राष्ट्र और जनताः पाकिस्तानी पाठ्यपुस्तकों का नजरिया
Naina Singh

इतिहास लेखन को हमेशा ही जूझना पड़ता है, एक ओर मूल्यों वाले इतिहासकारों के झुंड से और दूसरी ओर निष्पक्षता के उस नियम से, जिस पर समझौता नहीं किया जा सकता। किंतु अतीत के चित्रण को राष्ट्र स्थापना और सामूहिक पहचान की आकांक्षा वाली लंबी दौड़ में समसामयिक राजनीतिक की लिप्सा को सही ठहराने का हथियार बना दिया गया है (हॉब्सबॉम, 2008)। सांस्कृतिक विचारक आंद्रियास हुइसन ने भी कहा कि इतिहास की स्मृति ‘वह नहीं है, जो होनी चाहिए’ बल्कि यह हमारे वर्तमान क्षण तक सीमित है (मर्फी, 2012, पृष्ठ 7)। राष्ट्रवादी विचारकों के उद्देश्यों को, जातीय संघर्षों की विकृत जड़ों को सही ठहराने तथा उपनिवेशवाद के सही यथार्थ को उचित बताने में इतिहास की कच्ची सामग्री का प्रयोग पूरे अधिकार के साथ किया गया है (हॉब्सबॉम, 2008; बॉण्ड एवं गिलियम, 1994)। दक्षिण एशियाई इतिहास लेखन के मामले में भी ये तर्क कुछ अलग नहीं हैं।

उपनिवेशवाद ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तत्काल ऐसा विषय प्रदान किया, जिसके आधार पर विभिन्न विद्वानों तथा राष्ट्रीय नेताओं ने “अपने अतीत पर पुनः दावा करने एवं अपनी व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय पहचानों को व्यक्त करने की रणनीतियों पर काम किया है” (बॉण्ड एवं गिलियम, 1994, पृष्ठ 3)। पहचान की राजनीति का ऐसा अतिवाद राष्ट्रीय नीतियों में ही नहीं मिल गया बल्कि इतिहास लेखन के नाम पर उसने शिक्षा व्यवस्था को भी नहीं छोड़ा। बेनेडिक्ट एंडरसन (2006) की कल्पनाओं में एक साझी भाषा तथा प्रिंट मीडिया को राष्ट्रवाद का माध्यम बताया गया; वर्तमान संदर्भ में स्कूली पाठ्यपुस्तकें और इतिहास का पाठ्यक्रम भी इसी श्रेणी में शामिल हो गए हैं। यह लेख पाकिस्तान में कक्षा 10, 11 और 12 के पाठ्यक्रम में “पाकिस्तान स्टडीज” नाम की पाठ्यपुस्तकों का उदाहरण लेकर पाठ्यपुस्तकों में इस तरह की राजनीति की चर्चा करेगा।

पाठ्यपुस्तकों का संकलन लंबे समय से सरकारों का विशेष अधिकार रहा है और इतिहास के बारे में उनकी सामग्री सत्ता का वह ज्ञान था, जो सरकार से युवा पीढ़ी तक जा रहा था। विडंबना है कि सामान्य समझ में पाठ्यपुस्तकें ‘आधिकारिक’ ज्ञान होती हैं, जिन्हें अध्ययन के दौरान आवश्यकता पड़ने पर अथवा परीक्षा के समय देखा जाता है (इसिट, 2004)। तकनीकी रूप से उन्नत समुदायों में यह माना जाता है कि युवा मानस पर विशाल साइबर जगत की अपेक्षा पाठ्यपुस्तकों का कम प्रभाव पड़ता है (पोडे, 2000)। पाठ्यपुस्तकों की प्रभावशीलता के बारे में यह गलतफहमी ही हमें उन पुस्तकों की उस ताकत को समझने से रोकती है, जिस ताकत का इस्तेमाल इतिहास का ज्ञान प्रदान करने में तथा इतिहास के (गलत) चित्रण एवं समाज निर्माण के मध्य तार्किक जोड़ के आकलन में किया जाता है। पाठ्यपुस्तकों को प्रायः कुछ विशेष व्यक्तियों द्वारा लिखा जाता है, लेकिन वे व्यापक सांस्कृतिक प्रभाव डालती हैं और विचारों को दिशा दिखाने के लिए सरकारी नीतिगत दस्तावेज का विकल्प प्रदान करती हैं। इनमें तमाम व्यक्तियों की अपेक्षाओं का ध्यान रखते हुए या उन्हें खारिज करते हुए तथ्यों को इकट्ठा किया जाता है तथा समाज के सामने ज्ञान का एक स्वीकृत रूप प्रस्तुत किया जाता है (एन्योन, 1979)। इजरायल में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में अरब-इजरायल संघर्ष के चित्रण की बात करें तो एली पोडे ने समाज तथा इतिहास के बीच मध्यस्थता करने में पाठ्यपुस्तकों की नाकामी पर गंभीर चिंता जताई है। उन्होंने कहाः

“रोचक बात है कि इतिहासकार तथा समाजविज्ञानी स्कूली पाठ्यपुस्तकों एवं सामूहिक स्मृति के बीच राजनीतिक और सामाजिक संबंध को भांपने में सामान्यतः असफल रहते हैं। अपनी ही सामूहिक समझ विकसित करने में सरकार द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले माध्यमों जैसे इतिहास लेखन, साहित्य, सिनेमा अथवा राष्ट्रीय उत्सवों से जिन विद्वानों का पाला पड़ता है, वे पाठ्यपुस्तकों की भूमिका को नजरअंदाज कर देते हैं। इसी तरह पाठ्यपुस्तक अनुसंधान के क्षेत्र में काम कर रहे विद्वान सामूहिक स्मृति निर्माण के प्रयासों के संदर्भ में उनका विश्लेषण मुश्किल से ही करते हैं। सामग्री तैयार करने में अहम सामाजिक वातावरण को आम तौर पर अनदेखा ही कर दिया जाता है (पोडे, 2000, पृष्ठ 65)।”

पाकिस्तान के निर्माण के विवादित सिद्धांत तथा ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ की विचारधारा के साथ ‘भारत’ से अलग पहचान स्थापित करने की पाकिस्तान की बेचैनी ने उसे अपनी शिक्षा व्यवस्था में इतिहास के गलत चित्रण की ‘जादुई तरकीबें’ अपनाने पर मजबूर कर दिया। आयशा जलाल ने भी कहा कि पाकिस्तान की पाठ्यपुस्तकों में इतिहास का आधिकारिक संवाद ऐसे इतिहास को बढ़ावा देता है, जिसमें ‘हमारी’ और ‘उनकी’ बात है (जलाल, 1995)। ऐसी शैली पाकिस्तानी राज्य व्यवस्था का बारीक आकलन करने में ही नाकाम नहीं रहती है बल्कि उस क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों की कल्पना को भी बिगाड़ती है।

इस लेख में राज्य के विचार के संदर्भ में इतिहास लेखन तथा “पाकिस्तान स्टडीज” नाम की पुस्तकों में किए गए मूल समुदायों एवं पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के (गलत) चित्रण की चर्चा करना है। इसमें उस निर्लिप्तता या अलगाव की ओर भी ध्यान दिलाया गया है, जो ‘इस्लामी’ पहचान पर जोर देने के फेर में स्थानीय जनता तथा सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के बीच पनप आई है।

पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने के बाद पाकिस्तानी राज्य व्यवस्था की कल्पना को देश के भीतर और विरोधी आवाजों को पनपने से रोकने के लिए आवश्यक साधन की जरूरत थी। वह तात्कालिक जरूरत पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था तक पहुंच गई और 1972 में उसकी शिक्षा नीति में पहली बार शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर “पाकिस्तान स्टडीज” विषय आरंभ किया गया (हाशमी, 2014)। दूसरी शिक्षा व्यवस्थाओं से उलट पाकिस्तान में स्कूलों में देश के इतिहास, भूगोल अथवा राजनीति शास्त्र को अलग से नहीं पढ़ाया जाता। अब्दुल खान के अनुसार पाकिस्तान स्टडीज आरंभ करने का मुख्य उद्देश्य लोगों को पाकिस्तान का गर्व भरा नागरिक बनाने के विचार को बढ़ावा देना, उसमें सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना को बढ़ावा देना, राष्ट्र की स्थापना का महत्व समझाने और अंत में दुनिया भर से उसके संबंधों को समझाना था (हाशमी, 2014)। जैसा अब्दुल खान कहते हैं, माध्यमिक कक्षाओं के लिए पाकिस्तान स्टडीज की पाठ्यपुस्तकों की सामग्री ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1998-2010) के अंतर्गत पाठ्यक्रम सुधार’ की परियोजना का हिस्सा है और उसे “छात्रों को ऐसी वैचारिक शिक्षा प्रदान करने के लिए आरंभ किया गया है, जिसकी उन्हें पाकिस्तान देश के युवा नागरिक के तौर पर सोचने के लिए जरूरत है” (खान, 2014)। यह उद्देश्य देश के नागरिकों के प्रति जिम्मेदारी भरा लग सकता है, लेकिन पुस्तकों को आगे पढ़ने पर उन झूठ और दुष्प्रचारों का पता चल जाता है, जो राज्य प्रशासन अपने नागरिकों के ऊपर थोप रहा है।

इतिहास लेखन एवं राष्ट्र की कल्पना

उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष तथा बंटवारे के जख्म भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों की याद में अभी तक ताजा हैं। बांटने और राज करने की ब्रिटेन की रणनीति ने भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता का भरपूर इस्तेमाल किया और अंत में ‘हिंदुओं’ तथा ‘मुसलमानों’ के दो विवादित देश बनवा दिए। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग सर सैयद अहमद खान ने उठाई थी, जिनकी ‘समृद्ध’ भारतीय मुसलमानों की परिकल्पना ने पाकिस्तान के विचार को जन्म दिया। लेकिन लाहौर प्रस्ताव में मुस्लिम राष्ट्र की मांगों तथा 1947 में बंटवारे के बीच के समय ने पाकिस्तान के निर्माण की परिस्थितियां बदल दीं। जलीबी के बयान से उस विरोधाभास का पता चलता है, जिससे पाकिस्तान की सरकार अब भी जूझती हैः

“पाकिस्तान को राष्ट्र की अभिव्यक्ति के रूप में बनाया और संवारा गया, लेकिन इस राष्ट्र में स्थापना के बाद ही “राष्ट्रीय” संस्कृति की कमी रही... इस देश के नागरिकों को बताने के लिए राष्ट्रीय अतीत का निर्माण ही इस समस्या का समाधान होता, ऐसा अतीत, जो बहुत पुराने और चेतना भरे, लेकिन निष्क्रिय राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान की प्रामाणिकता को मुखरता के साथ बताता...” (आयर्स, 2009, पृष्ठ 105)।

पाकिस्तान के इतिहास के बारे में यह दुविधा उसकी पाठ्यपुस्तकों के इतिहास को लिखने में झलकता है। कक्षा नौ और दस की पाकिस्तान स्टडीज के अनुसार पाकिस्तान राष्ट्र की स्थापना इस्लाम की विचारधारा के आधार पर 1947 में हुई। राष्ट्र में कुरान शरीफ तथा सुन्ना के विचारों एवं सिद्धांतों के आधार पर परिकल्पिक इस्लामी समाज की सच्ची झलक मिलती है। पाकिस्तान राष्ट्र के अस्तित्व के लिए विचारधारा की आवश्यकता तथा उसकी अहम भूमिका पर जोर देते हुए साझा धर्म एवं साझा संस्कृति को विचारधारा का तत्व बताया जाता है, जिसने दक्षिण एशिया के मुसलमानों को अलग मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रेरित किया (हाशमी, 2014)।

हालांकि पाकिस्तान में आधिकारिक इतिहास लेखन 1947 में देश का जन्म होने पर एकमत से सहमति जताता है, लेकिन विडंबना है कि पाकिस्तान के विचार को यह उस समय का बताता है, जब अरब व्यापारियों ने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया था, अपनी संस्कृति को वह सिंधु घाटी सभ्यता के अभिलेखों से जोड़ता है (जलाल, 1995)। अरबों तथा बाद में मुगलों से जुड़ी जो भी ऐतिहासिक घटनाएं भारतीय उपमहाद्वीप के भौगोलिक क्षेत्र में कहीं भी घटीं, वे बतौर प्रमाण उस कहानी में जुड़ती गईं, जो बताती है कि पाकिस्तान को हमेशा से बनना ही था। राष्ट्र मे व्यापप्त विविधता के यथार्थों को नकारते हुए पाकिस्तान का सरकारी इतिहास लेखन चुनिंदा तथ्य ही पेश करता है, जिनसे वह खुद को उस ‘उम्मा’ की जमीन बता सके, जिसने ‘हिंदुओं के दबदबे’ के विरुद्ध न्याय दिलाने का प्रयास किया।

पाकिस्तानी पाठ्यपुस्तकों के अनुसार इस्लाम का उद्भव दक्षिण एशिया के लिए वरदान था क्योंकि वह ‘निर्दयी एवं असहिष्णु हिंदू शासकों’ के बीच बंटा हुआ था, जिन्होंने दूसरे धर्मों के अनुयायियों, मसलन बौद्धों को बहुत कष्ट दिए। कहा जाता है कि समाज हिंदू समुदाय में जाति के सख्त नियमों तथा भेदभाव और हिंदू शासकों की असहिष्णुता एवं संकीर्ण मानसिकता से जूझ रहा था, जिससे अल्पसंख्यक, निचली जाति (शूद्र) तथा महिलाओं को समाज की सबसे निचली श्रेणी में धकेल दिया गया था। कहा जाता है कि उपमहाद्वीप में इस्लाम के आने से सभी प्रकार की ‘अच्छाइयां’ इस धरती के लोगों के पास आ गईं, वे एक केंद्रीय सत्ता के अधीन संगठित होने लगे, ललित कला तथा व्यवस्थित पोशाकें पसंद करने लगे, उन्हें जाति, नस्ल एवं लिंग के आधार पर भेदभाव के बगैर समानता, भाईचारे तथा लोकतंत्र का आनंद मिला और अंत में अल्लाह के प्रभाव के कारण वे हिंदू धर्म के दोगलेपन तथा दुर्दशा के खिलाफ धार्मिक रूप से एकजुट हो गए (रसूल, 2013)।

इस्लाम तथा हिंदुओं के चित्रण में सच्चाई है, लेकिन इस्लाम को सही ठहराने के लिए की गई अतिशयोक्तिपूर्ण बातों से समस्या होती है। हिंदुओं के विरुद्ध इस्तेमाल की गई जहरीली भाषा से पाकिस्तान राष्ट्र में हिंदू अल्पसंख्यकों के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है और इससे धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र के लिए जगह नहीं बचती, जिन दोनों का वायदा जिन्ना ने पाकिस्तान के अपने आदर्श में किया था (जलाल, 1995)। देश के इतिहास में संविधान निर्माण के चरणों को अल्लाह की संप्रभुता का गुणगान करके और इस्लामिक गणतंत्र के रूप में पाकिस्तान की स्थापना की बात करके चित्रित किया गया है (हसन, 2013)। यह हकीकत है कि मोहम्मद अली जिन्ना तथा मुस्लिम लीग ने इस बात पर जोर दिया था कि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में कथित हिंदू-ब्रिटिश गठजोड़ के खिलाफ भारतीय मुसलमानों के अस्तित्व के लिए दो अलग राष्ट्र जरूरी हैं। लेकिन जिन्ना के विचारों तथा कांग्रेस विरोधी भावनाओं पर लीपापोती कर पाकिस्तान के इतिहास के आधिकारिक रखवालों ने पाकिस्तान के उनके विचार का दुरुपयोग किया है और अपने युवा मानस में राष्ट्र की गलत धारणा भर दी है। आयशा जलाल और डॉ. परवेज हुडबॉय के अनुसार जिन्ना के भाषण में ‘पाकिस्तान के विचार’ को कभी एक शब्दविशेष के रूप में, विशेषकर इस्लाम के संदर्भ में, इस्तेमाल ही नहीं किया गया (पारचा, 2012), लेकिन सिंध बोर्ड की कक्षा 9-10 की पाकिस्तान स्टडीज की पाठ्यपुस्तकों में कायदे-आजम को मुस्लिम लीग की 1940 की बैठक में यह कहते हुए बताया गया हैः

“हिंदुत्व और इस्लाम दो धर्म ही नहीं हैं बल्कि दो भिन्न सामाजिक व्यववस्थाएं हैं। हिंदू और मुसलमान मिलकर एक ही देश बनाएंगे, यह सोचना सपने देखने जैसा ही होगा। मैं साफ कर देना चाहता हूं कि दोनों राष्ट्र दो अलग-अलग सभ्यताओं से संबंधित हैं और उन दोनों सभ्यताओं की बुनियाद ऐसे दर्शन पर रखी गई है, जो एक दूसरे के विरोधी हैं” (खोखर, 2013, पृष्ठ 11)। इसमें कायदे-आजम की पाकिस्तान की धारणा को यह कहकर बताया गया हैः पाकिस्तान तो उसी दिन बन गया था, जिस दिन भारत में पहले गैर मुसलमान को मुसलमान बनाया गया था” (खोखर, 2013, पृष्ठ 11)।

दिलचस्प है कि मुस्लिम राष्ट्र के लिए ‘पाकिस्तान’ नाम न तो जिन्ना ने दिया था और न ही किसी अन्य नेता ने। यह विश्वविद्यालय के गलियारों तथा शैक्षिक जगत में विद्वान चौधरी रहमत अली की भू-राजनीतिक परिकल्पना थी। स्वयं जिन्ना ने दिल्ली में मुस्लिम लीग के अधिवेशन (1943) में इस मुद्दे पर कहा था कि लंदन में रहने वाले एक विद्वान, जो पश्चिमोत्तर के एक विशेष हिस्से को शेष भारत से अलग करना चाहते हैं, ने यह नाम दिया है (जिन्ना, 1947, पृष्ठ 555-557)। आधिकारिक पाठ्यक्रम में पाकिस्तान के निर्माण के दौरान मुस्लिम ‘पुरुष’ नेताओं की भूमिका को सराहा भर नहीं गया है बल्कि मराठों, जाटों और सिखों की नीतियों के खिलाफ जाकर इस्लाम का पुनरुत्थान करने में शाह वलीउल्ला तथा सैयद अहमद शहीद बरेलवी जैसे नेताओं का योगदान भी ढूंढ लिया गया है (खान, 2014)। नेताओं के भाषणों से निकाले गए ये फर्जी बयान उस प्रणाली, संदर्भों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों की व्याख्या पर प्रश्न खड़ा करते हैं, जिन्हें पाकिस्तान का सरकारी प्रचार तंत्र इस्तेमाल कर रहा है।

आधुनिक राष्ट्र की संप्रभुता, जनसंख्या तथा क्षेत्रीय विशेषताओं के बीच पाकिस्तानी अधिकारी भूल जाते हैं कि स्वतंत्रता के समय सिंधी मुसलमानों में भी अलग राष्ट्र का विचार पनप रहा था। बंटवारे की राजनीति में विचारों की भूमिका पर बात करते हुए संजय चतुर्वेदी ने बताया कि पश्चिमोत्तर में एक बड़े इस्लामी प्रांत के विचार से ही सिंधी मुस्लिम नेता गुलाम हुसैन हिदायतुल्ला कितने असहज थे। उन्होंने कहा, “पंजाब के मुसलमानों के साथ हाथ मिलाना सिंधी मुसलमानों के लिए राजनीतिक आपदा होगी” (चतुर्वेदी, 2005, पृष्ठ 119)। स्वतंत्र भारत में मुस्लिम समुदाय के भविष्य पर पनप रही बेचैनी के बीच सत्ता के कई काल्पनिक विकल्प भी बताए गए। इस प्रकार पश्चिमोत्तर सीमावर्ती प्रांत में अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में खुदाई खिदमतगारों ने सीधे कांग्रेस से बात करना उचित समझा (चतुर्वेदी, 2005)। पाकिस्तान राष्ट्र के निर्माण के खिलाफ मुस्लिम समुदाय के भीतर ही उठ रहे विरोध तथा तर्कों को यह कहकर दबा दिया गया कि ‘एकजुट’ मुस्लिम राष्ट्र के असंभव विचार को संभव बनाने के लिए यह जरूरी है।

इस बात में अचरज नहीं होना चाहिए कि अंदरूनी राजनीति ने भी राष्ट्र निर्माण के एजेंडा में अपना योगदान किया था। ‘पाकिस्तान तथा राष्ट्रों का सौहार्द’ शीर्षक वाला अध्याय अंतरराष्ट्रीय जगत में बाहरी संप्रभुता के पहलू को समझाता है। उसमें इस्लामी देशों के साथ करीबी संबंधों को पाकिस्तान की विदेश नीति का बुनियादी सिद्धांत बताया गया है। ऐसी नीति के पीछे सार्वभौमिक मुस्लिम भाईचारे की स्थापना का विचार है, जबकि देश की विदेश नीति वास्तव में इसके खिलाफ है (अस्करी, 2013)। संयुक्त राष्ट्र संघ तथा गुटनिरपेक्ष देशों के आंदोलन में शामिल होने के बजाय ‘इस्लामिक संगठन’ में पाकिस्तान की भूमिका के संबंध में चर्चा को जितनी तवज्जो दी गई, उससे सत्ता तथा ज्ञान के गठबंधन का पता चलता है, जहां समाज में चल रहे विमर्श पर हावी होने के लिए जानकारी को तोड़ा-मरोड़ा जाता है।

पाकिस्तान राष्ट्र के निर्माण के बारे में अविश्वसनीय किस्से और पाकिस्तान की इतिहास की किताबों में लिखी दोहरे बंटवारे की घटनाएं सरकारी इतिहास लेखकों के पलायनवादी रुख की ओर इशारा करती हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि पाकिस्तान राष्ट्र के वैचारिक और संवैधानिक विकास को समझाने के लिए पाकिस्तानी पाठ्यपुस्तकें देश में रहने वाली आबादी के बारे में तथा पाकिस्तान की घरेलू अर्थव्यवस्था के बारे में सूचना बहुत विरले ही देती हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि पाकिस्तान राष्ट्र के वैचारिक और संवैधानिक विकास को समझाने के लिए पाकिस्तानी पाठ्यपुस्तकें देश में रहने वाली आबादी के बारे में तथा पाकिस्तान की घरेलू अर्थव्यवस्था के बारे में सूचना बहुत विरले ही देती हैं। इसलिए अपने क्षेत्र से बाहर की ऐतिहासिक घटनाओं तथा स्थानीय कल्पनाओं को इस्लामी पहचान के करीब लाना वर्तमान आवश्यकताओं के हिसाब से सही ठहरा दिया जाता है। अर्नेस्ट रेनन ने कहा है, “राष्ट्र के निर्माण के लिए इतिहास का गलत चित्रण आवश्यक है।” असंतुष्ट वर्तमान को अतीत के पुनर्निर्माण के जरिये संतुष्ट करना इतिहासकारों का ‘पेशेवर कामकाज’ है (हॉब्सबॉम, 2008)।

इतिहास लेखन में जनता

इतिहास लेखन में निचले वर्ग से आ रहे स्वर को विरले ही जगह मिलती है। मुगलों के आगमन के बाद और फिर औपनिवेशिक काल में उपमहाद्वीप में लिखा गया समूचा इतिहास सत्ता से जनता तक गया है, जिसमें राजा के दरबारियों और ब्रिटिश प्रतिनिधियों की लिखावट भी शामिल है। स्थिर राष्ट्र बनने के फेर में पाकिस्तानी पाठ्यपुस्तकों में भी इतिहास लिखते समय कुछ राजनीतिक घटनाओं को जगह दी गइ और ढेर सारे मूल कारणों को नजरअंदाज कर दिया गया। जैसा हॉब्सबॉम ने कहा है, “अतीत में अधिकतर इतिहास महिमामंडन के लिए और शायद शासकों के व्यावहारिक उपयोग के लिए लिखा गया। इतिहास का एक वर्ग तो अभी तक यही कर रहा है” (हॉब्सबॉम, 2008, पृष्ठ 267)। ‘पाकिस्तान स्टडीज’ को पहली बार पढ़ने पर पाठकों को लगता है कि पाकिस्तान से संबंध रखने वाले हर व्यक्ति की प्रकृति इस्लामी होती है और वह मुस्लिम राष्ट्र का ही हिस्सा है। सामंतवादी कुलीनों द्वारा दी गई यातना और भेदभाव को मुस्लिम जनता के सामने हिंदू दमन का नतीजा बताया गया है और पाकिस्तान की स्थापना के लिए सभी मुसलमानों के बलिदान को सराहा गया है (खोखर, 2013)। इसके बाद नागरिकों को वैचारिक राष्ट्र के लिए जिम्मेदार बताया गया है और इसीलिए उनसे इस्लामी शरिया के सिद्धांतों तथा व्यवहार के अनुरूप जीवन बिताने की अपेक्षा भी की गई है। राष्ट्र के प्रति अपने जीवन का बलिदान करने के लिए वे बाध्य हैं और उन्हें वफादार तथा राष्ट्रभक्त बने रहने का आदेश मिला है (खोखर, 2013)। इसी बीच ऐतिहासिक उपलब्धियों की चर्चा में लेखक लोगों की संस्कृति तथा गुणों की बात करते हुए विविधता को केवल उनकी भाषाओं - पंजाबी, सिंधी, बलोची और पश्तो तक ही सीमित रखते हैं। उसके बाद वे लोगों की सरल, शहरों पर केंद्रित जीवनशैली की बात करते हैं, जिसमें ललित कलाओं, विशेष त्योहारों तथा विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों का समावेश है। रोचक बात है कि पाकिस्तान की एक अलग संस्कृति पेश की जाती है, जिसकी जड़ अरबों और तुर्कों से जोड़ी जाती है। इस तरह उन गुणों पर जोर दिया जाता है, जो पाकिस्तानी नागरिकों के भीतर इसलिए होने चाहिए क्योंकि उनकी जड़ें इस्लामी इतिहास में हैं (रसूल, 2013)। किंतु पाकिस्तान की जनांकिकी की विविधता का पता पाकिस्तान में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी और पड़ोसी देशों में जाने वाली आबादी से चलता है, जिनकी कुल आबादी में बड़ी हिस्सेदारी है। यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान स्टडीज पहले तो समाज के मूलभूत यथार्थ पर पर्दा डालती है और बाद में ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा सामाजिक घटनाक्रम के बारे में भ्रामक जानकारी देती है।

बलूचिस्तान, शिया-सुन्नी विभाजन, इस्लाम की व्याख्या तथा अहमदियों का प्रश्न पाकिस्तान के सत्ताधीशों के स्वर से गायब रहता है (अली, 2008; लेवेस्क, 2013)। पाकिस्तान में इस्लामी विचारधारा की सर्वव्यापकता की आसान और छिछली व्याख्या ने समाज में गैर-मुसलमानों तथा गैर-सुन्नी मुसलमानों के अधिकारों की मांग खड़ी कर दी है। एकरूपता के कृत्रिम विचार के प्रति क्षोभ तथा पूर्ववर्ती पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के प्रति पश्चिमी पाकिस्तान के दंभ भरे व्यवहार को भौगोलिक विभाजन, ‘हिंदू गुरुओं’ के दुष्प्रचार, बंगाल में अवामी लीग पार्टी और भारत सरकार द्वारा किए जा रहे दमन के मुखौटे में छिपा दिया गया है (खोखर, 2013, पृष्ठ 44-45)। हालांकि पाठ्यपुस्तकों में लोकतंत्र तथा समानता को इस्लाम का आदेश बताया गया है, लेकिन समाज के रूढ़िवादिता के कारण अल्पसंख्यक समुदायों और महिलाओं पर होने वाली हिंसा आरंभिक स्तर की शिक्षा से गायब है। पाकिस्तानी सरकार की वैचारिक शुद्धता तो यह मानन भी भूल जाती है कि नवनिर्मित पाकिस्तान में बड़ी मुस्लिम आबादी स्वतंत्र भारत से ही आई थी। इसीलिए पाकिस्तान के निर्माण पर चर्चा के बाद पाठ्यपुस्तकें संवैधानिक विकास पर पहुंच जाती हैं। बंटवारे के दौरान आवाजाही की चर्चा से कतराना तथा यह बताने से कतराना कि धार्मिक भेदभाव तथा कुलीनों के हस्तक्षेप के बगैर सभी समुदायों ने जिस तरह यातना सही है, उसकी बात करने से कतराना दिखाता है कि यथार्थ की कितनी कमी है तथा मौखिक इतिहास का किस तरह दमन किया गया है।

ग्रामसी ने क्रोचे द्वारा लिखित यूरोप एवं इटली के इतिहास में संघर्ष गाथा के दौरान यथार्थ को नजरअंदाज किए जाने की आलोचना की है (ग्रामसी, 1971)। इसी की बात करते हुए ज्ञानेंद्र पांडेय ने संघर्षपूर्ण क्षणों के उल्लेख पर कहा हैः

“जब इतिहास को संघर्ष के इतिहास के रूप में लिखा जाता है तो उसमें ताकत, अनिश्चितता, प्रभुत्व और तिरस्कार, हानि और भ्रम के पक्ष को हटाकर संघर्ष को सामान्य बनाने, उसके घृणास्पद पहलू को निकाल देने और उसे निश्चित समाधान की ओर बढ़ने की गाथा के रूप में दिखाने की प्रवृत्ति होती है” (पांडेय, 2001, पृष्ठ 4-5)

1980 के दशक के आरंभिक वर्षों तक इतिहास को निचले तबके से ऊपर की ओर लिखने की एक नई प्रवृत्ति को राणाजित गुहा ने आगे बढ़ाया। ‘वैकल्पिक इतिहास’ लेखन में जनजातियों, स्थानीय जनता और महिलाओं के अब तक सुप्त पड़े स्वर को जगह देना इसकी विशेषता थी। इसके विपरीत ऐतिहासिक संघर्ष, विभाजन की यातनादायी यादों, लैंगिक प्रधानता तथा धार्मिक कट्टरता के बारे में पाकिस्तानी पाठ्यपुस्तकों का पूर्वग्रह बताता है कि इतिहास लेखन कितना प्रायोजित है और पाकिस्तान के भविष्य के सपने को कितना तोड़मरोड़कर पेश किया गया है (हाशमी, 2014; जीनतुन्निसा, 1989)। इस तरह इस्लाम की समानता की सराहना करने तथा महिलाओं की वास्तविक स्थिति के बीच में विरोधाभास पाठ्यपुस्तकों में आसानी से दिख सकता है। लड़कियों की शिक्षा तथा उनकी सामाजिक प्रगति से जुड़े मुद्दे घरों की चहारदीवारी के भीतर तय की गई उनकी भूमिका में खो गए हैं (रसूल, 2013)। इसी प्रकार विभाजन के चित्रण ने महिलाओं के मौखिक इतिहास - सरकारी अधिकारियों की यातनाओं की याद और उनकी सामाजिक वंचना, सीमा के दोनों ओर जबरदस्ती कराए गए पलायन तथा हिंसा के बारे में सरकार द्वारा बताई गई कहानी एवं वास्तविकता से उसके अंतर - को नजरअंदाज किया है, जबकि वास्तव में वही इतिहास का सत्य होना चाहिए (विरदी, 2013)। पाठ्यपुस्तकों में यथार्थ के तथ्यपरक चित्रण में नाकामी पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति के न्यूनतम और कृत्रिम विवरण में भी परिलक्षित होती है।

पाकिस्तान स्टडीज पाठ्यपुस्तकों के विश्लेषण के अंत में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अतीत की घटनाओं के गलत चित्रण के दौरान बाहरी तथा आंतरिक विसंगतियों की व्याख्या में अक्सर पूर्वग्रहों तथा झूठ का सहारा लिया जाता है। जैसा माइकल एपल ने कहा है कि पाठ्यपुस्तकों को निष्पक्ष सूचना का तटस्थ स्रोत माना जाता है, लेकिन अक्सर उन्हें एक विशेष धारणा को बढ़ावा देने तथा स्थापित राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था को सही करार देने के लिए वैचारिक साधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है (एपल, 1991)। ज्ञान के उदार समावेश तथा पाठ्यपुस्तकों में ज्ञान के उदार समावेश तथा इतिहास लेखन के सही चित्रण पर उठाया गया व्यापक प्रश्न समावेशी इतिहास लेखन के बारे में प्रश्न भर नहीं है बल्कि यह भावी पीढ़ियों के प्रति जिम्मेदारी का भान कराने एवं राष्ट्र के समुदायों में समझ एवं बारीक विचार को बढ़ावा देने के लिए है। पाकिस्तान इसे प्रोत्साहित करने में असफल रहा है।

(नैना सिंह इंस्टीट्यूट ऑफ चाइनीज स्टडीज में रिसर्च इंटर्न हैं। उन्हें साउथ एशियन यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली से अंतरराष्ट्रीय संबंधों में स्नातकोत्तर उपाधि मिली है और अभी वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशंस में एमफिल कर रही हैं)

संदर्भ

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