नई भू-राजनीति : 2021 में भारतीय विदेश नीति की चुनौतियां
Arvind Gupta, Director, VIF

कोविड-19 ने वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक संतुलन को फिर से तेज कर दिया है, जो पिछले दो दशकों से चली आ रहा था। नए सत्ता-समीकरण उभर रहे हैं। चीन का आत्मविश्वास कई स्तरों पर बढ़ा-चढ़ा है, जबकि पश्चिमी देश अपने बाह्य और आंतरिक समस्याओं के हल ढूंढ़ने की जद्दोजहद में लगे हैं। पश्चिमी देशों की एकता, जो 1945 अंतरराष्ट्रीय संबंधों में लगातार बनी हुई है, उसमें एक दरार पड़ी है। उत्तर-अटलांटिक गठबंधन पहले की तुलना में निस्तेज हुआ है। ट्रंप की ‘अमेरिका पहले’ की नीति ने अमेरिकी गठबंधन प्रणाली की बुनियादी परिकल्पनाओं-धारणाओं को एक चुनौती दी है। चीन पश्चिमी देशों में बनी इस अव्यवस्था का फायदा उठा रहा है और वहां अपनी पैठ बना रहा है।

अब चीन के उद्भव के इर्द-गिर्द अमेरिकी प्रभुता या एकाधिकार का भविष्य, विश्व युद्ध के पश्चात गठबंधन प्रणाली का भविष्य, बहुपक्षीय संस्थाओं की प्रभावकारिता, यूरोप में जारी मंथन, हिंद-प्रशांत महासागर की उभरती विशेषताएं, मध्य-पूर्व का पुनर्गठन, व्यापार और राजनीति में तकनीक की विकसमान विशेषता, तथा वैश्विक महामारी और वायरस का भय; नई भू राजनीति का केंद्र बन रहा है। 2020 में जो रुझान बने हैं, वे 2021 में जोर पकड़ेंगे। भारत इन सभी बदलावों से गहरे प्रभावित हुआ है। भारत और चीन के बीच बना गतिरोध अप्रत्याशित था। महामारी से भी अभी निजात नहीं मिली है और कोरोना वायरस से सर्वाधिक संक्रामक क्षमता वाला एक नये वायरस स्ट्रेंस के बारे में पता चला है।

बदलता भू-परिदृश्य

ट्रंप के अमेरिका और शी जिनपिंग के चीन के बीच जबरदस्त विरोध है। अमेरिका ने ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से अपने को अलग कर लिया है, जबकि चीन रीजनल इकोनामिक कंप्रिहेंसिव पार्टनरशिप (आरसीईपी) के तहत बहुत बड़ा कारोबारी समझौता कर लिया है और 7 साल की लम्बी व सघन बातचीत के बाद यूरोपियन यूनियन (ईयू)के साथ भारी निवेश के महत्वपूर्ण समझौते तक पहुंच गया है; यह स्थिति अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के बीच पचर फंसाएगी। अमेरिका ने ‘पेरिस जलवायु समझौते’ से अपने को अलग कर लिया है, जबकि चीन ने घोषणा की है कि वह 2060 में कार्बन उत्सर्जन मामले में तटस्थ देश हो जाएगा। अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से निकलने की बात की है, जबकि चीन ने इस संगठन को 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अनुदान का वादा किया है। अमेरिका ने मानवाधिकार परिषद को छोड़ दिया है, जबकि चीन अपने यहां मानवाधिकारों के उल्लंघन के रिकॉर्ड के बावजूद इसके लिए निर्वाचित हो गया है। अमेरिका जबकि अपनी संरचनागत शुरुआत को लेकर जद्दोजहद में लगा हुआ है, चीन डिजिटल सिल्क रूट और हेल्थ सिल्क रोड के साथ अपनी महत्वकांक्षी योजना बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) का विस्तार कर रहा है। अमेरिका लगातार रूस का तिरस्कार कर रहा है, जबकि चीन उसके साथ अपने रिश्ते को मजबूत कर रहा है। अमेरिका ने वैश्विक महामारी के प्रकोप के साल भर के अंदर अपने आधा मिलियन लगभग 500,000 लाख नागरिक गंवा दिए हैं, जबकि चीन ने कोरोना वायरस से उत्पन्न संकट को प्रभावी तरीके से निबटने की घोषणा की है। ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका के खाली की जाने वाली जगहों पर चीन खुशी-खुशी काबिज होता जा रहा है। तो चीन से आ रहे इन संदेशों का मतलब है कि अमेरिका कमजोर हो रहा है, जबकि पेइचिंग मजबूत हो रहा है।

यकीनन, अमेरिका और चीन पूरे विश्व पर अपना प्रभाव डालते हैं। अमेरिका और चीन दोनों ही देश अपनी नीतियों को पुनः निर्धारित करने की प्रक्रिया में संलग्न हैं। जोए बाइडेन की जीत ने अमेरिकी-चीन संबंधों में एक नई अनिश्चितता भर दी है। बाइडेन ने वादा किया हुआ है कि वह पूरी दुनिया में अमेरिका की सर्वोच्चता को पुनर्स्थापित करेंगे। उनकी व्यापक रणनीति अमेरिका की गठबंधन प्रणाली को दुरुस्त करने, अपने सहयोगियों को आश्वस्त करने, देश में कोविड-19 से उत्पन्न कुव्यवस्था को दुरुस्त करने तथा अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने की प्रतीत होती है। इनमें से प्रत्येक काम कठिन है, लेकिन असंभव नहीं है। चीन से मिल रही चुनौतियों की के मिजाज से बाइडेन भली-भांति अवगत हैं। लेकिन इससे निपटने का उनका तरीका या रणनीति ट्रंप से भिन्न होगी। ट्रंप ने चीन के साथ मुठभेड़ का रवैया अपनाया था और चीन से होने वाले आयातों पर भारी कर लगा दिया था। इसके विपरीत, बाइडेन चीन के साथ संभवतः तालमेल रखेंगे और यहां तक कि कुछ क्षेत्रों जैसे जलवायु परिवर्तन में चीन को साथ ले कर चलेंगे।

चीन का आकलन है कि अमेरिका किसी भी तरह उसके उद्भव को रोकने पर अडिग है। चीन नहीं चाहेगा कि ऐसा हो। चीन को ट्रंप के कठोर रवैये से जो नुकसान हुआ है, उनसे वह बाइडेन के शासनकाल में उन दबावों से राहत पाने चाहेगा और टकराव की जगह द्विपक्षीय संबंध में किसी न किसी तरह तालमेल बिठाने की उम्मीद करेगा। चीन के लिए पश्चिम से पर्याप्त अलगाव दुस्वप्न के सदृश्य है। चीन अमेरिकन कंपनियों और उनके निवेश को चीन में जारी रखने का बेहतर प्रयास कर रहा है। अब तक डीकपलिंग सीमित रहा है। यद्यपि, चीन ने दोहरी-वितरण रणनीति की घोषणा कर रखी है, जिसका मकसद वैश्विक सहभागिता का लाभ उठाने के साथ-साथ घरेलू बाजार को भी भुनाना है। संक्षेप में, चीन अपनी रणनीति में आत्मनिर्भरता के तत्व को भी शामिल कर रहा है। चीन की राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली को बदलने के अमेरिका के किसी भी प्रयास का जवाब देने के लिए, राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी घरेलू नीति को सख्त कर दिया है और प्रत्येक व्यक्ति को पार्टी की विचारधारा का कड़ाई से पालन के लिए कहा जा रहा है। चीन के निजी आईकॉनिक उद्यमी जैक मा, जो चीन की सबसे बड़ी वैश्विक कंपनी अलीबाबा के संस्थापक हैं एवं पश्चिमी जगत के दुलारे भी हैं, उनको चीनी सरकार ने पार्टी लाइन से अलग आचरण करने के लिए दंडित कर दिया है।

अमेरिका और रूस के बीच एक नया शीत युद्ध (न्यू कोल्ड वार) आकार लेने लगा है, हालांकि अमेरिका और चीन के बीच गुत्मगुत्था होने की वजह से, उसकी प्रकृति बीसवीं शताब्दी के शीत युद्ध से थोड़ा अलग है। चीन और अमेरिका के बीच उभरते टकराव में यूरोप की भूमिका अस्पष्ट है। रूस दृढ़तापूर्वक चीन के साथ है। जापान का अमेरिका के साथ संधि है और वह चीन की तरफ से लगातार दबाव झेल रहा है, लेकिन वह उसके साथ अपना कारोबारी संबंध बनाए हुए हैं। आसियान अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका की तरफ देखता है, लेकिन यह चीन के साथ आर्थिक और व्यावसायिक रूप से जुड़ा हुआ है। अतः दो महाशक्तियों के बीच ठनी लड़ाई बिल्कुल सीधी-सरल नहीं होगी। इसमें हानि उठाने वाला कोई कैंप दूसरे कुछ देशों के साथ अपने संबंध बना सकता है और इस तरह वह दोनों पक्षों के साथ बना रह सकता है। ऐसी परिस्थिति में, उन देशों के लिए गुटनिरपेक्षता तो नहीं, लेकिन तटस्थता एक संभावित रणनीति होगी।

चीन और अमेरिका दोनों संभवत: एक दूसरे से राजनीतिक, आर्थिक, व्यावसायिक, प्रौद्योगिकी, सैन्य मामलों और सूचनाओं के क्षेत्र में एक दूसरे से भिड़ रहे हैं, और होड़ कर रहे हैं। उन दोनों के बीच में जटिल पारस्परिक प्रभावों के कारण लड़ाई बिल्कुल स्पष्ट नहीं होगी। वे एक दूसरे को मल्ल योद्धाओं की तरह पटखनी देने की कोशिश कर रहे हैं। यह कुश्ती लंबी चलेगी और इस गाथा में दांवपेच के अनेक घुमाव और मोड़ आएंगे। इस द्वंद्व युद्ध को पूरा विश्व गहरी दिलचस्पी के साथ देखेगा कि ऐसे समय में जबकि अमेरिकी समाज ध्रुवीकृत हो गया है और विश्व में अमेरिका का प्रभाव कमजोर हुआ है, जोए बाइडेन चीन से मिलने वाली चुनौतियों को सामना करने के लिए किस तरह की नीतियां बनाते हैं। क्या अमेरिका अपने वर्चस्व को, अपनी सर्वोच्चता को चीन से मिल रही चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए कोई नीति बनाएगा?

यह विश्व बड़े स्तर पर क्षेत्रीय शक्तियों का पुनर्संतुलन को होते देख रहा है। अब्राहम समझौते पर दस्तखत करने के साथ मध्य-पूर्व (मिड्ल-ईस्ट) रूपांतरित हो रहा है। अधिक से अधिक देश इजराइल के साथ इस उम्मीद में अपने संबंध ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं कि वह ईरान से मिलने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने में उनकी मदद करेगा। इसी तरह, सऊदी अरब भी इजराइल के साथ अपने संबंध सुधार सकता है। कुल मिलाकर, नतीजा यह कि ईरान और सऊदी अरब के बीच शत्रुता और गहरी होने वाली है।

तुर्की ऑटोमन साम्राज्य के गौरव को फिर से पाने की कोशिश कर रहा है। क्षेत्रीय झगड़ों में इसकी भूमिका बढ़ रही है। तुर्की-ईरान-रूस और पाकिस्तान की एक नई धुरी बन रही है। तुर्की और इजरायल के बीच शत्रुता, इसी तरह तुर्की और सऊदी अरब के बीच दुश्मनी तेज हो रही है। भूमध्यसागर के बीच तनाव बढ़े हैं। यद्यपि तुर्की नाटो का एक सदस्य है, पश्चिमी देशों के साथ उसके रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हैं। अमेरिका ने तुर्की के एस-400 मिसाइलें रूस से खरीदने के चलते उस पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। उत्तरी अफ्रीका में नये तनाव का केंद्र बन रहा है। आईएसआईएस भले ही सैन्य स्तर पर हार गया हो, उसकी कट्टरपंथी विचारधारा क्षेत्र के भीतर और उसके बाहर लगातार अपना प्रभाव बनाए हुई हैं।

कोविड-19 के दौरान, तेल की वैश्विक खपत में तेजी से गिरावट आई है। इसने मध्य-पूर्व के देशों पर राजस्व उगाही को लेकर जबरदस्त दबाव डाला है। सऊदी अरब अपनी अर्थव्यवस्था को बहुआयामी करने की कोशिश कर रहा है और इसने जी-20 देशों में अपने लिए एक जगह और किरदार की मांग की है। ट्रंप जेसीपीओए से बाहर आ चुके हैं। अब देखना यह है कि जोए बाइडेन उसके परमाणु कार्यक्रम के साथ फिर से अपनाते हैं और वे इसके लिए कौन सी शर्तें या प्रावधान रखते हैं। सदा की तरह मध्य-पूर्व में मंथन चलेगा और चकित करने वाली घटनाओं का सिलसिला जारी रहेगा।

हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र (इंडो-पैसिफिक) और चतुष्टय (क्वाड) की कवायद को चीन उसको घेरने की अमेरिकी कोशिश के रूप में देखता है। बाइडेन की जीत के बाद इसमें कोई शक नहीं कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र को मजबूती देने की अवधारणा ट्रंप की तरह ही मजबूत रहेगी। अब देखना यह है कि चतुष्टय ने जो 2020 में रफ्तार पकड़ी थी, वह 2021 में किस गति से आगे बढ़ता है।

वैश्विक शक्ति के पुनर्संतुलन की जारी प्रक्रिया में प्रौद्योगिकी की भूमिका बढ़ रही है। अमेरिका और चीन के बीच प्रतियोगिता में प्रौद्योगिकी मुख्य आधार है। तकनीक की महत्ता को समझते हुए चीन ने रणनीतिक प्रौद्योगिकी में सर्वोच्चता हासिल करने की दौड़ में अमेरिका से आगे निकल गया है। इसने कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष में, क्वांटम कंप्यूटिंग में, ड्रोन मामले में और सागर की गहरी सतह पर खनन के प्रतियोगी क्षेत्र में पर्याप्त और प्रभावकारी उपलब्धियां हासिल की हैं। विशेष सामग्री की वैश्विक मूल्य श्रृंखला में भी चीन की खास दखल है। यूरोपियन यूनियन और चीन के बीच हालिया हुआ कारोबार समझौता दोनों पक्षों के लिए बड़े सहयोग का मार्ग प्रशस्त करेगा। अब देखना यह है कि यूरोप तक अपनी व्यापक पहुंच के जरिए चीन उच्च प्रौद्योगिकी मामले में कितना लाभ उठा पाता है।

सूचनाओं और डेटा के अलावा, स्वास्थ्य और खाद्यान्न मामलों में भी रणनीति बनाई जा रही है। चीन अपने को 2030 तक अपने को वैश्विक खाद्यान्न के भंडारक के रूप में तैयार कर रहा है। यह समय से आगे की सोच है। कोरोना वायरस से लड़ने वाली वैक्सीन देशों के अपने प्रभुत्व जमाने के एक नए उपकरण के रूप में उभरी है। महामारी के दौरान, इसके टीका बनाने के लिए प्रौद्योगिकी के आविष्कार पर जोर दिया गया। एक तरफ, वैक्सीन के अविष्कार और उत्पादन के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सहयोग की होड़ पैदा हुई, वहीं इसके लिए देश आगे भी आए। जिन देशों ने वैज्ञानिकों की सलाह पर ध्यान नहीं दिया, उन्हें महामारी से जूझने में बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी थी। स्वास्थ्य के अलावा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, ऊर्जा का नवीकरण इत्यादि विश्व के आकार बदलने के नए लक्ष्य हैं।

कोविड-19 के दौरान विश्व की अर्थव्यवस्था पर कड़ी मार पड़ी है। उसके फिर से पटरी पर आने की गति बहुत धीमी है। इस महामारी ने वैश्वीकरण की खामियों को सामने लाया है। इसमें सैकड़ों मिलियन नौकरियां छीन गईं और कई देशों में गरीबी उन्मूलन लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों के दशकों की अथक मेहनत से जो मुकाम हासिल किया था, वह सब व्यर्थ चला गया। कारोबार, पर्यटन, मनोरंजन, स्पोर्ट्स आदि ऐसे अनेक क्षेत्र, जो वैश्वीकरण से भरपूर फायदे में रहे थे, उन्हें इस महामारी के दौरान काफी झेलना पड़ा। कई देशों ने दूसरे देशों से लगती अपनी सीमा बंद कर दी और दूसरे देशों में लोगों तथा वस्तुओं की आवाजाही पर पाबंदियां लगा दी। हालांकि, यह साल वह अवसर था जब समग्र आर्थिक भागीदारी वाले विश्व के सबसे अहम एवं बड़े समझौते आरसीईपी पर दस्तखत किया गया था। अमेरिका आरसीईपी का हिस्सा नहीं है। इस समझौते से चीन को बड़ा फायदा होगा।

वर्तमान समय की बड़े मंथन के दौरान, जन संहारक हथियारों के मसले को नजरअंदाज करना, गंभीर चिंता का विषय है। सशस्त्र नियंत्रण के लिए रूस और अमेरिका के बीच हुए कई समझौते की मियाद पूरी हो चुकी है। अब बाइडेन प्रशासन को यह निर्णय करना है कि रूस के साथ सामरिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी (स्टार्ट) की मियाद को आगे बढ़ाया जाए या नहीं। चीन के सैन्य साजो-सामानों का जखीरा और मिसाइलों की तदाद किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौतों के दायरे से बाहर है। यह गंभीर चिंता का विषय है।

बहुपक्षीयवाद (मल्टीलेटरलिज्म) को गहरा आघात लगा है और कई देशों द्वारा बहुपक्षीयवाद फिर से स्वरूप देने की मांग उठाई गई है। कोविड-19 के संकट ने दिखाया है कि पूरी दुनिया को बहुपक्षीयवाद से कमतर कुछ भी नहीं चाहिए, लेकिन यह परस्पर देखभाल और साझेदारी के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए न कि ताकत के आधार पर बहुपक्षीयवाद को वैधानिकता प्रदान करना।

भारत

नई वास्तविकता के साथ सामंजस्य बनाने की प्रक्रिया और नए अवसरों की तरफ देखने, जो भारत के उद्भव में मदद करती है, वह भारतीय विदेश नीति-निर्धारकों के लिए सबक होगी। अमेरिका और चीन पुनर्संतुलित हो रहे हैं तथा एक सुदृढ़ चीन का उभार भारत पर अवश्य ही बड़ा प्रभाव डालेगा। भारत पहले ही अमेरिका के साथ सघन रक्षा संबंध बना चुका है। बुनियादी समझौतों पर दस्तखत के साथ भारत और अमेरिकी सेना के बीच अन्योनाश्रितता में सुधार हुआ है। चतुष्टय या क्वाड के साथ अपनी भागीदारी को लेकर भारत की हिचक कम हुई है। चीन और रूस के विश्लेषकों ने इन घटनाक्रमों को, भारतीय नीति में अमेरिका के प्रति बढ़ते झुकाव के रूप में विश्लेषित किया है। हिंद महासागर के प्रति अपनी बढ़ती महत्वाकांक्षी दृष्टि के साथ, भारत ने महाशक्ति की सुनियोजित योजना में अपनी एक जगह तय की है, जो क्षेत्र में बड़ी रणनीति महत्ता के रूप में दिख रही है।

चीनी उद्भव के बहुआयामी परिणामों का समंजन के लिए अमेरिका, रूस, जापान, यूरोप जैसी बड़ी शक्तियों के साथ महत्वपूर्ण सामरिक भागीदारी करते हुए; अपने निकटस्थ पड़ोसी देशों के साथ चहुमुखी संबंधों को और गहरा बनाते हुए; एक्ट ईस्ट पॉलिसी; पड़ोसी देश पहले (नेबरहुड फर्स्ट); सुरक्षा और विकास सभी के लिए (सागर); रणनीतिक विषय-वस्तु के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र, क्वाड इत्यादि उपक्रमों; भारत के अपने फायदे के लिए बाजार और डाटा का उपयोग करने; अर्थव्यवस्था में फिर से जान फूंकने और उच्च-संवृद्धि के परिपथ पर लौटने जैसे कुछ अहम काम नीति-निर्धारकों के सामने हैं। भारत को उम्मीद है कि अमेरिका में भारत को लेकर कायम द्विदलीय सहमति बाइडेन सरकार के दौरान नहीं दरकेगी तथा अमेरिकी नीतियों में हिंद-प्रशांत क्षेत्र से संबंधित रणनीतिक विशिष्टताएं जारी रहेंगी।

अमेरिका के साथ अपने रणनीतिक संबंधों समझौतों का निर्वाह करते हुए भी, भारत रूस की उपेक्षा का नहीं कर सकता। रूस से एस-400 बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली नहीं खरीदने के लिए भारत पर अमेरिका का दबाव लगातार जारी है। भारत का रूस के साथ द्विपक्षीय संबंधों की नीति का अनुसरण करने के अलावा वह ब्रिक्स (बीआरआइसीएस), रिक(आरआइसी) और एससीओ के रूप में दोनों एक दूसरे के साथ हैं। रूस को आश्वस्त करने के लिए भारत को एक्ट फॉर ईस्ट पॉलिसी पर तुरंत काम करने की जरूरत है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में व्लादिवोस्तोक में घोषणा की थी। भारत को रूस की विदेश नीतियों के रुझानों को सावधानी से देखने की जरूरत है। यह अच्छी बात है कि भारत के रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री दोनों ने ही 2020 में रूस की यात्रा की थी। रूस को अवश्य ही भारत के साथ संबंधों में समग्रता से शामिल किया जाना चाहिए। रूस के साथ कारोबार में बढ़ोतरी के लिए अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा ( इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर,आईएनएसटीसी) को अमल में लाया जाना चाहिए। रूस भारत का सर्वोच्च रक्षा आपूर्तिकर्ता देश बना हुआ है। रक्षा प्रणाली के उत्पादन का संयुक्त उपक्रम रूस के साथ अवश्य शुरू किया जाना चाहिए। रूस और चीन के बीच पहले से ही एक मजबूत रणनीतिक भागीदारी है। इसमें पाकिस्तान भारत और रूस के बीच दरार डालने की कोशिश करेगा। अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद वहां एक रिक्तता पैदा हो जाएगी और अफगान के लोग तालिबान और पाकिस्तान की दया पर आश्रित हो जाएंगे। रूस इस तरफ फिक्रमंद नहीं दिखता है। इन रुझानों को सतर्कता से देखना चाहिए और इन्हें भारत की रूस नीति में समंजित करना चाहिए।

यूरोप बदल रहा है। ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन से अलग हो चुका है लेकिन दोनों ने एक दूसरे के साथ महत्वपूर्ण कारोबार समझौता किया है, जो दोनों के लिए श्रेयस्कर है। भारत को यूरोपियन यूनियन और ब्रिटेन के साथ जहां तक संभव हो कारोबारी समझौते पर काम करना चाहिए।

आरसीईपी में शामिल नहीं होने के भारत के फैसले के मिले-जुले नतीजे हुए हैं। हालांकि भारतीय उद्योग की प्रतियोगितात्मकता तथा चीन के लिए खोले जा रहे बड़े अवसरों को देखते हुए इस समझौते में भारत के शामिल न होने के निर्णय को युक्तिसंगत करार दिया जा सकता है, तथ्य यह है कि आसियान देश इससे निराश हुए हैं, जो भारत को चीन को संतुलित करने की एक ताकत के रूप में देखते हैं। इसके अलावा, भारत किसी भी नई पीढ़ी के मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) में शामिल नहीं है। यह भारत के वैश्विक व्यापार में अपनी भागीदारी बढ़ाने की उसकी महत्वाकांक्षा पर असर डाल सकता है। भारत को यह सुनिश्चित करते हुए कि उसके हित किसी खतरे में नहीं पड़ेंगे, जितनी जल्दी हो, एफटीए के साथ यूरोपियन यूनियन और अन्य देशों के संग आगे बढ़ने की आवश्यकता है।

भारतीय नीति का एजेंडा और एक्शन 2020 में आए तीन मुख्य संकटों द्वारा तय हो गया था-कोविड-19 के मद्देनजर स्वास्थ्य संकट, सुरक्षा संकट और आर्थिक संकट। इनमें से अधिकांश के 2020 में भी जारी रहने की संभावना है। भारतीय राजनयिक ने कोविड-19 संकट को एक अवसर के रूप में उपयोग करते हुए सार्क को फिर से सक्रिय कर एक नई जमीन तोड़ी है। भारत ने 150 देशों को दवाएं और चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति की है, जबकि विश्व के अन्य देशों में फंसे एक मिलियन से ज्यादा अप्रवासी भारतीयों को अपने घर लाने का काम किया है।

निश्चित रूप से, भारत के लिए चीन 2021 में सर्वाधिक सुरक्षा चुनौती बना रहेगा। लिहाजा, चीन से मिलने वाले दबावों के मद्देनजर अमेरिका और अन्य देशों के साथ भारत को सुरक्षा सहयोग सघन करना उपयुक्त है। चीन ने भारत की सुरक्षा चिंताओं को लेकर जरा भी संवेदनशीलता नहीं दिखाई है। राजनयिकों के स्तर से लेकर सेना के स्तर तक होने वाली कई दौरों की बातचीत के बावजूद तनाव कम करने की प्रक्रिया में कोई मदद नहीं मिली है। भारत को चीन के उद्भव और विकास से होने वाले परिणामों के मद्देनजर अल्पावधि अवधि, मध्यावधि और दीर्घावधि के उपाय करने होंगे। सीमा पर तनाव का हल निकालते हुए, भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि चीन इस स्थिति का गलत फायदा न उठा ले तथा लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) को लेकर नए तथ्यों को न गढ़ ले। भारत-चीन संबंध को नई वास्तविकताओं के परिप्रेक्ष्य में पुनर्निर्धारित किया जा सकता है। भारत ताइवान के साथ आर्थिक संबंध गहरे करने पर विचार करे, जैसा कि अन्य कई देश इस समय कर रहे हैं। साथ ही, वह यह भी सार्वजनिक कर सकता है कि दलाई लामा के पुनर्आविर्भाव का मामला बौद्धधर्मावलम्बियों का आपसी मसला है, जिसे वे अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के मुताबिक हल कर सकते हैं। अभी हाल ही में अमेरिका ने तिब्बत को लेकर अपनी एक नीति पारित की है। इस नए कानून के प्रभावों को समझने के लिए भारत अमेरिका से बातचीत कर सकता है।

भारत को इसके लिए सतर्क रहना होगा कि पाकिस्तान और चीन की धुरी भारत की सुरक्षा के लिए कोई नया खतरा न पैदा करे। गिलगिट-बालटिस्तान होकर गुजरने वाला सीपीईसी एक सुरक्षा चुनौती है। भारत को दोनों सीमाओं पर युद्ध लड़ने की स्थिति में उसकी रक्षा तैयारी सर्वोच्च स्तर की होनी चाहिए। रक्षा उत्पादनों में स्वदेशीकरण को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

पाकिस्तान के अतीत को देखते हुए यह उम्मीद की जा सकती है कि वह 2021 में भी भारत के लिए समस्याएं पैदा कर सकता है। इसीलिए भारत को बहुत सावधानी से पाकिस्तान में हो रहे घटनाक्रमों पर अपनी सतर्क नजर रखनी चाहिए जिसमें उसके राजनीतिक रूप से अस्थिर होने का खतरा बना हुआ है। वहां के विरोधी दल इमरान खान सरकार पर दबाव बनाए हुए हैं और पूरे देश में उनके विरुद्ध अनेक कामयाब रैलियां की हैं। पाकिस्तान की नागरिक-सैन्य संबंधों को भी देखने की आवश्यकता है क्योंकि इनका भी भारत के साथ संबंधों पर असर पड़ता है।

भारत के पड़ोसी देश चीन और भारत के बीच बने अवरोधों को बहुत सावधानी से देख रहे हैं। चीन ने नेपाल पर अपना राजनीतिक प्रभाव पहले ही स्थापित कर दिया है, जो फिलहाल राजनीतिक विप्लव के दौर से गुजर रहा है। लिहाजा, भारत-नेपाल संबंधों में निवेश करने की जरूरत है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ अपने आर्थिक संबंध बढ़ाएगा और कनेक्टिविटी भी।

भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के गैर वीटो प्राप्त सदस्य की दो वर्षीय कार्यावधि की आठवीं वार शुरुआत की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुरक्षा परिषद में सुधार की बात करते हुए उसमें बहुपक्षीयवाद को तरजीह देने का आह्वान किया है। जैसा कि भारत अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के मौजूदा मसलों को लेकर बातचीत करता रहा है, ऐसे में उसे बहुपक्षीयवाद के अपने के एजेंडे को क्रियान्वित करने के लिए एक विशेष प्रस्ताव लाने की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार अभी दूर की बात लगती है लेकिन भारत निश्चित रूप से कुछ अहम मसलों जैसे, संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना, सतत विकास के लक्ष्यों, स्वास्थ्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, शांति और सुरक्षा बातचीत और संवाद की पहल कर सकता है। भारत को विकासशील देशों तक अपनी पहुंच बनानी चाहिए और उनसे जुड़े मसलों को विश्व मंच पर उठाना चाहिए।

भारत ने आत्मनिर्भर भारत के ढांचे में आत्मनिर्भरता की नीति की शुरुआत की है। यह समय की मांग है। सरकार ने दीर्घकालीन लक्ष्यों को लेकर श्रम और कृषि सुधार की दिशा में शुरुआत की है। इनमें से उसके कुछेक कदमों ने देश में चिंताएं पैदा की हैं। लेकिन इसका असर आने वाले दिनों में दिखेगा। आर्थिक खुशहाली और इसमें वृद्धि का रास्ता लंबा होगा। इस साल 2021 में कुछ चमत्कारी परिणाम हो सकते हैं। भारत को प्रभावी कूटनीति और विदेश नीति के लिए अपनी अंतर्निहित क्षमताओं और शक्तियों को निर्मित करने की आवश्यकता है।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
Image Source: https://thediplomat.com/wp-content/uploads/2020/09/sizes/medium/thediplomat-2020-09-25-10.jpg

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