काबुल तो पाकिस्तान से दूर जाएगा ही
Sushant Sareen

अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने पाकिस्तान को आतंकियों का पनाहगार देश बताते हुए कहा है कि उसके साथ रिश्ते बनाए रखना अफगान हुकूमत के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। गनी का यह बयान हकीकत पर आधारित है। हालांकि जब वह सत्ता में आए थे, तब पाकिस्तान का लेकर उनकी राय कुछ अलग थी। उस समय वह पाकिस्तान के साथ दोस्ती के पक्षधर थे। इसकी वजह भी थी।

असल में, अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने भारत से कुछ हथियारों की मांग की थी, जिसे मानने से तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने इनकार कर दिया था। बाद में, जब मोदी सरकार सत्ता में आई, तो उसने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को काबुल इस संदेश के साथ भेजा कि भारत अफगानिस्तान की मदद को तैयार है। तब तक अफगानिस्तान में भी सत्ता परिवर्तन हो चुका था, और चूंकि गनी पाकिस्तान को साधने में जुटे थे, इसलिए उन्होंने भारत के उस प्रस्ताव को नजरंदाज कर दिया।

उस समय भारत में कई लोगों ने इस पर रोष प्रकट किया था। पर जो अफगानिस्तान को जानते थे, वे निश्चिंत थे कि चंद महीनों में ही नई अफगान हुकूमत को सच्चाई का इल्म हो जाएगा। अब वही हुआ है। इतिहास ने खुद को दोहराया है। पाकिस्तान ने तालिबान का समर्थन करना नहीं छोड़ा है और आतंकी गुट पहले की तरह ही पाकिस्तान में शरण पा रहे हैं, लिहाजा गनी को यह कहना पड़ा कि पाकिस्तान के साथ रिश्ते बनाए रखना अल-कायदा या तालिबान जैसे गुटों से लड़ने के मुकाबले कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है।

पाकिस्तान को लेकर अफगानिस्तान की इस नई सोच की कई वजहें हैं। पाकिस्तान ने तालिबान को शह देना अब तक नहीं छोड़ा है। हाल ही में अफगानिस्तान के पूर्व खुफिया प्रमुख रहमतुल्ला नाबिल ने कुछ दस्तावेज जारी करते हुए बताया था कि कैसे पाकिस्तान तालिबान को निर्देशित कर रहा है। ऐसे में, पाकिस्तान ने संबंध बिगड़ता देख द्विपक्षीय रिश्तों में अमेरिका और चीन को भी शामिल कर लिया था और दावा किया था कि वह शांति प्रयासों को जारी रखेगा। गनी ने यह बात मान ली थी। मगर जब आतंकी हमले नहीं रुके और घरेलू राजनीति पर असर पड़ने लगा, तो गनी को अपनी सोच बदलनी पड़ी। असल में, अफगानिस्तान में पाकिस्तान को भौगोलिक, ऐतिहासिक व सांस्कृतिक वजहों से जो स्वाभाविक बढ़त मिली हुई है, वह उससे कहीं ज्यादा की चाहत रखता है। अभी वहां कबीलाई समूह आसानी से सीमा पार करते हैं।

पख्तून आबादी अफगानिस्तान से कहीं ज्यादा पाकिस्तान में है। और अफगानिस्तान का व्यापार आमतौर पर पाकिस्तान के माध्यम से ही होता है। असल में, पाकिस्तान जानता है कि अफगानिस्तान उसका पांचवां सूबा नहीं बन सकता, सो वह उसे एक पिछड़ा व उस पर आश्रित मुल्क बनाना चाहता है। वह नहीं चाहता कि काबुल में भारत की मौजूदगी बढ़े। राष्ट्रपति गनी ने एक साक्षात्कार में यह बात कही भी थी कि पाकिस्तान हमें अपना सूबा बनाने की मंशा पालता है। वह चाहता है कि हम अपनी नीतियां उसके हिसाब से तय करें। हालांकि यह भी कम दिलचस्प नहीं कि जब से भारत आजाद हुआ है, काबुल में जिस किसी की भी सरकार रही, उसके नई दिल्ली के अच्छे रिश्ते रहे। पाकिस्तान को यही खटकता है। उसे लगता है कि अगर अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी बढ़ती है, तो उसके यहां अस्थिरता बढ़ेगी।

वैसे, अफगानिस्तान को हमारी जरूरत है और यह कई वजहों से है। चूंकि पाकिस्तान का वहां हस्तक्षेप ज्यादा है, लिहाजा वहां की हुकूमत नई दिल्ली के साथ संबंध बेहतर बनाकर पाकिस्तान को जवाब देती रहती है। जब कभी इस क्रम में उसे पाकिस्तान के साथ रिश्ते बेहतर बनाने होते हैं, वह नई दिल्ली से दूरी बना लेती है, जैसा कि गनी ने भी किया। खुदा न खास्ता, अगर तालिबान वहां सत्ता में आते हैं, तो उन्हें भी देर-सवेर इसी नीति पर आगे बढ़ना होगा। उन्हें भारत के साथ अपने संबंध बेहतर बनाने ही पडें़गे। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान के लोगों का यह भी मानना है कि भारत ने कभी अफगानिस्तान में अस्थिरता नहीं फैलाई, जबकि इसके उलट पाकिस्तान का रवैया विनाशकारी रहा है। इस कारण, पाकिस्तान को लेकर खासकर नई पीढ़ी में नफरत का भाव है।

इस लिहाज से देखें, तो अफगानिस्तान में हमारे लिए काफी गुंजाइश है। हमारे लिए मुद्दा और चुनौती यह है कि हम अफगानिस्तान में किस तरह की भूमिका निभाएं? यह हमारे हित में है कि अफगानिस्तान राजनीतिक रूप से स्थिर हो जाए और खुद को संभाल ले। इसमें हमें उसकी भरपूर मदद करनी चाहिए। हम उसके आर्थिक विकास को भी रफ्तार दे सकते हैं। वहां विकास से जुड़ी गतिविधियां तेज की जा सकती हैं। हालांकि ये बातें हो रही हैं कि वहां कुछ और बांध बनाए जाएं। खासतौर पर काबुल नदी पर बांध बनाने की योजना है। अगर यह योजना सफल होती है, तो हमें इसका काफी फायदा मिलेगा। दरअसल, काबुल नदी पाकिस्तान में आकर सिंधु नदी में मिल जाती है। पाकिस्तान को इस नदी से काफी सारा पानी मिलता है। पाकिस्तान को डर है कि अगर यह बांध बन जाता है, तो उसके यहां पानी का संकट आ जाएगा। मगर इस बांध के बनने से अफगानिस्तान में न सिर्फ बिजली की आमद बढ़ेगी, बल्कि वहां कई पिछड़े इलाकों तक सिंचाई की सुविधा पहुंचेगी। यानी अफगान खुशहाल बनता है, तो उसका नुकसान पाकिस्तान को होगा और उसके यहां पानी की उपलब्धता कम होगी। यह अफगानिस्तान और पाकिस्तान के संबंध का एक बड़ा विरोधाभास है। ऐसे में, पाकिस्तान की मंशा यही है कि अगर उसे अपने संसाधान बचाने हैं, तो अफगानिस्तान के अंदर उपद्रव करवाना होगा, ताकि वहां विकास-कार्य न हों। मगर भारत पहल करता है, तो परिदृश्य बदल सकता है।

इसी तरह, हम अफगानिस्तान को सैन्य मदद भी दे सकते हैं। उसे ऐसे साजो-सामान मुहैया कराए जा सकते हैं, जो हमारे इस्तेमाल में नहीं हैं। उसे कई हथियार भी दिए जा सकते हैं। तीसरी मदद कूटनीति के मोरचे पर हो सकती है। हम अपनी तमाम कूटनीतिक क्षमताओं का इस्तेमाल अफगानिस्तान के हित में कर सकते हैं और पूरी दुनिया में उसकी छवि बेहतर बना सकते हैं। इसमें स्वाभाविक तौर पर पाकिस्तान की दखलंदाजी भी बेपरदा होगी। इसके साथ ही, हम उसे कारोबार के लिहाज से वैकल्पिक रास्ता भी मुहैया करा सकते हैं। चाबहार बंदरगाह को विकसित करना एक अच्छी पहल है। इससे व्यापार को लेकर पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता कम होगी। यही नहीं, अफगानिस्तान के तमाम पड़ोसी देशों जैसे उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, ईरान आदि को एक लड़ी में भी पिरोया जा सकता है। इससे अफगानिस्तान के आर्थिक विकास के कई और विकल्प खुलेंगे, जिससे निश्चय ही हमारा हित भी सधेगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


Published in LiveHindustan.com on 26th July 2016, Image Source: http://www.jagran.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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