सैन्य मामलों में लंबित परिवर्तनः भारतीय सेना
Lt General Davinder Kumar, PVSM, VSM Bar, ADC (Retd.)

इतिहास साक्षी है कि, उन्नत हो रही प्रौद्योगिकी और बदलती रणनीति ने युद्ध लड़ने के तरीके में क्रांति ला दी है। हालांकि, प्रौद्योगिकी ने जितनी तेजी से सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) एवं मीडिया के क्षेत्र में व्यापक रूप से अपनी पैठ बनाई है, पहले कभी भी प्रौद्योगिकी का व्यापक और प्रभावी रूप में इतना तीव्र विकास नहीं देखा गया। इनकी मदद से वैश्वीकरण के जरिये दुनिया आपस में करीब आई है और ये आर्थिक विकास के वाहक बन रहे हैं। इसने न केवल एक नया सुरक्षा प्रतिमान गढ़ा है, बल्कि युद्ध लड़ने के तरीकों में भी व्यापक बदलाव ला दिया है। आज, शक्ति के नए मानकों के रूप में सूचना एवं प्रौद्योगिकी ने युद्धक्षेत्र को डिजिटल डोमेन में बदल दिया है। यह बदलाव, सैन्य मामलों में मौजूदा क्रांति का केंद्रबिंदु है। सैन्य मामलों में क्रांति (आरएमए) के इस चरण में ‘तालमेल और प्रभाव’ इसके केंद्र में है, जो संचार नेटवर्क के जरिये कनेक्टिविटी और जानकारी के हस्तांतरण से उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार यह युद्ध की नेटवर्क केंद्रित अवधारणा को जन्म दे रही है। अनुठे और ज्यादा प्रभावी रूप से युद्ध छेड़ने के लिए, एक राष्ट्र द्वारा सुसंगत तरीके से अपनी सैन्य, सिद्धांत, प्रशिक्षण, संगठन, उपकरण, रणकौशल, संचालन और रणनीति को बदलने के लिए मौके उत्पन्न करना ही ‘आरएमए’ कहलाता है। अतः आरएमए को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है। ‘‘युद्ध की प्रकृति में प्रौद्योगिकियों के अभिनव प्रयोग से एक बड़ा बदलाव लाना, जो सैन्य सिद्धांत और परिचालन अवधारणाओं में नाटकीय परिवर्तन से जुड़ कर, मौलिक रूप से संचालन के चरित्र और व्यवहार में प्रतिवर्तन कर सके।’’ आरएमए के निम्नलिखित प्रमुख घटक हैं-

  • राजनीतिक इच्छाशक्ति
  • सिद्धांत
  • संगठन में बदलाव
  • प्रौद्योगिकी और
  • संचालन अवधारणाएं

2004 के भारतीय सेना के सिद्धांत में भारत द्वारा परिकल्पित आरएमए पर एक पूरा खंड दिया गया है। तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल एन सी विज ने प्रस्तावना में लिखा हैः ‘‘अन्य सभी आधुनिक सशस्त्र बलों की तरह, भारतीय सेना भी सैन्य मामलों में क्रांति से काफी प्रभावित रही है और इसके प्रौद्योगिकी के विकास में काफी उन्नति हुई है। इसने संगठन और संचालन के तरीके में बदलाव के साथ ही रणनीतिक सोच में परिवर्तन को भी जरूरी बना दिया है। नतीजतन, सैन्य सिद्धांतों, हथियार प्रणालियों और सैन्य बल संरचनाओं की समीक्षा की जरूरत है। इक्कीसवीं सदी के लिए हमारा लक्ष्य, अच्छी तरह से सुसज्जित और बेहतर संरचित सैन्य बल होना है, जिसे विभिन्न परिस्थितियों में प्रभावी रूप से प्रतिक्रिया देने के लिए सक्षम बनाया जाए और वह भविष्य की प्रत्येक चुनौती के सामना के लिए सदैव स्वयं को तत्पर रख सके।’’ भारत, इस प्रकार युद्ध के उभरते प्रकृति को पहचानता है, लेकिन अपनी निम्नलिखित जमीनी हकीकतों से विवश होकर पश्चिमी शैली की आरएमए को तेजी से नहीं अपना सकता है।

जमीनी हकीकत

  • भारत की प्राथमिक सुरक्षा चुनौती अनिवार्य रूप से एक ही रहती है और वह है, परंपरागत रूप से पाकिस्तान को भयभीत कर और चीन को समझा-बुझा कर अपने सीमा की सुरक्षा करना।
  • एक यथास्थिति शक्ति होने के नाते, भारत की सुरक्षा संस्कृति हमेशा से ही आक्रमण करने के स्थान पर प्रतिरक्षा को प्राथमिकता देने की रही है। अतः आरएमए की प्रकृति, भारतीय सेना के वर्तमान स्वरूप के अनुकूल फिट नहीं बैठती है, खासकर राजनीतिक निर्णय निर्माताओं के मन में।
  • 1962 के युद्ध को यदि छोड़ दें, तो भारतीय सेना ने सभी सैन्य ऑपरेशनों में उम्दा प्रदर्शन किया है। इससे भारतीय सेना को लेकर राजनीतिक नेतृत्व में यह छवि गई कि भारतीय सेना, अपने वर्तमान स्वरूप में, किसी भी परिस्थिति का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम है। इसी वजह से इस मामले में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी देखी जा रही है।
  • सैन्य बलों का व्यापक उपयोग घुसपैठ रोकने और आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन में किया जा रहा है, जिसमें काफी संख्या में सैनिकों की आवश्यकता पड़ती है और इसे सामरिक स्तर पर आयोजित किया जाता है।
  • भारतीय सेना की भूमिका, इसके पश्चिमी शैली की आरएमए में बदलने की प्रक्रिया को जटिल बना देती है।
  • आधुनिकीकरण के लिए संसाधन सीमित हैं।
  • एक खंडित उच्च रक्षा संगठन, नौकरशाही नियंत्रण और सुस्त रफ्तार से चलने वाली और अपारदर्शी खरीद प्रक्रिया
  • रक्षा औद्योगिक आधार का समीप नहीं होना और अनुसंधान एवं विकास तथा विनिर्माण के मोर्चे पर निराशाजनक प्रदर्शन

अतः, भारत को आरएमए अपनाने के लिए एक निश्चित समयावधि में ‘‘क्रमिक सुधार’’ और डिजिटल रणक्षेत्र में मुकाबले के लिए एक औद्योगिक युग की सेना से निकलकर सूचना व प्रौद्योगिकी उन्मुख, सक्षम और फुर्तीला सैन्य शक्ति बनने के लिए घरेलू उपाय ढूंढ़ने होंगे।

इस प्रकार के दृष्टिकोण से मौजूदा ताकत को बढ़ाने, नए कौशल को विकसित करने, कल्पनाशीलता और उभरते माहौल से निपटने के लिए नवीन दृष्टिकोण, विकसित के लिए प्रयास करने की क्षमता को बल मिलता है। हमें यह कल्पना करने की जरूरत है कि भविष्य की हमारी सेना कैसी हो और उसी के अनुसार उसकी संरचनाओं, हथियारों, रसद और प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है। ऐसा करते समय, प्रौद्योगिकीय और परिचालन दोनों स्तरों पर आश्चर्यजनक प्रगति हो, इसके लिए एक लचीली योजना बनानी होगी।

भारतीय सेना को अलग-अलग इलाकाई परिस्थितियों में युद्ध के लिए उच्चस्तरीय तत्परता बनाए रखने और संघर्ष के पूरे आयाम में संचालन की योग्यता की जरूरत है। भारतीय सेना का सिद्धांत, युद्ध के लिए एक बेहतर समझ वाला दृष्टिकोण रेखांकित करता है और इसके व्यावहारिक उपयोग के लिए आधार प्रदान करता है। जहां, संसाधन की कमी सभी सेनाओं को पेश आ रही है, वहीं भारतीय सेना को अभिनव दृष्टिकोण अपनाना होगा और संसाधनों का सबसे बेहतर उपयोग करना होगा। प्रौद्योगिकी और सूचना का दोहन सहयोग और प्रयास की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए किया जाएगा। हमारे मौजूदा प्रणालियों और समय के साथ विकसित की जाने वाली प्रणालियों के बीच हमेशा ही प्रौद्योगिकीय अंतर बना रहेगा। हमें असंगतता को जांचनी होगी और गैर-प्रौद्योगिकी क्षमताओं, प्रक्रियाओं व उसे दूर की प्रक्रियाओं को विकसित करना होगा। इसके लिए तकनीकी जानकारी, नवाचार और अनुकूलन की आवश्यकता पड़ेगी।

सूचना की लड़ाई में कमान और नियंत्रण की लड़ाई, खूफिया सूचना आधारित युद्ध, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध (ईडब्ल्यू), मनोवैज्ञानिक युद्ध, साइबर युद्ध, आर्थिक सूचना युद्ध और नेटवर्क केंद्रित युद्ध आपस में मिलकर एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा है और आईसीटी संचालित आरएमए का केंद्रबिंदु बन गया है। यह हमारे शस्त्रागार की कमजोरी प्रतीत होती है, जिस पर तत्काल और केंद्रित होकर ध्यान देने की जरूरत है।

2004 में जारी किया गया भारतीय सेना का सिद्धांत दो भागों में था। भाग 1, जो खुले क्षेत्र (ओपन डोमेन) के लिए है, प्रत्येक पांच साल पर और वर्गीकृत भाग 2 दस साल के बाद संशोधित किया जाना था। एक ओर जहां हमें संशोधित और अद्यतन संस्करण का इंतजार है, वहीं यह स्पष्ट है कि सेना अभी तक किसी कार्य योजना और क्षमता निर्माण के लिए लेखा परीक्षा (ऑडिट) के साथ खुले क्षेत्र में भी सामने नहीं आई है। इसका उल्लेख भी नहीं है कि भारत की व्यापक राष्ट्रीय शक्ति के लिए किस प्रकार से क्षमताओं को एकबद्ध किया जाए और उसका आकलन किया जाए। अतः, जब तब मंशा तो जाहिर कर दी जाती है, लेकिन सटीक क्रियान्वयन और उसके लिए जरूरी समय सीमा नहीं बताई जाती। परिणामतः विकास को काफी हद तक अव्यवस्थित कर दिया जाता है और इसे व्यक्तित्व आधारित बना दिया जाता है। परियोजनाओं के अनुमोदन, निष्पादन, वितरण और संचालन में अत्यधिक विलंब से परिस्थिति आगे और जटिल होती जाती है। अतः वास्तविकता यह है कि सिद्धांत के होते हुए भी, भारतीय सेना अब भी आरएमए के लिए इंतजार ही कर रही है।

एक दशक से अधिक वर्षों की राजनीतिक उपेक्षा के कारण, यह एक गंभीर रणनीतिक कमजोरी बन गई है। सी4आईएसटीएआर क्षमताओं, शक्तिशाली मिसाइल बल, अवसंरचना, सटीक अनुसंधान एवं विकास और एक मजबूत प्रतिरक्षा औद्योगिक आधार पर विचार करते समय इसकी तुलना चीन, जो अपने युद्धक क्षमताओं के रूप में तीन दशक से भी अधिक से आधुनिकीकरण, सैद्धांतिक परिवर्तन और संगठन परिवर्तन की प्रक्रिया से और वर्तमान में समेकन की प्रक्रिया के साथ साइबर क्षेत्र व बाहरी क्षेत्र को एकीकृत करने की प्रक्रिया से गुजर रही है, से करना चाहिए।

हमें एक भारतीय संदर्भ में आरएमए के प्रत्येक घटक का विश्लेषण करने और अब भी भारतीय सेना आरएमए के लिए इंतजार क्यों कर रही है, का पता लगाने का प्रयास करना चाहिए।

संगठन

भारतीय सेना अभी भी एक औद्योगिक, प्लेटफॉर्म केंद्रित वातावरण में अंतिम युद्ध के लिए संगठित है। नेटवर्क केंद्रित सूचना युग में युद्ध के डिजिटल मैदान के लिए भारतीय सैन्य संगठन में तत्काल और ध्यान केंद्रित परविर्तन की अत्यंत आवश्यकता है। इसमें लंबी दूरी के सटीक हथियार, युद्ध के मैदान में लगभग पूर्ण पारदर्शिता और पूरे परिदृश्य (एनबीसी से असममित और ओओडब्ल्यू) में देश के सभी भागों में और सभी स्तरों (सामरिक, परिचालन और रणनीतिक) पर बहुत तीव्र गति के संचालन की आवश्यकता है।

जहां, सरकार को अविलम्ब रक्षा स्टाफ के प्रमुख की नियुक्ति करनी चाहिए, वहीं नए संगठनों और क्षमताओं के लिए संसाधन और सामर्थ्य पैदा करने हेतु संगठन में परिवर्तन की तत्काल आवश्यकता है। प्रौद्योगिकी और आउटसोर्सिंग के उपयोग के माध्यम से रसद श्रृंखला को कारगर बनाने के लिए प्रभावी और कठोर निर्णय लेने की आवश्यकता है। संशोधित रणनीति और व्यावहारिक सिद्धांत, अग्निशक्ति में परिमाणात्मक वृद्धि, गतिशीलता और बल गुणकों को शामिल करने के मद्देनजर संसाधनों को जारी करने के लिए लड़ाकू इकाइयों की निष्पक्षता से जांच की भी आवश्यकता है।

पाकिस्तान को रोकने की हमारी रणनीति और हमारे सिद्धांत के आक्रामक रुख की निश्चित रूप से एक समीक्षा की आवश्यकता है। संशोधित सिद्धांत के तहत एक परमाणु वातावरण में उत्तरजीविता, धोखे, धारणा प्रबंधन, गतिशीलता, एकीकृत नेटवर्क, इलेक्ट्रॉनिक और ऑप्टिकल युद्ध पर जोर देने के साथ वायु सुरक्षा, खुफिया, निगरानी, अग्नि शक्ति, विशेष अभियानों, ध्यान केंद्रित रसद और अन्य बल गुणकों को कई स्तरों पर आक्रामक कार्रवाई के लिए शामिल किया जाना चाहिए ताकि रात्रि लड़ाई, निगरानी और खुफिया शक्ति से मुकाबला किया जा सके। इन क्षमताओं को एक एकीकृत थिएटर कमांड के तहत उचित कमान और नियंत्रण तत्वों के साथ विशिष्ट मिशन के लड़ाई समूहों में विकसित किया जा सकता है। इन क्षमताओं की उपयोगिता राजनीतिक उद्देश्य के अनुरूप करनी होगी और निश्चित रूप से यह व्यापक राष्ट्रीय शक्ति का एक हिस्सा होना चाहिए।

चूंकि ये विचार संघर्ष से प्रभाव आधारित परिचालनों की ओर एक सैद्धांतिक हस्तांतरण का संकेत करते हैं, इसके लिए एक गंभीर और विस्तृत विचार-विमर्श की आवश्यकता होगी। मसला यह है कि जब इनमें से अधिकांश चीजें 2004 के सेना के सिद्धांत में इरादे के रूप में शामिल किए गए हैं, वहीं इन क्षमताओं का जमीन पर होने और युद्ध के हमारे प्रयास में सम्मिलित होने का सबूत नगण्य है।

इसी तरह के प्रयास हमारे पूर्वी मोर्चे पर भी किए जाने की जरूरत है। एक माउंटेन स्ट्राइक कोर की स्थापना से हमें एक अद्वितीय एक संगठन शक्ति प्राप्त होगी, जो न केवल हमारे विरोधी की क्षमताओं को नकारेगी बल्कि हमें लाल रेखाओं के दोहन करने की क्षमता भी प्रदान करेगी। हमारा ध्यान प्रभावी रूप से साइबर स्पेस, मिसाइल और बाह्य अंतरिक्ष युद्ध के क्षेत्र में व्याप्त विषमता को दूर करने पर होना चाहिए। राजनीतिक प्रशासन को पाकिस्तान और चीन के विरुद्ध गंभीर मतभेदों के बारे में और संगठन बदलाव की अत्यंत और अपरिहार्य जरूरत के बारे में निश्चित रूप से बताया जाना चाहिए, विशेषकर जब दो मोर्चों पर युद्ध में संलग्न हों, अभी भी सीआई/सीटी अभियानों में संलग्न हैं।

सुझाव है कि हम एक शुरुआत करें और इस तरह के संगठनों और क्षमताओं का समयबद्ध तरीके से निर्माण करें, उनका दोहन करें, सूचना युक्त वातावरण में प्रशिक्षण और अभ्यास करें। धरातल पर भारत की विशिष्ट आरएमए को साकार करने की दिशा में बहुप्रतिक्षित इन प्रयासों को पूरा किया जाना चाहिए।

प्रौद्योगिकी और सैन्य आधुनिकीकरण

स्वदेशी तकनीक को विकसित करने में हमारा रिकॉर्ड और संबंधित रक्षा औद्योगिक आधार उत्साहजनक नहीं रहा है। हम लगातार अपने उपकरणों के सत्तर प्रतिशत आयात कर रहे हैं, जो देश को बहुत कमजोर बनाता है। परियोजनाओं के अनुमोदन और निष्पादन में अत्यधिक विलंब से जमीनी हालात, और अधिक जटिल हो जाते हैं। हमें ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के माध्यम से वर्तमान सरकार द्वारा दिखाए जा रहे राजनीतिक इच्छाशक्ति का लाभ लेने की जरूरत है। नीचे के पैराग्राफ में, हम भारतीय सेना में आरएमए को साकार करने के लिए महत्वपूर्ण परियोजनाओं में से कुछ की स्थिति की जांच करेंगे।

एफ-आईएनएसएएस (फ्यूचर इन्फैंट्री सोल्जर ऐज ए सिस्टम)

2007 में, सेना द्वारा इन्फैंट्री आधुनिकीकरण के लिए अब तक का सबसे बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इसका उद्देश्य था सेना को ‘‘पूर्ण नेटवर्क, डिजिटली संयमित इक्कीसवीं सदी का योद्धा’’ में परिवर्तित करना। ‘‘भविष्य के पैदल सैनिकं’’ को अग्नि शक्ति, उसकी स्वयं की और समर्थन के लिए अप्रत्यक्ष हथियारों के उपयोगकर्ता के स्थान पर सेंसर में बदलने का लक्ष्य बनाया जा रहा है।

परियोजना में न केवल भारतीय इन्फैंट्री के लिए अभिनव राइफल प्रणाली की बहुप्रतिक्षित मांग को पूरा किया जाना शामिल था, बल्कि इसे रात्रि दृष्टि क्षमता से युक्त करना; थर्मल, रासायनिक और जैविक सेंसर; एनबीसी के माहौल में काम करने की क्षमता, हेड-अप डिस्पले के साथ एकीकृत हेलमेट, शीर्ष जीपीएस प्रणाली और अत्याधुनिक संचार से युद्ध स्थल की पारदर्शिता आदि को भी शामिल किया गया है। इसका उद्देश्य सैनिक को एक ‘‘स्वयं संचालित युद्ध मशीन’’ बनाने के लिए उसकी मारक, उत्तरजीविता और गतिशीलता में वृद्धि को सुनिश्चित करने के लिए उसे उपकरणों से लैस करना है। सैनिकों द्वारा ढ़ोए जाने वाले वजन को लगभग आधे तक कम करने की योजना बनाई गई है।

पहले चरण में पैदल सेना के सिपाही को, विविध कार्यों को करने में सक्षम एक मॉड्यूलर हथियार प्रणाली से युक्त किया जाना था और इस चरण को 2015 तक पूरा किया जाना था। भारतीय सेना ने इस कार्यक्रम के जरिये 2020 तक अपने पूरे 465 पैदल सेना और अर्द्धसैनिक बटालियनों को आधुनिक बनाने का लक्ष्य बनाया है।

हालांकि भारतीय सेना, जनवरी 2015 में दो अलग-अलग परियोजनाओं के पक्ष में एफ-आईएनएसएएस कार्यक्रम को छोड़ने का निर्णय लिया था। इस नए कार्यक्रम के दो घटकों होंगेः पहला भविष्य की पैदल सेना को उत्तम उपलब्ध आक्रमण राइफल, कार्बाइन और हेलमेट और बुलेटप्रूफ वेस्ट जैसे व्यक्तिगत उपकरण से युक्त करना; और दूसरा घटक है युद्धक्षेत्र प्रबंधन प्रणाली (बीएमएस)। इस प्रकार सेना ने अपने आठ वर्ष बर्बाद किए हैं। अब कम से कम पहले घटक के उपलब्ध होने तक और चार से पांच साल तथा उसके बाद बीएमएस को शामिल करने और परिचालित होने के लिए कम से कम दो से तीन साल तक इंतजार करना होगा। इस बीच में, भारतीय सेना आरएमए का इंतजार करेगी!

युद्धक्षेत्र प्रबंधन प्रणाली (बीएमएस)

युद्धक्षेत्र प्रबंधन प्रणाली (बीएमएस), एक ऐसी प्रणाली है जिसे सैन्य इकाई के मुख्यालय में क्रियान्वित करने के लिए, सैनिक को कमान और नियंत्रण को बढ़ाने के बारे में बताने के लिए, परिस्थितिजन्य जागरूकता बढ़ाने और जानकारी हासिल कर उसको एक सुत्र में बांधकर और उसमें सुधार कर निर्णयन की क्षमता को बढ़ाने के लिए अपनाई जाएगी। इसकी अवधारणा 2002 में बनी थी। इसका उद्देश्य था मुख्य रूप से सामरिक कमान, नियंत्रण, संचार और खुफिया (टीएसी सी3आई) प्रणाली को विस्तारित कर इकाई मुख्यालय तक पहुंचाना।

आधुनिक लड़ाकू बल के उदाहरण के रूप में पाकिस्तानी सेना एकीकृत युद्धक्षेत्र प्रबंधन प्रणाली का उपयोग कर रही है जिसे पाक-आईबीएमएस (रहबर) कहा जाता है।

भारतीय सेना की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना, 40 से 50 हजार करोड़ रुपये की अनुमानित लागत वाली परियोजना को माना जा सकता है। इसे रक्षा अधिग्रहण परिषद (डीएसी) ने ‘’मेक इन इंडिया’’ परियोजना के तहत जुलाई 2013 में मंजूरी दी थी। इस पर ध्यान नवंबर 2013 से दिया गया था।

एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में भारतीय कंपनियों के दो संघों को एक ‘‘युद्धक्षेत्र प्रबंधन प्रणाली’’ (बीएमएस) विकसित करने की परियोजना दी गई है। रक्षा मंत्रालय (एमओडी) ने 25 फरवरी, 2015 को परियोजना के लिए ‘‘विशेष प्रयोजन कंपनियों’’ के रूप में रजिस्टर करने के लिए संघों - पहला बीईएल और रोल्टा इंडिया से मिलकर बना हुआ, और दूसरा टाटा पावर एसईडी और लार्सन एंड टुब्रो (एल एंड टी) से मिलकर बना हुआ, को निर्देश दिए।

इन विकास एजेंसियों में से प्रत्येक को अलग से तीन साल की समय सीमा में चार प्रोटोटाइप से मिलकर बनी एक कार्यरत बीएमएस विकसित करनी होगी। प्रत्येक बीएमएस में पहाड़, मैदान, रेगिस्तान और जंगल के क्षेत्र होंगे। रक्षा मंत्रालय लगभग 67 लाख डॉलर की अनुमानित विकास लागत का 80 प्रतिशत की प्रतिपूर्ति करेगी। रक्षा मंत्रालय बीएमएस अनुबंध में बहुत तेजी से आगे बढ़ी है, जिसे उद्योग जगत रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की स्वदेशीकरण को बढ़ावा देने की गंभीरता के सबूत के रूप में देखता है और मेक इन इंडिया कार्यक्रम को बल प्रदान करता है।

बीएमएस के लिए समय सीमा

फरवरी 2018 तक प्रोटोटाइप उपलब्ध होने की संभावना के साथ, मूल्यांकन के लिए कम से कम एक वर्ष का समय और लगेगा तथा अनुबंध प्रदान करने में भी एक वर्ष लगेगा। उत्पादन में निपुण होने लिए कम से कम दो वर्ष का समय लगेगा, अतः इस प्रकार भारतीय सेना के लिए 2022 से पहले बीएमएस की शुरुआत करने की कोई उम्मीद नहीं है। इसका भविष्य के सैन्य प्रणाली और सामरिक संचार प्रणाली (टीसीएस) के साथ एकीकरण और उसके बाद परिचालन 2024 से पहले शुरू होने की संभावना नहीं है। उस समय तक भारतीय सेना को आरएमए के लिए तैयार होना होगा और उसका इंतजार करना होगा।

टीएसी सी31 प्रणाली और टीसीएस

डिजिटल युग में भारतीय सेना का दबदबा कुछ चालीस साल पहले तब शुरू हुआ जब एक पूरी तरह से स्वचालित सामरिक कमान नियंत्रण संचार और सूचना (टीएसी सी3आई) प्रणाली की परिकल्पना की गई थी। इस प्रणाली के केंद्रबिंदु में सीआईडीएसएस (कमांड, सूचना, निर्णय, समर्थन प्रणाली) था जो एक दूसरे एसीसीसीएस (आर्टिलरी कमान, नियंत्रण और संचार प्रणाली), बीएसएस (युद्धक्षेत्र निगरानी प्रणाली), एडीसी ऐंड आरएस (वायु सुरक्षा नियंत्रण और रिपोर्टिंग प्रणाली), इलेक्ट्रॉनिक युद्ध (ईडब्ल्यू) और एयर सपोर्ट सिस्टम जैसे अन्य उप-प्रणालियों के साथ जुड़ा था। ये सभी उप प्रणालियां टीएसी सी3आई प्रणाली का एहसास कराने के लिए एक संचार डेटा नेटवर्क सिस्टम (सीडीएनएस) के माध्यम से जुड़े हैं।

ये सभी विकास, परीक्षण और स्थापित होने के विभिन्न चरणों में हैं। मुख्य मुद्दे अत्यधिक विलंब, प्रौद्योगिकी की तीव्र गति, अप्रचलित प्रबंधन और साइबर व ईडब्ल्यू जैसे नए खतरों के उद्भव और अंत में धरातल पर पूर्ण एवं प्रचालित प्रणाली की उपलब्धता से जुड़े हैं। जहां, कोर में से किसी एक को परीक्षण स्थल के रूप में नामांकित करना एक एक अच्छा विचार है, वहीं प्रणाली की उपलब्धता और परिणामतः उसका परिचालन कम से कम दो से तीन साल दूर प्रतीत होता है। यह परिचालन नियोजन, प्रशिक्षण, संगठन, साइबर सुरक्षा, संसाधन की उपलब्धता और उत्तरजीविता से जुड़ी चुनौतियों को प्रस्तुत करता है।

सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा सामरिक संचार प्रणाली (टीसीएस) जो टीएसी सी3आई प्रणाली के लिए मेरुदंड की तरह है और एक पूरी तरह से सुरक्षित प्रणाली है, कुशल स्पेक्ट्रम, इसके घटकों के लिए जाम प्रतिरोधी मजबूत लड़ाकू नेट रेडियो की उपलब्धता है। आर्मी रेडियो इंजीनियरिंग नेटवर्क (एआरईएन) प्रणाली को बदल कर टीसीएस 2000 लाने के लिए टीसीएस की अवधारणा 1996 में आई थी। इसे लगातार तीन रक्षा मंत्रियों द्वारा अनुमोदित किया गया था।

अंततः कुछ संशोधन और विस्तृत विचार-विमर्श के बाद, 2012 में टीसीएस को मेक इन इंडिया परियोजना - इस प्रकार की वर्गीकृत पहली परियोजना के तौर मंजूरी के लिए डीएसी को निर्देश दिया गया था। रक्षा मंत्रालय ने 2014 की शुरुआत में दो विकास एजेंसियों (डीए) को सूचीबद्ध किया। जिसमें पहला संघ है जो निजी क्षेत्र की रक्षा कंपनियों से बनी है और दूसरा है राज्य के स्वामित्व वाली भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल)। निजी क्षेत्र के विकास एजेंसियों (डीए) में टाटा पावर एसईडी और एचसीएल लिमिटेड शामिल हैं जिसने एक इक्विटी साझेदारी के आधार पर आधारित एक स्पेशल पर्पज व्हीकल का गठन किया है। ‘‘मेक इन इंडिया’’ श्रेणी के तहत प्रत्येक डीए प्रत्येक 100 मिलियन डॉलर की लागत से दो टीसीएस प्रोटोटाइप का विकास करेगी। सरकार प्रोटोटाइप की लागत का 80 प्रतिशत फाइनेंस करेगी, जिसका फिर से मूल्यांकन किया जाएगा, जमीनी परीक्षण किया जाएगा और एक को उत्पादन के लिए चुना जाएगा। इस प्रक्रिया में लगभग 36 महीने का समय लग जाने की उम्मीद है।

प्रक्रियात्मक विवादों ने भारतीय सेना के सामरिक संचार प्रणाली (टीसीएस) के विकास में देरी की है। निजी कंपनी के संघ ने कहा कि वह एक टीसीएस प्रोटोटाइप के विकास के लिए तब तक नहीं आगे बढेगा जब तक कि उसे भी बीईएल को दिए जाने वाले वही कर प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है और इस बात पर जोर देते हुए कहा कि इस प्रणाली के बौद्धिक संपदा अधिकारों को रक्षा मंत्रालय के साथ नहीं बल्कि डेवलपर के साथ निहित किया जाना चाहिए। ऐसा लगता है कि मुद्दों को तब से काफी हद तक सुलझा लिया गया है और प्रोटोटाइपों और परीक्षण स्थल को बनाने के लिए क्रय आदेश 2017 के अंत तक जारी किया जा सकता है।

अनुमानित समय सीमा

यह मानते हुए कि खरीद आदेश 2018 के शुरुआत में आ सकता है, परीक्षण स्थल को बनाने और उपयोग के लायक करने में कम से कम दो साल लगेंगे। परीक्षण स्थल के मूल्यांकन के लिए एक वर्ष भी देने पर आपूर्ति आदेश 2022 से पहले मिलने की कोई संभावना नहीं है। इसके बाद, पहली प्रणाली 2024 के मध्य तक उपलब्ध होने की संभावना है। इसकी स्थापना और परिचालन 2025 के अंत से पहले संभव नहीं है और टीएसी सी3आई प्रणाली और एएससीओएन और डीसीएन जैसी प्रमुख नेटवर्क के साथ एकीकरण 2026 के अंत से पहले संभव नहीं है। प्रौद्योगिकी और स्पेक्ट्रम के प्रबंधन जैसे मुद्दों; साइबर हमलों के विरुद्ध गंभीर करना, कूटलेखन और प्रमुख प्रबंधन; अप्रचलन, नए खतरों के विरुद्ध सुरक्षा, प्रशिक्षण और उत्तरजीविता को सबसे नवीन और कुशल तरीके से प्रबंधित किए जाने की जरूरत है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रणाली अपने निर्धारित समय सीमा में प्रासंगिक बनी हुई है। पहाड़ों के लिए एक टीसीएस का मुद्दा अभी भी लंबित है और उस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। उस समय तक भारतीय सेना को तदर्थ और अंतरिम समाधान के जरिये प्रबंधन करना होगा। उत्तम आरएमए के लिए अभी और इंतजार करना होगा।

आर्मी वाइड एरिया नेटवर्क (एडब्ल्यूएएन), आर्मी स्टेटिक स्वीच्ड कम्युनिकेशन नेटवर्क चतुर्थ चरण (एएससीओएन चतुर्थ चरण), सेलुलर नेटवर्क, स्पेक्ट्रम के लिए नेटवर्क (एनएफएस), मोबाइल उपग्रह संचार परियोजना जैसे अन्य संचार परियोजनाएं कार्यान्वयन के विभिन्न चरणों में है। ये सभी 2020 तक उपलब्ध हो जाने वाले हैं और निश्चित रूप से भारतीय सेना को शुद्ध रूप से केंद्रित करने में सहायक होंगे। चुनौती वायु सेना, नौसेना और एक सहज ढंग से राष्ट्रीय नेटवर्क के साथ उनके एकीकरण और पारस्परिकता की होगी।

संबंधित प्रौद्योगिकी/क्षमता

एक सच्चे शुद्ध केंद्रित क्षमताओं और आरएमए के लिए, भारतीय सेना को काफी हद तक साइबर जासूसी, साइबर युद्ध, बाह्य अंतरिक्ष दोहन और जवाबी अंतरिक्ष क्षमताओं के क्षेत्रों में अपनी क्षमताओं को बढ़ाने की जरूरत है, जिसमें खुफिया और जवाबी खुफिया; डाटा केंद्रों की स्थापना से सूचना प्रबंधन, बड़ा डेटा और विश्लेषण; छवि व्याख्या, लड़ाई के लिए मानव रहित प्लेटफार्मों, निगरानी, संचार, गतिशील स्पेक्ट्रम प्रबंधन और ईडब्ल्यू; रोबोटिक्स, भौतिक, इलेक्ट्रॉनिक और साइबर सहित धोखे; सोशल मीडिया इंजीनियरिंग और धारणा प्रबंधन; लंबी दूरी की सटीक हमले और ‘‘संपर्क विहिन युद्ध’’ क्षमताओं, कूटलिपि और प्रमुख प्रबंधन शामिल है। उपरोक्त क्षमताओं में से प्रत्येक के विकास और उन्हें स्थापित करने के लिए एक संगठन, कुशल मानव संसाधन, प्रशिक्षण पाठ्यक्रम और संबद्ध अवसंरचना को विकसित करने की आवश्यकता होगी। यह माना जाता है कि इन मुद्दों को संशोधित भारतीय सेना के सिद्धांत में जगह मिल जाएगा।

अंतरिम में, इन क्षमताओं को प्राप्त करने के लिए एक ठोस और व्यापक अभियान की कमी है; हालांकि कुछ पेशा निदेशालयों द्वारा उत्कृष्टता के कुछ द्वीप बनाए गए हैं। भारतीय सेना को वायु सेना और नौसेना के साथ सभी आयामों में क्षमताओं से युक्त कर 21वीं सदी के युद्ध के लिए प्रासंगिक बनाने और चीन के तीन दशकों के आधुनिकीकरण के साथ हाल ही में संगठन परिवर्तन, घरेलू अनुसंधान और विकास के साथ उच्च प्रौद्योगिकी प्रणाली को शामिल करने, उत्पादन और सक्षम मानव संसाधन के साथ तीव्र और व्यापक विकास से मुकाबला के लिए दोनों मोर्चों पर तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है। भारतीय सेना अब किसी भी प्रकार से इंतजार करने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए स्वयं को मनाना जाहिए और घरेलू तौर पर विकसित आरएमए और विशुद्ध केंद्रित क्षमताओं को तेजी से लागू करने के लिए एक उत्प्रेरक की भूमिका निभानी चाहिए। यह एक रणनीतिक जरूरी है कि भारतीय सेना इसके लिए स्वयं का और देश का आभार प्रकट करे।

लेखक भारतीय सेना के पूर्व सिग्नल ऑफिसर-इन-चीफ और टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स के एमडी और सीईओ हैं।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published in Defence and Security India, Image Source: https://en.wikipedia.org
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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