क्या ईरान ने त्याग दिया है अपना परमाणु विकल्प?
Mayank Anand Purohit

वर्ष 2016 में ईरान का बाकी दुनिया के साथ राजनीतिक और आर्थिक दोनों तरीकों से पुनर्मिलन हुआ। जनवरी में जेसीपीओए (परमाणु समझौते पर संयुक्त समग्र कार्य योजना) लागू होने के कारण ही ऐसा हो पाया। ईरान पर लगे परमाणु प्रतिबंध हटा लिए गए और वहां एक के बाद एक कई द्विपक्षीय यात्राएं हुईं, उसके राष्ट्रपति विदेश गए और दूसरे नेता ईरान पहुंचे। किंतु दोस्ती के इस माहौल में एक पहलू बिल्कुल उलट दिखता है और वह है ईरान का युद्धक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम।

पिछले वर्ष परमाणु समझौता पूरा होने के बाद ईरान ने युद्धक प्रक्षेपास्त्र का दो बार परीक्षण किया है। पहला परीक्षण अक्टूबर 2015 में हुआ था, जब ईरान ने सतह से सतह पर लगभग 1700 किलोमीटर की अनुमानित दूरी तक मार करने वाले नए इमाद प्रक्षेपास्त्र यानी मिसाइल का परीक्षण किया था।1 दूसरे परीक्षण परमाणु समझौता क्रियान्वित होने के बाद 8-9 मार्च 2016 को किए गए।2 उस बार ईरान ने इमाद मिसाइल के साथ दो प्रकार की कद्र मिसाइलों, लगभग 1700 किलोमीटर दूरी तक मार करने वाली कद्र-एच और 2000 किलोमीटर तक मार करने वाली कद्र-एफ का भी परीक्षण किया।

दोनों परीक्षणों पर ईरान की आलोचना हुई और नए प्रतिबंधों की धमकी भी दी गई। लेकिन अमेरिका ने तो अक्टूबर 2015 के परीक्षणों के बदले ईरान के मिसाइल कार्यक्रम से जुड़े ईरानी संगठनों और व्यक्तियों पर प्रतिबंध लगा दिए, बाकी पक्ष धमकी देकर ही रह गए। इसके बाद 1 मई को ईरानी संसद ने ईरान की मिसाइलों की क्षमता बढ़ाने तथा उनका उत्पादन तेज करने के लिए एक विधेयक पारित कर दिया।3

इस घटनाक्रम से ईरान के लिए मिसाइल कार्यक्रम का महत्व पता चलता है। लेकिन ईरान की मिसाइलों की मारक क्षमता में लगातार बढ़ोतरी और परमाणु हमलों की आशंका समाप्त करने के लिए युद्धक मिसाइलों पर ही मुख्य रूप से निर्भर रहने की उसकी नीति से यह प्रश्न उठता है कि परमाणु संधि पर हस्ताक्षर कर ईरान ने अपने सभी परमाणु विकल्प समाप्त कर दिए हैं या इस संधि से ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं में कुछ समय के लिए ही रुकावट आई है?

यह लेख ईरान के साथ परमाणु विवाद के इतिहास, परमाणु संधि के प्रासंगिक प्रावधानों के संदर्भ में परमाणु क्षमता अर्जित करने की ईरान की संभावित प्रेरणा पर सरसरी नजर डालकर इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने का प्रयास करेगा।

ईरान के साथ परमाणु विवाद की पृष्ठभूमि

ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर वर्तमान विवाद और उसके कारण बहुपक्षीय वार्ता 2003 में आरंभ हुई किंतु ईरान का परमाणु कार्यक्रम शाह के शासन के समय से चल रहा है और 1950 के दशक में आरंभ हुआ था। अपने ‘एटम्स फॉर पीस’ कार्यक्रम के अंतर्गत अमेरिका ने ईरान को अनुसंधान के लिए रिएक्टर और उसे चलाने के लिए अत्यंत संवर्द्धित यूरेनियम उपलब्ध कराया था।4 उस दौरान ईरान वैश्विक परमाणु वाणिज्य से अच्छी तरह जुड़ा था और परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के पहले दिन ही उसने उस पर हस्ताक्षर कर दिए।

ईरान के परमाणु कार्यक्रम के संभावित सैन्य आयामों के संबंध में पहली बार 1974 में चिंता व्यक्त की गई, जब अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को लगा कि भारत के सफल परमाणु परीक्षण के बाद शाह के भीतर भी परमाणु हथियारों की महत्वाकांक्षा हो सकती है।5 किंतु ईरान के साथ परमाणु सहयोग इस्लामी क्रांति के बाद ही पूरी तरह रोका गया, जिस क्रांति में शाह का तख्तापलट हो गया और धर्म पर चलने वाला इस्लामी गणराज्य कायम हो गया।

1980 और 1990 के दशकों में ईरान ने अपने ठप पड़े असैन्य परमाणु कार्यक्रम को दोबारा थोड़ा-बहुत आरंभ किया किंतु अमेरिका ने अर्जेंटीना, चीन तथा रूस के साथ ईरान के परमाणु संबंधी सौदों को खटाई में डालने का पूरा प्रयास किया। हो सकता है कि इसी कारण ईरान ने संवर्द्धन का अपना कार्यक्रम गुपचुप तरीके से चलाया हो।

2002-03 में नतांज और अरक में गोपनीय परमाणु गतिविधियों एवं प्रतिष्ठानों का खुलासा करने वाले समाचार आए। उसके बाद आईएईए की जांच में इस बात की पुष्टि हो गई कि ईरान ने एनपीटी के अंतर्गत अपने दायित्वों का उल्लंघन करते हुए जानकारी छिपाई थी।6 अक्टूबर, 2003 में ईरान ने अपनी परमाणु संवर्द्धन गतिविधियां बंद करते हुए फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन (ईयू3) के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए और आईएईए की अधिक गहन जांच के लिए सहमत होते हुए उसके साथ अतिरिक्त संधि पर हस्ताक्षर किए। ईयू3 के वार्ता के कारण यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जाने से बच गया।

किंतु यह कूटनीतिक प्रक्रिया 2005-06 में रुक गई, जिस समय मोहम्मद अहमदीनेजाद की कट्टरपंथी सरकार ने चुनाव जीता। सितंबर 2005 में आईएईए ने औपचारिक रूप से यह घोषित कर दिया कि ईरान सुरक्षा के उसके दायित्वों का पालन नहीं कर रहा है और फरवरी 2006 में इस मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सुपुर्द करते हुए अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का रास्ता साफ कर दिया। जवाब में ईरान ने अतिरिक्त संधि को मानने से इनकार कर दिया और संवर्द्धन की गतिविधियां बहाल कर दीं।

ईरान के विरुद्ध प्रतिबंध

अपने परमाणु प्रतिष्ठानों का निरीक्षण अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से कराने से जब ईरान ने इनकार किया तो 2006 से ही संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका और यूरोपीय संघ ने उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। इसकी अगुआई अमेरिका ने की और सबसे अधिक प्रतिबंध लगाए।

ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध इस्लामी क्रांति के समय के ही हैं और तभी से जारी हैं। किंतु ईरान ने दूसरे बाजार तलाश दिए और अमेरिका के एकतरफा प्रतिबंधों से उसकी अर्थव्यवस्था को अधिक नुकसान नहीं हुआ। इसलिए 2002 में जब परमाणु संघर्ष आरंभ हुआ तो अमेरिका ने ईरान के साथ बातचीत में शामिल होने से इनकार कर दिया और उसने बहुपक्षीय प्रतिबंधों का प्रयास आरंभ कर दिया, जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और यूरोपीय संघ ने प्रतिबंध लगा दिए।

ईरान के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध लगातार कठोर होते गए। प्रस्ताव 1696 में ईरान से संवर्द्धन की गतिविधियां रोकने के लिए कहा गया था और प्रतिबंधों की धमकी दी गई थी, लेकिन प्रस्ताव 1929 में ईरान पर हथियारों के प्रतिबंध लगाए गए, उसे किसी भी युद्धक मिसाइल के परीक्षण से रोका गया और ईरानी परमाणु कार्यक्रम से संबंधित व्यक्तियों तथा संगठनों पर यात्रा संबंधी एवं आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए। यूरोपीय संघ ने अपने सदस्य देशों को ईरान से तेल का आयात करने से रोक दिया, व्यापार संबंधी रोक लगाईं और ईरान को स्विफ्ट इलेक्ट्रॉनिक भुगतान प्रणाली का इस्तेमाल करने से रोक दिया।

संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ के कदमों के अलावा अमेरिका ने समग्र ईरान प्रतिबंध, जवाबदेही एवं विनिवेश अधिनियम (सिसाडा) के अंतर्गत और भी प्रतिबंध लगा दिए। इस अधिनियम में ईरान के साथ कारोबार करने वाले विदेशी संगठनों और देशों पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं।7

ये प्रतिबंध ईरान को वैश्विक वित्तीय व्यवस्था से अलग-थलग करने तथा ईरान से होने वाले तेल निर्यात में कटौती करने के इरादे से लगाए गए थे ताकि उसके परमाणु प्रयासों की लागत बढ़ जाए और अंत में उसे परमाणु हथियार बनाने से पीछे हटना पड़े।

परमाणु हथियारों के लिए ईरान की प्रेरणा

ईरान के स्वदेशी परमाणु कार्यक्रम से कोई विवाद नहीं है, विवाद उस कार्यक्रम की प्रकृति पर है। पश्चिमी ताकतों को यकीन है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम का लक्ष्य परमाणु हथियार बनाना है। लेकिन ईरान ऐसे किसी भी मकसद से लगातार इनकार करता रहा है और कहता आया है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण कार्यक्रमों जैसे ऊर्जा उत्पादन एवं चिकित्सा अनुसंधान के लिए है। ईरान ने यह भी ध्यान दिलाया है कि परमाणु अप्रसार संधि के अंतर्गत असैन्य परमाणु कार्यक्रम उसका अधिकार है।

बम बनाने में अपनी दिलचस्पी नहीं होने का सबूत देने के लिए ईरानी अपने सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खमैनी द्वारा जारी किए गए एक फतवे का जिक्र करते हैं, जिसमें उन्होंने परमाणु हथियारों के इस्तेमाल को गैर इस्लामी बताते हुए उसकी मनाही की है।8 किंतु आलोचक फतवे को ईरान की मंशा का ठोस प्रमाण नहीं मानते हैं और अतीत में जरूरत पड़ने पर सर्वोच्च नेता के फतवे भी वापस लिए गए हैं।9

ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को आर्थिक आधार पर सही ठहराया है और तर्क दिया है कि चूंकि उसकी जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है और वह ऊर्जा का शुद्ध आयातक है, इसलिए परमाणु बिजली तैयार करना सही है, जिसमें शुरुआती भारी पूंजीगत खर्च के बाद स्थिर और बहुत कम परिचालन खर्च आता है।

किंतु ईरान जिस प्रकार अपने परमाणु कार्यक्रम पर आगे बढ़ा है, उसमें विशुद्ध आर्थिक प्रेरणा दब जाती है। अपने परमाणु कार्यक्रम को आईएईए की नजर से बचाए रखने के लिए ईरान ने आर्थिक प्रतिबंध स्वीकार कर लिए, जिनसे ईरानी अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है और तेल निर्यात तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मौके कम होने से अरबों डॉलर की चोट पहुंची है। अमेरिकी वित्त मंत्री जैकब ल्यू के अनुसार प्रतिबंधों के कारण 2012 से ईरान को तेल राजस्व में ही 160 अरब डॉलर का घाटा हुआ है और उसकी अर्थव्यवस्था प्रतिबंध के बगैर की अपनी स्थिति की अपेक्षा 15-20 प्रतिशत छोटी हो गई है।10 यदि अर्थव्यवस्था इकलौता मुद्दा होती तो ईरान निश्चित रूप से प्रतिबंधों से बचा होता और इसीलिए इतनी बड़ी कीमत चुकाने का कारण सामरिक प्रेरणा ही हो सकती है।

ईरान के दृष्टिकोण से परमाणु हथियार विकसित करने या कम से कम उसकी क्षमता प्राप्त करने की प्रेरणा उसे केवल इसीलिए मिली क्योंकि हालात ही वैसे हैं।

ईरान गहन इतिहास बोध वाला देश है और वह अतीत भूला नहीं है, जब प्राचीन एवं मध्यकालीन युग में वह प्रभावी विश्व शक्ति था। यह बोध ही ईरान को मध्यावधि में क्षेत्रीय शक्ति और दीर्घावधि में वैश्विक शक्ति का दर्जा प्राप्त करने की प्रेरणा देता है। आज ईरान अपने आसपास 3 परमाणु शक्तियों (भारत, पाकिस्तान और इजरायल) और कुछ दूर जाने पर दो और परमाणु शक्तियों (रूस और चीन) से घिरा है। ऐसी स्थिति में क्षेत्रीय ताकत होने का दावा करने के लिए ईरान को परमाणु क्षमता की आवश्यकता है। परमाणु हथियार निश्चित रूप से किसी देश का अंतरराष्ट्रीय दर्जा बढ़ा देते हैं और आर्थिक रूप से पिछड़ा होने पर भी विश्व शक्तियां उसे गंभीरता से लेने लगती हैं (जैसे पाकिस्तान और उत्तर कोरिया)।

शक्ति की बात छोड़ दें तो भी परमाणु हथियार हासिल करना ईरानी रक्षा रणनीति के लिहाज से एकदम ठीक बैठता है। 1980 में ईरान-इराक युद्ध और अमेरिका के साथ कुछ नौसैनिक झड़पों ने ईरान को यह महसूस करा दिया कि पारंपरिक युद्ध में वह प्रमुख शक्तियों के सामने कहीं भी नहीं ठहरता। ईरानी नेतृत्व इराक द्वारा उसकी सीमाओं का उल्लंघन भूला नहीं है, जिसका सामना करने में उसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। उसके बादसे ईरान ने अपारंपरिक क्षमताएं जैसे तेज हमला करने वाली नौकाएं और अधिक नुकसान झेलने की क्षमता विकसित करने पर जोर दिया है, जो हमला करने वाला नहीं कर सकता। इसके पीछे उसका उद्देश्य यही है कि विदेशी हमलावर को बड़ी कीमत चुकानी पड़े। परमाणु हथियार की क्षमता उसकी रणनीति में एकदम सटीक बैठती है और दूसरों को रोकने में काम आएगी।

ईरान का मिसाइल कार्यक्रम उसके परमाणु कार्यक्रम की झलक भी देता है। परमाणु कार्यक्रम तो शत्रुओं को आधा ही रोकता है और यह तभी पूरा होता है, जब परमाणु हथियार रखने वाले के पास उसके इस्तेमाल के लिए भरोसेमंद प्रक्षेपण प्रणाली हो, जो हमलावर के पहले हमले का जवाब दे सके। इसीलिए ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम के साथ ही युद्धक मिसाइलों का कार्यक्रम भी चला रहा है क्योंकि लंबी दूरी की मिसाइल क्षमता ईरान के लिए संभावित दुश्मनों और दोस्तों को अपनी परमाणु क्षमता की विश्वसनीयता दिखाने के लिहाज से जरूरी है।

ये सभी तथ्य और ईरान की हरकतें इसी निष्कर्ष तक पहुंचाती हैं कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम हथियारों से पूरी तरह मुक्त नहीं है। किंतु ईरान की असली उपलब्धि यह है कि उसने पूरी दुनिया को अपने परमाणु कार्यक्रम की प्रकृति के बारे में अनुमान लगाने के लिए मजबूर कर दिया है। 15 दिसंबर, 2015 को अपनी अंतिम आकलन रिपोर्ट में आईएईए ने निष्कर्ष दिया कि ईरान ने हथियारों से जुड़ा अनुसंधान संभवतः 2003 तक और थोड़ा-बहुत 2009 तक किया होगा। किंतु रिपोर्ट में इस बारे में ठोस प्रमाण नहीं दिए गए हैं।11
परमाणु संधि

परमाणु संधि से अमेरिकी प्रशासन के इस विश्वास का पता चलता है कि ईरान अब भी परमाणु हथियार बनाने की सभी तकनीकों में माहिर नहीं हुआ है और उसके पास परमाणु बम बनाने के ईरान के किसी भी प्रयास का पता लगाने की क्षमता है। इससे पश्चिमी ताकतों को ईरान के साथ बात करने का अवसर भी मिलता है और उनका लक्ष्य यही दिखता है कि ईरान को विश्व अर्थव्यवस्था में लौटने में मदद की जाए। सैन्य हमलों के बजाय इस तरीके से ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोका जा सकता है क्योंकि परमाणु हमलों से ईरान कुछ वर्ष पीछे ही चला जाता और परमाणु क्षमता हासिल करने का उसका संकल्प और भी कड़ा हो जाता।

परमाणु संधि पर पी5+1 समूह (जिसे ईयू3+3 भी कहा जाता है और जिसमें चीन, फ्रांस, जर्मनी, रूस, ब्रिटेन तथा अमेरिका शामिल हैं) और ईरान ने 14 जुलाई, 2015 को हस्ताक्षर किए। समझौते के अंतर्गत ईरान ने दोहराया कि वह किसी भी परिस्थिति में परमाणु हथियार बनाने या हासिल करने का प्रयास करेगा। संधि के अंतर्गत ईरान को अपने परमाणु संयंत्र आईएईए के निरीक्षण के लिए खोलने थे और बदले में उसके ऊपर लगे परमाणु संबंधी आर्थिक प्रतिबंध हटाए जाने थे।

परमाणु संधि में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर समयबद्ध प्रतिबंध का प्रावधान है12-

10 वर्ष के लिए - सेंट्रीफ्यूज में 2/3 तक कमी और यूरेनियम का संवर्द्धन करने वाले संयंत्रों में कमी, नए सेंट्रीफ्यूज के अनुसंधान को सीमित करना।

15 वर्ष के लिए - यूरेनियम के भंडार में 97 प्रतिशत तक कमी, संवर्द्धन में 3.67 प्रतिशत तक कमी और नए संयंत्रों के निर्माण पर रोक। अनुसंधान रिएक्टर में बदलाव कर प्लूटोनियम के उत्पादन में 90 प्रतिशत तक कटौती और कोई नया रिएक्टर नहीं।

20 वर्ष के लिए - सेंट्रीफ्यूज उत्पादन पर नजर रखे जाने की अनुमति देना।

25 वर्ष के लिए - यूरेनियम की सभी खानों एवं चक्कियों की निगरानी की अनुमति, केवल मंजूरी प्राप्त स्रोतों से ही परमाणु तकनीक की खरीद।

स्थायी तौर पर - घोषित एवं संदिग्ध अघोषित प्रतिष्ठानों के निरीक्षण की अनुमति, परमाणु हथियारों पर किसी भी तरह का कार्य रोक देना, प्लूटोनियम निकालने के लिए ईंधन के पुनर्प्रसंस्करण से दूर रहना।

बदले में अमेरिका द्वारा लगाए गए अधिकतर, यूरोपीय संघ द्वारा लगाए गए लगभग सभी और संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए अधिकतर प्रतिबंध हटा दिए गए या रोक दिए गए। किंतु केवल परमाणु संबंधित प्रतिबंध हटाए गए और आतंकवाद को ईरान के समर्थन तथा वहां मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़े प्रतिबंध जारी हैं। अमेरिका ने ईरान के ऊपर से आतंकवाद प्रायोजक देश की मुहर हटाने या उस पर पुनर्विचार करने संबंधी कोई भी वायदा जेसीपीओए में नहीं किया।

संधि के अन्य प्रमुख प्रावधान हैं:

  • स्नैपबैक प्रावधानः परमाणु संधि (अनुच्छेद 36 और 37) में एक प्रावधान है, जिसके अंतर्गत यदि ईरान शर्तों का अनुपालन ठीक तरीके से नहीं करता है तो उस पर संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंध दोबारा लगाए जा सकते हैं।
  • संधि में इस बात पर सहमति है कि जब तक ईरान अनुपालन करता है तब तक कोई भी पक्ष हटाए गए या टाले गए प्रतिबंधों को दोबारा नहीं लगाएगा। यदि ईरान द्वारा अनुपालन नहीं किए जाने के अलावा किसी और आधार पर अमेरिका ने प्रतिबंध दोबारा लगाए तो ईरान किसी भी प्रकार की परमाणु संधि को मानने के लिए बाध्य नहीं होगा। ईरान के अनुसार इस प्रावधान के कारण उस पर “गैर-परमाणु” आधार पर प्रतिबंध दोबारा नहीं थोपे जा सकेंगे। इससे ईरान पश्चिम एशिया में हिजबुल्ला के समर्थन जैसी गतिविधियां बेरोकटोक चला सकता है।
  • हथियारों की बिक्री पर संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों की समाप्तिः ये प्रतिबंध परमाणु संधि लागू होने पर नहीं बल्कि कई वर्षों बाद समाप्त होंगे। ईरान को पारंपरिक हथियारों की बिक्री तथा ईरान द्वारा हथियारों के निर्यात पर प्रतिबंध 5 वर्ष में ही समाप्त कर दिए जाएंगे। परमाणु क्षमता संपन्न युद्धक मिसाइल के विकास पर प्रतिबंध 8 वर्ष में खत्म होगा। ये प्रावधान विशेष रूप से ईरान के लिए उसके सैन्य आधुनिकीकरण के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं और उसे संधि का पालन करने के लिए खासा प्रोत्साहित करते हैं।

ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम के अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण की जो अनुमति दी है, उसका श्रेय अमेरिका आर्थिक प्रतिबंधों को देता है और मानता है कि ये प्रतिबंध ही ईरान को संधि की शर्तें मानने के लिए विवश कर रहे हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका ने अपने प्रतिबंधों को केवल टाला क्यों है और उन्हें लागू करने वाले विधायी प्रावधान अभी तक प्रभावी क्यों हैं और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध दोबारा लागू किए जाने का प्रावधान परमाणु संधि में क्यों है।

ईरान ने संधि स्वीकार क्यों की?

आर्थिक प्रतिबंधों ने ईरान की अर्थव्यवस्था को बहुत हानि पहुंचाई और उनके कारण उसकी जनता ने जो कष्ट झेले, उन कष्टों ने 2013 के राष्ट्रपति चुनावों में हसन रुहानी की जीत में बड़ी भूमिका अदा की क्योंकि रुहानी ने अपने चुनाव अभियान के दौरान आर्थिक बेहतरी के और पश्चिम के साथ संबंधों में सुधार का वायदा किया था। इसके लिए परमाणु संधि अपरिहार्य थी किंतु इसका पूरा श्रेय आर्थिक प्रतिबंधों को देना परमाणु कार्यक्रम के पीछे की ईरानी मंशा तथा कठिनाइयां झेलने की ईरानी सरकार की क्षमता की गलत व्याख्या करना होगा। अमेरिका 1980 के दशक से ही प्रतिबंध लगा रहा है, इसलिए यह कल्पना करना कठिन है कि ईरान ने प्रतिबंधों की गंभीरता का पहले से अंदाजा नहीं लगाया होगा।

परमाणु संधि से ईरान की दीर्घकालिक सामरिक योजना का अंदाजा लगता है और वह बातचीत के लिए तभी तैयार हुआ, जब वह परमाणु जानकारी में माहिर हो गया और किसी भी विदेशी शक्ति को आक्रमण करने से रोकने के लायक परमाणु क्षमता तैयार करने के अपने उद्देश्य में वह सफल हो गया। दुश्मन को हथियार और ताकत दिखाकर ही नहीं रोका जाता बल्कि दुश्मन के मन में बनी धारणा भी उसे रोक देती है। मार्च 2013 में अमेरिका के राष्ट्रीय खुफि निदेशक जेम्स क्लैपर ने संसद के सामने जो गवाही दी, उसमें यह बात साफ झलकती है। उन्होंने कहा कि “तेहरान के पास परमाणु हथियार तैयार करने की वैज्ञानिक, तकनीकी और औद्योगिक क्षमता है। अब मसला यही है कि ऐसा करने की राजनीतिक इच्छा उसमें है या नहीं।”13

परमाणु क्षमता की दहलीज पर खड़े रहना उसे हासिल करने की बनिस्बत ईरान के लिए ज्यादा फायेदमंद है। इसी के कारण अमेरिका उसके साथ संधि के लिए ज्यादा बेचैन हो गया और बातचीत में ईरान का पलड़ा भारी रहा। इसीलिए ईरान संधि को केवल परमाणु हथियारों तक सीमित कराने में और युद्धक मिसाइल परीक्षणों समेत दूसरी गतिविधियों को इससे अलग रखवाने में सफल हो गया।

दूसरी ओर परमाणु हथियारों के भौतिक प्रदर्शन से पश्चिम एशिया में उसे संभावित प्रतिद्वंद्वी जैसे सऊदी अरब, मिस्र और तुर्की अमेरिका, इजरायल और यूरोप के साथ एकजुट हो गए होते और इस तरह क्षेत्रीय नेता बनने के उसके दीर्घकालिक उद्देश्य की राह में बाधा आ जाती। इसके अलावा अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए विदेशी पूंजी और प्रौद्योगिकी हासिल करने के तथा सैन्य आधुनिकीकरण के लिए हथियारों का आयात करने के ईरान के विकल्प भी बंद हो जाते।

निष्कर्ष

यह मानना जल्दबाजी होगी कि परमाणु संधि के साथ ही ईरान ने अपने परमाणु विकल्प समाप्त कर लिए हैं। ईरान को परमाणु विकल्पों की ओर ले जाने वाली स्थितियां हमेशा रहेंगी और इसीलिए ईरान भविष्य में परमाणु हथियारों के अपने विकल्प संभवतः खुले रखेगा।

भारत को इस संभावना को समझना होगा और इसके लिए योजना बनानी होगी। परमाणु क्षमता संपन्न ईरान पश्चिम एशिया के परमाणुकरण को और अस्थिरता को बढ़ावा देगा। सऊदी अरब ने पहले ही संकेत दे दिया है कि यदि ईरान परमाणु हथियार बनाता है तो वह भी बम बनाएगा। भारत की सुरक्षा और आर्थिक हितों की रक्षा के लिए स्थिर एवं शांतिपूर्ण पश्चिम एशिया अनिवार्य है। इस कारण भारत के लिए ईरान के साथ संपर्क बढ़ाना और मजबूत आर्थिक एवं राजनीतिक रिश्ते कायम करना बहुत जरूरी है। विश्व समुदाय में पूरी तरह जुड़ा हुआ और पश्चिम एशिया में अपने न्यायोचित मुकाम पर पहुंचा ईरान ही परमाणु विकल्पों की जरूरत और आकर्षण को अनदेखा कर सकता है।

संदर्भ:

  1. http://www.bbc.com/news/world-middle-east-34555008
  2. http://edition.cnn.com/2016/03/09/middleeast/iran-missile-test/
  3. http://www.tehrantimes.com/news/301079/Iran-s-parliament-ratifies bill-t...
  4. http://www.nti.org/learn/countries/iran/nuclear/
  5. अमेरिका के विशेष राष्‍ट्रीय खुफिया आकलन, अगस्‍त 1974 का पृष्‍ठ 38 देखें। पीडीएफ देखने के लिए - http://nsarchive.gwu.edu/NSAEBB/NSAEBB240/snie.pdf
  6. अमेरिका के विशेष राष्‍ट्रीय खुफिया आकलन, अगस्‍त 1974 का पृष्‍ठ 38 देखें। पीडीएफ देखने के लिए - http://nsarchive.gwu.edu/NSAEBB/NSAEBB240/snie.pdf
  7. आईएईए के महानिदेशक की 15 नवंबर, 2994 की रिपोर्ट ‘इंप्‍लीमेंटेशन ऑफ द एनपीटी सेफगार्ड्स एग्रीमेंट इन द इस्‍लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान’। लिंक - https://www.iaea.org/sites/default/files/gov2004-83.pdfhttp://www.cfr.org/iran/international-sanctions-iran/p20258
  8. 10 अगस्‍त, 2005 को आईएईए की आपात बैठक में ईरान का बयान देखें। लिंक - http://fas.org/nuke/guide/iran/nuke/mehr080905.html
  9. https://www.washingtonpost.com/news/fact-checker/wp/2013/11/27/did-irans...
  10. http://www.washingtoninstitute.org/policy-analysis/view/remarks-of-treas...
  11. रिपोर्ट उपलब्‍ध है - https://assets.documentcloud.org/documents/2631873/IAEA-document.pdf
  12. http://iranprimer.usip.org/resource/all-you-need-know-nuclear-deal
  13. अमेरिका की राष्‍ट्रीय सुरक्षा को खतरे के बारे में संसद की तदर्थ खुफिया समिति की सुनवाई, 12 मार्च, 2013। उपलब्‍ध है - https://fas.org/irp/congress/2013_hr/threat.pdf

Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 6th July 2016, Image Source: http://iranprimer.usip.org
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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