भाषा के नाम पर लड़ाई
Rajesh Singh

चार महीने पहले द्रमुक नेता एम के स्टालिन ने चेतावनी दी थी कि यदि केंद्र सरकार तमिलनाडु में राजमार्गों पर लगे मील के पत्थरों पर अंग्रेजी मिटाकर हिंदी में लिखती है तो “नया हिंदी विरोधी आंदोलन” छेड़ दिया जाएगा। उन्होंने दावा किया कि सरकार का कदम “हिंदी को पिछले दरवाजे से राज्य में दाखिल कराने” का सबूत है और दिखाता है कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला केंद्र “तमिलों की भावनाओं का सम्मान नहीं करता है।” मील के पत्थरों पर ‘राष्ट्रीय’ आधिकारिक भाषा में लिखे जाने का भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण का कदम उन्हें “हिंदी को थोपने” जैसा लगा। जल्द ही तमिलनाडु के दूसरे नेता भी यही बोलने लगे। पीएमके के संस्थापक एस रामदास ने “भीषण आंदोलन” छेड़ने की धमकी दी और एमडीएमओ के नेता वाइको ने तीखे लहजे में इस कदम की निंदा की। इस बीच कुछ उत्साही तमिल लोगों ने राज्य में राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे लगे मील के पत्थरों पर लिखे हिंदी नामों को बिगाड़ना शुरू कर दिया। अन्नाद्रमुक सरकार ने अभी तक संतुलित रुख अपनाया है। एक पल के लिए भूल जाते हैं कि मील के पत्थरों पर लिखे किसी भी तमिल शब्द को हटाकर हिंदी लिखने की बात नहीं कही गई है। अब आगे बात करते हैं।

कुछ ही दिन पहले बेंगलूरु में कन्नड़ समर्थक कार्यकर्ता मेट्रो स्टेशन के बोर्डों पर हिंदी के इस्तेमाल के विरोध में सड़कों पर उतर आए। वहां अंग्रेजी या स्थानीय भाषा को हटाया नहीं गया, केवल हिंदी को जोड़ा गया था। लेकिन अति-उत्साही आंदोलनकारियों के लिए इतना ही काफी था। उन्होंने पूरे महानगर मे प्रदर्शन किया और अड़ गए कि सार्वजनिक स्थानों पर हिंदी का प्रयोग नहीं होना चाहिए। इस तरह मेट्रो स्टेशन से शुरू हुईबात मॉल और जिम्नेजियम तथा दूसरी जगहों पर फैलती गई। कन्नड़ भाषा की स्वयंभू रखवाली कन्नड़ रक्षण वेदिके (केआरवी) राज्य सरकार को हिंदी बंद करने के लिए विवश करने की कवायद में अगुआ बन गई है और उसके सदस्य दबाव बनाने के लिए पूरे शहर में फैल गए हैं। लेकिन उसे इतनी मेहनत करने की जरूरत नहीं है क्योंकि सिद्धरमैया की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार पहले ही मानती है कि भाजपा-नीत केंद्र गैर हिंदी भाषी राज्यों पर “हिंदी थोपने” की कोशिश कर रही है। यहां भी, यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि मेट्रो छह वर्ष पहले शुरू हुई थी और हिंदी के बोर्ड तभी से लगे हैं। मेट्रो के हाल ही में शुरू किए गए नए मार्ग पर भी कन्नड़ और अंग्रेजी के साथ हिंदी लिखे बोर्ड लगे थे।

इस बात से सवाल उठता हैः तमिलनाडु और कर्नाटक में छोटे स्तर पर ही सही, अचानक गुस्सा क्यों फूट पड़ा है? इसकी फौरी वजह क्या हो सकती है? अगर समझदारी से सोचें तो राष्ट्रीय राजमार्ग पर हिंदी लिखे पत्थर लगे होने से देश भर के मुसाफिरों को उनकी यात्रा में मदद मिलेगी। इसी तरह बेंगलूरु मेट्रो के स्टेशनों पर हिंदी में लिखे नाम उन हजारों यात्रियों के लिए बहुत काम के हैं, जो कर्नाटक से बाहर के हैं और कन्नड़ नहीं समझते। लेकिन समझदारी की बात ही कौन करता है। तमिलनाडु में द्रमुक सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के भीतर चल रही समस्याओं का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है और कोई भी मुद्दा - चाहे कितना भी पुराना और रद्दी हो - जनता का ध्यान खींचेगा और उसके लिए कारगर रहेगा। इसके अलावा हाल ही में अपनी पार्टी की कमान संभालने तथा अपनी कुर्सी को परिवार से मिलने वाली चुनौतियों के कारण स्टालिन ऐसे ‘मुद्दे’ उठाने की फिराक में हैं, जो द्रविड़ों को आकर्षित करते हैं और हिंदी के खिलाफ मुहिम छेड़ने से बेहतर और क्या हो सकता है! पड़ोसी कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और केआरवी सरीखे कन्नड़ समर्थक उग्र समूह अच्छी तरह समझते हैं कि लोहा गर्म होने पर चोट करना कितना फायदेमंद होता है। उन्हें पता है कि सरकार पर दबाव डालने का यही समय है और जब दबाव भाषा से जुड़ी भावनाओं की शक्ल में आता है तो राज्य के किसी भी सार्वजनिक पदाधिकारी के लिए उसका विरोध करना लगभग असंभव हो जाता है। इसके अलावा कन्नड़ समर्थक मांग को किसी भी शक्ल में पेश किया जाए, सत्तारूढ़ दल के लिए ही नहीं, उसके विरोधियों के लिए भी इस मांग का विरोध करना मुश्किल होगा।

देश में भाषाई दंभ की ताकत को कम नहीं माना जा सकता। लेकिन जिस तरह से अभी यह नजर आ रही है, उस पर विचार करने से पहले यह समझना ठीक रहेगा कि राजनीति विज्ञान के विचारक कई दशकों से भाषा को व्यक्ति की पहचान का महत्वपूर्ण और जरूरी हिस्सा बताते आए हैं। इसी कारण यह उस देश (या राज्य) की पहचान का भी जरूरी हिस्सा है, जिसमें व्यक्ति रहता है। वास्तव में दूसरी बातों के अलावा भाषा भी राज्य और देश के बीच बारीक अंतर करती है। इमानुअल कैंट के दर्शन को और विकसित करने वाले जर्मनी के लेखक-विचारक और दार्शनिक योहान गॉटलिप फिटे भाषा जैसी साझा कड़ियों पर बहुत जोर दिया ओर कहा कि जहां भाषा अलग होती है, वहां राष्ट्र भी अलग होता है। उन्होंने कहा, “एक ही भाषा बोलने वाले लोगों को प्रकृति ही कई अदृश्य कड़ियों के जरिये एक दूसरे से बांध देती है, किसी भी मानवीय कला के आने से पहले ही वे एक दूसरे को समझते हैं और दूसरे को अधिक से अधिक स्पष्ट तरीके से समझा भी देते हैं।” प्रख्यात भाषा विज्ञानी एडवर्ड सैपिर ने कहा कि “एक जैसी भाषा उन लोगों के बीच सामाजिक एकजुटता का विशिष्ट संकेत बन जाती है, जो उस भाषा को बोलते हैं।” इस तरह भाषा सांस्कृतिक भाईचारा विकसित करने में मदद करती है।

जब भारत राज्यों का संघ बना तो राज्यों का गठन भाषा के आधार पर किया गया। भौगोलिक नजदीकी जैसे दूसरे पहलुओं पर भी विचार किया गया, लेकिन भाषा प्राथमिक कारण बनी। भाषा आवश्यक निर्देशक सिद्धांत बन गई क्योंकि देश में ढेरों भाषाएं हैं - जो मौखिक, लिखित तथा साहित्यिक रूप में बहुत सशक्त हैं - और उनका समावेश बिल्कुल उसी तरह किया जाना था, जैसे विभिन्न रियासतों को एकीकृत भारत में मिलाया गया था। इस प्रकार कथित हिंदी पट्टी, द्रविड़ पट्टी, कन्नड़ पट्टी, तेलुगू पट्टी और दूसरी पट्टियां तैयार हुईं। अंग्रेजी और हिंदी संपर्क भाषा बन गईं। माना गया था कि इस व्यवस्था से सभी संतुष्ट हो जाएंगे और क्षेत्रीय भाषाओं को दोनों संपर्क भाषाओं के बराबर गौरव मिलेगा। लेकिन मेलजोल के इस विचार को आजादी के बमुश्किल दशक भर बाद ही चुनौती दे दी गई और उसकी शुरुआत दक्षिण ने ही की। तमिलनाडु में 1960 के दशक के हिंदी विरोधी आंदोलन ने भाषाई एकता की इमारत ही हिला डाली और ऐसा अविश्वास पैदा कर दिया, जो आज भी चल रहा है। लेकिन 1960 के दशक में जो हुआ, वह उससे पहले के एक अभियान की ही आगे की कड़ी था।

हिंदी-विरोधी आंदोलन 1937 में तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी में शुरू हुआ। स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने के विरोध में आरंभ इस आंदोलन में छात्रों से लेकर राजनेताओं और आम आदमी तक समाज के तमाम तबके शामिल हो गए। राज्य में सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाले कांग्रेस शासन ने फैसला ले लिया था। ईवी रामासामी पेरियार जैसे विपक्षी नेताओं ने राजनीतिक हथकंडे के तौर पर विरोध शुरू किया और बाद में वह द्रविड़ आंदोलन के अगुआ बन गए। आंदोलन करीब तीन वर्ष तक चलता रहा। सरकार ने फौरन सख्त (कई लोगों की नजर में बर्बर) कार्रवाई की, जिसके कारण असंतोष सुलगता रहा और आंदोलन को काबू में किए जाने के बाद भी सुलगता रहा। अंत में 1940 में राजगोपालाचारी सरकार के इस्तीफे के बाद अंग्रेजों ने स्कूलों में हिंदी के अनिवार्य प्रयोग का निर्णय रद्द कर दिया। तमिलनाडु का जन्म ही इस विचार के साथ हुआ कि राज्य के लोगों पर हिंदी नहीं ‘थोपी’ जाएगी।

विरोध का दूसरा और अधिक हिंसक तथा तीव्र दौर साठ के दशक के मध्य में शुरू हुआ। इसका कारण था संविधान द्वारा हिंदी को आधिकारिक और अंग्रेजी को ‘सहायक’ भाषा स्वीकार किया जाना। 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू किए जाने से पहले संविधान सभा में इस विषय पर तीव्र विरोध किया गया था। किंतु द्रविड़ तथा हिंदी विरोधी भावनाओं के बल पर आई द्रमुक ने अपना विरोध जारी रखा। तमिल गौरव को सम्मान देने और डर मिटाने के लिए जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने 1963 में आधिकारिक भाषा अधिनियम लागू कर दिया, जिससे सुनिश्चित कर दिया कि 1965 के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा, जबकि संविधान में कहा गया था कि उस वर्ष के बाद हिंदी ही देश की एकमात्र आधिकारिक भाषा होगी।

लेकिन यह आश्वासन तथा कानून भी द्रमुक को संतुष्ट नहीं कर सके। 1965 आते-आते हिंदी विरोधी आंदोलन मद्रास राज्य में जोर पकड़ गया और हर तरफ दंगे भड़क गए। अगले तीन महीने तक आगजनी, लूटपाट, पुलिस गोलीबारी रोज की बात बनी रही। आधिकारिक अनुमानों के मुताबिक कम से कम 70 लोगों की जान चली गई (हालांकि अनाधिकारिक अनुमानों में आंकड़े बहुत अधिक थे)। जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने सीधा आश्वासन दिया कि अंग्रेजी ही आधिकारिक भाषा बनी रहेगी तब जाकर विरोध बंद हुए और स्थिति सामान्य हुई। किंतु द्रमुक को मनचाहा राजनीतिक फायदा मिल चुका था और कांग्रेस को द्रविड़ भूमि पर हिंदी ‘थोपने’ की कोशिश करने वाली पार्टी बताकर उसने 1967 के विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की और सत्ता हासिल कर ली। वास्तव में कांग्रेस उस झटके से कभी उबर ही नहीं पाई, तब भी नहीं, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आधिकारिक भाषा अधिनियम में संशोधन कर दिया और हिंदी के साथ ही अंग्रेजी को भी अनिश्चित काल तक आधिकारिक भाषा के रूप में प्रयोग करने की अनुमति मिल गई। इसे देखते हुए अंग्रेजी के साथ हिंदी के प्रयोग से तमिलनाडु में हाल ही में लोगों को दिक्कत नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि तमिलनाडु की जनता और राजनीतिक पार्टियों को संतुष्ट करने वाली यथास्थिति बरकरार रखी गई है।

दूसरा बड़ा भाषाई वितंडा 1980 के दशक मध्य में एकदम अप्रत्याशित स्थान - गोवा - में खड़ा हुआ था। राजनीतिक जमात के एक वर्ग, चर्च और कई संगठनों ने मिलकर कोंकणी को ‘आधिकारिक भाषा’ का दर्जा दिए जाने की मांग शुरू कर दी थी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि व्यापक रूप से बोली जा रही और धार्मिक कार्यक्रमों में प्रयुक्त हो रही मराठी को स्थानीय भाषा की कीमत पर फायदा नहीं मिल सके। कई कांग्रेसी नेताओं और छुटभैयों का राजनीतिक जीवन इसी आंदोलन के बल पर संवर गया। कोंकणी और मराठी दोनों को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिए जाने की सलाह कोंकणी-समर्थक खेमे को बरदाश्त नहीं थी। अंत में मराठी को ‘समान’ दर्जा तो मिला, लेकिन ‘आधिकारिक’ दर्जा नहीं। आंदोलन हिंसक और कुरूप स्वरूप वाला हो गया। दो अखबारों ने एकदम विपरीत रुख अपना लिए उनकी पहचान उस खेमे से बन गई, जिसका समर्थन वे कर रहे थे। एक अंग्रेजी दैनिक हेराल्ड था, जिसने एक पुर्तगाली अखबार शुरू किया था और महज तीन वर्ष पुराना था। दूसरा मराठी दैनिक गोमंतक था, जिसने मराठी को भी आधिकारिक भाषा के रूप में प्रयोग किए जाने के पक्ष में अभियान चलाया। एक समय स्थिति इतनी भयावह हो गई थी कि लोग गोमंतक हाथ में लेकर कोंकणी समर्थकों के सामने जाने से और हेराल्ड लेकर मराठी समर्थक लोगों के सामने जाने से भी डरने लगे थे! अंत में आंदोलन के बल पर दोनों अखबार खूब चल निकले। मराठी अखबार तो पहले ही स्थापित था, हेराल्ड ने परिस्थितियों का पूरा फायदा उठाया और अपने प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ते हुए राज्य में पैठ जमा ली। वास्तव में भाषा आंदोलन के दौरान उसने इतना फायदा हुआ कि आज तक उसका बहुत असर है।

उस आंदोलन का भी एक अतीत था। 1961 के अंत में गोवा को पुर्तगालियों के शासन से मुक्त कराए जाने के बाद उसे महाराष्ट्र में मिलाने का सशक्त आंदोलन शुरू हो गया। तर्क यह था कि चूंकि गोवा संस्कृति और भाषा के मामले में बड़े आकार के राज्य के इतने करीब है, इसलिए इसके विलय में झंझट भी नहीं होगा और विलय स्वाभाविक भी है। महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी (एमजीपी) जैसे क्षेत्रीय दल इस विचार का समर्थन कर रहे थे (हालांकि एमजीपी बाद में गोवा को अलग रखने पर राजी हो गई)। इससे कोंकणी पर मराठी को तरजीह दिए जाने की बात भी साफ हो गई। इसका प्रतिकार होना स्वाभाविक ही था और वे ताकतें एकजुट हो गईं, जो गोवा को अलग बनाए रखना चाहती थीं और कोंकणी को वह सम्मान दिलाना चाहती थीं, जो राज्य में सभी जातियों, संप्रदायों और धर्मों द्वारा बोली जाने वाली भाषा होने के बावजूद उसे तब तक नहीं मिला था। मराठी प्रकाशनों का वर्चस्व होना और कोंकणी प्रकाशन नहीं होना भी चिंता का मसला बन गया। मानो इतना ही काफी नहीं था, इसलिए कोंकणी की लिपि पर भी विवाद हो गयाः एक खेमा देवनागरी का समर्थन कर रहा था और दूसरा रोमन लिपि का। कुछ लोगों ने हास्यास्पद तर्क देते हुए कहा कि देवनागरी का प्रयोग मराठी ताकतों के सामने घुटने टेकने जैसा होगा और इसलिए उन्होंने रोमन लिपि के प्रयोग का समर्थन किया। इस कहानी में एक विडंबना है। स्वतंत्रता के बाद हुए पहले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को पछाड़कर मराठी समर्थक एमजीपी सत्ता में आ गई। लेकिन भाषा आंदोलन के दौरान प्रताप सिंह राण के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का झुकाव मराठी की ओर माना गया। याद रहे कि गोवा में भाषा आंदोलन तमिलनाडु के आंदोलन से बिल्कुल अलग था क्योंकि वह हिंदी के विरोध में नहीं था। इस तरह किसी भी राज्य ने - दक्षिणी राज्यों ने भी - ऐसा हिंदी विरोधी प्रदर्शन नहीं देखा है, जैसा तमिलनाडु में हुआ। महाराष्ट्र में पिछले कुछ दशकों में मराठी मानूस के समर्थन में शिवसेना द्वारा चलाए गए विभिन्न आंदोलन भी हिंदी का विरोध नहीं कर रहे थे बल्कि महाराष्ट्र के बाहर से आए लोगों से मराठी संस्कृति के सम्मान और पालन करने की मांग कर रहे थे।

अलग गोरखालैंड की मांग पर पश्चिम बंगाल के हिल्स क्षेत्र में हाल में हुए हिंसक टकराव का भाषाई पहलू भी है - धारणा है कि राज्य की ममता बनर्जी सरकार ने हिल्स में लोगों पर बंगाली भाषा थोपने का प्रयास किया और एक आदेश के जरिये राज्य शिक्षा बोर्ड के अधीन सभी स्कूलों में बांग्ला सीखना अनिवर्या कर दिया। सरकार को अधिसूचना वापस लेनी पड़ी और स्पष्ट करना पड़ा कि बांग्ला ‘थोपने’ का उसका कोई इरादा नहीं था, लेकिन तब तक नुकसान तो हो ही चुका था और पश्चिम बंगाल में हिल्स क्षेत्र में स्थिति तभी से गंभीर बनी हुई है।

अंत में यह कहा जा सकता है कि भारत जैसे देश में, जहां दर्जनों मान्यता प्राप्त भाषाएं हैं और उनसे भी अधिक बोलियां हैं, भाषा विवाद को सामान्य माना जा सकता है, लेकिन ये विवाद इतने न बढ़ जाएं कि विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान बचाए रखने के नाम पर लोगों को अलग भाषाई मानसिकताओं में बांटने की कोशिश की जाए।

(लेखक द पायनियर के ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: http://www.newindianexpress.com/cities/bengaluru/2016/sep/07/Tamil-movies-go-off-screens-at-Bengaluru-1516793.html

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