बुरहान वानी की मौत और उसके नतीजे
Lt General S A Hasnain, PVSM, UYSM, AVSM, SM (Bar), VSM (Bar) (Retd.), Distinguished Fellow, VIF

दक्षिण कश्मीर के बिल्कुल दक्षिणी हिस्से में कोकरनाग अलसाया, शांत, छोटा सा शहर है। पीर पंजाल की ऊंची पहाड़ियों के साये तले बसा और निचली पहाड़ियों पर जंगलों से घिरा यह शहर किसी वक्त आतंकवाद का अड्डा था क्योंकि यह क्षेत्र आतंकवाद के लिए मुफीद था। सहस्राब्दी के पहले दस वर्षों में भारतीय सेना की मशहूर इकाई 36 राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) (गढ़वाल राइफल्स) ने पूरा इलाका साफ कर दिया और आतंकवाद के मामूली निशान ही बाकी रह गए। इस कारनामे के लिए उसे चार सीओएएस यूनिट साइटेशन और कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

8 जुलाई 2016 को शाम करीब छह बजे कोकरनाग में एक बार फिर बंदूकों के धमाके गूंज उठे। कुछ ही मिनटों में मेरे पास पहला फोन आया, जिससे अहसास हुआ कि यह कोई आम मुठभेड़ नहीं है। फोन करने वाले ने मुझे बताया कि इसमें बुरहान वानी के होने की 90 प्रतिशत संभावना है, जो छोटे से घेरे में है। जिन्हें पता नहीं है, उन्हें बता दूं कि वानी कश्मीर घाटी में सबसे ज्यादा वांछित आतंकवादी है, जिसने दक्षिण कश्मीर में नए आतंकवाद की लहर पैदा की है। उसके कारनामे कुछ ही वक्त में उत्तर कश्मीर के कुख्यात इलाकों में भी रंग दिखाने लगते। उसकी रॉबिन हुड सरीखी छवि ने ऐसा असर पैदा किया, जिससे एक नया चलन दिखने लगा - मुठभेड़ के वक्त स्थानीय भीड़ आतंकवादियों को बचाने की कोशिश करने लगी और मारे गए पाकिस्तानी आतंकवादियों के जनाजे पर भी भारी भीड़ इकट्ठी होने लगी। बुरहान वानी ने पांच वर्ष में स्थानीय स्तर पर भर्ती किए गए 60-70 युवा आतंकियों का झुंड तैयार कर लिया। उनमें से कई खूब शिक्षित और तकनीक में माहिर थे, जो अपने काम के लिए सोशल मीडिया का फायदा उठाना जानते थे।

लड़ाकू पोशाकों में हथियारों के साथ उनकी तस्वीरें फेसबुक और व्हाट्सऐप पर छा गईं। मुठभेड़ स्थलों पर चुटकियों में भीड़ को इकट्ठा करने के लिए अक्सर उन्होंने सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया। बुरहान ने आतंकवाद का दामन तब पकड़ा, जब राष्ट्रीय राजमार्ग के पूर्व में अवंतिपुरा के पास घाटी के बीचोबीच बसे एक छोटे से कस्बे त्राल में दो बदमिजाज पुलिसकर्मियों ने उसे सताया। त्राल पिछले 26 साल से अलगाव और हिंसा के इस्तेमाल के लिए बदनाम रहा है। पश्चिम में वागड़ पहाड़ी और उत्तर में दाचीगाम जंगलों के कारण यह छिपने के लिए एकदम सटीक जगह है। सीआरपीएफ के साथ आरआर की पूरी टुकड़ी वहां होने के बाद भी इलाके में नाम मात्र का नियंत्रण था। बुरहान त्राल से था और पिछले साल अप्रैल में उस वक्त उसका भाई एक मुठभेड़ में मारा गया था, जब वह जंगलों में बुरहान से मिलने गया था और गलती से उसे ही बुरहान मान लिया गया।

8 जुलाई 2016 को शाम साढ़े सात बजे फोन करने वाले ने एक बार फिर पुष्टि की कि वाकई वह बुरहान वानी ही था। वह सेना की बेहद शांत लेकिन माहिर इकाई 19 आरआर (सिख लाइट इन्फैन्ट्री) के हाथों मारा गया था। पता चला कि घेरे जाने के बाद बुरहान उस घेरे को तोड़ने की कोशिश में बाहर आया और मारा गया। इससे वह जलकर मरने की बदनामी से बच गया, जो उस मकान में रॉकेट और दूसरे हथियारों के कारण लग जाती।

जब मैंने इसके बारे में ट्वीट किया तो मेरे मोबाइल फोन पर फोन कॉल की बाढ़ आ गई। बेशक बुरहान का मारा जाना बड़ी खबर था। मेरे दिमाग में सबसे पहले जो बात आई और जो मैंने बताई भी, वह यह थी कि मुठभेड़ के बाद के हालात संभालने में प्रशासन को सावधानी बरतनी होगी। यह जानते हुए कि हुर्रियत इसका पूरा फायदा उठाना चाहेगा और इसे युवाओं को बरगलाने में इस्तेमाल करेगा, यह उम्मीद की जानी चाहिए कि अंतिम संस्कार के वक्त गुस्से से भरी भारी भीड़ जमा होगी। पिछले साल के आखिर में हमने पाकिस्तानी आतंकियों के अंतिम संस्कार के वक्त 30,000 लोगों को देखा है। राजनीतिक और सुरक्षा अधिकारियों को इस बारे में खासा नाजुक फैसला लेना होगा कि अंतिम संस्कार में जनता को जाने दिया जाए या परिवार की मौजूदगी में पुलिस द्वारा खामोशी से उसे सुपुर्द-ए-खाक कर दिया जाए। अतीत में प्रशासन ने अक्सर सार्वजनिक अंतिम संस्कार किए जाने की आजादी दी है और उसके नतीजे भी भुगते हैं। केवल अफजल गुरु के मामले में शरीर परिवार को नहीं सौंपा गया और दिल्ली में खामोशी के साथ उसे सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया। किंतु उसका मतलब अलग था और दोनों की तुलना नहीं करनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि अतीत में आतंकवाद निरोधी अभियानों में बुरहान वानी से बड़े नामों को खत्म नहीं किया गया है। उसी इलाके में हमने शाबिर बदूरी को खत्म किया था, जिसने अनंतनाग में करीब नौ साल तक हिज्बुल मुजाहिदीन की गतिविधियां चलाई थीं। 2011 में सोपोर में लश्कर-ए-तैयबा का अब्दुल्ला उनी मारा गया था। मुझे याद नहीं है कि उन मामलों में शवों के साथ किया गया, लेकिन पांच साल पहले के मुकाबले भी आज बड़ा फर्क यह है कि मारे गए आतंकी सरगनाओं को नायक बनाने और चुटकियों में भीड़ इकट्ठी करने के लिए आज सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रशासन को ही इस बात की सबसे अच्छी खबर है कि हालात से किस तरह निपटा जाए और गठबंधन सरकार के लिए यह राजनीतिक चुनौती है।

अमरनाथ यात्रा का दूसरा हफ्ता है। यात्रा की संवेदनशीलता हमेशा समस्या रही है और राष्ट्रीय राजमार्ग पर हालिया हमलों के बाद खास तौर पर चिंता बढ़ गई हैं। यात्रियों पर जवाबी हमला भीषण होगा, हालांकि मुझे इसकी संभावना कम लगती है किंतु यात्रा की सुरक्षा कर रहे सुरक्षा बल और यात्रा के विभिन्न प्रतिष्ठान निशाने पर रहेंगे। कोकरनाग काजीगुंड के पास राष्ट्रीय राजमार्ग के बेहद करीब है। अनंतनाग से पहलगाम तक लिद्दर घाटी नए आतंकियों की मौजूदगी के बावजूद पिछले कुछ साल में शांत रही है, लेकिन हाल ही में वहां फिर अशांति पनपने के आसार दिखे हैं। अनंतनाग के आसपास आतंकवाद के फिर पनपने के बारे में स्वराज्य में मेरे पिछले लेख में चुनौतियों के बारे में स्पष्ट रूप से बताया गया है।

सूचना मिलने के बाद मेरे दिमाग में दूसरा खयाल यह आया कि ऐसा अभियान चलाना चाहिए, जिससे एक और करिश्माई युवा नेता तैयार न हो सके। इसमें कोई शक नहीं कि असली के बदले जो लाया जाता है, वह कभी असली जितना करिश्माई नहीं होता। ऐसा भी नहीं है कि सेना और पुलिस ने बुरहान वानी से इज्जत के साथ हथियार डालने के लिए नहीं कहा था। ‘इज्जत के साथ’ वाली इस बात का अच्छी तरह से प्रचार किए जाने की जरूरत है। आतंकियों को आसानी से इसका यकीन नहीं दिलाया जा सकता। सोशल मीडिया और जन संपर्क के जरिये चलने वाला अभियान युवाओं को जोड़ने में मदद कर सकता है। जनता की नजरों में बनाई जा रही छवि के कारण और भी युवा आतंकवाद की ओर न जाएं, इस बात का ध्यान रखना जरूरी है। कुछ स्थानीय लोगों और अलगाववादियों की ताकत के सामने राज्य की कल्पनाशीलता और सूचना की ताकत है।

यह राज्य के लिए मजबूत पहली नहीं रहा है और इस पर जल्दी तथा प्रभावी तरीके से विचार करने की जरूरत है। केंद्र को इसे इम्तहान मानकर हरमुमकिन मदद देनी होगी। दुर्भाग्य से यह जिम्मेदारी लेने वाली कोई संस्था या संगठन नहीं है। मीडिया को भी अपनी रिपोर्टों में सतर्कता बरतनी चाहिए क्योंकि घटनाओं और हालात को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने से भारत विरोधी तत्वों को ही फायदा होगा। नए आतंकवाद के नेतृत्व की घोषणा किसी भी वक्त हो सकती है और एक दूसरे से अलग-थलग पड़े कई गुट इस मौके पर एकजुट हो सकते हैं। इसीलिए सूचना के पक्ष को सावधानीपूर्वक और सक्रियता के साथ संभालना होगा।

पिछली रात से ही घाटी में इंटरनेट और ज्यादा मोबाइल फोन कनेक्शन बंद हैं। आतंकवादियों को मौजूदा हालात का फायदा उठाने से रोकने के लिए कुछ समय तक तो यह कारगर साबित होगा। उसके बाद ये सेवाएं बहाल होंगी और सूचना की लड़ाई उस वक्त शुरू होगी।

फिलहाल भावनाओं से निपटने और ‘शहादत की भावना’ नहीं आने देने की चुनौती है। अगाववादियों को कुछ युवाओं के मारे जाने की कोई फिक्र नहीं है और 2010 की घटनाएं फिर दोहराई जा सकती हैं। सुरक्षा एजेंसियों को भी उसी तर्ज पर काम करना होगा और अतीत के आक्रोश को छोड़ना होगा। मैं इसे और भी आगे जाने तथा कुछ सकारात्मक हासिल करने का मौका मानता, लेकिन कुटिल अलगाववादी भी अपने अभियान को आगे बढ़ाना चाहेंगे। नेतृत्व (राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी) की परिपक्वता ही तय करेगी कि ऊंट किस करवट बैठेगा।


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 20th July 2016, Image Source: http://hillpost.in
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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