महाशक्ति बनने के लिए दुर्दांत छवि त्यागता चीन
Lt Gen Gautam Banerjee, Editor, VIF

“जब आप दूसरों के बारे में राय बनाते हैं तो आप उनका चरित्र नहीं बताते, अपना चरित्र बताते हैं।” – वेन डायर

महाशक्ति की बुनियादी बातें

मानवता के इतिहास में कई वैश्विक शक्तियां रही हैं, चीनी और भारतीय साम्राज्य उनमें शामिल हैं। आधुनिक काल में दुनिया ने अमेरिका और पूर्ववर्ती सोवियत संघ को यह दर्जा हासिल करते देखा है, जिसके बाद सोवियत का पतन हो गया और केवल अमेरिका ही इस दर्जे पर दावा करता रह गया। इस समय कहा चीनी गणराज्य के भी उसी श्रेणी में आने की बातें कही जा रही हैं और आंकड़े, तथ्य और अन्य कारक भी निस्संदेह इसी के पक्ष में हैं। सच कहें तो यह कहने के पर्याप्त कारण हैं कि चीन वैश्विक क्रम में अपना नियंत्रणकारी दर्जा पहले ही कायम कर लिया है और अब इसे क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी केंद्रीय भूमिका को मजबूत करना और विस्तार देना है।

किंतु एक प्रमुख कारक है, जो चीन की बुलंदी की राह में आड़े आ रहा हैः राष्ट्रों के समुदाय में अपने कमजोर साथी के प्रति दुर्भावना रखकर महाशक्ति का दर्जा हासिल करने की अभिलाषा पूरी नहीं हो सकती। यदि सैन्य शक्ति के बल पर राजनीतिक एवं कूटनीतिक दुर्भावना कायम रखी जाती है तो क्षेत्रीय अथवा वैश्विक मंच पर नेतृत्व का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। वास्तव में अक्सर यही होता है कि कथित कमजोर साथी खुद को बर्बाद होने से बचाने के लिए आपसी मतभेद भुला लेते हैं और मुकाबला करने के लिए एकजुट हो जाते हैं। इतिहास ऐसे सबकों से भरा पड़ा है।

अतीत से मिलते संकेत

इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपने समय में चीनी, भारतीय, रोमन, उस्मान (तुर्क) और ब्रिटिश साम्राज्यों ने जमकर विनाश भी किया अैर लूटपाट भी की। लेकिन जब कालावधि, भौगोलिक विस्तार और तात्कालिक राजनीतिक संस्कृति को ध्यान में रखते हुए देखा जाए तो विद्वेष के ऐसे कृत्य कभीकभार के अपवाद जैसे ही होते हैं; महाशक्ति की जनता और उसके पड़ोसी आम तौर पर संतुष्ट ही रहते हैं। यह बात सोवियत संघ के उभार और आधिपत्य से अच्छी तरह पता चल जाती है, जिसका फायदा पाने वालों की संख्या उसे ‘दुष्ट देश’ बताने वालों की तुलना में बहुत अधिक थी। वास्तव में अपने अंतर्मन को टटोला जाए तो इस बात से इनकार करना मुश्किल होगा कि भारत समेत कई एशियाई और अफ्रीकी देशों की सुरक्षा एवं विकास सोवियत संघ के उपकार का ही नतीजा है। महाशक्ति ने वह उपकार अपने स्वार्थ के लिए ही क्यों न किया हो, उससे श्रेय तो नहीं छीना जा सकता।

मौजूदा महाशक्ति - अमेरिका - की नीतियों से भी उसी परंपरा के नए उदाहरण मिल रहे हैं। क्षेत्रीय मामलों में ‘हस्तक्षेप’, राजनय के अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन और संप्रभुता के सिद्धांतों के मखौल के लिए अमेरिका और उसके साथियों को खरी-खोटी सुनाने का चलन है और यह जरूरी भी है, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे उल्लंघन को उस देश के भीतर से और वैश्विक समुदाय के बीच से समर्थन मिलता रहा है। इसे ‘छेड़छाड़’ कहें, ‘हस्तक्षेप’ कहें या ‘दखल’ कहें, लेकिन महाशक्ति के ऐसे कामों से कई तरह की मदद मिलती है, जिसका फायदा अमेरिका की दादागिरी पर हायतौबा मचाने वाले भी उठाते हैं। विश्वयुद्धों की बर्बादी से पटरी पर लाना, तेल के नाम पर ब्लैकमेल, व्यापार में शोषण और सैन्य अतिक्रमण से सुरक्षा मानवता पर महाशक्तियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष उपकार के कुछ उदाहरण हैं। ऐसे उदाहरण भी हैं, जहां महाशक्तियों के गठबंधन ने लोगों को पैशाचिक तानाशाहों के प्रकोप से बचाया है। अमेरिका के सख्त रवैये में अगर उसकी शैक्षिक, पेशेवर, वैज्ञानिक, चिकित्सा और सांस्कृतिक ताकत को भी जोड़ लें तो जापान, ताइवान, वियतनाम और दक्षिण-पूर्व एशिया और अफकानिस्तान को भी महाशक्ति के कामों का सबसे ज्यादा फायदा मिला है और फायदा पाने वाले बाकी देशों की फेहरिस्त तो बहुत लंबी और दिलचस्प है।

इसके उलट ऐसी ढेरों शक्तियां उभरी हैं, जिनमें महाशक्ति का दर्जा हासिल करने की क्षमता थी, लेकिन वे वहां तक नहीं पहुंच सकीं। इन नाकामियों के सदैव दो कारण रहे हैं, एक, आंतरिक मतभेद और दूसरा, सताए हुए देश उस देश के आक्रामक रुख के खिलाफ एकजुट हुए हैं, जो वर्चस्व कायम करना चाहता है। इतिहास से सबक मिलता है कि शासनकला के गंदे तौर-तरीकों के पीछे भागने के बावजूद महाशक्ति का ‘साया’ नैतिकता के मजबूत धागों से बना होना चाहिए - जिसमें कभीकभार चाणक्य और मैकियावेली की तरह कुचक्रों का सहारा भी लिया जाए।

इस बात का शायद कोई उदाहरण नहीं होगा कि चीन ने राष्ट्र समुदाय में किसी की सहायता की हो। उसके बजाय उसने अपने ज्यादातर पड़ोसियों के लिए समस्याएं ही खड़ी की हैं, जिनमें दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, मंगोलिया, वियतनाम, म्यांमार, ताइवान, तिब्बत और जापान किसी न किसी समय उसके मुख्य निशाने पर रहे हैं।1 भारत चीन का खास निशाना रहा है; युद्ध थोपने और पाकिस्तान की बेतुकी दुश्मनी को भड़काने के अलावा उसने तीन दशक से भी अधिक समय से भारत के पूर्वोत्तर में उग्रवाद को बढ़ावा दिया है और अपने फायदे के लिए वह फिर ऐसा करेगा। इसके उलट स्थिर एवं शांतिप्रिय देशों के लिए समस्या बनते रहे चीन की उत्तर कोरिया, पोल पोत के कंबोडिया, कई अफ्रीकी देशों और पाकिस्तान जैसे दुष्ट देशों के साथ खूब जमती आई है। अजीब बात है कि पांच हजार वर्ष की शासन व्यवस्था के अनुभव वाले चीन ने महाशक्ति बनने का रास्ता चुना है, जिसके लिए वह शांति से अपनी सभ्यता भरी आकांक्षाएं पूरी करने के इच्छुक देशों को तंग करता है और दूसरों के शांतिपूर्ण अस्तित्व पर चोट करने में जुटी ताकतों के साथ हाथ मिलाता है।

अड़ियल स्वभाव का मामला

चीन की मौजूदा सरकार ने लंबे, खूनी गृहयुद्ध के बाद 1949 में सत्ता हासिल की। उस समय साम्यवादी नेतृत्व में बेहद चतुर रणनीतिकार थे, जो जन्मजात बुद्धिजीवी थे और जिनमें नेतृत्व के अद्भुत गुण थे, लेकिन वे जमीन से जुड़े, जुझारू और निर्मम थे। इन नेताओं को जो अनुभव हुए, उन्हें देखते हुए अस्तित्व बचाने, लड़ने और जीतने के लिए वे एकदम कुटिल, दोगले और अनैतिक बन गए। प्राचीन भारतीयों की ही तरह चीनी सिद्धांतकारों ने भी अपनी पारंपरिक शासनकला में इन गुणों को शासक की बुद्धिमत्ता का लक्षण बताया है, लेकिन पहली सहस्राब्दी समाप्त होते-होते भारतीयों ने अपनी बुद्धिमत्ता खो दी थी।

सत्ता प्राप्त करने के बाद जन्मजात हिंसक विचारधारा ने चीन के साम्यवादी नेतृत्व को ऐसी शासन कला अपनाने के लिए बाध्य कर दिया, जिसका उद्देश्य विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाप्त करना है। इसके लिए उसने विचारधारा और क्षेत्र दोनों ही मामलों में चिरंतन विस्तारवादी अभियान का सहारा ले लिया। आसपड़ोस में खूनी अस्थिरता भड़काने और “साम्राज्यवाद के प्यादे” (रनिंग डॉग्स ऑफ इंपीरियलिज्म) और “पूंजीपतियों की कठपुतलियों” के प्रति घृणा दर्शाने वाले असंयमित शब्दों का इस्तेमाल करने से उसकी अड़ियल फितरत का साफ पता चलता है। इसी स्वभाव के कारण साम्यवादी सत्ता ने ‘17 बिंदुओं वाले समझौते’ पर तिब्बतियों को धोखा दिया था, भारतीय नेतृत्व को तब तक बेवकूफ बनाया2, जब तक कि झोउ एन-लाई के अनुसार भारतीय भूमि के ऊपर अपनी विस्तारवादी योजना का अगला चरण लागू करने का “सही” वक्त नहीं आ जाए, इसी के कारण वह अपने सभी पड़ोसियों की भूमि पर दावे करता रहा और अंत में चीन सागर के साझे क्षेत्र पर उसने अपनी संप्रभुता का दावा कर दिया।3

जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) ने चीनी मुख्यभूमि पर अपना दबदबा कायम कर लिया और 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में जब उसने वैश्विक दर्जा हासिल करने का अपना सफर शुरू किया तो ऐसा लगा होगा कि वह क्षेत्रीय समुदाय की चिंताओं और आकांक्षाओं का अधिक ध्यान रखेगी। लेकिन मामला उलटा निकला है। जो भी देश उसकी विस्तारवादी राह में आड़े आता है, उसे सहानुभूति रखने वाले दोस्तों की मदद लेकर ‘परेशानी पैदा करने’ से बाज आने की ‘चेतावनी’ दी जाती है और ‘विवादित’ मुद्दों को ‘द्विपक्षीय’ तरीके से ‘सुलझाने’ के लिए बुलाया जाता है। वास्तव में यह सलाह सही होती अगर वह शर्त नहीं होती कि समाधान चीन के उस प्राकृतिक और ‘ऐतिहासिक’ अधिकार के मुताबिक होगा, जिसके तहत वही तय करेगा कि ‘अविवादित, उचित और न्यायपूर्ण’ क्या है।

यह वाकई अजीब बात है - भेड़िया मेमने को आवाज नहीं निकालने की चेतावनी देता है और उसे यह तय करने के लिए न्योता देता है कि उसे किस तरह खाया जाए! चीन ने अपने ज्यादातर पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद इसी तरह ‘सुलझाए’ हैं। जैसा श्रीलंका, मंगोलिया और फिलीपींस के मामले में हुआ है, आर्थिक संबंध भी एकतरफा ही रहे हैं। इस संशोधनवादी विचारधारा का एक नतीजा यह है कि चीन को उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे दुष्ट देशों और दूसरे कई तानाशाह देशों का साथ मिलता रहा है, जिससे इसके आसपास का क्षेत्र बेहद खतरनाक हो गया है।

चीन की भारत से घृणा

साम्यवादी नेताओं की माओ-झोउ पीढ़ी का भारत के प्रति गहरा अविश्वास भारत के बड़े आकार, अंतरराष्ट्रीय कद और सामरिक क्षमता के कारण था। उनकी धारणा थी कि वह चीन के वर्चस्व को चुनौती बेशक नहीं दे सका, लेकिन ऐसा कर सकता था और च्यांग काई-शेक तथा अमेरिकियों के साथ नेहरू का पुराना मेलजोल उन्हें और भी अखर गया। वास्त में एशियाई क्षेत्र में चीन के बाद भारत का सबसे अधिक प्रभाव था, लेकिन चीन की अपेक्षा बहुत कम था। लेकिन जैसा नंबर 1 और नंबर 2 के बीच होता है, बाद वाले की प्रगति शंका और ईर्ष्या पैदा करती ही है और इसीलिए चुनौती देने वाले को ‘उसकी औकात दिखानी’ पड़ती है ताकि वह नंबर 1 पर काबिज न हो जाए। दो संपन्न पड़ोसियों के शांतिपूर्वक मिलजुलकर रहने के जिस सपने को भारतीय नेतृत्व ने सही मान लिया था, वह साम्यवादी चीन के हिसाब से अकल्पनीय है - जो चाणक्य की शासन नीति में भी कहा गया है। सौम्य, सहनशील, नरम और मूक पड़ोसी पाने के लिए अपने भाग्य को धन्यवाद कहने के बजाय चीनी नेतृत्व भारतीय नेताओं को भी बेहद शंकालु और लड़ाकू नजरिये से देखे बिना नहीं रह सका। वास्तव में भारत के प्रति चीन की स्वाभाविक घृणा का कारण चीनी नेताओं का वही नजरिया था। और आगे के अनुच्छेदों में हम देखेंगे कि इस मामले में उन्होंने भारी भूल की - और 65 वर्ष से करते आ रहे हैं - ऐसी भूल, जो एक दिन उनका नाश कर सकती है।

1950 के दशक में लेकतांत्रिक और ताकतवर भारत के खिलाफ साम्यवादी चीन की एकतरफा घृणा के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि ‘शांति’, ‘गुटनिरपेक्षता’ और ‘सांस्कृतिक-आर्थिक प्रभाव’ के विचार के प्रति भारत के गहरे आकर्षण तथा युद्ध के प्रति उसकी बेतुकी सतर्कता इतनी स्पष्ट नहीं हो पाई थी कि कुटिलता, अवसरवादिता और धोखे के सहारे जीने वाले कठोर चीनी नेता उसके साथ सुरक्षित तथा संतुष्ट महसूस कर पाते। इस तरह माओत्से तुंग की अगुआई में साम्यवादी नेतृत्व ने भारतीय नेतृत्व को भी अपनी तरह आधिपत्यवादी और विस्तारवादी समझा। चीनियों की सांस्कृतिक विशेषताओं और ऐतिहासिक अनुभवों को देखते हुए उन्हें इस बात का दोष मुश्किल से ही दिया जा सकता है कि उन्होंने भारतीय नेताओं को गलत समझा। दोष इसलिए भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह अकल्पनीय था कि भारत जैसी क्षमता वाले देश की कमान ऐसे नेताओं के हाथ में होगी, जिन्हें शासन की इतनी समझ भी नहीं थी कि खतरे को भांप सकें। इसीलिए भारत को चीन के ‘स्वाभाविक प्रभुत्व’ के लिए खतरा माना गया।

चीनी दांवपेचों में शत्रुता और गठबंधन एक दूसरे की जगह ले सकते हैं - जैसा प्राचीन भारत में होता था। लेकिन संभवतः माओ की पीढ़ी के नेता यह नहीं भांप सके कि 1962 के विश्वासघात - जिसे भारत ने पीठ में छुरा घोंपने का ऐसा काम माना और मानता है, जिसे न तो भुलाया जा सकता और न ही माफ किया जा सकता है- के जरिये अपने सबसे स्पष्ट प्रशंसक को शत्रु बनाकर वे स्थायी रूप से कितने कट जाएंगे। वास्तव में पुराने किस्से-कहानियों, कॉमिक्स और भारत से प्रेम करने वाले विदेशियों - जिन्होंने चीनी विद्वानों द्वारा नकल किए गए बौद्ध पुस्तकों से भारत के वैभवशाली अतीत को खोज निकाला था - ने चीन की जिस सदाशयता की बात सुनाई थी, वह इस ‘आत्मघाती गोल’ ने बिल्कुल खत्म कर दी। उसने और तिब्बतियों के प्रति उसके व्यवहार ने पूरे एशिया को बता दिया कि साम्यवादी चीन भरोसे के लायक नहीं है।

भारत के प्रति घृणा के कारण ही साम्यवादी चीन ने 1963 से ऐसा रास्ता चुना, जिसने उसे पाकिस्तान जैसे देश में लगातार भारी निवेश करने पर मजबूर कर दिया।4 चीन ने दूसरे पड़ोसियों को भी भारत से दूर करने का कोई प्रयास नहीं छोड़ा है, लेकिन उन पड़ोसियों के लिए भारत सांस्कृतिक, भौगोलिक और आर्थिक केंद्र में है और यह बात चीन के आड़े आ गई है। मगर पाकिस्तान के रूप में उसे ऐसा अड़ियल साथी मिल गया, अपनी मूलभूत भारत (हिंदू) विरोधी शत्रुता को पूरा करने के लिए खुदको कितना भी नीचे गिरा सकता है। पिछले छह दशकों से हान साम्राज्य की तर्ज पर लगातार इसी मकसद में लगे हुए चीन ने पाकिस्तान को हथियार और परमाणु हथियार दिए हैं, आर्थिक तोहफे दिए हैं और ‘भारत-विरोधी’ सैन्य तकनीक दी हैं तथा आतंकवाद के बेशर्मी भरे सहयोग में उसका समर्थन किया है; इन्हीं नीतियों के कारण वह उभरती हुई महाशक्ति के बजाय क्षेत्रीय डकैत, अस्थिरता पैदा करने वाला और आतंकवाद का समर्थक बनकर रह गया है।

पहले भी बताया गया है, ये महाशक्ति के लक्षण तो नहीं हो सकते।

बुद्धि के बजाय फितरत को महत्व

भारत के कद को किसी भी तरह छोटा करने पर तुले हुए चीन को ऐसे निर्णय भी लेने पड़े, जिन्हें लेने के बारे में पुराने चीनी ज्ञान वाला व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था। पाकिस्तान और चीन को परमाणु क्षमता प्रदान करना खुद को सजा देने वाले दो ऐतिहासिक कदम हैं, जहां चीन ने अपने अविवादित परमाणु प्रभुत्व को गैरजिम्मेदार साथियों के साथ बांट लिया और उन्हें जब चाहें, तब अपने आका का हुक्म मानने से इनकार करने का मौका दे दिया - जो उत्तर कोरिया ने करके दिखा भी दिया है। ऐसा करने के फेर में चीन ने अपने एकतरफा प्रतिस्पर्द्धी भारत को भी सैन्य क्षमता बढ़ाने और परमाणु क्षमता प्राप्त करने के लिए मजबूर कर दिया, जिससे चीन से सतर्क रहने वाला एक और दक्षिण एशियाई शक्ति स्तंभ खड़ा हो गया। ऐसा दूसरा उदाहरण शायद ही मिले, जहां महाशक्ति बनने का इरादा रखने वाले एक महान देश ने नीति के स्तर पर इतनी बड़ी चूक की हो। इतना ही नहीं, एक के बाद एक चूक जारी रखने का ऐसा उदाहरण भी शायद ही कहीं मिले।

पाकिस्तान के कानूनी और गैर-कानूनी नियंत्रण वाले इलाकों में चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के रूप में इतना भारी निवेश कर चीन अपने ऊपर एक और बोझ थोप रहा है - अब वह पाकिस्तान को बरबाद नहीं होने दे सकता। चीन के कई नीति निर्माता स्वीकार कर ही चुके हैं कि चीन का वह बोझ ज्यादा कष्टदायी इसलिए है क्योंकि पाकिस्तानी खुद को ही बर्बाद करने वाले कदम उठाते रहते हैं। और यही विरोधाभास आर्थिक एवं सांस्कृतिक टकरावों का सूचक हो सकता है, जिसका परिणाम अशुभ होगा और पूरा क्षेत्र उसे भुगतेगा। इसके विपरीत यह प्रश्न बना हुआ है कि पाकिस्तान जैसे देश, जिस पर शासन ही नहीं किया जा सकता, की विश्वसनीयता पर इतना अधिक निवेश करने के बाद रास्ता बदलना क्या चीन के लिए व्यावहारिक होगा। भारत को काबू में रखने के लिए तैयार की गई पाकिस्तान की सैन्य एवं परमाणु क्षमता पर चीन की निर्भरता, सीपीईसी की सफलता पर इसकी आर्थिक निर्भरता और भारत के अन्य पड़ोसियों से सहायता के बदले हासिल की गई दोस्ती से मिलने वाले फायदों पर मंडराती अनिश्चितता को देखते हुए इस प्रश्न पर गंभीर चर्चा और विश्लेषण होना चाहिए।

शासनकला संबंधी ज्ञान के लिए दुनिया भर में पहचाना जाने वाला चीन अपनी इन हरकतों के कारण ऐसे अंधे कुएं में दाखिल हो चुका है, जिससे बच निकलना शायद अब उसके लिए बहुत मुश्किल है।

खामोश हाथी को छेड़ना

चीन और पाकिस्तान की ‘दोस्ती’ वास्तव में उस समय तक गुरु-शिष्य के रिश्ते जैसी है - जब तक पाकिस्तान उसे तोड़ नहीं देता। इस दोस्ती को ‘हिमालय से भी ऊंची और समंदर से भी गहरी’ बताया गया है, लेकिन विडंबना है कि ये दोनों स्थान ही सुखी जीवन के लिए खतरनाक हैं। उस कथित कुएं में गहराई तक जा चुके चीन के पास अब और गहरे तक उतरने के सिवा कोई विकल्प नहीं है, चाहे उसे कितनी भी तकलीफ हो। ऐसा तब है, जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजर में चीन पाकिस्तान को इस्लामी आतंकवाद का संरक्षण करने दे रहा है, 1.3 अरब भारतीयों की संभावनाओं को जैसे भी हो सके समाप्त कर रहा है और जिन भारतीय क्षेत्रों पर अवैध कब्जा किया गया है, उनमें निर्माण परियोजनाओं का उद्घाटन कर रहा है। चीन-पाकिस्तान ‘मैत्री’ की पहेली उस समय वास्तव में विडंबना भरी लगती है, जब पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) पाकिस्तान की घबराहट कम करने के लिए भारत-तिब्बत सीमा पर अपनी ताकत दिखाने चल देती है। वास्तव में यह चूहे के इशारे पर हाथी के नाचने जैसा है, जिसमें गुरु अपने उद्दंड चेले को खुश करने के लिए दुनिया भर में अपनी छवि खराब कर रहा है।5

इस प्रकार दुनिया की आबादी के दूसरे सबसे बड़े हिस्से की मित्रता खोने के बाद चीन को यह ‘अस्वीकार्य’ है कि भारत उसकी एकतरफा शत्रुता का रक्षात्मक जवाब दे रहा है। हास्यास्पद बात है कि वह भारत को खुशी-खुशी चीन की बात मानने - वास्तव में उसके चेले की मांगें मानने - की ‘सलाह’ देने का कोई मौका नहीं छोड़ता। इस भ्रामक नीति के कारण ही चीन को उत्तर-दक्षिण तथा पश्चिम-पूर्व परिवहन गलियारों के विकास की भारत की समावेशी योजनाओं से बेचैनी होने लगती है। उसे ईरान और अफगानिस्तान के साथ त्रिपक्षीय परिवहन एवं पारगमन उपक्रम से भी समस्या है, जिसके केंद्र में चाबहार बंदगाह तथा सड़कों का नेटवर्क है। उपमहाद्वीपीय पड़ोसियों - श्रीलंका, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, म्यांमार और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों - के बीच जन्मजात सांस्कृतिक और आर्थिक समझ से भी चीन बहुत परेशान रहता है। हालांकि उसके भारी-भरकम कार्यक्रमों की तुलना में ये कार्यक्रम छोटे हैं, लेकिन चीन भारत को चीन से डरने वाले देशों का संभावित अगुआ और अपने प्रभुत्व वाले सपने के लिए खतरा मानता है।

वास्तव में ‘भारत-अफगानिस्तान समर्पित हवाई गलियारे’ के उद्घाटन पर चीन की हालिया प्रतिक्रिया इसका उदाहरण है। इस मामले में, भारत और अफगानिस्तान के बीच व्यापार के लिए अपनी जमीन पर रास्ता देने से पाकिस्तान के इनकार के कारण जो तरीका अपनाना पड़ा, उसे भारत की “अड़ियल भू-राजनीतिक सोच” बताया जा रहा है! इसके बाद अपनी भ्रामक सोच का खुलासा करते हुए चीन भारत को पाकिस्तान से रास्ता पाने के लिए उसके कश्मीर एजेंडा पर सहमत होने की सलाह देता है!! इस बीच वह पाकिस्तान के साथ मिलकर अपने विदेश मंत्री को अफगानिस्तान भेजता है ताकि तालिबान से बातचीत हो सके, जबकि तालिबान से पाकिस्तान का नियंत्रण खत्म हो चुका है और पाकिस्तान-चीन ‘मैत्री’ की ही तरह यहां भी पाकिस्तान का नहीं बल्कि तालिबान का पलड़ा भारी रहता है।

अमेरिका के साथ भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के वर्तमान अनौपचारिक रिश्तों ने चीन के दिमाग में हौआ बिठा दिया है। लेकिन यह हौआ ऐसे साथी के साथ मिलकर भारत को सताने से दूर नहीं हो सकता, जो ‘नाकाम’ राष्ट्र घोषित किए जाने के कगार पर पहुंच चुका है। हौआ दूर तब होगा, जब क्षेत्र के देशों को इतना डर नहीं लगेगा कि वे बेतुकी दादागिरी और तुनकमिजाज अत्याचारी के खिलाफ रणनीतिक गठबंधन तैयार करने लगें।

अब हंगामे की बारी?

भारतीय हितों को लगातार नीचा दिखाने की चीन की हठ कम होती नहीं दिखती। बल्कि जैसे-जैसे भारत विश्व मंच पर ऊंचा उठता जा रहा है, चीन का आक्रामक संताप विपरीत कदमों की शक्ल में बढ़ता दिख रहा है। भारत के चारों ओर के देशों को चीन निवेश और तकनीकी मदद के रूप में रियायतों की जो रिश्वत देता है, वह इसी मंशा का हिस्सा है। संयुक्त राष्ट्र, वैश्विक वित्तीय संस्थानों, परमाणु विक्रेताओं और ऊर्जा समूहों में भारत के प्रवेश को रोकने के लिए कुचक्र रचना उस मंशा का दूसरा हिस्सा है तथा समय-समय पर सैन्य ताकत दिखाना और राजनयिक तिरस्कार करना तीसरा हिस्सा है। इस प्रकार भारतीय जनता के साथ पुरानी दोस्ती को पुनर्जीवित करने के हरेक अवसर का गला घोंटकर चीन ने खुद को दुनिया के संभवतः सबसे बड़े बाजार और दुनिया की आबादी के छठे हिस्से के बीच गहरा अविश्वास बटोरने का ही काम किया है।

लेकिन पिछले कुछ समय से चीन के भारत संबंधी हितों में कुछ सकारात्मक पहलू दिखे हैं। साम्यवादी सरकार के अस्तित्व को आर्थिक उन्नयन से जोड़ा जाने - जो चीन के शासन का मकसद भी है - के कारण ऐसी स्थिति आ गई है, जहां भारत - वास्तव में विशाल भारतीय बाजार - के साथ संपर्क बढ़ाने की इच्छा दिखती है। किंतु यदि चीन उभरते हुए भारत के साथ करीबी और विश्वसनीय रिश्ते स्थापित करने का दीर्घकालिक लाभ उठाना चाहता है तो भी उसे पिछले गलत अनुमान की भरपाई होगी और इसकी आर्थिक तथा राजनीतिक कीमत चुकाना मुश्किल होगा। इसके अलावा दलील दी जाती है कि भारत के प्रति अपनी एकतरफा घृणा में चीन इतना आगे जा चुका है कि वह कितना भी चाहे, उसके लिए कदम पीछे खींचतना लगभग असंभव है।6

इस तरह अतीत की नीतियों में बदलाव करने की इच्छा बेशक उठ सकती है, लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है, चीन जिस पचड़े में फंसा है, उससे निकट भविष्य में निकलने और रास्ता बदलने की उम्मीद अव्यावहारिक ही होगी। जो किया जा सकता है, वह है चीन की विशाल आर्थिक - और राजनीतिक - पहलों को सुधारना और दुरुस्त करना, जिससे वे अधिक समावेशी मैत्रीपूर्ण हो जाएं और भारत की चिंताओं का ध्यान रखें। चीन को यह स्वीकार करना होगा कि उसके पश्चिमोन्मुखी कार्यक्रम भारत को हाशिये पर रखने या बाहर करने से पूरे नहीं हो सकते क्योंकि क्षेत्र का भूगोल और इतिहास इसकी इजाजत ही नहीं देता।

सीपीईसी, बड़े ओआरओबी और समुद्री रेशम मार्ग (एमएसआर) को आगे बढ़ाने के चीन के मौजूदा प्रयासों को इसी कसौटी पर कसा जा सकता है। साथ ही साथ शोषणहीन व्यापार, समावेशी वित्तीय एजेंडा अपनाने, राजनयिक टकराव खत्म करने और सबसे बढ़कर जिम्मेदार और नरम भाई के तौर पर छवि निर्माण को बढ़ावा देना चीन के लिए महाशक्ति बनने के मार्ग पर यात्रा शुरू करने का अच्छा तरीका हो सकता है।

संदर्भ

1. अपने अधिकतर पड़ोसियों की संप्रभुता के साथ साम्यवादी चीन की छेड़छाड़ का इतिहास पुराना और परेशान करने वाला रहा है। आंतरिक उग्रवाद को भड़काने और जीवित रखने की इसकी वर्तमान नीति खुलेआम या चोरी-छिपे अनधिकृत रूप से क्षेत्रीय तथा आर्थिक कब्जे पर केंद्रित दिखती है।

2. धोखे और भारत की अबोधता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तिब्बत में घुसपैठ करने वाली चीनी सेना को चावल कलकत्ता के बंदरगाह के रास्ते पहुंचाए गए थे!

3. चीन का विस्तारवादी अभियान तिब्बत पर उसके कब्जे के साथ ही सामने आ गया, जहां चीन भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई और हर तरीके से इतने अलग देश को अपना हिस्सा बताने का दावा किसी भी प्रकार नहीं कर सकता है। वास्तव में दूसरों का हिस्सा हड़पने की हान की अदम्य प्रवृत्ति तब स्पष्ट हो जाती है, जब साम्यवादी और लोकतंत्र समर्थक इस एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए एक साथ आ जाते हैं।

4. उस वर्ष पाकिस्तान के तानाशाह अयूब खान ने भारत का जम्मू-कश्मीर प्रांत की शाक्सगाम घाटी का एक हिस्सा चीन को ‘सौंपा’ था।

5. चीन आतंकवादी अजहर मसूद पर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध की राह में आ गया। उसने भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में प्रवेश देने की अन्य सदस्य देशों की इच्छा के खिलाफ अड़ गया ताकि बेशर्मी के साथ परमाणु क्षमता तैयार करने वाले पाकिस्तान को इसी बहाने समूह में आने का मौका मिल सके। इसके अलावा वह पाकिस्तान के कब्जे वाले भारतीय क्षेत्र में सीपीईसी के दायरे में आने वाली विशाल परियोजनाओं में निवेश कर रहा है, लेकिन विश्व बैंक को अरुणाचल प्रदेश में विकास परियोजनाओं के लिए धन प्रदान नहीं करने दे रहा है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पाकिस्तान को दुनिया भर से मिल रही कूटनीतिक झिड़कियों और भारत-चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सेना की घुसपैठ के बीच रिश्ता है।

6. जून, 2017 में अमेरिका-भारत वृहत्तर सामरिक साझेदारी की घोषणा और पाकिस्तान के आतंकी रिश्तों को लताड़ के बाद दोस्त चीन ने एकतरफा तरीके से और ‘अधिकारों’ का हवाला देते हुए यह निर्णय लिया कि भूटान की धरती का एक हिस्सा (डोकलाम पठार) असल में चीन का ‘ऐतिहासिक’ और ‘अविवादित’ हिस्सा है। उसके बाद उसने भारत को 1962 जैसे नतीजे होने की धमकी केवल इसलिए दी क्योंकि भारत भूटान की सुरक्षा की अपनी प्रतिबद्धता नहीं छोड़ेगा!


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

Image Sources:

1 http://www.japantimes.co.jp/news/2016/09/03/asia-pacific/asean-china-to-adopt-communications-protocol-to-ease-tensions-in-disputed-south-china-sea/
2 http://www.thedailybeast.com/us-sends-carriers-to-chinas-crimea
3 http://www.japantimes.co.jp/opinion/2015/06/09/commentary/japan-commentary/managing-disputes-china/

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