असम में मिली जीत से बीजेपी को नार्थ-ईस्ट में बढ़त बनाने में मिलेगी मदद
Nitin A Gokhale

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), असम की राजनीति में अबतक हाशिये पर रही थी, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में इसके शानदार प्रदर्शन ने दशकों से अभेद्य समझे जानेवाले नार्थ-ईस्ट के इस किले में सेंध लगायी और नार्थ-ईस्ट में असम के अन्य पडोसी राज्यों के लिहाज से एक शानदार शुरुआत की है । असम की जीत का प्रभाव वही तक सीमित नहीं है, बिहार में मिले झटके और उससे पहले दिल्ली की हार के बाद यह जरुरी था कि भाजपा को कोई बड़ी जीत हासिल हो। पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु (इन सभी राज्यों में अभी चुनाव हुए) में इसकी सम्भावना बहुत कम थी लेकिन असम में जहाँ लोकसभा चुनाव में 7 सीटें मिली थी, वहाँ जीत को लेकर कुछ आशा अवश्य की जा रही थी। (मैंने अपने ब्लॉग पर भी इस बारे में लेख लिखा था (http://nitinagokhale.blogspot.in/2014/05/reading-tea-leaves-in-assam.html)इससे पार्टी को आवश्यक प्रोत्साहन मिलेगा और उत्तरप्रदेश में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में कार्यकर्ताओं का उत्साह फिर से बढ़ेगा।

असम की जीत का प्रभाव अन्य नार्थ-ईस्ट राज्यों जैसे मेघालय और नागालैंड पर भी पड़ेगा जहाँ कभी-कभार पैठ करने के बावजूद भी अभी तक भाजपा की स्वीकार्यता नहीं है।
पारंपरिक रूप से, छोटे नार्थ-ईस्ट के राज्य केंद्र की सत्ता और असम की सत्ता का अनुसरण करते पाये गए हैं। उदाहरण के लिए 1980 के दशक के मध्य और अंत में असम गण परिषद की जीत के बाद पडोसी राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों ने जीत हासिल की और कांग्रेस हाशिए पर चली गयी। यह देखना रुचिकर होगा कि असम की हार का कांग्रेस शासित प्रदेशों जैसे- मेघालय, मिजोरम और मणिपुर पर क्या असर होता है। कांग्रेस शासित छह राज्यों में से तीन उत्तर-पूर्वी राज्य हैं।

बृहस्पतिवार को आये चुनाव परिणाम से बेहद मिलनसार प्रवृति के तरुण गोगोई की राजनीतिक यात्रा पर विराम लग गया है, जो पार्टी के उन क्षत्रपों में से थे जो पार्टी हाई कमान के सामने भी अपनी ख़ास हैसियत रखते थे। गोगोई एक पक्के कांग्रेसी हैं (राजीव गांधी के समय में जनरल सेक्रेट्ररी भी रहे जबकि वे पार्टी में 1980 की शुरुआत में आये थे) और 15 वर्षों तक लगातार मुख्यमंत्री रहे हैं। 2001 में उन्होंने असम गण परिषद और प्रफुल्ल महंता जो की एक समय स्थानीय नायक के तौर पर उभरे थे, उनको हराया।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने असम की चाय की पत्तियों को सही-सही पढ़ लिया है, यह बात बृस्पतिवार को सच साबित हो गयी। सर्बानन्द सोनोवाल, जो कि छात्र कार्यकर्ता से नेता बने हैं, (वह AASU ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन जैसी संस्था के अध्यक्ष थे) असम में बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री बनेंगे, जो कि नार्थ-ईस्ट के सात राज्यों में सबसे बड़ा है।

यह 2014 में मध्य में ही स्पष्ट था कि थोड़ी योजना और अच्छे सहयोगियों के साथ मिलकर भाजपा कांग्रेस के लगातार तीन कार्यकालों के बाद उसकी सरकार को अपदस्थ कर सकती है। 2015 के प्रारम्भ में स्थानीय निकायों के चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन शानदार रहा था और 74 में से 39 सीटें पार्टी के खाते में आईं थीं, जबकि वहीं कांग्रेस महज 18 सीट जीत सकी और असम गण परिषद, जो एक समय बेहद मजबूत स्थानीय पार्टी मानी जाती थी, ने भी कुछ ख़ास नहीं किया। इसनें पार्टी की उस भावना को पुष्ट किया कि 2014 के लोकसभा चुनाव में हुई शुरआत केवल वही तक सीमित नहीं थी। हालांकि एक कुशल नीति की आवश्यकता अवश्य थी। बिहार में मिली हार के बाद पार्टी ने बदलाव किया और सबक लेते हुए सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके लगभग तमाम संदेहो का अंत कर दिया। हेमन्त विस्वा शर्मा जो कि गोगोई सरकार में मंत्री भी थे उनको भी कांग्रेस से दूर करने में पार्टी को सफलता मिली।

गोगोई के अतिशय पुत्र मोह (गौरव, जोकि कांग्रेस के लोकसभा में 45 सदस्यों में से एक हैं) से खीजे विस्वा शर्मा अपने समर्थकों के साथ भाजपा में आ गए। कई कांग्रेसियों का कहना था कि अपने विवादस्पद अतीत, जिनमें भ्रष्टाचार के साथ साथ उल्फा से नजदीकियां भी थी, के कारण विस्वा भाजपा को नुकसान पहुचाएंगे।

लेकिन भाजपा के नीतिकार राम माधव ने सुनिश्चित किया कि सोनोवाल और विस्वा शर्मा एकजुट रहें और सकारात्मक परिणाम लाएं। असम गण परिषद के साथ गठजोड़ करना भी आसान नहीं था, पार्टी का एक धड़ा अलग चुनाव लड़ना चाहता था और दूसरा बीजेपी के साथ गठजोड़ को सही मान रहा था। असम गण परिषद ने अपनी सीटों की संख्या में 2011 की तुलना में इजाफा किया है, जो कि इस बात का सुबूत है कि भाजपा के साथ आने से उसे फायदा हुआ है। तरुण गोगोई सरकार को दस सालों तक सर्मथन देने वाले बोडो भी भाजपा के साथ आ गए और लगभग दर्जन भर विधायक भी साथ ले आये।

सत्तारूढ़ कांग्रेस के अलावा इस चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान घोषित मुसलमानों की पार्टी AIUDF जो की इत्र उद्योगी बद्दरूद्दीन अजमल द्वारा बनाई और वित्तीय सहायता प्राप्त पार्टी है, को हुआ है। असम के मुस्लिम बहुल क्षेत्र होजाय में उनका बहुत प्रभाव है, अजमल 126 सीटों वाली विधानसभा के त्रिशंकु होने के स्थिति में किंग मेकर बनने की सोच रहे थे। इसलिए उन्होंने कांग्रेस के साथ गठजोड़ से इंकार कर दिया (दोनों ही वहां के 34% मुस्लिम मतदाताओं पर आश्रित थे) लिहाजा उन्होंने इसकी कीमत चुकाई। वो स्वयं भी धुबरी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए (वहां 80% मुस्लिम मतदाता हैं) उनकी पार्टी में सीटों की संख्या भी 18 से 13 हो गयी है।

भाजपा को खुश होना चाहिए कि कांग्रेस-मुक्त भारत के अभियान की लहर फिर से लौट आई है। लेकिन भाजपा को जनता से किये वादों में से दो-तीन मुद्दों पर काम करके दिखाना होगा- मसलन, असम में घुसपैठ रोकना। एक बड़े जनमत ने बीजेपी को यह मौका दिया है कि वह नार्थ- ईस्ट में अपनी पैठ बना सके। भाजपा को अब इस आधार पर इस क्षेत्र में अपने विस्तार के लिए मजबूत प्रयास भी करने होंगे।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 6th June 2016, Image Source: https://www.deccanchronicle.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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