसरी ओर भारतीय तमिल मुख्यधारा के समुदायों के साथ घुलते मिलते रहे हैं और सौम्यमूर्ति तूनदमन के समय से ही लोकतांत्रिक संरचना में सहभागी बनते रहे हैं। इसलिए उत्तर में नहीं जाकर प्रधानमंत्री ने एक तरह से तमिल नेतृत्व को संदेश दिया है कि उन्हें भारतीय तमिलों की ही तरह लचीला और उदार होना पड़ेगा और श्रीलंका की सरकार में भरोसा रखना होगा। टीएनए के उलट भारतीय तमिलों का प्रतिनिधित्व करने वाला तमिल प्रोग्रेसिव अलायंस (टीपीए) सत्तारूढ़ गठंधन के सहयोगी यूनाइटेड पीपुल्स फ्रीडम अलायंस (यूपीएफए) का अंग है। याद रहे कि इस वर्ष फरवरी में अपनी श्रीलंका यात्रा के दौरान भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर ने भी इस बात पर प्रसन्नता जताई थी कि भारतीय मूल के तमिल श्रीलंका की राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल हैं, प्रशासन में पूरी भागीदारी कर रहे हैं और लाभ उठा रहे हैं। उन्होंने कहा था कि भारतीय मूल के तमिलों की विशेष आवश्यकताओं को देखते हुए और श्रीलंका के प्रशासनिक ढांचे तथा राजनीतिक मुख्यधारा में भागीदारी की उनकी इच्छा देखते हुए भारत उनका “विशेष ध्यान” रखेगा।1 किंतु प्रधानमंत्री के इस प्रयास के प्रभावों पर कम चर्चा की गई।
सबसे अधिक तवज्जो प्रधानामंत्री की यात्रा के बेहद पारंपरिक या घिसे-पिटे हिस्से को दी गई और वह था श्रीलंका में चीन के बढ़ते प्रभाव का सामना करने के लिए ‘बौद्ध कूटनीति’ का प्रयोग करना। हालांकि ऐसा करना गलत नहीं था, लेकिन यात्रा को केवल चीन के प्रभाव का मुकाबला करने का प्रयास भर बताना प्रधानमंत्री की कूटनीति का केंद्र नहीं था। इसमें कोई दोराय नहीं कि बौद्ध मत इस उपमहाद्वीप की साझी धार्मिक विरासत का अटूट अंग है और इसीलिए 1950 के दशक से ही यह भारत की कूटनीति का हिस्सा है। बुद्ध और धम्म में पंडित नेहरू की गहरी आस्था भारत तथा लंका में समान रूप से प्रतिबिंबित हुई। अनुराधापुर की उनकी यात्रा और बुद्ध के परिनिर्वाण के 2500 वर्ष पूरे होने पर श्रीलंका में हुए समारोह के आयोजन में सहायता किया जाना इसका प्रमाण है। किंतु समय के साथ यह तालमेल खो गया क्येांकि आगे जाकर यह तालमेल कहीं खो गया क्योंकि भारत के सामने देश में विकास की और बाहरी मोर्चों पर सुरक्षा की चुनौतियां बहुत अधिक थीं।
इस समय, जब भारत वैश्विक पदिृश्य पर फिर उभर रहा है और श्रीलंका समाधान की प्रक्रिया में लगा है तो पुराने संबंधों को फिर नया करना स्वाभाविक ही है। वास्तव में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा आरंभ किए गए प्रयासों को प्रधानमंत्री मोदी नए मुकाम पर ले गए हैं और उन्होंने भारत की बौद्ध विरासत को अपने अंतररष्ट्रीय कार्यक्रमों का अटूट अंग बना लिया है। यह मोदी के धार्मिक व्यक्तित्व के अनुरूप भी है, इसीलिए जब उन्होंने कैंडी के पवित्र दालदा मलिगावा मंदिर में पूजा की तो वह प्रतीकात्मकता से परे बहुत विश्वसनीय लगे। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत के बारे में चरम-राष्ट्रवादियों की धारणा को बदलने में धर्म बहुत काम आ सकता है ताकि वे भारत को “धार्मिक धौंस दिखाने वाले” के बजाय बौद्ध मित्र मानना शुरू कर दें। यह भारत सरकार के पुराने रवैये से बहुत आगे की बात है क्येांकि वह सरकार तमिलों के साथ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों की ही बात करती थी और अनजाने में श्रीलंका की 70 प्रतिशत बौद्ध जनता को अनदेखा कर देती थी।
भारत और श्रीलंका में वर्तमान राजनीतिक ढांचे पुराने विवाद भूलकर बेहतर द्विपक्षीय संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए अभी तक हाशिये पर डाली गई साझी धार्मिक विरासत का गुणगान करना विस्तारवादी पड़ोसी की बढ़ती उपस्थिति को रोकने का प्रयास भर नहीं है बल्कि और भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री की यात्रा ने धीरे से यह भी बता दिया है कि पड़ोसियों के साथ भारत के रिश्तों का अपना महत्व और स्थान है तथा उसे अन्य देशों के चश्मे से ही नहीं देखा जाना चाहिए। सबसे बड़ी बात यह है कि धर्म का प्रयोग लोगों को डराने और दबाने के बजाय विश्व शांति एवं सौहार्द की चेतना जगाने के लिए करना निस्संदेह अधिक समझदारी भरा विचार है।
Endnotes
1. पी के बालचंद्रन, ‘फॉरेन सेक्रेटरी जयशंकर एप्रीशिएट्स इंडियन-ओरिजिन तमिल्स फॉर बीइंग इन द श्रीलंकन मेनस्ट्रीम’, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस, 20 फरवरी, 2017
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