रक्षा सौदा नीति 2016 के सफल कार्यान्वयन के लिए जानकारियों को एकीकृत करने की जरुरत
Lalit Joshi

सरकार ने रक्षा सौदों की नीति (डी.पी.पी.) को मार्च 2016 में जारी किया है, ये उनकी विचारधारा के अनुरूप है जिसमें सरकार मानती है कि ‘रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, सामरिक और आर्थिक दोनों नजरिये से जरूरी है’। डीपीपी आन्तरिक रूप से डिजाईन किये, निर्मित और उन्नत किये गए उपकरणों को प्राथमिकता देता है। इस से पहले भी डीपीपी 2013 में इस बात पर विशेष बल दिया गया था कि आतंरिक रूप से निर्मित उपकरणों को खरीदने पर पहले ध्यान दिया जाये, जब ऐसे उपकरण भारत में उपलब्ध ना हों तभी बाहर की तरफ नजर डाली जाये। किन्ही कारणों से स्वदेशी उपकरणों में इस से कुछ ख़ास बढ़ोत्तरी नहीं आई। स्वदेशीकरण के प्रयासों की विफलता पर नियंत्रण करने वाली कमीशन और कमिटियों ने इस विषय में जांच की है। जो एक मुख्य कारण स्वदेशी के असफल होने का गिनाया गया वो ये है कि कागजों पर प्रयास होते तो हैं, लेकिन उनके जमीनी कार्यान्वयन में हमेशा कोताही बरती जाती है। भारतीय प्रशासन के लिए घटिया कार्यान्वयन हमेशा से एक बड़ी विफलता रही है और अगर हम इस से पार पा कर एक इमानदार कोशिश करें तो कई सेवाओं के लिए एक आशा की किरण नजर आ सकती है1

अच्छी नीतियों के निर्धारण में भारतीय लोगों में कभी कमी नहीं रही है। कई बार नए नेतृत्व के आने के साथ ही कई अच्छी नीतियाँ बनकर सामने आती हैं। उनका कार्यान्वयन एक पूरी तरह अलग मुद्दा होता है। यहाँ नीतियों की व्यापक समझ की जरुरत होती है, साथ कार्य क्षेत्र की जानकारी और लोगों के सहयोग की भी जरूरत होती है। जब तक लोग अच्छी तरह प्रशिक्षित ना हों, उनमें आत्मविश्वास ना भरा हो, कितनी भी अच्छी नीतियां अच्छे नतीजे नहीं लाती।

वर्ष 2016 की घोषित डीपीपी का मुख्य उद्देश रक्षा उपकरणों की समय पर आपूर्ति, बजट प्रावधानों द्वारा सशस्त्र सेनाओं के लिए जरूरी प्रणालियों और मंच की जरूरतों को पूरा करना है। साथ ही इसमें इमानदारी, पारदर्शिता, जनता के प्रति जवाबदेही और उचित प्रतिस्पर्धा को मौके देना भी शामिल है।

अलग अलग सरकारों ने और साथ ही डीपीपी 2016 में भी निजी क्षेत्र के जुड़ाव से रक्षा औद्योगिक बुनियाद [Defence Industrial Base (DIB)] की जरुरत बरसों से महसूस की जा रही है। ऑटोमोबाइल, सुचना प्रौद्योगिकी, संचार जैसे कई क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि सेवा और सूचना औद्योगिकि से जुड़े कई क्षेत्रों में भी भारत को निजी क्षेत्र के उपक्रमों के शामिल होने से काफी मदद मिली है। इस से देश की अर्थव्यवस्था में भी व्यापक सुधार हुए हैं।

जब हम रक्षा उपकरणों के निर्माण की बात करते हैं तो हम पाते हैं कि निजी क्षेत्र के लगभग सभी सयंत्र, चाहे वो बहुत छोटे, मध्यम या छोटे स्तर के उपक्रम हों (MSME), सभी इसमें शामिल होने से परहेज रखते हैं। निजी क्षेत्र के उपक्रमों की एक बड़ी शिकायत ये भी रही है कि एकल खिड़की से मंजूरी की कोई प्रक्रिया नहीं है, इस वजह से लाइसेंस मिलना बहुत ही मुश्किल काम होता है। जरूरी टेबल पर बैठे अधिकारीयों का बार बार बदलना भी एक बड़ी समस्या है जो उद्योगपतियों को बार बार परेशान करती है। हर बार अधिकारी के बदलने पर उन्हें अपना मामला शुरू से समझाना पड़ता है।

चयन और अर्जन की प्रक्रिया में 12 जरूरी पड़ाव होते हैं :-

  1. सूचना के लिए आवेदन (RFI)
  2. सेवा गुणवत्ता का निर्धारण (SQUs)
  3. जरूरतों पर पक्षों की मंजूरी (AoN)
  4. प्रस्तावों की जांच और निराकरण
  5. तकनिकी जांच कमिटी द्वारा तकनिकी पक्षों की जांच
  6. कार्य क्षेत्र में उपकरण की जांच
  7. कर्मियों की जांच
  8. तकनिकी निरिक्षण कमिटी (TOC) द्वारा निरिक्षण
  9. प्रस्ताव समझौते की कमिटी (CNC) द्वारा व्यापारिक बात चीत
  10. योग्य आर्थिक समिति (CFA) की मंजूरी
  11. ठेके / सप्लाई आर्डर (SO) का जारी होना
  12. ठेके के प्रस्तावों का समय समय पर निरिक्षण और प्रस्ताव का पूरा होना

साल 2016 में तय डीपीपी नीति के उद्देश्य और उसके 12 जरूरी मानकों की पूर्ती के लिए प्रक्रियाओं की गहन जानकारी के साथ नियम कानूनों का अनुभव होना भी जरुरी है। जो लोग रक्षा सौदों से सम्बंधित प्रक्रियाओं पर काम करते हैं उनके अनुभवों का एक जगह साझा ना होना इस काम को आगे बढ़ाने में एक बड़ी रुकावट है। पहले भी इस वजह से डीपीपी को आगे बढ़ने में असुविधाएं होती रही हैं। चाहे वो रक्षा मंत्रालय के उच्चाधिकारियों की बात हो, या फिर सैन्य हेड क्वार्टर के अधिकारी, वो रक्षा सौदों के कागज़ी पक्ष के लिए अलग से प्रशिक्षित नहीं हैं। उनका सारा ज्ञान उनके खुद के काम के दौरान स्वयं द्वारा ही अर्जित है2

अपने रक्षा सौदों पर पत्र, “ऑपरेशनलाइजिंग डीपीपी 2013” में वायु सेना के वाईस मार्शल मनमोहन बहादुर कहते हैं, “रक्षा सम्बंधित खरीद की प्रक्रियाओं में असैन्य और सैन्य दोनों तरह के जानकारों का लगातार मौजूद ना होना एक बड़ी कमी है। इस किस्म के मानव संसाधन के विकास की सेना में कोई प्रक्रिया नहीं है। नतीजे के तौर पर हमें रण क्षेत्र में काम करने वालों को उनके अनुभवों की जानकारी के लिए बुलाना पड़ता है। इन अफसरों को उपकरणों की जानकारी तो होगी लेकिन उन्हें कागज़ी करवाई के नियमों, कीमतों जैसी चीज़ों का कुछ भी पता नहीं होता। इसके विपरीत जो रक्षा मंत्रालय के अधिकारी होते हैं वो भी उनके व्यावसायिक अनुभवों के आधार पर पदोन्नति, स्थानांतरण पाते हैं। वहां भी एक ख़ास विषय की गहरी जानकारी का आभाव होता है”3

यद्यपि डीपीपी नीति के विकास की दिशा में व्यापक प्रयत्न किये गए हैं, लेकिन पारदर्शिता का आभाव, और कार्य क्षेत्र की व्यापक जानकारी की कमी का जो मुद्दा है वो बार बार नजर आने के बाद भी सुलझाया नहीं गया है। अक्सर एक रक्षा खरीद के मामले को कई बार समाप्ति के बाद दोबार शुरू करना पड़ता है ताकि AoN, व्यावसायिक समझोते की प्रक्रिया जैसे मामलों से निपटा जा सके। सर्विस हेडक्वार्टर में बदली, रक्षा अर्जन समिति (DAC), टी.इ.सी., सि.एन.सी. और डी.ओ.एम्.डब्ल्यू. जैसे विभागों में बार बार अधिकारीयों के बदलने से भी उपकरणों की खरीद की प्रक्रिया बाधित होती है।

ऐसे में क्या किया जाए की सरकार इस नयी डीपीपी 2016 को सफलता पूर्वक लागु कर सके? अमेरिका में कांग्रेस प्रस्ताव के जरिये सरकार 1,45,000 कर्मियों की एक समिति रखती है जो रक्षा सौदों से निपट सकती है। यूनाईटेड किंगडम में 6000 लोग रक्षा खरीद और सौदों के लिए प्रशिक्षित हैं4। विडंबना है कि भारत में स्थानान्तरणों में भी ऐसी कोई निति नहीं बनाई गई, डिफेन्स रिसर्च और डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डी.आर.डी.ओ.) और डी.पी.एस.यु. में इस किस्म के प्रयास भी असफल रहे हैं।

इस प्रशिक्षित लोगों के अभाव से निपटना आसान है क्योंकि रक्षा मंत्रालय के कर्मी नयी चीज़ें सीखने को उत्सुक रहते हैं। जब भी किसी नए व्यक्ति की बहाली होती है तो वो अपने काम से सम्बंधित सभी चीज़ें सीखता है और जरूरी अनुभव लेता है। कमी यहाँ इस बात की है कि वो सारा अनुभव और अर्जित ज्ञान सिर्फ उस व्यक्ति के पास ही रह जाता है। संस्था के स्तर पर उसे एकत्र करने के प्रयासों में कमी है। इस वजह से जब सिमित समय के बाद जब स्थानान्तरण होता है, तो सारी जानकारी सारा अनुभव भी अचानक गायब हो जाता है। ये एक मानसिकता है कि विभागों में बदलाव, अनुभव और सेवा को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है।

अभी की व्यवस्था में रक्षा सौदों के बारीकियों से अवगत होने के लिए अधिकारी का वहां पदस्थापित होना जरूरी है। एक अधिकारी के स्थानांतरण में तीन से चार साल लगते हैं, उसके बाद स्थानांतरण होने पर नया व्यक्ति आता है और उसे फिर से सारी चीज़ें फिर से सीखनी पड़ती हैं। लगातार अधिकारीयों के विस्थापन से कड़ियाँ बार बार टूटती हैं, पिछली बात चीत और अनुभव के कागजातों के उचित राख-रखाव की कमी के कारण कीमतों के निर्धारण में भी असुविधा होती है। एक ही कड़ी के ना होने पर नीतियों और नियमों को बार बार बदला जाता है जो की, अलग अलग व्यक्तियों के सेना के प्रति अपने निजी अनुभवों पर आधारित होता है5। खरीद के सौदे भी अलग अलग प्राथमिकता पाते हैं जिनकी वजह से कई बार जरूरी चीज़ों में देरी और गैर जरूरी चीज़ों में जल्दी हो जाती है। हमारे पास अच्छे लोग तो हैं लेकिन उनके उचित पद उन्हें नहीं दिए गए हैं।

इसलिए हमारी ये अनुशंषा है कि सरकार ऐसे लोगों को बढ़ावा दे जो रक्षा सौदों से सम्बंधित मामलों में रूचि लेते हैं और उनका स्थानांतरण लगातार ऐसे ही विभागों में किया जाए जहाँ वो काम करते करते अपनी जानकारी बढ़ाते रहें। ऐसे मामलों में उनके रैंक को ज्यादा तवज्जो ना दी जाये, इस से एक अनुभवी टीम बनेगी जिसमें आत्मविश्वास भी ज्यादा होगा। एक बार जब अनुभवी दल तैयार हो जाता है तो एकल खिड़की प्रणाली का काम शुरू करना भी सुविधाजनक रूप से शुरू किया जा सकेगा। एक जानकार दल आसानी से उपकरण निर्माताओं और औद्योगिक इकाइयों से समान स्तर पर बात चीत कर सकेगा जिस से पारदर्शिता और इमानदारी भी दिखने लगेगी।

इस सलाह को अमल में लाने के लिए एक संस्थागत तंत्र का विकास करना होगा ताकि उच्चतम नेतृत्व की देख रेख में छोटे मोटे आपसी विवाद सुलझाये जा सकें। सीधा माननीय रक्षा मंत्री के निर्देशन में एक दल बनाया जा सकता है तो भरोसेमंद रूप से डीपीपी 2016 को कार्यान्वित कर सके। इसके लिए एकीकृत रक्षा विभाग (आई.डी.एस.) हेडक्वार्टर को भी काम में शामिल किया जाना चाहिए। अभी भी एच.क्यू.आई.डी.एस. नोडल संस्था के तौर पर रक्षा मंत्रालय के साथ काम करते हुए नीतियों और युद्ध कला एवं खरीद पर काम करता है। ये उच्च रक्षा प्रबंधन के मुख्य विभाग है और रक्षा प्रमुखों की कमिटी का सचिवालय भी है। एच.क्यू.आई.डी.एस. कई सौदों में बातचीत का एक पक्ष भी रहा है।

आई.डी.एस. में संस्थागत स्तर पर संरचना पहले ही मौजूद है। पहले ही वर्णित कमियों के कारण और लगातार स्थानांतरण की वजह से उन्हें भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। साथ ही समन्वय के अभाव के कारण और एक आदेश देने वाली संस्था की कमी के कारण भी डीपीपी के कार्यान्वयन में बाधा आती है। जैसे ही एक दल का गठन हो जाता है तो ये तय करना भी आसान हो जायेगा कि कौन सा व्यक्ति किन मुद्दों पर बाकी के दल और नए सदस्यों को प्रशिक्षण दे सकता है। हर रक्षा निदेशालय और उच्च विभागों में ऐसा ही करना होगा।

ये दल ध्यान रखेगा की कहाँ से और कैसे योग्य व्यक्तियों को उचित कार्य के लिए स्थानांतरित किया जाये और लाया जाए। कार्य क्षेत्र में कुशल,आत्मविश्वास से भरी एक मजबूत टीम समन्वय के जरिये कई संस्थाओं के साथ साथ काम कर सकेगी। ये एक दुखद परिणिति ही होगी अगर हम नियमों के हाथों मजबूर होकर ऐसी मानसिक बेड़ियों में जकड़े रहें जो साल 2016 की डीपीपी के भी विनाश का कारण बने।

अभी हाल की भारत सरकार की नीतियों को देखें तो मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया और डिजिटल इण्डिया जैसे सकारात्मक कदम उठाये गए हैं, जिनका भारत के रक्षा उद्योगों में योगदान भी उत्साह वर्धक होगा। स्वदेशीकरण हमें वो पंख देगा जो भारत को एक नयी पहचान दिलाये और नयी ऊँचाइयों पर ले जाए। यहाँ हमें ये भी याद रखना चाहिए कि जानकारी को एकत्र करने के प्रयासों में कोई अलग निवेश नहीं चाहिए। हां, इस से रक्षा सौदों में पारदर्शिता बढ़ेगी, संसाधनों का उचित इस्तेमाल होगा और रक्षा सौदों से सम्बंधित कई कठिनाइयों से भी निपटा जा सकेगा। एक दुसरे पर विश्वास और सहयोग के जरिये अहम रक्षा सौदों के विकास और इमानदारी में भी कई गुना बढ़ोत्तरी ला सकते हैं।

Endnotes:

  1. Gen N C Viz, Unravelling DPP 2013
  2. Gen N C Viz, Unravelling DPP 2013
  3. AVM Manmohan Bahadur, Operationalising DPP 2013
  4. Brig Rahul Bhonsle, DPP 2013: Opportunities and Challenges
  5. Brig Vinod Anand, in his paper, Private Sector as Partner in Attaining Self-Reliance

Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

Published Date: 26th April 2016, Image Source: http://indiatoday.intoday.in
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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