चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के निहितार्थ
Jayadeva Ranade

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बहुचर्चित पाकिस्तान दौरे (20-21 अप्रैल, 2015) के दौरान चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) स्थापित करने की घोषणा हुई थी। 46 बिलियन यूएस डालर की अनुमानित राशि से शुरू किया जाने वाला यह गलियारा एक प्रखर भू-आर्थिक पहल है जिससे क्षेत्र में सामरिक बदलाव देखने को मिलेंगे। यह चीन की रणनीति की सिफारिशों को लागू करने की दिशा में पहला कदम है, जिसके तहत ‘‘क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय वातावरण में चीन को न केवल एकीकृत करना है बल्कि उसे आकार देने की शुरुआत करनी है, क्योंकि चीन के पास अब इसे कर दिखाने की क्षमता है।’’ इसने यथास्थिति और जड़वत सीमा-रेखाओं को बदलने की शुरुआत कर दी है।

सीपीईसी चीन के लिए पाकिस्तान में पूर्व-अपेक्षित आर्थिक, सैनिक और रणनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए प्लेटफार्म तैयार करेगा। चीनी कंपनियों के साथ चीन के समर्थन से पाकिस्तान में अवसंरचना, ऊर्जा और सैन्य के कुल 51 परियोजनाओं के लिए समझौता, यह दिखाता है कि बिजिंग का पाकिस्तान के साथ गठजोड़ दीर्घावधि के लिए हुआ है। इसके लिए पाकिस्तान को चीन पर निर्भरता बढ़ाने की जरूरत होगी क्योंकि विद्युत उत्पादन, परिवहन, वाणिज्य, अनुसंधान एवं विकास और पाकिस्तान की प्रतिरक्षा बृहत् रूप से चीन के निवेश और चीन के हित पर निर्भर करेगा। शी जिनपिंग की इस्लामाबाद यात्रा से लगभग छह माह पूर्व, अफगानिस्तान-पाकिस्तान पर शोध करने में विशेषज्ञता वाले एक प्रभावी वरिष्ठ चीनी अकादमी जिसे समय-समय पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की सेंट्रल कमिटि (सीसी) के पोलित ब्यूरो को सूचनाएं देने के लिए बुलाया जाता है, ने एक निजी बातचीत में कहा कि ‘‘पहले हमने पाकिस्तानियों की निष्ठा को खरीदा था, अब हम पाकिस्तान को खरीदेंगे!’’

पाकिस्तान की अपनी आधिकारिक यात्रा के साथ ही शी जिनपिंग, पाकिस्तान जाने वाले दूसरे चीनी नेता हुए, उनसे पहले नौ वर्ष पूर्व हू जिंताओं ने 23-26 नवंबर, 2006 को पाकिस्तान की यात्रा की थी। भारत के प्रधानमंत्री मोदी के चीन में आगमन से ऐन तीन हफ्ते पहले जिनपिंग की सोची समझी पाकिस्तान यात्रा काफी महत्वपूर्ण थी और इससे एक मजबूत नीति की शुरुआत के संकेत मिलते हैं।

इससे यह संकेत मिलता है कि अपने राष्ट्रीय हितों के लिए बीजिंग को राजनयिक रूप से भी भारत की चिंताओं के प्रति गंभीर भाव में दिखने की आवश्यकता नहीं है और ऊर्जा से भरपूर भारत-अमेरिका संबंध की पृष्ठभूमि में भारत पर भारी दबाव डालने के लिए भी चीन को पाकिस्तान की जरूरत होगी। यह भी समान रूप से स्पष्ट है कि चीन के नेतृत्व ने निर्धारित कर लिया है कि पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को व्यापक तौर पर ऊपर उठाने से ही उसके राजनयिक हित सही प्रकार से सधेंगे और यह भी कि, यह उद्देश्य चीन के अपने पड़ोसियों से मैत्रीपूर्ण और शांतिपूर्ण संबंध सुनिश्चित करने सहित अन्य विदेश नीति के विचार पर एक साया होगा।

सीपीईसी के तहत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और गिलगित तथा बाल्टिस्तान के क्षेत्रों में कई प्रमुख नागरिक और सैन्य अवसंरचना परियोजनाओं के निर्माण की घोषणा करके, चीन ने पाकिस्तान के कश्मीर, गिलगित और बाल्टिस्तान पर अवैध कब्जे को तथ्यतः ‘वैधता’ दे दी है, इसके साथ ही साथ पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में स्थित शाख्सगाम घाटी को 1963 में पाकिस्तान ने अवैध रूप से चीन को सौंप दिया था।

इस प्रकार बीजिंग ने कश्मीर मामले में भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर भारत की चिंताओं की अनदेखी कर दशकों की अस्पष्टता को दरकिनार करते हुए पाकिस्तान का साथ दिया है। शी जिनपिंग की यात्रा के दौरान, उसी हफ्ते में वरिष्ठ चीनी नेताओं और अधिकारियों ने पाकिस्तान को चीन का ‘‘सहयोगी’’ और ‘‘एकमात्र दोस्त’’ बताया था। संघुआ विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंध संस्थान के निदेशक और चीन के सामरिक मामलों के प्रभावशाली विश्लेषक प्रो. यान जितोंग, जो कि शी जिनपिंग के करीबी भी हैं, ने जब न्यू याॅर्क टाइम्स को 9 फरवरी, 2016 को कहा, ‘‘पाकिस्तान, चीन का केवल एकमात्र विश्वासपात्र सहयोगी है’’, तब यह प्रगाढ होता संबंध चर्चा में आया था। सीपीईसी के दूरगामी निहितार्थ हैं।

चीनी सहायक विदेश मंत्री लियू जियानचाओ द्वारा अप्रैल 2015 के मध्य में की गई कृपालु टिप्पणी, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘चीन और पाकिस्तान के बीच की इस परियोजना का भारत और पाकिस्तान के बीच प्रासंगिक विवाद से कोई संबंध नहीं है। मुझे नहीं लगता कि इसे लेकर भारतीय पक्ष को अत्यधिक चिंतित होने की आवश्यकता है’’, इससे चीन के असल रवैये की झलक मिलती है। बीजिंग की ओर से यह टिप्पणी सामान्यतः वियतनामी जल क्षेत्र में अपतटीय अन्वेषण के भारत के प्रयासों और दक्षिण चीन सागर विवाद पर भारत के रुख से उभरे मतभेदों पर कठोर प्रतिक्रिया है। प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के कुछ सप्ताह बाद ही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के वरिष्ठ अधिकारियों और प्रभावशाली चीनी शिक्षाविदों की तरफ से भारत के लिए यह सुझाव आना कि भारत भी सीपीईसी से जुड़ कर लाभ उठा सकता है, समान रूप से असंवेदनशील था।

इन वर्षों में चीन ने पाकिस्तान की सेना, नौकरशाही और राजनयिक कोर में एक ठोस समर्थकों का समूह तैयार कर लिया है, ये सभी चीन के साथ घनिष्ठ सामरिक संबंध का प्रबल समर्थन करते हैं। उन्होंने चीन द्वारा ग्वादर बंदरगाह का विकास और प्रबंधन तथा सीपीईसी के लिए समर्थन किया था। 2010 के बाद से अमेरिका की तुलना में चीन में पाकिस्तान के सशस्त्र बलों के अधिकारियों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। अप्रैल 2015 में, शी जिनपिंग के पाकिस्तान आगमन से कुछ सप्ताह पहले, पाकिस्तान के पूर्व राजदूत रिजाज खोकर ने मौजूदा खुफिया सहयोग को ऊपर उठाने की जरूरत की ओर संकेत किया था और चीन की सरकारी ग्लोबल टाइम्स में लिखा था कि दोनों देशों को ब्लूचिस्तान में सक्रिय शत्रुतापूर्ण तत्वों की पहचान करनी चाहिए।

बाद में, भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों के बीच बैठक से पहले, 17 अप्रैल, 2016 को ‘डॉन’ में प्रकाशिक एक लेख में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत मुनीर अकरम ने कहा, ‘‘इतन लंबे समय से भारत की ओर से जगजाहिर रूप से तहरीक-ए-तालिबान और बलूची लिबरेशन आर्मी, को निरंतर रूप से समर्थन दिए जाने के बाद भी यदि पाकिस्तान कश्मीरी लोगों द्वारा स्वतंत्रता और आत्म-निर्णय के लिए किए जा रहे उनके वैध संघर्ष का समर्थन करने का विकल्प छोड़ देता है, तो यह पाकिस्तान का मूर्खतापूर्ण कदम होगा।’’ चीन के साथ बहुत अधिक घनिष्ठ संबंधों का उल्लेख करते हुए उन्होंने चीन के साथ रणनीतिक सहयोग को महत्वपूर्ण बताया। कुछ पाकिस्तानी प्रांतीय नेताओं द्वारा सीपीईसी पर विरोध और शंका जाहिर करने के बावजूद, जनरल राहील शरीफ के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना ने इसका जबर्दस्त समर्थन किया।

कुछ प्रमुख पाकिस्तानी पत्रकारों और शिक्षाविदों ने सीपीईसी केंद्रों का यह कहते हुए विरोध किया है कि यहां से दिए जाने वाले ऋण की ब्याज दर ऊंची है और परियोजनाएं विशेष तौर पर ऊर्जा परियोजनाएं व्यावसायिक रूप से अव्यावहारिक हैं। पाकिस्तान के प्रांतीय और स्थानीय नेता परिवहन गलियारे के लिए नामित मार्गों और पंजाब तथा सिंध में स्थापित होने वाले परियोजनाओं के स्थान को लेकर, बहुमत की चिंता में आपत्ति दर्ज करा रहे हैं। वहां भारी असंतोष इस बात को लेकर भी है कि परियोजना निर्माण स्थलों पर केवल चीनी श्रमिकों को ही रोजगार मिलेगा और सुरक्षा कारणों के चलते इसे 10 फुट ऊंची दीवारों की परिधि के अंदर घेरा जाएगा। ब्लूचिस्तान और उत्तरी क्षेत्रों में स्थानीय लोगों ने कथित तौर पर अपने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और इन परियोजनाओं में रोजगार नहीं दिए जाने पर रोष प्रकट किया है। इसने आलोचकों को इस परियोजना से पाकिस्तान और पाकिस्तानियों के मिलने वाले लाभ और सीपीईसी से पाकिस्तान पर पड़ने वाले ऋण के बोझ को लेकर प्रश्न खड़े करने पर बाध्य किया है।

ब्लूचिस्तान में चीनी श्रमिकों पर हुए हमले के बाद सुरक्षा एक गंभीर चिंता का विषय है और अब जाकर चीनी अधिकारियों और कर्मचारियों ने अपने को ग्वादर तक ही सीमित कर लिया है, जहां सेना और पुलिस द्वारा भारी सुरक्षा प्रदान की जाती है। मई, 2016 में कराची में हुए बम विस्फोट में एक चीनी इंजीनियर और उसके चालक घायल हो गए थे। इससे हमलों के और बढ़ने के संकेत मिलते हैं। बम विस्फोट की जिम्मेदारी सिंधुदेश रिवोल्यूशनरी आर्मी, ने ली थी, जो स्वतंत्र सिंध की मांग करने वाला अल्प चर्चित अलगाववादी समूह है।

ब्लूचिस्तान और अन्य क्षेत्रों में चीनी सहायता प्राप्त परियोजनाओं पर काम करने वाले चीनी कंपनियों और उनके कर्मचारियों की चिंता को दूर करने के लिए, पाकिस्तानी सेना ने मेजर जनरल अब्दुल रफीक के नेतृत्व में फ्रंटियर कोर, पुलिस और एकत्रित सेनाओं को मिलाकर 10,000 जवानों की एक मजबूत टुकड़ी खड़ी की है। नवंबर 2015 में, चीन के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय (एमपीएस) के उप महानिदेशक, क्यू. यू. जैनगिंग ने चीनी विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों सुश्री लिली और झांग माओमिंग के साथ सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेने के लिए ग्वादर का दौरा किया था और ब्लूचिस्तान के गृह सचिव मेजर जनरल अजहर नवीद तथा पाकिस्तानी सेना व सिविल के वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की थी।

तब से वहां कई उच्च-स्तरीय चीनी सुरक्षा और सैन्य प्रतिनिधिमंडलों ने पाकिस्तान का दौरा किया है, जिसमें सीपीईसी परियोजना स्थल भी शामिल हैं। प्रतिनिधिमंडलों ने स्थानीय नेताओं, सरकारी अधिकारियों से मुलाकात की और पाकिस्तानी सेना तथा आईएसआई अधिकारियों से इस्लामाबाद, रावलपिंडी, ग्वादर और क्वेटा में निकटता से संवाद किया। इस वर्ष अप्रैल में कम से कम दो सम्मेलन ग्वादर और क्वेटा में आयोजित हुए। जैसे कि, ग्वादर में दो दिवसीय (11-13 अप्रैल, 2016) ‘नेशनल कान्फ्रेंस’ आयोजित किया गया था, जिसमें नेताओं, प्रमुख नागरिकों और पाकिस्तानी सेना तथा आईएसआई के 30 से अधिक अधिकारियों और इस्लामाबाद से चीनी राजनयिकों ने भाग लिया।

एक ओर जहां चीन ने पाकिस्तानी सेना के नए सुरक्षा बल की सराहना की है, वहीं एक विश्वसनीय जानकारी यह है कि जनवरी, 2016 के आरंभ में बीजिंग ने इस्लामाबाद को सूचित किया है कि वह पीओके, गिलगित, बाल्टिस्तान के क्षेत्रों सहित सीपीईसी में सुरक्षा प्रदान करने हेतु तैनाती के लिए चीन में निजी सेना की एक मजबूत दल खड़ा कर रहा है।

चीनी सुरक्षा कर्मियों को पाकिस्तान द्वारा प्रदान किए गए सुरक्षा बलों के अलावा तैनात किया जाना है। चीन के पास पहले से ही आवश्यक कानूनी संरचना है जो उसे विदेशों में चीन के राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के लिए अपने सैनिकों और सुरक्षा कर्मियों की तैनाती की अनुमति प्रदान करता है। अन्य कदम चीन के निवेश की सुरक्षा के लिए उठाए जा रहे हैं। 7 जनवरी, 2016 को डॉन में प्रकाशित एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया कि पाकिस्तान गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र की संवैधानिक स्थिति को सीपीईसी के अनुमान के मुताबिक अद्यतन करने की योजना बना रहा है।

गिलगित-बाल्टिस्तान के एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने इस ‘प्रस्तावित चीनी निवेश’ को एक वैधानिक कवर प्रदान करने की मुहिम करार दिया। क्योंकि चीन एक ऐसे विवादित क्षेत्र में जहां भारत और पाकिस्तान दोनों अपना-अपना दावा करते हैं, वहां पर अरबों डॉलर निवेश करने का जोखिम नहीं उठा सकता है। गिलगित-बाल्टिस्तान पर चीन ने अपने रुख के संकेत 1980 के दशक में ही दे दिए थे, जब इसकी सरकारी मीडिया ने इस क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा बताया था।

इस कदम के कई अन्य प्रमुख निहितार्थ हैं। इस क्षेत्र की विधायी शक्तियों में इजाफा कर, इसे अपने राजस्व पर नियंत्रण प्रदान कर और तिस पर भी बतौर पर्यवेक्षक पहली बार पाकिस्तान की संघीय संसद में यहां के दो सदस्यों को प्रतिनिधित्व करने की अनुमति देकर कश्मीर के इस क्षेत्र को पाकिस्तान में मिलाने की कोशिश हो रही है।

पाकिस्तानी सामरिक विश्लेषक आयशा सिद्दिकी ने इस कदम को, संभावित रूप से इस क्षेत्र पर अपना नियंत्रण स्थापित कर और इससे आगे बढ़ कर कश्मीर के दूसरे भाग, जैसे कश्मीर घाटी पर नई दिल्ली के दावे को स्वीकार कर, कश्मीर टकराव का अंत करने की इस्लामाबाद की इच्छा के रूप में विश्लेषित किया है। उन्होंने कहा, ‘‘यदि हम भारत की तरह ही इसे स्वीकारने की ओर बढ़ते हैं, तो इससे घाटी पर उनके अधिकार को वैधता मिलती है।’’

हालांकि, यह खूंटे का एक महीन सिरा साबित हो सकता है, क्योंकि पाकिस्तान चीन के साथ अपने संबंधों के उन्नयन के बाद से नए जोश से परिपूर्ण दिखाई पड़ रहा है। कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने का नए सिरे से प्रयास, पिछले साल भर में कश्मीर में बेचैनी और हिंसा में इजाफा और भारत में आगे कहीं भी आतंकवादी हमलों की अत्यधिक संभावना, इसके उदाहरण हैं। इससे पहले बीजिंग ने भारत के आंतरिक मामलों में और विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर में हस्तक्षेप करने के तब संकेत दिए थे, जब 2010 में एक तथाकथित चीनी एनजीओ ने हुर्रियत ‘नेता’ मीरवाइज उमर फारूक को चीन के लिए आमंत्रित किया था। तब मीरवाइज उमर फारूक ने कहा था कश्मीर मुद्दे के निपटारे में चीन की एक अहम भूमिका है। अभी हाल ही में 14 मार्च, 2016 को, डेक्कन क्रॉनिकल ने पाकिस्तान समर्थित हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टर रुख वाले सैयद अली शाह गिलानी के हवाले से ‘‘चीन को कश्मीर के लोगों का एक विश्वसनीय दोस्त’’ करार दिया और कहा कि वह चीन के बिना शर्त समर्थन और हिमालयी राज्यों को भारत द्वारा अवैध और जबरन कब्जे को मान्यता नहीं देने के प्रति बहुत आभारी है।

चीन ने अलग-अलग मौकों पर कश्मीर पर भी अपना दावा किया है। 1954 में प्रकाशित एक सरकारी चीनी नक्शा - अभी भी चीनी स्कूलों के पाठ्य पुस्तकों में इस्तेमाल किया जाता है, उसमें साम्राज्यवादी’ शक्तियों द्वारा कब्जाए गए क्षेत्रों को दर्शाया गया है, जिसे चीन वापस हासिल करने की बात करता है। अरुणाचल प्रदेश और अंडमान द्वीपों के साथ ही लद्दाख इस क्षेत्र का हिस्सा है।

1 मार्च, 1992 को ‘शिजी झिशी’ (वैश्विक मामले) ने जम्मू-कश्मीर राज्य के बिना भारत का एक नक्शा प्रकाशित किया जिसमें कश्मीर को चीन के हिस्से के रूप में दिखाया गया था। इसी तरह के कई अन्य दावे भी किए गए हैं। अगस्त, 2010 से चीन ने जम्मू और कश्मीर राज्य के समूचे क्षेत्र को ‘विवादित’ करार दिया और राज्य के निवासियों को ‘नत्थी वीजा’ जारी करने की शुरुआत की। चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने अगस्त 2014 में नई दिल्ली में अपने संवाददाता सम्मेलन में बीजिंग के रुख को सावधानीपूर्वक बयान करते हुए जोर देकर कहा कि चीन द्वारा नत्थी वीजा का मुद्दा ‘एकतरफा’, ‘लचीला’, ‘सद्भावनापूर्ण’ कदम है या दूसरे शब्दों में कहें तो अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की स्थिति विवादित बनी हुई है।

उल्लेखनीय है कि चीनी प्रधानमंत्री ली केकियांग की अप्रैल 2013 में पहली भारत यात्रा से कुछ समय पूर्व ही लद्दाख के देपसंग मैदान में चीनी घुसपैठ के तुरंत बाद ही, बीजिंग ने लद्दाख पर अपने दावे को दोहरा दिया।

14 मई, 2013 को, कम्युनिस्ट यूथ लीग (सीवाईएल) की आधिकारिक मुखपत्र, झोंगुओ किंगनीयनबाओ (चीनी युवा न्यूज), जिसका प्रभावशाली रूप उच्च प्रसार संख्या है, ने एक लंबा लेख प्रकाशित किया, जिसमें दावा किया गया था कि लद्दाख क्षेत्र ‘‘प्राचीन काल से ही तिब्बत का हिस्सा रहा है ...’’ और यह कि ‘‘लद्दाख 1830 के दशक तक, चीनी राजवंश के केंद्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्र में था।’’ इसमें आगे कहा गया ‘‘यद्यपि यह कश्मीर के भीतर है, लद्दाख संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाज, और भाषा के संदर्भ में, तिब्बत के समान है और लंबे समय तक इसे ‘‘छोटा तिब्बत’’ कहा जाता था।

सीपीईसी के पास एक निश्चित सैन्य घटक है। झिंजियांग-उईघुर स्वायत्त क्षेत्र में काशगर से रावलपिंडी में पाकिस्तानी सेना के जीएचक्यू को जोड़ने वाली एक सुरक्षित फाइबर ऑप्टिक कड़ी 44 मिलियन यूएस डाॅलर की लागत से बिछाई जा रही है। यह पाकिस्तान और चीन के बीच करीबी सैन्य समन्वय का द्योतक है। यह खुंजेराब, करीमाबाद, गिलगित, बाबुसर चोटी, नारन, मानसेहरा और झरीकाज से गुजरती है। काशगर, तत्कालीन लान्चो सैन्य क्षेत्र के दक्षिण झिंजियांग सैन्य का जिला मुख्यालय है, इसे अब झिंजियांग सैन्य कमान के रूप में जाना जाता है। इसका पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के पश्चिमी रंगमंच कमांड या पश्चिम क्षेत्र में विलय कर दिया गया है। जनवरी 2016 में स्थापित पीएलए के पश्चिमी क्षेत्र की जिम्मेदारियों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान के साथ सीमा की सुरक्षा, सीपीईसी में चीनी निवेश और परियोजनाओं की रक्षा, भारत के साथ लगने वाली चीन के भूमि सीमाओं की रक्षा और ‘‘झिंजियांग और तिब्बत के साथ-साथ अफगानिस्तान और अलगाववादियों तथा चरमपंथियों के लिए प्रशिक्षण अड्डों वाले अन्य राज्यों के खतरों’’ पर ध्यान केंद्रित करना, शामिल है।

तत्कालीन लान्चो सैन्य क्षेत्र द्वारा जनवरी 2015 में प्राप्त निर्देश से पुष्टि होती है कि पश्चिम क्षेत्र की प्रतिबद्धता अफगानिस्तान, पाकिस्तान और सीपीईसी में लंबे समय तक रही है। निर्देश में कहा गया है कि चूनींदा परिचालन और सीमा सुरक्षा अधिकारियों को ‘‘सूचना एकत्रित करने’’ और ‘‘संयुक्त संचालन कमांड’’ में प्रशिक्षित किया जाना है। उन सीमा रक्षा कॉलेजों में अधिकारियों को ‘‘सीमा विमर्श’’ और मोर्टार के उपयोग में प्रशिक्षित करते हैं, और विशिष्ट रूप से, इसके सबसे ‘‘अहम जवानों’’ को पश्तो और उर्दू भाषाओं में प्रशिक्षित किया जा रहा है।

पश्चिमी क्षेत्र के परिचालन क्षेत्राधिकार को समय के साथ अपेक्षित रूप से बढ़ाते हुए इसमें ग्वादर बंदरगाह और पूर्वी अफ्रीका में चीन के समुचित आर्थिक हितों और निवेश, जहां चीन ने बहुत हाल ही में जिबूती में एक आधार के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, को शामिल किया गया है। ग्वादर में चीन का हित 2002 से ही स्पष्ट है, जहां इसके पास ‘‘बंदरगाह सुविधाओं के उपयोग की स्वच्छंता है’’ और रिपोर्टों में दावा किया गया है कि इसने होर्मुज और अरब सागर के जलडमरूमध्य क्षेत्र में जहाज यातायात की निगरानी करने के लिए, इलेक्ट्रॉनिक निगेहवान पोस्ट की स्थापना की है। कुल नौ परियोजनाओं का लगभग अनुमान लगाया गया। अब सीपीईसी के हिस्से के रूप में ग्वादर के आसपास चीन के वाणिज्यिक और सैन्य क्षमता, प्रत्येक के संचालन के लिए 1 बिलियन यूएस डॉलर (या 46 बिलियन यूएस डालर के 2 प्रतिशत), प्रत्येक में वृद्धि करने के उद्देश्य से, योजना बनाई है। इनमें एक नया अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा (230 मिलियन यूएस डालर); ग्वादर पूर्व की एक्सप्रेसवे (141 मिलियन यूएस डालर ); तरंग-रोधों का निर्माण (123 मिलियन यूएस डालर); जहाज ठहरने के स्थान और नहरों का निकर्षण (27 मिलियन यूएस डालर); स्वतंत्र क्षेत्र और ईपीजेड तथा बंदरगाह से संबंधित उद्योगों के लिए अवसंरचना (32 मिलियन यूएस डालर); स्वच्छ जल उपचार और आपूर्ति संयंत्र (130 मिलियन यूएस डालर); ग्वादर में हास्पिटल (100 मिलियन यूएस डालर); और एक तकनीकी एवं व्यावसायिक संस्थान (10 मिलियन यूएस डालर) शामिल है।

ग्वादर में चीन के जारी हित को अप्रैल 2016 में तब रेखांकित किया गया था जब, सीपीईसी परियोजनाओं के कार्यान्वयन पर मतभेदों को शांत करने के लिए, इसने ग्वादर में एक नया अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट बनाने के लिए बतौर अनुदान 230 मिलियन यूएस डालर की अनुमानित लागत को वहन करने का निर्णय लिया था। बीजिंग को अभी तक यह भी तय करना है कि ग्वादर के आसपास अन्य परियोजनाओं के लिए दिए गए ऋण पर ब्याज वसूल किया जाएगा या कि इसे भी अनुदान समझा जाए।

सीपीईसी पर केंद्रित चीन और पाकिस्तान के बीच तनाव विशेष तौर पर इस साल की शुरुआत से लेकर कम से कम अप्रैल के अंत तक अपने चरम पर था, इसमें पाकिस्तान की शिकायत थी कि उससे जो भी अपेक्षित था उसने उसे पूरा किया है लेकिन अब चीन अपने पांव पीछे खींचते हुए प्रतीत हो रहा है। इसे स्वीकारते हुए कि ‘‘सीपीईसी परस्पर विचार-विमर्श के सिद्धांत पर आधारित कई अरब डॉलर की बृहत् परियोजना’’ है, पाकिस्तानी अधिकारियों ने निर्माण कार्यों में असुविधा, आर्थिक लाभों और विशेष परियोजनाओं की लागत की गणना करने में अवांछनीय देरी पर शिकायत की थी।

इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि सीपीईसी से जुड़ी परिस्थिति लगभग उस स्तर पर पहुंच गई है जहां ‘‘आपसी विचार-विमर्श परस्पर आरोप-प्रत्यारोप में बदल जाता है।’’ अप्रैल 2016 के अंत में, चीन ने पाकिस्तानी अधिकारियों को सूचित किया कि वह पाकिस्तान के लिए लाभकारी और अधिक लचीला वित्तीय व्यवस्था को अपनाएगा।

बीजिंग ने कहा कि वह चीनी कंपनियों से आग्रह करेगा कि वे समाज कल्याण की परियोजनाओं में पैसा लगाएं और अनुदान या शून्य ब्याज दर पर ऋण के आधार पर ‘‘जरूरतमंद अल्पावधि परियोजनाओं’’ में निवेश करें। चिन्हित सामाजिक कल्याण परियोजनाओं में ग्वादर में एक जल उपचार संयंत्र और एक अस्पताल शामिल हैं। यह धनराशि, ग्वादर में नए अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के निर्माण के लिए 230 मिलियन यूएस डालर की अनुमानित लागत जिसे चीन अनुदान के तौर पर मुहैया कराएगा, से अतिरिक्त है।

चीन ने एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी), ब्रिक्स की न्यू डेवलपमेंट बैंक, सिल्क रोड फंड और संभवतः एससीओ डेवलपमेंट बैंक जैसे अपने सहयोग से स्थापित वित्तीय संस्थाओं को चिन्हित कर लिया है, जिसकी सहायता ‘वन बेल्ट, वन रोड’ (ओबीओआर) के विकास के लिए लिया जाएगा। सीपीईसी ओबीओआर का ही एक हिस्सा है। एआईआईबी ओबीओआर की वित्तीय इकाई के रूप में कार्य करेगा। चीन के अपने सामरिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से सीपीईसी में परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पाकिस्तान को दी गई वित्तीय सहायता में विस्तार करने हेतु इन बैंकों, विशेषकर एआआईबी और ब्रिक्स न्यू डेवलपमेंट बैंक का उपयोग करने के चीन का फैसला तत्काल रूप से भारत को परीक्षा की स्थिति में ला देगा। 9 मई, 2016 को अंग्रेजी भाषा की आधिकारिक चीनी समाचार पत्र ने एआईआईबी की घोषणा प्रकाशित की जिसमें कहा गया था कि एआईआईबी, एशियाई विकास बैंक (एडीबी) के साथ मिलकर पाकिस्तान में 300 मिलियन यूएस डालर की हाईवे परियोजना के लिए वित्तीय सहायता देंगे। इस बात पर जोर देते हुए कहा गया कि ‘‘पाकिस्तान चीन का मजबूत सहयोगी है।’’ रिपोर्ट में संकेत किया गया कि वहां इस प्रकार की कई अन्य परियोजनाएं भी हो सकती हैं। यह मामला बिल्कुल उसी मामले के समान है, जब भारत के पूर्वोत्तर में स्थित राज्य अरुणाचल प्रदेश में गरीबी उन्मूलन परियोजनाओं के लिए विकासात्मक सहायता को रोकने हेतु चीन ने एडीबी के साथ अपने आर्थिक ताकत का इस्तेमाल इस आधार पर किया था कि यह क्षेत्र ‘विवादास्पद’ है। सीपीईसी को भी भारत की ओर से विवादित क्षेत्र के दावे से होकर गुजरना होगा।

पाकिस्तान की स्थिरता या सीपीईसी के मसले पर वहां के प्रांतीय नेताओं और सेना के बीच पाकिस्तान के भीतर मतभेदों पर चीनी रणनीतिकारों द्वारा शंका जाहिर करने के बावजूद, सीपीईसी पर समझौते के बाद चीन के साथ उन्नत हुए संबंधों से पहले से ही पाकिस्तान को लाभ मिल रहा है। पाकिस्तान के साथ उन्नत रिश्ते के लिए बीजिंग की प्रतिबद्धता, मई 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजिंग यात्रा के समय ही तब स्पष्ट हो गया था, जब शियान में प्रधानमंत्री मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के समक्ष सीमा मुद्दा उठाया और दूसरे पक्ष से कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं मिली। इसके बजाय, मोदी को पाकिस्तान पर चीन के रुख से अवगत कराया गया और चीन ने दलाई लामा का मुद्दा उठाया। प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के कुछ हफ्ते बाद एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने बीजिंग में केंद्रीय चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के उच्च स्तरीय और सैन्य अधिकारियों से मुलाकात की। सेंट्रल पार्टी स्कूल के कार्यकारी उपाध्यक्ष के नेतृत्व में चीनी प्रतिनिधिमंडल ने भी इसी तरह सीमा विवाद या सीमा घुसपैठ पर किसी भी तरह की चर्चा से परहेज किया। हालांकि, विचार-विमर्श के अंत में, ही यितिंग नाम के एक सेवानिवृत्त लेकिन प्रभावशाली जनरल जो तब तक एक पीएलए थिंक टैंक से संबद्ध थे, पाकिस्तान के चीन के साथ घनिष्ठ संबंध को रेखांकित किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि भारत को पाकिस्तान के साथ तनाव को कम करना चाहिए, और उसे कश्मीर विवाद को हल करना चाहिए और उसके बाद ही चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार होगा। उनकी टिप्पणियों का खण्डन नहीं किया गया।

इस उन्नत रिश्ते से पाकिस्तान का हौसला बढ़ा हुआ प्रतीत होता है। इस साल के शुरुआत में पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल राहील शरीफ की चेतावनी ‘‘कश्मीर विभाजन का एक अधूरा एजेंडा है। पाकिस्तान और कश्मीर अविभाज्य हैं’’, एक सूचक है। लगभग बीच में आकर बीजिंग को पाकिस्तान के प्रति जताई गई अपनी प्रतिबद्धता से डिगने की संभावना नहीं है।

पाकिस्तान को इसके अतिरिक्त ठोस लाभ दिया गया है। परमाणु शिखर सम्मेलन (31 मार्च- 1 अप्रैल, 2016) के मौके पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच प्रस्तावित बैठक, जिसमें अंततः उपस्थित नहीं हो पाए थे, दोनों पक्ष पाकिस्तान की तरफ चीन का ‘‘राजनयिक विस्तार या अन्य ठोस समर्थन’’ पर चर्चा करने वाले थे। इसका मकसद था अमेरिका के उस जिद का जवाब देना जिसमें वह बार-बार कहता है कि पाकिस्तान अपने सामरिक परमाणु हथियारों के विकास पर धीमी गति से बढ़ रहा है। द्विपक्षीय खुफिया सहयोग भी बढ़ा है और अब इसमें अफगानिस्तान पर परिचालन जानकारी का आदान-प्रदान, तालिबान और उसके नेताओं से जुड़े घटनाक्रमों और अफगानिस्तान के एनएसडी तथा भारत की रॉ के परिचालन गतिविधियों की ट्रैकिंग से संबंधित मामले भी शामिल हो गए हैं। फिर भी पाकिस्तान के लिए बीजिंग के समर्थन की एक और झलक, संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध समिति में, जहां यूनाइटेड जिहाद काउंसिल के सैयद सलाहुद्दीन को सूची में डालने; वित्तीय प्रतिबंध के बावजूद लश्कर-ए-तैय्यबा (एलईटी) प्रमुख हाफिज सईद के धन के स्रोत की जांच करने, पाकिस्तान से यह पूछने के लिए कि कैसे लश्कर कमांडर जकी-उर-रहमान लखवी की जमानत दे दी गई और पाकिस्तान ने अपने अदालतों से उसे मुक्त हो जाने दिया; के भारत के अनुरोध को चीन ने रोक रखा है, और सबसे हाल ही में, जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) के प्रमुख मसूद अजहर के मामले में भारत के अनुरोध को अवरुद्ध किया है। इसने पाकिस्तान में आतंकवादी नेताओं के हौसले को बढ़ाया है।

पाकिस्तान और चीन मिलकर यह सुनिश्चित करने के काम में लगे हैं कि भारत विस्तारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पूर्ण वीटो अधिकार के साथ एक स्थायी सदस्य के रूप में प्रवेश न पा सके। इस तरह के सहयोग का एक ज्वलंत उदाहरण परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश की प्रक्रिया के दौरान हाल ही में उनकी समन्वित गतिविधि थी। यह सहयोग, शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) तक विस्तारित होगा।

चीन और पाकिस्तान के बीच में समस्याएं और मतभेद अगले कुछ वर्षों में सतह पर उभरने की संभावना है। यद्यपि, बीजिंग, पाकिस्तान में अपनी रणनीतिक निवेश को छोड़ने के प्रति अनिच्छुक रहेगा और रिश्ते को बनाए रखने की कोशिश करेगा, लेकिन आगे चलकर और अधिक वित्तीय निवेश पर कठोर हो जाएगा। वादे किए गए निवेश को पूरा करने के बीजिंग का मौजूदा ट्रैक रिकॉर्ड मुश्किल से 6-12 प्रतिशत है और यह स्थिति शीध्र बदलने वाली नहीं है, जिससे पाकिस्तान की हताशा में वृद्धि होगी। सीपीईसी सीधे तौर पर इस असंतोष को बढ़ाएगा क्योंकि, जैसे ही एक बार पीओके, गिलगित, बाल्टिस्तान और ब्लूचिस्तान में ताप विद्युत परियोजनाओं के काम पूरे हो जाएंगे, बिजली के प्रति इकाई टैरिफ काफी महंगा होगा, क्योंकि कोयले का आयात झिंजियांग से किया जाएगा। इसके अलावा, जैसे ही पाकिस्तान ऋण चुकाने की शुरुआत करेगा, इस्लामाबाद को एहसास होगा कि ब्याज दर बहुत अधिक है और पाकिस्तान पर वित्तीय बोझ बढ़ेगा। ब्याज दर को पुनः निर्धारित कराना लगभग असंभव हो जाएगा, क्योंकि इस तरह का प्रयास श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना, मार्च 2016 में अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान कर चुके हैं, तब चीन ने इस याचिका पर शर्तों को फिर से निर्धारित करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि यह शी जिनपिंग के निजी पहल ‘वन बेल्ट, वन रोड’ का हिस्सा है, और इसमें किसी बदलाव से ‘‘छवि की हानि’’ होगी। अंततः, सीपीईसी चीन के संवेदनशील और अशांत झिंजियांग-उईघुर स्वायत्तशासी क्षेत्र में कठोर युद्ध वाले उईघुरों की वापसी सहित कट्टरपंथी इस्लामी तत्वों के प्रसार के लिए जमीन तैयार करेगा। पाकिस्तान के तेजी से बढ़ रही कट्टरता को रेखांकित करते हुए जमात-उद-दावा (जेयूडी) और लश्कर-ए-तैय्यबा (एलईटी) के प्रमुख हाफिज सईद ने मई 2016 के अंत में नवाज शरीफ सरकार को ‘‘कुछ साहस दिखाने और चीन को इस्लामी भावनाओं को आहत करने से खुद को अलग रहने के निर्देश देने के लिए’’ कहा। धार्मिक मामलों के पाकिस्तानी मंत्रालय के एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल बाद में 28 जून, 2016 को चीनी अधिकारियों द्वारा झिंजियांग-उईघुर स्वायत्तशासी क्षेत्र में रमजान के पवित्र महीने में उपवास पर प्रतिबंध लगाने की खबरों की सत्यता को जाँचने हेतु चीन के लिए रवाना हुआ। हाफिज सईद वह पहला पाकिस्तानी नागरिक है जिसने चीन में मुसलमानों की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त की। पहले आईएसआईएस ने अलग से झिंजियांग-उईघुर स्वायत्तशासी क्षेत्र को निशाना बनाया था। ये सभी बढ़ती मुसीबतों के स्पष्ट संकेत हैं।

इस बीच, मध्यम अवधि के आसपास भारत को बढ़े हुए दबाव का सामना करना पड़ सकता है। अमेरिका अफगानिस्तान शासन के खत्म होने की स्थिति में वहां पूरी तरह से मजबूत प्रभाव जमाने, तथाकथित ‘रणनीतिक गहराई’ प्राप्त करने, और अफगानिस्तान में भारत को बाहर या हाशिए पर डालने के पाकिस्तानी प्रयास को चीन अपना पूरा समर्थन देगा। अमेरिका, चीन और पाकिस्तान के हित अफगानिस्तान पर एकाग्र हो गए हैं। इसका सबूत इस बात से मिलता है कि केवल अमेरिका, चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान पाकिस्तान में उग्रवादी समूहों के साथ प्रत्यक्ष शांति वार्ता आयोजित करने का निर्णय कर रहे हैं।

कुछ अमेरिकी शिक्षाविद और अधिकारी अलग से यह सिफारिश कर रहे हैं कि अमेरिका को सीपीईसी में भागीदारी करनी चाहिए। बीजिंग का हित कश्मीर, गिलगित और बाल्टिस्तान पर पाकिस्तान के कब्जे को चुपचाप तरीके से भारत को स्वीकार करा देने में होगी। वह कश्मीर मुद्दे में भूमिका के लिए हुर्रियत के साथ अपने संपर्क का फायदा उठा सकता है। चीन और पाकिस्तान दोनों भारत को सैन्य और कूटनीतिक दबाव के तहत रखेंगे।

(लेखक मंत्रिमंडल सचिवालय, भारत सरकार में पूर्व अपर सचिव रहे हैं और चीन विश्लेषण और रणनीति केंद्र के अध्यक्ष हैं।)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Published Date: 3rd August 2016, Image Source: https://en.wikipedia.org
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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