भारत-पाक संबंध 2017 में भी तल्ख रहने की संभावना
Sushant Sareen

2017 आजादी का 70वां वर्ष है और भारत तथा पाकिस्तान के बीच बंटवारे का भी। 69वें वर्ष यानी 2016 में दोनों देशों के पहले से ही तल्ख रिश्ते और भी खराब हुए और इस बात की संभावना न के बराबर है कि 70वें वर्ष में उनके विद्वेष भरे रिश्तों में कोई महत्वपूर्ण पड़ाव आएगा। अधिक से अधिक वही हो सकता है, जो अतीत में अनगिनत बार हो चुका है - एक-दो कदम आगे, एक-दो कदम पीछे। दूसरे शब्दों में कहें तो एक-दूसरे के प्रति दोनों देशों के बर्ताव में दिखावटी बदलाव तो आ सकता है, लेकिन रणनीतिक छोड़िए, ऐसा कोई महत्वपूर्ण बदलाव तक नहीं होगा, जो संबंधों को सामान्य बनाने का रास्ता तैयार कर सके।

वर्ष 2016 कुछ वायदों के साथ शुरू हुआ। 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया की यात्रा के बहाने विदेश सचिव को इस्लामाबाद भेजकर, उफा और उसके बाद पेरिस जलवायु सम्मेलन में नवाज शरीफ से मुलाकात कर, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) को पाकिस्तानी एनएसए के साथ मुलाकात करने के लिए बैंकॉक भेजकर पाकिस्तान से संबंध सामान्य करने के लिए एक के बाद एक कदम उठाए। दिसंबर 2015 के आरंभ में भारत और पाकिस्तान समग्र द्विपक्षीय वार्ता एक बार फिर आरंभ करने के लिए सहमत हो गए। उसी महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनके जन्मदिन पर बधाई देने तथा उनकी नवासी के विवाह पर शुभकामनाएं देने के लिए अचानक लाहौर में उतरकर सभी को हैरत में डाल दिया।

लेकिन नया वर्ष आरंभ होने से एक दिन पहले पाकिस्तानी आतंकवादियों ने पठानकोट एयरबेस पर हमला कर दिया। पाकिस्तानी सरकार के घात और धोखेबाजी भरे दुस्साहस ने उन लोगों को छोड़कर सभी को सदमे में डाल दिया, जो लोग उसकी सभी हरकतों को जानबूझकर नजरअंदाज कर देते हैं। पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में अशांति भड़काने और उसका राजनीतिक फायदा उठाने की जो कोशिश की थी, उससे दोनों के संबंधों में दरार बहुत बढ़ गई। उसके बाद संबंध बिगड़ते ही रहे और अंत में नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर सर्जिकल स्ट्राइक हुए और गोलीबारी भी की गई। बहुत दरार आई। भारत ने इसके साथ ही पाकिस्तान को अलग-थलग करने का कूटनीतिक अभियान भी चला दिया और सिंधु जल समझौते जैसे बिना हथियार के उपायों पर पुनर्विचार भी आरंभ कर दिया, जिससे पाकिस्तान को तगड़ा नुकसान पहुंचाया जा सकता था।

लेकिन 2017 की पूर्वसंध्या पर एक बार फिर दोनों के रिश्तों में जमी बर्फ पिघलने के संकेत मिल रहे हैं - पाकिस्तानी सैन्य चौकियों पर भारतीय सेना की भीषण गोलीबारी के बाद जब पाकिस्तानी डीजीएमओ ने भारत के डीजीएमओ से बात की, उसके बाद से एलओसी पर शांति ही है; प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवाज शरीफ को उनकी सालगिरह पर बधाई (ट्विटर के जरिये) दी; भारत ने संभवतः यह देखने के लिए नगरोटा हमले का जवाब नहीं दिया कि पाकिस्तान के नए सेना प्रमुख अपने पूर्ववर्तियों से अलग नीति अपनाएंगे या नहीं; पाकिस्तानियों ने सद्भावना का परिचय देते हुए 200 से अधिक भारतीय मछुआरों को रिहा कर दिया; पाकिस्तानी सेना की दक्षिणी कमान के प्रमुख ने भारत को सीपीईसी में शामिल होने और ‘पाकिस्तान विरोधी गतिविधियां एवं तबाही रोककर भावी विकास के परिणामों का साथ मिलकर लाभ उठाने’ का न्योता दिया (जिसका वास्तव में कोई मतलब नहीं है और यह संकेत भर है)। कुछ पाकिस्तानी अखबार और विश्लेषक पहले ही कयास लगाने लगे हैं कि मार्च 2017 में विधानसभा चुनाव समाप्त होने के बाद दोनों देश एक बार फिर वार्तालाप शुरू कर सकते हैं। इसी बीच एक अनाम भारतीय राजनयिक के तथाकथित साक्षात्कार से लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी एक बार फिर पाकिस्तान की ओर हाथ बढ़ाएंगे।

यदि वास्तव में पाकिस्तान से संबंध बढ़ाने का एक और प्रयास 2017 में किया जाता है तो उसका परिणाम भी संभवतः पहले के प्रयासों से अलग नहीं होगा यानी असफलता ही हाथ लगेगी। इसका कारण एकदम सीधा हैः भारत और पाकिस्तान के बीच की स्थितियों में घरेलू या कूटनीतिक स्तर पर ऐसा कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, जिससे किसी परिणाम की उम्मीद बढ़ सके। भारत में कई लोगों को यह यकीन होता दिख रहा है कि पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय जगत में उसकी औकात दिखा दी गई है और ऐसी स्थिति में ला दिया गया है, जहां उसके पास समझदारी से काम करने तथा जिम्मेदार बनने के अलावा कोई और चारा नहीं बचेगा और इस कारण उसे आतंकवाद के बारे में अपने वायदे ही पूरे नहीं करने पड़ेंगे बल्कि कश्मीर पर अपना झूठा दावा भी छोड़ना होगा। लेकिन वास्तविकता अलग है, कम से कम पाकिस्तान के नजरिये से तो ऐसा ही लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत के प्रति शत्रुभाव खत्म करने के लिए पाकिस्तान न तो बाध्य है और न ही उसे इसमें कोई फायदा नजर आ रहा है।

हालांकि पाकिस्तान को कश्मीर के मुद्दे पर किसी तरह की बढ़त हासिल नहीं हुई है और कम से कम दक्षिण एशिया में तो भारत ने उसे अलग-थलग करने में सफलता हासिल कर ली है, लेकिन पाकिस्तानियों को यकीन है कि सामने आ रहे नए सामरिक समीकरण कश्मीर तथा दक्षिण एशिया में उन्हें हुए नुकसानों की पूरी तरह भरपाई कर देंगे। अमेरिकी पाकिस्तान की धोखाधड़ी का पर्दाफाश करने और अफगानिस्तान में उसके फरेब के लिए उसे सजा देने को अभी तक तैयार नहीं हुआ है। चीनी पाकिस्तान में निवेश कर रहे हैं और उसकी बीमार अर्थव्यवस्था का कायापलट करने का वायदा कर रहे हैं। इसके अलावा चीनियों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान का समर्थन मिला है और वे पाकिस्तान के हितों की रक्षा करते रहेंगे। इससे भी बढ़कर पाकिस्तानी सोचते हैं कि अमेरिका उसके विरोध में आ भी गया तो वे चीन के आर्थिक, कूटनीतिक, सैन्य तथा राजनीतिक समर्थन के सहारे पार हो जाएंगे।

इस बीच रूसी पाकिस्तान के करीब आ रहे हैं और इस्लामिक स्टेट को दूर रखने के लिए तालिबानों को मदद देने की पाकिस्तान की अफगान नीति का एक तरह से समर्थन कर रहे हैं। चीन, रूस और पाकिस्तान के बीच पनप रहा गठबंधन पूरे क्षेत्र की सामरिक तस्वीर बदल देगा। इतना ही नहीं ईरानी और मध्य एशियाई देश पाकिस्तान के साथ लगातार संपर्क में हैं और अरब जगत पाकिस्तान से दूर होने का तैयार नहीं दिख रहा। हालांकि पाकिस्तान के भीतर भ्रम में रहने और गलत अनुमान लगाने की असीमित क्षमता है, लेकिन जहां तक पाकिस्तानियों की बात है तो वे यही मानते हैं कि भारत के साथ समझौते की कोई जरूरत नहीं है और वे भारत का मुकाबला सफलता के साथ कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के साथ पहल करने से न केवल पाकिस्तान की हिम्मत बढ़ जाएगी बल्कि उसकी यह धारणा भी मजबूत हो जाएगी कि भारत के मुकाबले उसका पलड़ा भारी है और भारत अब पाकिस्तान से टकराव के संभावित नतीजों को टालने के लिए बदहवासी में काम कर रहा है।

बाहर से तो पाकिस्तान की स्थिति बेहतर लग रही है, लेकिन भीतर भारत के साथ संबंध सुधारने की इच्छा नजर नहीं आ रही है। सेना भारत के साथ किसी भी प्रकार के समझौते के खिलाफ ही है। जनमत भी भारत के पक्ष में नहीं है। इसका मतलब है कि असैन्य सरकार चाहे भारत के साथ संबंध सुधारने के पक्ष में रही हो - और यह बहुत बड़ी बात है क्योंकि जमीनी स्थितियां देखने पर ऐसी इच्छा नजर नहीं आती - ताकतवर सेना और विरोध में खड़ी जनता वैसा होने नहीं देगी। ऐसा न हो तो भी असैन्य सरकार कूटनीतिक स्तर पर भारत के खिलाफ जहरीले दुष्प्रचार के अभियान में सबसे आगे रही है - पाकिस्तान में आतंकवाद में भारत के शामिल होने के ‘सबूत’ वाला एक और ‘पुलिंदा’ ताजा उदाहरण है - और उसने ऐसे कई मोर्चे खोल दिए हैं, जहां से वापस लौटना उसके लिए मुश्किल होगा। किसी भी सूरत में नवाज शरीफ का खेमा यही सोचता है कि वह 1990 के दशक की नीति पर चल सकता है, जिसमें बातचीत और शत्रुता (जिसका सबसे बड़ा उदाहरण आतंकवाद का निर्यात था) एक साथ चलते रहते थे।

यह स्पष्ट है कि जब तक पाकिस्तान इन बड़े भ्रमों और कल्पनाओं से मुक्त नहीं होता तब तक किसी भी स्तर पर उसके साथ बातचीत करना बेकार ही होगा और पाकिस्तान को उसके घटिया व्यवहार के लिए पुरस्कार देने जैसा होगा। घरेलू राजनीति को भारत की पाकिस्तान नीति में शामिल नहीं होने देना और भी महत्वपूर्ण है। चुनाव को ध्यान में रखकर पाकिस्तान के करीब जाना या उसके खिलाफ जाना भी बड़ी गलती होगी और इससे भारत की पाकिस्तान नीति में से दृढ़ निश्चय का वह भाव खत्म हो जाएगा, जो विरोधी को साफ दिखना चाहिए। उसके बजाय इससे विनाशकारी हताशा पसर जाएगी, जो भारत की विश्वसनीयता के लिए बहुत घातक साबित होगी।

जो स्थितियां हैं, उन्हें देखते हुए यह लगभग स्पष्ट है कि पाकिस्तान के साथ किसी भी पहल से निराशा ही हाथ लगेगी, इसलिए इससे बचना चाहिए। यही समय है, जब पाकिस्तान के नजरिये में या भारत को शत्रु मानने की उसकी धारणा में किसी तरह का बदलाव नहीं आने पर भी उसके साथ शांति को संभव मानने की गलती बार-बार दोहराने की 69 वर्ष लंबी नीति छोड़ दी जाए। 70वें वर्ष में भारत को तब तक रणनीतिक रूप से अलग रहने की नीति अपनानी चाहिए, जब तक ऐसी स्थिति न आ जाए, जिसमें पाकिस्तान के साथ दोबारा संपर्क भारत के लिए फायदे की बात हो। अगर एक दशक तक या उससे भी लंबे अरसे के लिए ऐसा करना पड़े तो किया जाए। समय से पहले हाथ मिलाने या नरम पड़ने का मतलब एक कदम बढ़ाने और एक कदम पीछे खींचने की पुरानी नीति पर लौटना ही होगा।

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