मोदी की सऊदी अरब यात्रा : जितना बताया गया उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण
Lt General S A Hasnain, PVSM, UYSM, AVSM, SM (Bar), VSM (Bar) (Retd.), Distinguished Fellow, VIF

ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री मोदी के सलाहकारों ने उनके विरोधियों द्वारा उनकी विदेश यात्राओं की दूर-दर्शिता और उससे जुड़ी खबरों के मीडिया में छाये रहने की आलोचना को दिल पर ले लिया है। वरना ऐसा कोई और कारण नजर नहीं आता जिससे कि ऐसे सही समय पर हुई इतनी महत्वपूर्ण यात्रा को अखबारों के अंदर के पृष्ठों पर जगह मिले और टीवी मीडिया इस यात्रा से पहले किसी तरह का माहौल ना बनाए।

जब सऊदी अरब जैसे देश की बात आती है तो यात्रा से जुड़ा रोमांचकारी माहौल न के बराबर रह जाता है। तुलनात्मक रूप से सऊदी अरब की अपेक्षा खाड़ी देश संयुक्त अरब अमीरात में अधिक खुलेपन वाली सामाजिक स्थितियां होने की वजह से प्रधानमंत्री मोदी की उस यात्रा को खासा महत्व दिया गया था। जबकि उनकी सऊदी अरब की यह यात्रा ज्यादातर भू-राजनीति, व्यापार, ऊर्जा, कट्टरपंथ, आतंकवाद और आतंकवाद से मुकाबले से सम्बंधित है। इसमें आमतौर पर वह सब कुछ आ जाता है, जिसपर प्रधानमंत्री सऊदी अरब के नेताओं से विचार-विमर्श कर रहे हैं। वहां प्रवासी भारतीयों से मिलने अथवा संवाद का बहुत बड़ा ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है जिससे कि माहौल बने। यह यात्रा व्यापार और आपसी हितों के संबंध में है और संभवतः यही कारण है कि मीडिया इसमें अधिक दिलचस्पी नहीं दिखा रही। वहां तकरीबन 30 लाख प्रवासी हैं, लेकिन तुलनात्मक रूप से देखें तो उनकी सामाजिक स्थिति बेहद निम्नस्तरीय है। यह एक गंभीर वास्तविकता है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके उनके द्वारा भारत में इतने बड़े स्तर पर आर्थिक प्रेषण किया जाता है कि उनकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। विशेष तौर पर जब ईरान से तमाम पाबंदियां हट चुकी हैं और उसके नए उभार के बाद राष्ट्रपति रोहानी इस्लामाबाद की यात्रा कर चुके हैं एवं चीन के राष्ट्रपति शी जिंनपिंग तेहरान जा चुके हैं, ऐसे में मोदी की इस यात्रा के समय चयन (समझा जा रहा है कि इसमें थोड़ी देर हुई) और इसके एजेंडे में ईरान को शामिल नहीं किये जाने को लेकर भी इसकी आलोचना हो रही है। यह एक अलग विषय है, लेकिन इन दो महत्वपूर्ण देशों के बीच संतुलन बनाना वास्तव में महत्वपूर्ण है। हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी अगर सऊदी अरब को कुछ दे सकते हैं तो उसे अपने मित्र देश के रूप में एक ख़ास जगह दे सकते हैं, जब उसके दोस्त तेजी से उसका साथ छोड़ रहे हैं। आमतौर पर अंतर्राष्ट्रीय रणनीतिकारों का वर्ग इस बात को मानने लगा है कि सऊदी की ताकत घट रही है। तेल की घटती कीमतों की वजह से वहां आर्थिक बदहाली बढ़ती जा रही है और कट्टरपंथी वहाबी संस्कृति के प्रोत्साहनकारी समर्थन के कारण इसकी कड़ी आलोचना भी हो रही है। हाल ही में एक शिया मौलवी को निशाना बनाने के कारण दुनिया के तमाम देशों ने इससे किनारा कर लिया है तो वहीँ कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यमन में दिशाहीन और व्यर्थ के युद्ध की वजह से भी इसको दोस्त हासिल नहीं हो रहे हैं। सच्चाई यह है कि पश्चिमी देश जॉइन्ट काम्प्रीहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA) या ईरान परमाणु समझौते के बाद ईरान को लेकर स्वंय के दृष्टिकोण का मूल्यांकन कर रहे हैं। यद्यपि ईरान के साथ संबंध महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सऊदी अरब के साथ उनके संबंध की बुनियाद पर नहीं।

यही दृष्टिकोण भारत को भी विकसित करने की जरुरत है। इससे कोई इनकार नहीं है कि मोदी सरकार पूरी तरह से यही करने का प्रयास कर रही है लेकिन दुर्भाग्य से इस बात को ठीक प्रकार से सामने नहीं लाया जा रहा, क्योंकि मीडिया में विशेषज्ञ इन दो देशों के साथ रिश्तों के बारे में अभी भी 'या तो यह या तो वह' की बात कर रहे हैं। हालांकि इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री मोदी की इस सऊदी अरब यात्रा को इसलिए भी अधिक चर्चा में नहीं लाया गया क्योंकि इससे ईरान को नकारात्मक सन्देश जा सकता था।

यहां दांव पर क्या लगा है, यह सब जानते हैं। संक्षिप्त में कहें तो अनवरत ऊर्जा की आपूर्ति उनमें से एक महत्वपूर्ण विषय है। हालांकि सऊदी अरब भारत की तेजी से बढ़ती ऊर्जा जरुरतों से खुश है और ऊर्जा उत्पादों की कम कीमतों के कारण आपूर्ति बढ़ने की भी पूरी संभावना है, लेकिन साथ ही साथ हमें ये भी समझना होगा कि यह संकट की स्थिति है। खाड़ी का इलाका अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से अत्यंत संवेदनशील है, जिससे अनवरत आपूर्ति में बाधा आ सकती है। इस तरह की आकस्मिक घटनाओं के लिए भारत और सऊदी अरब को लगातार संवाद एवं परामर्श कायम रखने की आवश्यकता है। मध्यपूर्व में भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार होने के कारण इसके आर्थिक महत्व को भी कम करके नहीं आंका जा सकता। हालांकि, दस खरब डॉलर से अधिक धन निवेश करने की सऊदी अरब की इच्छा और भी महत्वपूर्ण है। भारत भी इसमें हिस्सा जरुर चाहता होगा। लेकिन हाल में ही कोलकाता में फ्लाई ओवर गिरने की दुर्घटना से उसकी इस उम्मीद और आत्मविश्वास को झटका अवश्य लगा होगा। इसमें कोई शक नहीं कि बहुत सारे आपसी समझौते किए जाएंगें और विदेश यात्राओं में यह आम बात है। अब सफलता का प्रमाण तो यही होगा कि संज्ञान में आये इन उच्च स्तरीय समझौतों के बाद इनमे निर्धारित कितने कार्यों का धरातल पर क्रियान्वयन भी किया जाता है । प्रवासियों का मुद्दा अपने आप में महत्वपूर्ण है। यह समझा जा रहा है कि मध्यपूर्व में भारतीय मजदूरों का बाजार घट रहा है और फिलीपींस उसकी जगह ले रहा है। प्रवासियों से आने वाला पैसा भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा रहा है और अभी भी है। ऐसे में प्रवासियों को प्रेरित करना और यह दिखाना कि उनके देश की सरकार उनके लिए कितनी चिंतित है, बहुत जरुरी है। यह उस देश की सरकार जहां कि वे काम कर रहे हैं, को पर्याप्त संदेश देता है कि भारतीय कामगारों से वे अच्छा व्यवहार करें।

इसमें कोई शक नहीं कि व्यापार, कारोबार और ऊर्जा महत्वपूर्ण हैं। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा का आकलन इस बात से भी किया जाएगा कि इसमें सामरिक दृष्टि से क्या हासिल किया गया है! आंतकवाद से मुकाबला, कट्टरवाद और कट्टरवाद का खात्मा, दाएश से निपटना और सबसे जरुरी पी (p) शब्द के संदर्भ के बिना संबंध स्थापित करना है। भारत और भारत के बाहर दुनिया के तमाम सामरिक मामलों के जानकारों द्वारा व्यापक तौर पर यह माना जाता रहा है कि अनियमित युद्ध के जरिए भारत पर निशाना साधने की ज़िया(Zia) योजना और पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम दोनों को ही सऊदी अरब से नजदीकी सहायता मिली थी। इसके बावजूद भारत और सऊदी अरब के रिश्ते संतुलित बने रहे। सऊदी अरब जम्मू-कश्मीर के मामले में भी पाकिस्तान को अनिवार्य समर्थन देता रहा है जिसके कारण इस सम्बन्ध में पाकिस्तान का हौसला बढ़ा रहता है। सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच विशेष सैन्य संबंध हैं, जिसके कारण पाकिस्तान द्वारा रियाद में शाही परिवार को सुरक्षा प्रदान की जाती है। इस पर कुछ संदेह तब खड़ा हुआ जब पाकिस्तान ने सऊदी अरब के समर्थन में यमन में फौज भेजने से मना कर दिया। हालांकि सीरिया और शिया गठबंधन को संदेश देने के लिए सऊदी अरब द्वारा हाल में किए गए नार्दन थंडर नाम के अभ्यास में हुई क्षतिपूर्ति के रुप में पाकिस्तान ने पूरी तरह से सऊदी का साथ दिया।

मोदी की यात्रा का समय बिल्कुल सही है। जब एक राष्ट्र जूझता है और अपनी रणनीतिक स्थिति, राजनैतिक कूटनीति और नेताओं के बीच अपने गिरते व्यक्तिगत संबंधों को स्वीकार करने में खुद को मुश्किल हालातों में पाता है तो मजबूत संबंध बनाने की पूरी कोशिश करता है। भारत के सऊदी अरब से संबंधों को कमजोर करने के पाकिस्तानी प्रयासों के बावजूद हमेशा भारत और सऊदी अरब के सम्बन्ध अच्छे बने रहे हैं। कुछ वर्ष पहले सऊदी अरब के शाह भारतीय गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि थे। ऐसे समय में जब एक राजनैतिक-रणनीतिक इकाई के तौर पर सऊदी अरब की अहमियत कम होने की संभावना है, ऐसे समय में भारत अगर सऊदी अरब से संबंधों को महत्व देता है तो इससे दोनों देशों के बीच भविष्य के संबंधों को मजबूती मिलने की संभावना है।

सऊदी अरब भू-रणनीतिक रुप से इतने अहम स्थान पर है कि वर्तमान में उसका कमजोर स्थिति में होना सिर्फ एक अस्थायी समस्या है, जो कुछ वर्ष तक जारी रह सकती है। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री ने सऊदी युवराज को आतंकी हमले और परमाणु आंतकवाद की जटिलताओं के बारे में समझाया होगा। इस बात की उम्मीद है कि उन्होंने पाकिस्तान में परमाणु दुर्घटना होने की स्थिति में पाकिस्तान से होने वाले परमाणु आतंक के खतरे के बारे में भी बताया होगा। अब जबकि इजराइल और सऊदी अरब साझा ईरानी खतरे के कारण दोस्त के रुप में सामने आ रहे हैं तो यह भारत के लिए दूरदर्शिता दिखाने और इजराइल व ईरान के बीच संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में कोशिश करने का मौका है, जिसमें आगे चलकर सऊदी अरब को भी शामिल किया जा सकता है। आशा है कि इस बारे में चर्चा की गई होगी और जल्द ही भविष्य में इसका परिणाम भी दिखाई देगा।

`प्रधानमंत्री मोदी की मध्यपूर्व की यह दूसरी यात्रा है। वे कुछ समय बाद इजराइल की यात्रा पर जाएंगें, जिसके साथ बहुत से राष्ट्रों द्वारा उनके आधिकारिक रुख से अलग हटकर व्यवहार किया जाता है। तब तक, ईरान की यात्रा को लेकर विस्तृत योजना नहीं बनाने से भी परेशानी भरे संदेश जाएंगे। क्या इन दोनों देशों की यात्रा एक के बाद एक या एक ही दौरे में हो सकती है! यह निर्णय लेना दिलचस्प होगा और इसमें से बहुत कुछ मध्यपूर्व के बदलते माहौल की व्यापक समझ पर भी निर्भर करेगा।


Translated by: Shiwanand Dwivedi
Published Date: 11th April 2016, Image Source: http://www.dnaindia.com
(Disclaimer: The views and opinions expressed in this article are those of the author and do not necessarily reflect the official policy or position of the Vivekananda International Foundation)

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