मानव के समक्ष उपस्थित समस्याएँ और विकास की अवस्था के मध्य चिन्तन का उदय होता है। हर समस्या का समाधान जब भी खोजा जाता है, तो उस समस्या के समाधान के संदर्भ में विकल्प प्रस्तुत किये जाते हैं। यह विकल्प ही चिन्तन है, जो समस्या की चिन्ता और समाधान के उपायों का संग्रहित रूप होता है। दर्शन का मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है अर्थात दर्शन के बिना मानव स्थिति की कल्पना करना असम्भव है। मनुष्य अपने जीवन-दर्शन और अपने दृष्टिकोण के अनुसार सोचता तथा कर्म करता है। दर्शन में ऐसे सार्वभौमिक सिद्धान्तों व मूल्यों को प्रतिष्ठापित किया जाता है, जो व्यवस्थित रूप में अज्ञान तथा अन्धकार का निस्तारण करते हैं। दर्शन न केवल साधारण बोध, अपितु व्यापक समझ का द्योतक है। उसमें परम-तत्व, परम-शुभ अथवा परम लक्ष्य और परम सत्ता के अतिरिक्त भौतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, नैतिकता इत्यादि विषयों पर चिन्तन तथा मनन किया जाता है। दर्शन की विषय-वस्तु अथवा अध्ययन क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें सत्ताशास्त्र आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी तत्व चिन्तन, ईश्वर सम्बन्धी तत्व, मीमांसा, नीतिपरक ज्ञान आदि का विशिष्ट अध्ययन किया जाता है। दर्शन तर्कसंगत एवं समन्व्यात्मक चिन्तन का रूप है।[1]
प्रत्येक देश का अपना विशिष्ट दर्शन होता है, ‘भारतीय दर्शन’ और ‘पश्चिमी दर्शन’ का नामकरण ही यह प्रमाणित करता है कि दोनों दर्शन एक दूसरे से भिन्न हैं, जब हम विज्ञान के क्षेत्र में आते हैं तब वहाँ ‘भारतीय विज्ञान’ और ‘पश्चिमी विज्ञान’ का नामकरण नहीं पाते। इसका कारण है कि विज्ञान सार्वभौम तथा वस्तुनिष्ठ है परन्तु दर्शन का विषय ही कुछ ऐसा है कि वहां विज्ञान की वस्तुनिष्ठता नहीं दिख पड़ती। यही कारण है कि भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन एक दूसरे से भिन्नता रखते हैं। जैसे कि पश्चिमी दर्शन इह-लोक की ही सत्ता में विश्वास करता है जबकि भारतीय दर्शन इह-लोक के अतिरिक्त परलोक की सत्ता में विश्वास करता है। पश्चिमी दर्शन के अनुसार इस संसार के अतिरिक्त कोई दूसरा संसार नहीं है। इसके विपरीत, भारतीय विचारधारा में स्वर्ग और नरक की मीमांसा हुई, जिसे चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी दर्शनों में मान्यता मिली है। भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण जीवन और जगत के प्रति दुःखात्मक एवं अभावात्मक है। इसके विपरीत, पश्चिमी दर्शन में जीवन और जगत् के प्रति दुःखात्मक दृष्टिकोण की उपेक्षा की गई है तथा भावात्मक दृष्टिकोण को प्रधानता दी गई है, पश्चिमी दर्शन वैज्ञानिक है क्योंकि अधिकांश दर्शनिकों ने चरम-सत्ता की व्याख्या के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया। इसके अनुसार, विज्ञान की प्रधानता से दर्शन व धर्म का सम्बन्ध विरोधात्मक है जबकि भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण धार्मिक है। दर्शन और धर्म दोनों का उद्देश्य व्यावहारिक है। मोक्षानुभूति दर्शन और धर्म का सामान्य लक्ष्य है। धर्म के प्रभावित होने के फलस्वरूप भारतीय दर्शन में आत्मसंयम पर जोर दिया गया है। सत्य के दर्शन के लिए धर्म-सम्मत आचरण अपेक्षित माना गया है।[2]
स्वामी विवेकानन्द पर न केवल भारतीय साहित्य एवं विद्वान मनीषियों का प्रभाव पड़ा बल्कि विश्व के महान दार्शनिकों, चिन्तकों के विचारों से भी वे प्रभावित हुए और इस आधार पर स्वामी विवेकानन्द का चिन्तन भारतीय एवं पाश्चात्य विचारों से निर्मित हुआ है। मूलतः भारत की समस्याएँ चाहे वे आर्थिक, सामाजिक रही हों या जनता की गरीबी, भुखमरी हो, इन सब से प्रेरित होकर विवेकानन्द ने अपने विचारों की पृष्ठभूमि को तैयार किया। परिणामस्वरूप, विवेकानन्द एक चिन्तक के रूप में उदित हुए। यूरोपियन विज्ञान और उदारतावाद तथा राजनीतिक और समाजशास्त्रीय साहित्य में अभिव्यक्त पश्चिमी समाज के जनतान्त्रिक रूप का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा।[3] उन्होंने जान स्टुअर्ट मिल के अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख, मानव व्यक्तित्व विकास के लिए स्वतंत्रता, विवेक-सम्मत ज्ञान और फ्रांसीसी क्रान्ति के दार्शनिकों में काण्ट के अनुभवातीत आदर्शवाद, मानव स्वतन्त्रता सदिच्छा एक निरपेक्ष आदर्श, नैतिक नियम की प्रभुसत्ता बुद्धि का सिद्धान्त, हीगल के प्रत्यय का विचार सृष्टि का सार तत्व है, द्वन्द्वात्मक पद्धति, निषेध का निषेध, वैयक्तिक स्वतन्त्रता, परम चैतन्य, कला, धर्म और दर्शन के सिद्धान्तों का अध्ययन किया। हरबर्ट स्पेन्सर के सिद्धान्त सामाजिक विकास का सिद्धान्त, विकासवादी दर्शन अहस्तक्षेप के सिद्धान्त की तो उन्होंने पत्र-व्यवहार करके उनके कुछ विचारों की आलोचना भी की।[4] मैक्समूलर के इस कथन पर कि भारत में तत्व चिन्तन ज्ञान की उपलब्धि के लिए नहीं बल्कि उस परम् उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जाता था, जिसके लिए मनुष्य का इस लोक में प्रयत्न करना सम्भव है, पर भी चिन्तन किया।[5] विवेकानन्द का अध्ययन पाश्चात्य साहित्य और चिन्तन तक ही सीमित न था।
स्वामी विवेकानन्द ने भारत के जन-समुदाय की सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को निकट से देखा तथा समझा था। इस जानकारी की पृष्ठभूमि में ही उनके दार्शनिक चिन्तन का उद्भव हुआ। उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप में देखा था कि समाज में व्याप्त कुरीतियाँ, समाज में फैले अन्धविश्वास एवं अबौद्धिक रूढ़िवाद के कारण ही उत्पन्न है। उन्हें प्रतीत हुआ कि इसका मूल कारण यहीं था कि लोगों मेंआध्यात्मिक मूल्यों की समझ ढीली पड़ गयी थी। अतः उन्होंने समझा कि समय की मांग के अनुरूप इस प्रकार का आध्यात्मिक जागरण अनिवार्य है। विभिन्न धर्मों में निहित आध्यात्मिकता के अंशों को समझने-परखने का प्रयास किया तथा ऐसी विचारधाराओं को मान्यता दी, जिनमें आध्यात्मिक मूल्यों को प्राथमिकता दी गई थी।[6] ब्रह्म समाज के नेताओं के लेखन द्वारा वे भारत की धार्मिक और दार्शनिक परम्परा की ओर आकर्षित हुए और शीघ्र ही भारतीय चिन्तन के मूलभूत विचारों से परिचित हो गए।[7] ब्रह्म समाज के अन्धविश्वास एवं कुरीतियों के प्रतिवाद से बहुदेववाद, मूर्तिपूजा-अवतारवाद के प्रतिवाद से और एकेश्वरवादी धर्म-मान्यता, मनुष्य की समानता, नारी-शिक्षा और स्वातन्त्रय विचारों से प्रभावित हुए।[8]
यद्यपि विवेकानन्द का अपना दृष्टिकोण अद्वैतवादी था, पर उन्होंने मध्ययुगीन भारत के बहुसत्तावादी तथा द्वैतवादी सम्प्रदायों का, आजीवकों, दादूपंथियों, वैष्णवों का सावधानी से अध्ययन किया था।[9] विवेकानन्द के विचारों पर सबसे गहरा प्रभाव विशेषतः वेदान्त दर्शन का है। उनके अपने दार्शनिक विचारों का मूलः प्राचीन भारतीय शास्त्रों मूलतः उपनिषदों तथा वेदान्त दर्शन पर आधृत है। [10] आत्मा में कोई विकार नहीं -वह असीम, पूर्ण शाश्वत और सच्चिदानन्द है। मृत्यु-जन्म, पुनर्जन्म और स्वर्गारोहण आत्मा का नहीं हो सकता। यह विचार वेदान्त प्रभावित ही है।[11] जिस सत्य को श्रीरामकृष्ण ने आध्यात्मिक प्रतिष्ठा दी थी, उसे विवेकानन्द ने बौद्धिक व्यंजना दी। इस क्रम में विवेकानन्द ने रामकृष्ण के संदेश को अपनी गहरी अन्तर्दृष्टि से समृद्धतर किया। वे सनातन हिन्दू संस्कृति, सनातन धर्म की मुख्यधारा के एक सशक्त प्रवक्ता बने। इस संदर्भ में स्वयं विवेकानन्द ने कहा है कि - ‘‘यह सब उन्होंने उन सनातनी, परम्परानिष्ठ, प्रतिमा-पूजक ब्राह्मण श्री रामकृष्ण के पवित्र चरणों में बैठ कर ही सीखा था।’’ भारत में प्रायः सदैव प्रत्येक जननायक के पीछे एक न एक संत का प्रभाव सक्रिय रहा है। यही तथ्य श्री रामकृष्ण और विवेकानन्द के रूप में सामने आता है। उनके विचारों में कम से कम तीन बिन्दु तो ऐसे हैं, जिनके सम्बन्ध में बौद्ध दर्शन का प्रभाव प्रायः स्पष्ट है। इस सन्दर्भ में सर्वमुक्ति विचार परमार्थ भावना, मानवीय कार्य, सम्यक कर्मान्त व आजीव सामाजिक कुरीतियों के निदान से वे स्पष्टतः प्रभावित प्रतीत होते है।[12] ईसा के चारित्रिक बल, दयानन्द सरस्वती के निर्भयता एवं गीता के निष्काम कर्म सम्बन्धी विचारों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा किन्तु उनके जीवन मन तथा विचारों पर सर्वप्रमुख प्रभाव उनके पूज्यपाद परम प्रभु गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस का था। उनके निर्देशन में उन्होंने गूढ़ आध्यात्मिक प्रश्नों और लौकिक तथा विशुद्ध सांसारिक प्रश्नों के मध्य समन्वय करने की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने यह अनुभव कर लिया था कि आध्यात्मिक प्रश्नों से समाधान के सूत्र मानव-मात्र के प्रति करुणा और मानव के कष्टों का अन्त करने के लिए समर्पित प्रयासों के माध्यम से ही खोजे जा सकते हैं। इसी प्रभाव के आलोक में उन्होंने अन्य सभी प्रभावों को तथा अपने जीवन एवं विचारों को संवारा। स्वयं विवेकानन्द के अनुसार ‘‘वे हैं तो अर्धोन्माद, किन्तु ईश्वरार्थ सचमुच ही सर्वत्यागी हैं।’’[13]
विवेकानन्द के दर्शन का सार ब्रह्म की धारणा है। सत, चित्त तथा आनन्द ब्रह्म के गुण नहीं, वे स्वयं ब्रह्म हैं। वे तीन पृथक सत्ताएँ धारणाएं नहीं, तीन होते हुए भी एक हैं। ब्रह्म सत् (सर्वोच्च सत्ता) परम सत्य है। आध्यात्मिक अनुभूति रूप में ही वह अपने को व्यक्त करता है। परम ज्ञान की अवस्था में, परम सत् का जिस रूप में दर्शन होता है, वही ब्रह्म है। धार्मिक आराधना के स्तर पर वही सत् ईश्वर है। यहां रामकृष्ण-विवेकानन्द दोनों का ही यह कहना है कि द्वैत, विशिष्ट द्वैत और अद्वैत के सिद्धान्त परस्पर विरोधी दार्शनिक पंथ नहीं हैं। वे तो उत्तरोत्तर आध्यात्मिक प्रगति के बौद्धिक कथन मात्र हैं। वे विभिन्न स्तरों के द्योतक हैं, न कि निरपेक्ष पृथक सत्ताओं के। अद्वैत दर्शन में सम्पूर्ण, विश्व एक ही सत्ता है। उसी को ब्रह्म कहते हैं। वही सत्ता जब इस लघु विश्व अर्थात् शरीर के रूप में प्रकट होती है तो आत्मा कहलाती है। सार्वभौमिक आत्मा जो प्रकृति के सार्वभौम विकारों से परे है, वही ईश्वर परमेश्वर है। वही इस सृष्टि का कर्ता-धर्ता तथा हर्ता है, अर्थात् जीव तत्वतः ब्रह्म ही है।[14] कुछ अंश में विवेकानन्द पर सांख्य दर्शन का भी प्रभाव था। जीवों की अनेकता का सिद्धान्त सांख्य से लेते हैं किन्तु सच्चे अद्वैतवाद की भाँति उनका विश्वास अन्ततोगत्वा सब जीव ब्रह्म ही हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि जीव क्या है? भौतिक तथा मानसिक बन्धनों से बंधी आत्मा को विवेकानन्द जीव कहते हैं। मनुष्य की आत्मा स्वभावतः शुद्ध और शुभ है, किन्तु प्रकृति के संसर्ग से उसमें विकार उत्पन्न हो जाते हैं। मनुष्य के कर्मों से प्रभाव और प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उनका समग्र ही उसका चरित्र है। अर्थात् मनुष्य का कर्म ही उसका चरित्र है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है, अतः आन्तरिक बाह्य प्रकृति को नियन्त्रित करके सतत् प्रयत्न द्वारा मनुष्य ईश्वर प्राप्ति कर सकता है। प्यार ही भगवान है, भगवान ही प्यार है।
कर्म एवं स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में विवेकानन्द मनुष्य के कर्म, उसके जीवन एवं भविष्य को निर्धारित करते हैं, किन्तु वे उसके अपने कर्म हैं। यह उसका आत्म-निर्धारण है, वह अपने ही किये का कर्म भोगता है। यह उसकी स्वतन्त्रता का निषेध नहीं, बल्कि उसकी सम्पुष्टि है क्योंकि यह स्पष्ट रूप में स्वीकारता है कि हमारा भविष्य हमारे अपने कर्म पर निर्भर है। इसमें यह सम्भावना भी निहित है कि यदि इस तथ्य को समझकर शुभ एवं उचित कर्म करें तो हम स्वयं अपने ही कर्मों से भविष्य को सही दिशा में प्रवाहित कर सकते हैं। अज्ञान एवं दुःख से स्वयं मुक्त होने का प्रयास कर सकते हैं।[15] विवेकानन्द के दृष्टिकोण में ईश्वर उस निरपेक्ष सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है। दूसरे शब्दों में कहें तो मानव-मन निरपेक्ष सत्य को जो उच्चतम धारण कर सकता है, वही ईश्वर है। जिस प्रकार सृष्टि अनन्त है, उसी प्रकार ईश्वर भी अनन्त है।[16] मनुष्य के शरीर में केवल आत्मा ही नहीं अपितु विश्व के सभी प्रदार्थों में जैसे-सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि पंचतत्वों से निर्मित पार्थिव जगत् में भी एक चेतन तत्व व्याप्त है।[17]
ईश्वर भक्ति की तुलना विवेकानन्द ने एक त्रिकोण के साथ की है। उन्होंने कहा है कि इस त्रिकोण का पहला कोण यह है कि भक्ति या प्रेम कोई प्रतिदान नहीं चाहता। प्रेम में भय नहीं है, यह उसका दूसरा कोण है। अब इस त्रिकोण का तीसरा कोण यह है कि प्रेम ही प्रेम का लक्ष्य है। अन्त में भक्त इसी भाव पर आ पहुंचता है कि स्वयं प्रेम ही भगवान है और बाकी सब कुछ असत् है।[18] भ्रम व अज्ञान के कारण सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता है। अज्ञानावस्था में अज्ञान के कारण बोध नहीं हो सकता।[19] मायावाद वास्तव में कोई वाद या मत विशेष नहीं, वह देशकाल निर्मित को आगे नाम रूप में परिणत किया गया। यह न सत् है, न असत् है वेदान्त में इसे अनिर्वचनीय कहते हैं।[20]
जगत् को स्वामी विवेकानन्द यथार्थ एवं वास्तविक मानते हैं। स्थानकाल कारणता से संरचित जगत् मिथ्या अथवा अवास्तविक नहीं। आत्म ज्ञान की अवस्था में जगत् बोध उसी प्रकार समाप्त हो जाता है, जिस प्रकार सागर की शान्तवस्था में लहरें लुप्त रहती हैं। जब तक लहरें उत्पन्न (उठान) पर होती हैं, तब तक लहरें हैं। वे सागर की वास्तविक व्यक्त रूप हैं। उसी प्रकार, जब तक सृष्टि है, जगत् की अनुभूति है, तब तक वह यथार्थ है।[21] विवेकानन्द के अनुसार साधन देशकाल से अतीत है, अनादि-अनन्त है। देशकालातीत जगत्कारण के साथ परिचित होने का प्रयास ही साधन है।[22] मुक्त आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में विवेकानन्द का निश्चित मत है कि आत्ममुक्ति तथा सर्वमुक्ति एक प्रक्रिया के दो सोपान नहीं हैं। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि आत्मा मुक्ति के बाद की अवस्था-मुक्ति की अन्तिम अवस्था सर्वमुक्ति है। वे स्पष्ट करते हैं कि हर व्यक्ति को अपना अमरत्व स्वयं प्राप्त करना है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि इसके बाद अन्य की अमरत्व प्राप्ति में सहायक होना ही है। मैं अपनी साधना एवं लगन तथा प्रयत्न से अमरत्व की अनुभूति कर सकता हूँ। मैं अन्य को कुछ मार्गदर्शन भी कर सकता हूँ किन्तु हर व्यक्ति को अपनी अमरता के लिए स्वयं प्रयत्न करना है। ऐसा नहीं कर सकते कि जब तक सबों की मुक्ति नहीं होती तब तक किसी की मुक्ति नहीं होती। इस रूप में विवेकानन्द सर्वमुक्ति को नहीं स्वीकारते क्योंकि उनके लिए आत्मा का चरम भाग्य उसकी अमरता की अनुभूति है।[23]
विवेकानन्द का चतुर्दिक परिवेश आध्यात्मिकता से परिपूर्ण था और इन्हीं आध्यात्मिक विचारों का प्रस्फुटन उनमें बालपन से ही हो गया था। ‘‘होनहार वीरवान के होत चिकने पात’’ कहावत को चरितार्थ करते हुए उनके बाल मनोमस्तिष्क में परम सत्ता के सम्बन्ध में सवालों की झड़ी लगने लग गई। इसी जिज्ञासा के शमनार्थ उन्होंने अनेकानेक महात्माओं, संन्यासियों को सान्निध्य प्राप्त किया। समाज में विस्तारित गरीबी, विपन्नता, अन्धविश्वास, धार्मिक कट्टरता को समीप से देखा-परखा तथा उसके निवारणार्थ उन्होंने पिता का साया उठ जाने पर स्वयं आर्थिक विपन्नता में होते हुए भी काली माँ से ज्ञान और वैराग्य मांगा। जो इस बात का साक्ष्य है कि तत्कालीन भारतीय विपन्न स्थिति ने उन्हें अन्दर तक कितना कचोटा था। जिन भारतजनों ने स्वयं की विपन्नावस्था को भाग्य का लेखा समझ स्वीकार कर लिया है, उनमें चेतना, कर्मठता की उज्ज्वल प्रकाशमय रश्मि के प्रसारण के लिए उन्होंने वेदान्त के ज्ञान एवं गीता के निष्काम कर्म को भारतीय आध्यात्मिक परिवेश से मेल करते हुए मौलिक चिन्तन कर विचार प्रस्तुत किये।
पाश्चात्य देशों की ज्ञान पिपासा एवं औद्योगिक प्रगति तथा कर्म के प्रति निष्ठा को लक्षित कर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राच्य एवं पाश्चात्य के आध्यात्मिक एवं भौतिकवाद का समन्वय आवश्यक है। अत्यधिक भौतिकता जहाँ व्यक्ति के हृदय को संकुचित करते हुए परहित से दूर स्वार्थी बना देती है, वहीं आध्यात्मिकता व्यक्ति को वैज्ञानिक दृष्टि से पृथक कर बौद्धिक दृष्टि से पंगु बना देती है तथा भाग्याश्रित कर देती है। अतः सारांश रूप में दोनों का संगम ही सम्पूर्ण व्यक्तित्व की निशानी है। जो विपन्नावस्था वर्तमान में भारतीयों की है, उसके लिए वे स्वयं ही जिम्मेदार है। इसी कारण, उन्होंने युवा शक्ति का उद्बोधित करते हुए कहा है कि ‘‘उठो जागो, अपने ध्येय प्राप्ति तक आगे बढ़ो।‘’ भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति चरित्र निर्माण का अभाव, ब्रह्मचर्य की उपेक्षा, जिसके फलस्वरूप भारत पतन के मार्ग पर अग्रसर हुआ, आत्मविश्वास की कमी, हर अकर्मण्यता को भाग्य के नाम पर ईश्वर पर थोप देने की प्रवृत्ति ही उनकी विपन्नता का कारण है। इसी को लक्षित करते हुए विवेकानन्द ने कहा है- ‘‘नास्तिक वह नहीं है, जो ईश्वर को नहीं मानता, नास्तिक वह है जिसको अपने पर विश्वास नहीं हैं।’’ ब्रह्मचर्य-विनाश सम्बन्ध में उन्होंने कहा है- ‘‘यह भिखमंगा भी यह आकांक्षा रखता है कि विवाह कर लूँ और देश में दस-बारह गुलाम और पैदा कर दूँ।’’ फलस्वरूप, आत्मविश्वास एवं ब्रह्मचर्य के साथ कर्मपथ पर आरूढ़ होते हुए देश उन्नति में भागीदार बनना वे हर नागरिक का कर्त्तव्य समझते थे। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि तात्कालीन विकृत सामाजिक परिवेश भारत की दासता, आर्थिक विपन्नता, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक अवनति ही ऐसे कारक थे जिन्होंने विवेकानन्द के व्यक्तित्व को स्वर्ण के समान तपाया तथा उनके समान जाज्वल्यमान नक्षत्र को निर्मित किया। जो युगों-युगों तक समाज, राष्ट्र, विश्व को अपने प्रेरणादायी विचारों से ताजगी एवं शक्ति देता रहेगा।[24]
दर्शन का मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता हैं। मानव में चिन्तन का उदय उसके समक्ष आयी समस्या एवं भिन्न अवस्थाओं के कारण होता है। मानव अपने दृष्टिकोण के अनुसार सोचता और कर्म करता है।
भारतीय दर्शन इहलोक के अतिरिक्त परलोक की सत्ता में विश्वास करता है जबकि पाश्चात्य देश केवल इहलोक को स्वीकार करता है। अतः दोनों दर्शन एक दूसरे से भिन्न हैं। यही कारण हैं कि विवेकानन्द पर विश्व के महान दार्शनिकों व चिन्तकों का प्रभाव पड़ा। विवेकानन्द के दर्शन पर भारतीयों की आर्थिक, सामाजिक, गरीबी, भुखमरी आदि दशाओं का प्रभाव दिखाई पड़ता हैं। विवेकानन्द ने भारत के जनसमुदाय की परिस्थितियों को निकट से देखा जिसके कारण उनके दार्शनिक चिन्तन का उद्भव हुआ। इसी कारण उन्होंने भारतीय कुरीतियों, अन्धविश्वासों व रूढ़िवाद को अपने दर्शन चिन्तन में अनिवार्य रूप से शामिल किया। अतः उनका चिन्तन भी अद्धैतवादी रहा। उनकी आत्मा में कोई विकार नहीं हैं। विवेकानन्द सनातन हिन्दू संस्कृति, सनातन धर्म की मुख्यधारा के सशक्त प्रवक्ता बने। उन पर अनेक संतों के दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है। सर्वप्रमुख प्रभाव परम प्रभु गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस का पड़ा।
विवेकानन्द दर्शन का सार ब्रह्म की धारणा है। सत् चित्त व आनन्द स्वयं ब्रह्म हैं। तीनों होते हुए भी एक हैं। ब्रह्म परम सत्य है क्योंकि परम सत् का जिस रूप में दर्शन होता है, वही ब्रह्म है। अद्वैत दर्शन में सम्पूर्ण विश्व एक ही सत्ता है। उसी को ब्रह्म कहते हैं। यही सत्ता जब शरीर के रूप में प्रकट होती है तो आत्मा कहलाती है। प्रकृति के सार्वभौम विकारों से परे है। वही ईश्वर परमेश्वर हैं। वही सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता है क्योंकि जीव तत्व ही ब्रह्म है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि तात्कालिन विकृत सामाजिक परिवेश, भारत की दासता, आर्थिक विपन्नता, आध्यात्मिक व तात्कालीन विकृत सामाजिक परिवेश, आर्थिक विपन्नता, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक अवनति ऐसे कारक थे; जिन्होंने विवेकानन्द को स्वर्ण के समान तपाया जो युगों-युगों तक समाज, राष्ट्र तथा विश्व को अपने प्रेरणादायी विचारों से ताजगी, समृद्धि एवं शक्ति देता रहेगा।
[1]डॉ. डी.आर.जाटव, प्रमुख पाश्चात्य दार्शनिक, अष्टम संस्करण 2004, राज.हिन्दी ग्रन्थ अकादमी जयपुर, पृष्ठ संख्या 227
[2]प्रो. हरेन्द्र प्रसाद सिन्ह, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, 1992, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 2, 3, 4
[3]विश्वनाथ नरवणे, आधुनिक भारतीय चिंतन, प्रथम संस्करण, 1991, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 92, 93
[4]ओमप्रकाश गाबा, राजनीतिक विचारक विश्वकोष, 2001, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 90, 108, 181
[5]एम हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, प्रथम संस्करण 1965, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. दिल्ली, पृष्ठ संख्या 14
[6]बसंत कुमार लाल, समकालीन, भारतीय दर्शन, प्रथम संस्करण, 1991, मोतीलाल बनारसीदास बंगलारोड़ जवाहरनगर, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 02
[7]विश्वनाथ नरवणे, आधुनिक भारतीय चिंतन, प्रथम संस्करण 1991, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 92, 93
[8]स्वामी तेजासानंद, स्वामी विवेकानन्द संक्षिप्त जीवनी, पंचम संस्करण, 1974 अद्वैतआश्रम, मायावती, पिथौरागढ़, हिमालय, कोलकात्ता, पृष्ठ संख्या 26
[9]विश्वनाथ नरवणे, आधुनिक भारतीय चिन्तन, प्रथम संस्करण 1991, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 97
[10]बसंत कुमार लाल, समकालीन भारतीय दर्शन, प्रथम संस्करण 1991, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलारोड़ जवाहरनगर, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 02
[11]स्वामी विवेकानन्द, वेदान्त, नवम संस्करण 2001, रामकृष्ण मठ, धन्तोली, नागपुर, पृष्ठ संख्या 73
[12]बसंत कुमार लाल, समकालीन भारतीय दर्शन, प्रथम संस्करण 1991, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलारोड़ जवाहरनगर, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 03
[13]बसंत कुमार लाल, समकालीन भारतीय दर्शन, प्रथम संस्करण 1991, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलारोड़ जवाहरनगर, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 04
[14]स्वामी विवेकानन्द, विवेकानन्द साहित्य (द्वितीय खण्ड), प्रथम संस्करण 1963, अद्वैताश्रम, मायावती, चम्पावत हिमालय, कोलकात्ता, पृष्ठ संख्या 132
[15]बसंत कुमार लाल, समकालीन भारतीय दर्शन, प्रथम संस्करण 1991, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलारोड़ जवाहरनगर, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 21
[16]स्वामी विवेकानन्द, विवेकानन्द साहित्य (चतुर्थ खण्ड), प्रथम संस्करण 1963, अद्वैताश्रम, मायावती, चम्पावत हिमालय, कोलकात्ता, पृष्ठ संख्या 09
[17]एस.एन.दासगुप्ता, भारतीय दर्शन का इतिहास, प्रथम अनुदित संस्करण भाग-एक 1978, राज.हिन्दी ग्रन्थ अकादमी जयपुर, पृष्ठ संख्या 48
[18]स्वामी विवेकानन्द, विवेकानन्द साहित्य (पंचम खण्ड), 2000, अद्वैताश्रम, मायावती, चम्पावत हिमालय, कोलकात्ता, पृष्ठ संख्या 284
[19]स्वामी शारदानंद, श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग (प्रथम खण्ड), 1996, रामकृष्ण मठ, धन्तोली, नागपुर, पृष्ठ संख्या 129
[20]स्वामी सत्यरूपानन्द, विवेक ज्योति, जून 2003 हिन्दी मासिक, रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द आश्रम-रायपुर, पृष्ठ संख्या 257, 258
[21]बसंत कुमार लाल, समकालीन भारतीय दर्शन, प्रथम संस्करण 1991, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलारोड़ जवाहरनगर, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 21
[22]स्वामी शारदानंद, श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग (प्रथम खण्ड), 1996, रामकृष्ण मठ, धन्तोली, नागपुर, पृष्ठ संख्या 129
[23]बसंत कुमार लाल, समकालीन भारतीय दर्शन, प्रथम संस्करण 1991, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलारोड़ जवाहरनगर, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 39, 40
[24]डॉ. कर्णसिंह, भारतीय राष्ट्रीयता का अग्रदूत, 1999, जयपुर, पृष्ठ संख्या 30
(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>
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