चाबहार – रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता से अफगानिस्तान का फायदा
Shoiab A. Rahim

ईरान और अफगानिस्तान तथा उसके भी आगे मध्य एशिया तक व्यापारिक मार्ग तैयार करने का भारत का प्रयास पूरा होने ही वाला है क्योंकि अप्रैल, 2016 में इन देशों के मध्य हुई वार्ता के बाद जिन तकनीकी दलों पर सहमति बनी थी, उन्हें अंतिम रूप दे दिया गया है। भारत, ईरान और अफगानिस्तान ने त्रिपक्षीय परिवहन एवं आवागमन के ‘चाबहार’ समझौते के प्रावधानों को अंतिम रूप दे दिया। ईरान में 23 मई, 2016 को नरेंद्र मोदी, हसन रूहानी और अशरफ गनी की मौजूदगी में इस ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर हो ही गए।

चाबहार ईरान के सुदूर दक्षिणी प्रांत सिस्तान और बलूचिस्तान में स्थित बंदरगाह है। ईरान सरकार ने चाबहार को मुक्त व्यापार एवं औद्योगिक क्षेत्र घोषित किया है और यह अफगानिस्तान की सीमा के निकट मिलक से 950 किलोमीटर दूर है। 2003 में भारत और ईरान ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके अंतर्गत भारत ने बंदरगाह पर बुनियादी ढांचे के विकास के लिए भारी निवेश करने का वायदा किया। किंतु ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण काम बहुत धीमी गति से आगे बढ़ा। प्रतिबंध के बावजूद भारत ने काबुल-हेरात राजमार्ग को चाबहार बंदरगाह से जोड़ने वाला जारंज-देलारम राजमार्ग बनाने के लिए 2009 में 13.5 करोड़ डॉलर का निवेश किया। अगस्त, 2015 में ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों में नरमी आई और चाबहार बंदरगाह पट्टे पर लेने और उसका विकास करने के लिए ईरान के साथ समझौता करने का भारत का रास्ता साफ हो गया।

चाबहार के महत्व को रणनीतिक घेरेबंदी के सिद्धांत से पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। अंकुश लगाने के विचार पर आधारित यह सिद्धांत कहता है कि पड़ोसी को भौगोलिक रूप से घेर लेने पर उसका आर्थिक और अन्य प्रकार का विस्तार रुक जाएगा। घेरने वाले देश के पास घिरे हुए देश पर आक्रमण करने के कई बिंदु होते हैं, चाहे सैन्य ठिकानों के जरिये हो या आवागमन के रास्ते रोककर आर्थिक वृद्धि में रुकावट डालने के मौके हों। भारत को चीन की ओर से रणनीतिक घेरेबंदी का डर रहता है और चीन को अमेरिका से घेरेबंदी का डर है। चीन अफगानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी और दक्षिण कोरिया, जापान, भारत तथा ताइवान के साथ उसके गठबंधनों को रणनीतिक घेरेबंदी का प्रयास मानता है।

दूसरी ओर भारत मानता है कि चीन उसे घेरने के लिए ही श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश में बंदरगाह बना रहा है। इसलिए जब चीन ने ग्वादर बंदरगाह के विकास की अपनी योजनाओं का खुलासा किया तो भारत ने अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद चाबहार बंदरगाह परियोजना (ग्वादर से करीब 72 किलोमीटर दूर) पर कदम बढ़ा दिए।

भारत और चीन दोनों का ध्यान मध्य एशिया पर केंद्रित रहा है, जो दोनों अपना-अपना क्षेत्रीय दबदबा कायम करना चाहते हैं। यूरेशिया का दिल कहलाने वाले इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन हैं और इसका भू-राजनीतिक तथा भू-आर्थिक महत्व भी बहुत अधिक है। भारत ने पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान और मध्य एशिया के बाजारों में पहुंचने के कई प्रयास किए। उसने अफगानिस्तान पाकिस्तान पारगमन व्यापार समझौते में शामिल होने का औपचारिक अनुरोध भी किया। लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा उदासीनता दिखाई। इसीलिए चाबहार बंदरगाह भारत के लिए पाकिस्तान को नजरअंदाज कर अफगानिस्तान और मध्य एशियाई बाजारों तक पहुंचने का दरवाजा खोल देगा।

दूसरी ओर चीन मध्य एशिया में अपना व्यापार जमाने के लिए ग्वादर बंदरगाह पर भरोसा कर रहा है। उसने ग्वादर बंदरगाह के विकास के लिए 2002 में धन और तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान करना आरंभ कर दिया। उसने पाकिस्तान में अरब खाड़ी के तट पर 24.8 करोड़ डॉलर की लागत से बनाए गए ग्वादर बंदरगाह का 80 प्रतिशत खर्च उठाया। परस्पर प्रतिस्पर्द्धा कर रहे ग्वादर और चाबहार बंदरगाह दोनों देशों को मध्य एशिया से प्राकृतिक संसाधनों का आयात करने तथा अपने उत्पाद वहां के बाजार तथा यूरोपीय संघ के बाजारों में निर्यात करने का अवसर प्रदान करेंगे।

क्षेत्र के दो ताकतवर देशों के बीच इस रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा से अफगानिस्तान के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक अवसर उत्पन्न हुए हैं। चारों ओर से घिरा देश होने के कारण व्यापार के लिए वह हमेशा पाकिस्तान पर ही निर्भर रहा है। किंतु दोनों देशों के मध्य राजनीतिक संबंध बिगड़ने से पिछले कुछ वर्षों में व्यापार पर असर पड़ा है, जिससे अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा है। उसी तरह पाकिस्तान के रास्ते अफगान-भारत व्यापार भी पाकिस्तान की बंदिशों के कारण बहुत कम रहा है। इस कारण चाबहार व्यापारिक गतिरोध की स्थिति दूर करने अवसर प्रदान करेगा। अफगानिस्तान उसे भारत तथा अन्य देशों के साथ व्यापारिक रिश्ते कायम करने के वैकल्पिक रास्ते के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। इसके अलावा अफगानिस्तान के रास्ते होने वाला बहुपक्षीय व्यापार पारगमन शुल्क और दूसरे शुल्कों के रूप में उसका खजाना भरेगा। उसी प्रकार परियोजना अफगान निवेशकों को चाबहार मुक्त व्यापार एवं आर्थिक क्षेत्र में निवेश करने के मौके भी देगी।

अफगानिस्तान प्राकृतिक संसाधनों से अटा पड़ा है। बंदरगाह की परियोजना अफगानिस्तान के लिए अपनी खनिज संपदा को निकालने और निर्यात करने तथा परिवहन ढांचा विकसित करने का मौका देगी। बामयान प्रांत की हाजीगाक खानों में लोहे और दूसरे खनिजों के 1,000 अरब डॉलर से भी अधिक कीमत के भंडार मौजूद होने का अनुमान है। भारतीय इस्पात प्राधिकरण (सेल) की अगुआई में एक भारतीय गठबंधन ने इन खानों के अधिकार हासिल किए हैं। इतना ही नहीं भारत की 900 किलोमीटर लंबी रेल लाइन बनाने की योजना है, जो हाजीगाक क्षेत्र को चाबहार से जोड़ेगी। इससे लगभग 1.8 अरब डॉलर की लौह एवं इस्पात परियोजनाएं चालू हो जाएंगी।

चाबहार बंदरगाह परियोजना का सफलता से पूरा होना और शुरू होना अफगानिस्तान के आर्थिक विकास एवं क्षेत्रीय अखंगडता के लिहाज से बहुत बड़ा कदम होगा। इस विशाल बुनियादी ढांचा परियोजना में क्षेत्र की तस्वीर बदलने की अकूत संभावनाएं हैं। किंतु अफगानिस्तान और क्षेत्र की राजनीतिक तथा सुरक्षा संबंधी स्थिति कार्य की प्रगति में बाधा बन सकती है। इसलिए इस परियेाजना के लाभ उठाने के लिए क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होगी।

(लेखक आर्थिक विकास सलाहकार/पीपीपी (यूएसएड-डीएआई) हैं। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स से डेवलपमेंट इकनॉमिक्स में एमएससी तथा वित्त में एमबीए की उपाधि ली है। विश्लेषक के रूप में रहीम अफगान मीडिया के लिए नियिमत रूप से क्षेत्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर बोलते और लिखते हैं।)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 22nd June 2016, Image Source: http://www.hindustantimes.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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