पहले देश में मानव संसाधन को बढ़ावा दें फिर पूरा करें ‘भारत में रक्षा उपकरण बनाने का सपना’ Printer-friendly version
Lalit Joshi

भूमिका

इस वर्ष मार्च में रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) 2016 प्रस्तुत की गई, जिसमें ‘नीतिगत ढांचे की रचना समेत डीपीपी-2013 में संशोधन’ के लिए रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सभी सुझावों को शामिल गया है। रक्षा मंत्रालय को रक्षा खरीद स्वदेश से ही करने के प्रयास करते हुए दो दशक से अधिक हो चुके हैं, लेकिन अभी तक उसके सीमित परिणाम ही आए हैं, जैसा भारत के भारी-भरकम रक्षा आयात बजट से भी पता चलता है। 2002 के बाद से जारी की गईं पिछली डीपीपी इस बात के प्रमाण हैं कि नई डीपीपी जारी करना ही सफलता की गारंटी नहीं हो सकता। भारत हथियारों की अपनी 70 प्रतिशत जरूरत अब भी आयात से ही पूरी करता है और विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयातक है। (सिप्री रिपोर्ट, 2015)

डीपीपी 2016 एक मामले में पिछली प्रक्रियाओं से अलग है क्योंकि इसमें पहली बार परियोजना प्रबंधन इकाइयों में कार्यकाल लगातार जारी रहने एवं मानव संसाधन के प्रोत्साहन पर जोर दिया गया है। अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया में इस सुझाव को यत्नपूर्वक लागू किया गया तो रक्षा उपकरण भारत में बनाने अर्थात् ‘मेक डिफेंस इक्विपमेंट इन इंडिया (एमडीईआई)’ के कार्यक्रम को अमली जामा पहनाने में यह बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और इसके लिए व्यापक रूपरेखा तथा कार्य योजना तैयार करनी होगी। सुनिश्चित रणनीति की अनुपस्थिति में मानव संसाधन के ज्ञान को सुदृढ़ करने का प्रस्ताव कागजों में ही फंसा रह सकता है, जिससे एमडीईआई कार्यक्रम की सफलता पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। डीपीपी को लगातार संशोधित करने एवं रक्षा खरीद में तेजी, पारदर्शिता एवं ईमानदारी लाने के लिए पर्याप्त ऊर्जा एवं संसाधन खर्च किए गए हैं, लेकिन रक्षा प्रक्रिया में लिप्त कर्मियों के पास इस क्षेत्र की पर्याप्त जानकारी के अभाव से प्रभावी तरीके से निपटने की ओर अभी तक ध्यान नहीं दिया गया है। यह शोधपत्र इसी की पड़ताल का प्रयास करेगा।

अपने पत्र “डीपीपी 2013 का क्रियान्वयन” में एयर वाइस मार्शल मनमोहन बहादुर ने कहा है, “असैन्य एवं सैन्य दोनों क्षेत्रों से मनोनीत किए गए कार्मिकों में खरीद की प्रक्रिया में स्थायी विशेषज्ञता का अभाव बड़ी समस्या है। सेना के भीतर इस प्रकार के मानव संसाधन का कोई व्यवस्थित कैडर प्रबंधन नहीं होता, इसीलिए अक्सर किसी भी जगह से, कभीकभार तो युद्धक्षेत्र से भी किसी अधिकारी को खरीद विभाग में भेज दिया जाता है और उसे खरीद की बारीकियों के बारे में कुछ भी नहीं पता होता। ऐसी ही स्थिति रक्षा मंत्रालय में भी दिखती है, जहां एक मंत्रालय से दूसरे मंत्रालय में तबादले क्षेत्र की विशेषज्ञता के बजाय करियर को आगे बढ़ाने की अनिवार्यता के कारण होते हैं।”1

चूंकि हमारे सशस्त्र बलों के लिए कर्मचारियों और माल आदि की व्यवस्था का रक्षा बजट में 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा होता है, इसलिए रक्षा खरीद में कुशल मानव संसाधन की अपेक्षाकृत कमी से देश में मानव संसाधन विकास संस्कृति की अनुपस्थिति की खेदजनक तस्वीर दिखती है। क्या डीपीपी 2016 रक्षा खरीद प्रक्रिया में सुधार कर रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल कर लेगी? कर सकती है अगर उपलब्ध कुशल मानव संसाधन का पुनर्गठन किया जाए तथा रक्षा खरीद में मानव कौशल को एकत्र कर मजबूत करने के काम को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए, जो अभी तक नहीं किया गया है।

सरकार डीपीपी 2016 का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए इस बार क्या अलग कर सकती है? यह शोधपत्र रक्षा सेवाओं एवं रक्षा मंत्रालय में अभी मौजूद प्रशिक्षित एवं प्रेरित मानव संसाधनों का पुनर्गठन कर, उन्हें नई दिशा देकर और उन्हें तर्कसंगत बनाकर तथा कोई भी नई संस्था खोले बगैर स्वदेशीकरण के लक्ष्य हेतु रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। शोधपत्र में विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट और डीपीपी 2016 से बहुत अधिक जानकारी, विशेषज्ञता एवं सामग्री ली गई है। इसमें रक्षा लॉजिस्टिक के क्षेत्र में काम कर रहे व्यक्ति का दृष्टिकाण और सुझाव जोड़े गए हैं, जिनसे एमडीईआई कार्यक्रम चलाने की समिति एवं डीपीपी 2016 की मंशा के वास्तविक क्रियान्वयन में मदद मिलेगी। सबसे पहले हम डीपीपी 2016 के लक्ष्य और विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में दिए गए एमडीईआई ढांचे पर बात करते हैं ताकि हम समझ सकें कि इस प्रक्रिया में जुटने वाले मानव संसाधन का काम कितना बड़ा और पेचीदगी भरा है।

डीपीपी 2016 का लक्ष्य

डीपीपी का प्राथमिक लक्ष्य सशस्त्र बलों को वांछित मात्रा में और वांछित समय के भीतर आवश्यक रक्षा सामग्री उपलब्ध कराना है ताकि वे अपना कार्य पूरी क्षमता के साथ कर सकें। किंतु इसे सामरिक क्षमता प्रदान करने के लिहाज से रक्षा बलों के लिए अहम उपकरणों के डिजाइन, विकास एवं उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करने के दीर्घकालिक लक्ष्य पर भी काम करना चाहिए। इस प्रक्रिया में निष्पक्ष, पारदर्शी, सक्षम और जवाबदेह प्रणाली के मुख्य घटक समाहित होने चाहिए। इसे अपने घटकों के बीच विश्वास का निर्माण करना चाहिए और उसे मजबूत करना चाहिए।2

रक्षा सामग्री का उपयोग करने वालों की आवश्यकताओं, क्षमताओं एवं तैयारी पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बगैर उसके आयात तथा उसके स्वदेशी विनिर्माण के बीच वर्तमान असंतुलन को उलट देना ही रक्षा क्षेत्र के लिए एमडीईआई नीति का लक्ष्य होना चाहिए। चूंकि हर क्षेत्र में रातोरात स्वदेशी क्षमता हासिल नहीं की जा सकती, इसलिए चरणबद्ध तरीका अपनाना होगा, जिसमें सावधानी के साथ मेक इन इंडिया श्रेणी को बढ़ावा देना होगा और स्वदेशी सामग्री में अच्छा खासा इजाफा करना होगा। साथ ही ‘मेक इन इंडिया’ की अवधारणा ‘असेंबल इन इंडिया’ यानी बाहर से पुर्जे लाकर भारत में जोड़ने और उपकरण बनाने भर की कवायद न बन जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए डिजाइन तैयार करने, विकास करने और विनिर्माण करने की क्षमता तथा दी गई प्रणाली की सर्विस करने, उसे संभालने और उसका उन्नयन करने की क्षमता हासिल करना भी आवश्यक है।

‘मेक इन इंडिया’ पर सरकार के स्पष्ट जोर ने रक्षा क्षेत्र में भारतीय रक्षा उद्योग तथा इस क्षेत्र के अंतरराष्ट्रीय दिग्गजों के लिए अभूतपूर्व मौका उत्पन्न कर दिया है। आर्थिक शक्ति के रूप में भारत के उभार, रक्षा तैयारी की उसकी जरूरतों और उसके जीवंत औद्योगिक आधार के भीतर ‘मेक डिफेंस इक्विपमेंट इन इंडिया (एमडीईआई)’ कार्यक्रम को यथार्थ का जामा पहनाने और इसका लाभ दूसरे क्षेत्रों को भी प्रदान करने की क्षमता है। इस प्रक्रिया को चालू और मजबूत करने एवं ऐसी व्यवस्था तैयार करने की जिम्मेदारी रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत मानव संसाधन के कंधों पर रहती है, जिस व्यवस्था में डिजाइन, अनुसंधान एवं विकास, विनिर्माण, रखरखाव, उन्नयन तथा निर्यात की क्षमताओं को बढ़ावा मिले। किंतु यह ध्यान रखना होगा कि सैन्य और असैन्य खरीद के तौर-तरीके अलग होते हैं क्योंकि पहले में मुनाफे का उद्देश्य नहीं होता और दूसरे का लक्ष्य मुनाफा होता है। इस कारण संतुलन बिठाने में प्रबंधन संबंधी बड़ी चुनौती होती है। इस टकराव का सफल समाधान ही स्वदेशीकरण तथा किसी प्रणाली अथवा उपकरण को सेना में शामिल किए जाने के कई दशकों बाद तक लॉजिस्टिक सहायता प्रदान करने की कुंजी है।

डीपीपी 2016 और विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में उल्लिखित महत्वपूर्ण कार्य

डीपीपी में एमडीईआई कार्यक्रम में सक्रिय भूमिका के लिए अनुकूल स्थितियां तैयार करने, स्वदेशीकरण में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) की संभावना बढ़ाने तथा देश में रक्षा अनुसंधान एवं विकास का आधार बढ़ाने का स्पष्ट उद्देश्य दिया गया है। इसमें इतनी बारीकी बरती गई है कि रक्षा उपकरणों की गुणवत्ता के लिए परीक्षण सुविधाएं स्थापित करने (तब तक निजी उद्योग को गुणवत्ता का आश्वासन देने वाले संगठनों तथा रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की परीक्षण सुविधाओं का प्रयोग करने देने की अंतरिम सिफारिश), निजी उद्योग द्वारा विकसित किए गए उपकरणों एवं प्रणालियों का उपयोग कर उनका मूल्यांकन करने, अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) पर खर्च बढ़ाने के लिए निजी रक्षा क्षेत्र को प्रोत्साहन देने तथा निर्यात संवर्द्धन एवं सभी स्तरों पर कौशल विकास की रूपरेखा तैयार कर दी गई है।

आपूर्तिकर्ताओं को एकल खिड़की से मंजूरी - निजी उद्योग विशेषकर एमएसएमई को रक्षा मंत्रालय में सूचना एवं सहूलियत के लिए एक ही स्थान पर सुविधा नहीं होने से बड़ी दिक्कत होती है। उद्योग सुविधा पटल बनाने से संभावित प्रतिभागियों को अपने सामर्थ्य वाले क्षेत्रों में अपनी क्षमता का जायजा लेने और उसे बढ़ाने में पर्याप्त मदद मिल जाएगी और आवश्यकता पड़ने पर वे विदेशी उपकरण विनिर्माताओं के साथ गठजोड़ भी कर सकेंगे। ‘एकल खिड़की प्रणाली’ इच्छुक आपूर्तिकर्ताओं को परियोजना प्रस्ताव मंजूर कराते समय नियामकीय एवं अनुपालन संबंधी जरूरतें पूरी करने में मदद करेगी। यह कार्य नियमित बातचीत, सूचनाओं के आदान-प्रदान के जरिये एवं लाइसेंस, परीक्षण सुविधाओं तथा ऑफसेट पालन के क्षेत्र में सहूलियत दिलाते हुए निजी उद्योग के साथ दोतरफा संवाद कायम कर किया जाएगा। बिलों के भुगतान में देरी जैसा आम मामला भी परेशान कर सकता है और एमएसएमई को खास तौर पर झटका दे सकता है।

रक्षा सेवाओं के लिए परीक्षण स्थलों के प्रयोग की सुविधा - मूल्यांकन परीक्षणों के क्षेत्र को डीपीपी 2016 में अधिग्रहण श्रृंखला में देर करने वाले सबसे अहम कारकों मं् गिना गया है। फिलहाल परीक्षण स्थलों पर सेना तथा डीआरडीओ का पूरा नियंत्रण है और निजी उद्योगों के प्रति उनकी कोई दायित्व नहीं है। इस मामले में निजी उद्योग की सहायता के लिए औपचारिक प्रक्रिया एवं प्रणाली निर्धारित करने की आवश्यकता है, जिसके बदले भुगतान लिया जा सकता है। रक्षा उद्योग के जीवंत आधार में बड़े, मझोले और लघु उद्योग होने ही चाहिए ताकि राष्ट्रीय विनिर्माण आधार का प्रयोग भी हो सके और उसे मजबूती भी मिल सके। विदेशी आपूर्तिकर्ताओं (वेंडरों) पर निर्भरता कम से कम करने के लिए रचनात्मक, दीर्घकालिक साझेदारी करना रणनीतिक रूप से अनिवार्य है। किसी भी प्रणाली के उत्पादन अगर लगातार और अधिक मात्रा में होता है तो उसकी लागत का अधिक से अधिक उपयोग हो जाता है और उत्पादन क्षमता में भी सुधार होता है। इसीलिए रक्षा मंत्रालय के विभाग अथवा मेल कराने वाले किसी भी विभाग को एमडीईआई के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साथ मिलकर काम करना चाहिए।

वेंडर का चयन - रणनीतिक एवं विकास संबंधी साझेदारों के चयन के लिए पारदर्शी चयन प्रक्रिया का प्रयोग होगा। इसके बाद हिस्सा लेने वाली औद्योगिक इकाइयों को ऐसी व्यवस्था में साथ आना होगा, जिसमें रखरखाव, मरम्मत, पूरी जांच, उत्पाद संबंधी सहायता, उन्नयन तथा बाद की खरीद के लिए दीर्घकालिक संबंधों (रक्षा सामग्री 30 से 40 वर्ष तक चलती रहती है) की जरूरत होती है। वेंडरों की रेटिंग के लिए सशक्त व्यवस्था कायम करनी होगी और वेंडरों को बार-बार बदलने की प्रवृत्ति समाप्त करनी होगी क्योंकि ऑर्डर की मात्रा कम होती है और एक ही खरीदार होता है, इसीलिए नया वेंडर आएगा तो पुराने वेंडर को आपूर्ति श्रृंखला से बाहर करना होगा। नए वेंडरों को प्रमाणित करने एवं उनके उत्पादों की गुणवत्ता जांचने में समय भी खर्च हो जाता है।

उच्च सुरक्षा क्षेत्रों में खरीद विभागों तक पहुंच - विशेषज्ञ समिति ने एक और वास्तविक कठिनाई यह बताई कि उद्योग रक्षा मंत्रालय के उच्च सुरक्षा वाले क्षेत्रों में स्थित विभिन्न कार्यालयों तक आसानी से नहीं पहुंच पाता। संगठन में काम करने वाले कर्मचारी बेहद संवेदनशील मामले संभालने वाले अपने सहकर्मियों के साथ काम तो करते हैं, लेकिन बेहद गोपनीयता और सतर्कता बरतते हुए। यही ‘भाव’ खरीद कर्मियों में भी आ जाता है, जो ‘व्यवस्था के बाहर’ के लोगों से मिलने में हिचकते हैं। अगर स्थान बदलकर वहां कर दिया जाए, जहां वेंडरों को अधिकारियों से बातचीत के लिए सुरक्षा मंजूरी प्राप्त करने में परेशान नहीं होना पड़े तो स्पष्ट संदेश जाएगा कि एमडीईआई कार्यक्रम लागू करने की सरकार की ईमानदारी भरी मंशा भी है और वह उस दिशा में काम भी कर रही है। सुरक्षा चौकियों के दरवाजों पर होने वाले अभद्र व्यवहार के कारण वेंडर छोटी टुकड़ियों या इकाइयों में भी नहीं जाना चाहते। प्रशासन को इतना संवेदनशील बनाने की जरूरत है कि वेंडरों को स्वागत होने जैसा अहसास हो, उनकी दरियादिली का नहीं। यूं भी यह दोनों के लिए फायदेमंद ठेका, कारोबार और साझेदारी होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि सुरक्षा प्रक्रियाओं और सत्यनिष्ठा को ताक पर रख दिया जाए।

जानकारी की साझेदारी - डीपीपी के अंतर्गत सोचे गए कार्यों का दायरा और आकार बहुत बड़ा और जटिल है। रक्षा क्षेत्र में भारत के निजी क्षेत्र की सहभागिता अभी शैशवावस्था में है और उसे समझने, जांचने तथा कारोबार के लिए उचित अवसर तैयार करने में एवं सेना की विशिष्ट जरूरतें पूरी करने में अभी उसे समय लगेगा। इसीलिए यह जरूरी है कि विशिष्ट उपकरणों, प्रणाली तथा प्लेटफॉर्म की अथवा उनके उन्नयन की जरूरतों को उद्योग के साथ उसी समय साझा कर लिया जाए, जिस समय तकनीकी दृष्टिकोण से क्षमता का खाका (टीपीसीआर) का तैयार किया जा रहा हो, सेना की गुणात्मक आवश्यकताओं (एसक्यूआर) का विकास किया जा रहा हो तथा सेना की पंचवर्षीय पूंजी अधिग्रहण योजना (एससीएपी) लागू की जा रही हो। निजी क्षेत्र को समान अवसर प्रदान कराए जाने चाहिए और ‘डिजिटल इंडिया’ के छाते तले एक डेटा केंद्र जरूर स्थापित किया जाना चाहिए, जिसे समर्पित और जिम्मेदार कर्मचारी संभालेंगे। ऐसा डेटा केंद्र सभी हितधारकों की जरूरतें पूरी करेगा और डिजिटल मुलाकातों का ठिकाना बनेगा, जो भारी भरकम काम है, लेकिन जिसे जल्द से जल्द पूरा करना होगा। खरीद की प्रक्रिया में अवरोध कम होने चाहिए और समय भी कम लगना चाहिए। लाइफ साइकल कॉस्टिंग (एलसीसी) और प्रदर्शन आधारित लॉजिस्टिक्स (पीबीएल), जिसमें वास्तविक उपकरण विनिर्माताओं (ओईएम) को कोई विशेष प्लेटफॉर्म अथवा उपकरण उपलब्ध कराने के एवज में भुगतान किया जाता है, जैसी अवधारणाओं पर जानकारी साझा की जानी चाहिए।

रक्षा खरीद के लिए रक्षा मंत्रालय में खरीद विभाग की स्थापना का मसला

रक्षा खरीद में जुटे कर्मियों के भीतर इस क्षेत्र की कम जानकारी होना अतीत में डीपीपी लागू करने में प्राथमिक बाधा रही है। यह सच है कि रक्षा मंत्रालय के अधिकारी हों या सेना मुख्यालय के अधिकारी, उन्हें रक्षा खरीद की बारीकियों से निपटने का प्रशिक्षण नहीं मिलता है। इन पदों पर नियुक्ति के बाद वे अपने आप को इसके मुताबिक जितना ढाल पाते हैं, उनकी उतनी ही विशेषज्ञता रहती है।3

वर्तमान व्यवस्था में कर्मचारी रक्षा खरीद की बारीकियों को पद पर नियुक्ति होने के बाद ही सीखते हैं। तैनाती आम तौर पर तीन से चार वर्ष के लिए होती है और उसके बाद जिसे तैनात किया जाता है, हो सकता है कि वह भी केंद्र में खरीद प्रक्रियाओं से अनभिज्ञ हो। पद से हट रहे व्यक्ति को मिली सीख और अनुभव फौरन हवा हो जाते हैं क्योंकि ज्यादातर मामलों में उसे एकदम अलग काम करने के लिए भेजा जाता है। कर्मचारियों को बार-बार बदले जाने से संपर्क टूट जाते हैं और अतीत की जानकारी ठीक से नहीं रखी जाती, जिससे लागत के पैमाने तय करने में दिक्कत होती है, जो उपकरणों की खरीद के लिए महत्वपूर्ण होती है। निरंतरता की कमी के कारण नीतियों और दिशानिर्देशों को संबंधित व्यक्ति की राष्ट्र की सैन्य बल संबंधी जरूरतों की समझ के अनुसार नियमित तौर पर बदला जाता है।4 खरीद परियोजनाओं को भी अलग-अलग अहमियत दी जाती है, जिसके कारण या तो उनमें देर हो जाती है या वे रद्द हो जाती हैं। हमारे पास व्यक्ति तो सही हैं, लेकिन उनकी तैनाती के तरीके में खामी है।

इसीलिए जिन कर्मचारियों को खरीद विभागों में अनुभव मिल रहा है और उसमें रुचि है, संगठन उनको वहीं काम करने दे और अवधि तथा रैंक के आधार पर तैनाती की नीतियों से संबंधित सतही जरूरतों के फेर में उस फायदे को बरबाद नहीं होने दे। टीम सक्षम होगी तो उसका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। एक बार आधार तैयार हो गया तो डीपीपी 2016 के अंतर्गत रक्षा खरीद में एकल खिड़की मंजूरी की अवधारणा लागू करने जैसे कई काम आरंभ हो सकते हैं। जानकारी भरी टीम क्षेत्र की समझ होने के कारण ही वास्तविक उपकरण विनिर्माताओं तथा उद्योग निकायों से बेहतर बातचीत कर पाएगी और रक्षा खरीद में पारदर्शिता तथा ईमानदारी आ जाएगी।

अमेरिका में संसद से मिले अधिकार के जरिये सरकार के पास रक्षा सौदों को निपटाने के लिए कम से कम 1,45,000 कुशल कर्मचारी रहते हैं और ब्रिटेन में खरीद के लिए 6000 प्रशिक्षित कर्मी हैं। भारत में रक्षा खरीद के लिए अलग से संगठन नहीं होने के कारण खरीद सुधार पर विभिन्न समितियों और विशेषज्ञ समिति ने इस प्रकार के खरीद संगठनों की स्थापना की सिफारिश की है। किंतु भारत में तो तैनाती की नीति में स्थायित्व भी सफल नहीं रहा है, जैसा डीआरडीओ, रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों और रक्षा मंत्रालय के संयुक्त सचिव (ई/सीएओ) के कार्यालय के अधीनस्थ 12,000 से अधिक सशस्त्र बल असैन्य कर्मचारियों के प्रदर्शन से पता चला।

डीपीपी 2016 में कार्मिक प्रबंधन की समस्याओं को सुलझाने की शुरुआत कर दी गई है और इसमें रक्षा मंत्रालय को परियोजना प्रबंधन इकाइयां (पीएमयू) गठित करनी हैं, जिनका नेतृत्व दो सितारों वाली रैंक के अधिकारी अथवा उनके समकक्ष करेंगे और उसमें ‘मेक इन इंडिया’ के अंतर्गत आने वाली परियोजनाओं के बारे में पर्याप्त जानकारी एवं अनुभव रखने वाले पेशेवरों की समुचित नियुक्ति की जाएगी। प्रत्येक सैन्य मुख्यालय के अंतर्गत आने वाले प्रमुख का कार्यकाल तीन वर्ष का होगा और पीएमयू में तैनात होने वाले कर्मचारियों का कार्यकाल लंबा होगा ताकि परियोजना पूरी करते समय निरंतरता बनी रहे। पीएमयू सरकारी एवं निजी क्षेत्र में वित्त, विधि एवं प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों को नियुक्त कर सकते हैं। यह सरकार द्वारा उठाया गया सबसे क्रांतिकारी कदम है, जिसमें स्वदेशी विशेषज्ञता की उपलब्धि और उसमें वृद्धि की जरूरत को माना गया है और इसी सिलसिले में आगे खरीद विभाग बन जाना चाहिए। कौशल की कमी से निपटने के लिए विशेषज्ञ समिति ने रक्षा विनिर्माण क्षेत्र कौशल परिषद बनाने, रक्षा मंत्रालय तथा उद्योग द्वारा संयुक्त रूप से प्रायोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने, सैन्य इंजीनियरिंग के लिए विश्वविद्यालय में कार्यक्रम चलाने, ऑफसेट के रास्ते कौशल विकास करने एवं भारत में रक्षा क्लस्टरों के इर्दगिर्द टूल रूम स्थापित करने की सिफारिश की है।

डीपीपी में हुए पिछले संशोधनों के कारण रक्षा खरीद प्रकोष्ठ और निर्णायक मंडलों का गठन खरीद में अधिक तारतम्य लाने की गहरी इच्छा प्रदर्शित करता है, लेकिन इससे भारत द्वारा आयात में कमी नहीं आ पाई है। यहां तक कि विशेषज्ञ समिति का यह विश्वास भी जरूरत से ज्यादा ही लगता है कि 2002 में मंत्रिसमूह की सिफारिशों के परिणामस्वरूप उठाए गए कई कदमों के बाद रक्षा मंत्रालय के भीतर सेनाओं का अधिक एकीकरण हुआ है। दुनिया में सबसे अच्छे और सबसे पुराने लोकतंत्रों ने अपनी सशस्त्र सेनाओं पर कठोर असैन्य नियंत्रण उन्हें अलग-थलग करके नहीं रखा है बल्कि उन्हें सरकार की केंद्रीय व्यवस्था में मिलाकर और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े निर्णयों की प्रक्रिया में उन्हें शामिल कर नियंत्रण रखा है। सेनाओं और उद्योग से मिली प्रतिक्रिया बताती है कि प्रस्ताव मंगाने से लेकर करार पर हस्ताक्षर करने तक की प्रक्रिया अब भी बहुत लंबी है क्योंकि तकनीकी एवं मैदानी मूल्यांकन, शिकायतों के निपटारे तथा एसक्यूआर से ही जुड़े रहने का अड़ियलपन इसमें बाधा उत्पन्न करता है। प्रक्रियागत विलंब के कारण सेना तय की गई क्षमता को निर्धारित समय पर हासिल करने से वंचित रह जाती है और बेकार पड़ी क्षमता तथा मानव संसाधन के रखरखाव की लागत के रूप में उद्योग का जोखिम भी बढ़ जाता है। सकारात्मक पहलू यह है कि भारतीय सामग्री खरीदने तथा भारतीय सामग्री खरीदने एवं बनाने को तरजीही श्रेणी में रखे जाने के कारण उद्योग अपनी हिस्सेदारी को लेकर बहुत उत्साहित है।

खरीद विभाग एकीकृत खरीद प्रबंधन (आईएएम) मॉडल स्थापित कर सकता है, जिसमें उपकरण प्रबंधन के “बीज से लेकर वृक्ष” तक प्रत्येक चरण का ध्यान रखा जाता है। आईएएम में अंतरसैन्य स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर एकीकरण होता है। आईएएम सामग्री तथा ऐसी सहायक रणनीति के विकास में मार्गदर्शन करता है, जो क्रियात्मक सहायता का अधिक से अधिक उपयोग करती है, मौजूदा संसाधनों को बेहतर बनाती है और सिस्टम इंजीनियरिंग प्रक्रिया को उपकरण के जीवन चक्र में लगने वाली लागत का पता लगाने और उसे कम करने तथा लॉजिस्टिक्स की आवाजाही को कम करता है, जिससे सहायता करना आसान हो जाता है।

कारगिल युद्ध के दौरान जनरल वी पी मलिक का बयान - “हमारे पास जो कुछ भी है, हम उसी से लड़ेंगे” - ही बता देता है कि हमारी सशस्त्र सेनाएं लॉजिस्टिक्स की दृष्टि से कितनी तैयार हैं और यहां कितना एकीकृत खरीद प्रबंधन मौजूद है। चूंकि एकीकृत खरीद प्रबंधन नहीं था, इसीलिए वायु सेना के पायलटों तथा थल सेना की वैमानिकी शाखा के पायलटों द्वारा हेलमेट के भीतर पहने जाने वाले ऑक्सीजन-कम-कम्युनिकेशन मास्क सेना के दोनों अंगों ने अलग-अलग खरीदे। वायु सेना ने इन्हें देश में ही खरीद लिया और थल सेना ने उनसे चार गुना कीमत पर इनका आयात किया। इसी तरह विशेष बलों के लिए स्नाइपर राइफल भी सेना और वायु सेना ने अलग-अलग खरीदीं, जिनके कारण आवश्यकता से अधिक खर्च हुआ, जिससे बचा जा सकता था।5 सेना ने 2003 में जल के भीतर गोताखोरी के उपकरणों का मूल्यांकन करने में लगभग एक वर्ष लिया, जबकि नौसेना उन्हें ही 1996 में खरीद चुकी थी।6 ये विसंगतियां ऐसा केंद्रीय निकाय नहीं होने के कारण हैं, जो खरीद तथा आपूर्ति नेटवर्क तैयार करने वाली विभिन्न संस्थाओं की गतिविधियों का समन्वय करे ताकि ऐसी स्थिति आ जाए, जहां प्रत्येक संस्था अलग-अलग ठेके के लिए इंतजाम करने उनका प्रबंधन करने के लिए जिम्मेदार हो।

समर्पित, सशक्त और अलग खरीद विभाग रक्षा में खरीद की प्रक्रिया की बारीकियां समझ सकता है, जैसी पिछले अनुच्छेदों में बताई भी गई हैं। किंतु विशेषज्ञ समिति की सिफारिश के मुताबिक खरीद विभाग के लिए नया ढांचा स्थापित करने में लंबा समय और प्रयास लग सकते हैं तथा हो सकता है कि उसके बाद भी सफलता हाथ न लगे। भारत की कार्य संस्कृति को देखते हुए माना जाता है कि रक्षा मंत्रालय में नए विशेषज्ञता प्राप्त रक्षा खरीद ढांचे की रचना से संभवतः वांछित लाभ नहीं मिलेंगे और हो सकता है कि हम मानव संसाधन को बेकार बिठाए रखने वाला एक और विभाग बना डालें। अन्य देशों में स्थित ढांचों का अध्ययन निश्चित रूप से लाभप्रद हो सकता है, लेकिन हमें आंतरिक प्रक्रिया के द्वारा मौजूदा मानव संसाधनों का सुचारु प्रयोग करते हुए अपना स्वयं का अलग खरीद विभाग बनाना होगा। जब खरीद विभाग में सेना के ही अनुभवी और इच्छुक लोग काम करेंगे तो संगठन को काम के दौरान उन्हें मिलने वाले अनुभव का पूरा लाभ प्राप्त होगा।

हमारे पास कार्यबल को भर्ती के समय और पूरे सेवाकाल के दौरान प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए औपचारिक संस्थाएं हैं, जिन्होंने लोगों को प्रौद्योगिकी, परीक्षण प्रक्रियाओं, ठेकों के मामलों में वाणिज्यिक मोलभाव और कानूनी मसलों, लागत के अनुमान, वित्तीय ढांचों, परियोजना प्रबंधन तथा डेटा विश्लेषण जैसे विभिन्न क्षेत्रों में आवश्यक कौशलों का प्रशिक्षण दिया है। किंतु कर्मचारियों को रक्षा मंत्रालय के विभिन्न विभागों में बार-बार स्थानांतरित किए जाने से वह निरंतरता और संपर्क टूट जाता है, जिसकी जरूरत खरीद में विशेषज्ञता के लिए होती है। वास्तव में अधिकार प्राप्त और कुशल मानव संसाधन समूह की आवश्यकता है, जो पूरी जानकारी के साथ निर्णय ले। मौजूदा व्यवस्था में अस्थायी अधिकारी को तकनीकी अथवा व्यावहारिक मूल्यांकन के चरणों पर भी एसक्यूआर से मामूली इधर-उधर जाकर फैसले लेना तक ठीक नहीं लगता, इसलिए खरीद की घड़ी कई वर्ष पीछे लौट जाती है। इसी कारण अक्सर यह आलोचना सुनाई पड़ती है कि ऐसी इकाइयां अपने-अपने खोल मे काम करती हैं, जिससे टकराव भी होते हैं और देर भी। रक्षा मंत्रालय में खरीद मंत्रालय में कर्मचारी के निरंतर नहीं बने रहने के कारण कभी-कभार कई निर्णयों ने रक्षा खरीद पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। पिछले साल रक्षा मंत्रालय को वित्तीय अधिकारों में संशोधन के अपने एक आदेश को उस समय वापस लेना पड़ा, जब नियमित आपूर्तियों के लिए खरीद भी बहुत मुश्किल हो गई। रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता के अनुसार, “निहित शक्तियों को बहाल करने की सेनाओं की मांग के कारण ऐसा करना पड़ा क्योंकि इससे उनके रोजमर्रा के कामों में समस्या आ रही थीं और खर्च कम हो रहा था।”7

खरीद विभाग में दक्ष कर्मचारियों की नियुक्ति की रूपरेखा

रक्षा खरीद में मानव संसाधन के महत्व पर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में पर्याप्त जोर दिया गया है, जिसके अनुसार रक्षा उत्पादन की प्रक्रिया अनुसंधान से लेकर परिचालन के स्तर तक पूरी तरह सक्षम मानव संसाधन से मिलकर बनी होनी चाहिए। प्राप्त जानकारी से यही लगता है कि भारत के पास इस वक्त ऐसा मानव संसाधन तैयार करने की ढांचागत रूपरेखा और मजबूत प्रणाली नहीं है, जो रक्षा प्रणालियां बनाने और उनकी देखरेख कने से जुड़े सभी मसलों का निपटारा कर सके।8

वास्तव में प्रशिक्षित कर्मचारियों की अनुपलब्धता का गतिरोध दूर करना बहुत आसान है क्योंकि रक्षा मंत्रालय के कर्मी अनुभवी होते हैं और नए कौशल सीखने की प्रेरणा भी उनके भीतर होती है। जब किसी व्यक्ति को खरीद से संबंधित पद पर तैनाती मिल जाती है तो वह काम के दौरान पर्याप्त प्रशिक्षण और अनुभव हासिल कर लेता है। खरीद के काम में मिले अनुभव और जानकारी को इकट्ठा कर उसका लाभ नहीं उठाया जाना बड़ी कमी है क्योंकि कर्मचारी को इस अड़ियल विचार के कारण कुछ समय बाद कहीं और तैनात कर दिया जाता है कि करियर में आगे बढ़ने के लिए और सेवा संबंधी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए किसी कर्मचारी को अलग-अलग स्थानों पर तैनात करना आवश्यक है चाहे इसके लिए उस काम में बाधा ही क्यों न पड़ जाए, जिसके लिए उसे मूल रूप से रखा गया था।

विशेषज्ञ समिति ने रक्षा मंत्रालय के विभागों के बीच अधिक मेल-मिलाप की जरूरत पर जोर दिया है, जो रक्षा विभागों के पास उपलब्ध मानव संसाधन की वर्तमान क्षमताओं तथा मुख्य कौशलों को मिलाकर तथा उनमें वृद्धि के जरिये किया जा सकता है। एमडीईआई के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी वाले खरीद अधिकारी को प्रभावी तथा सामयिक तरीके से प्रावधान एवं खरीद के काम में पेशेवर विशेषज्ञता दिलाई जानी चाहिए, उसे जटिल प्रक्रियाओं को समझना चाहिए, साथ मिलकर काम करना चाहिए और लंबे समय तक उसी विभाग में काम करना चाहिए तथा जरूरत पड़ने पर बाहर से पेशेवर सलाह प्राप्त करनी चाहिए। समय-समय पर उसकी क्षमताओं का आकलन होना चाहिए।

मुख्य क्षेत्र की जानकारी में कमी है क्योंकि किसी भी संगठन अथवा व्यक्ति ने रक्षा मंत्रालय तथा रक्षा क्षेत्र में लंबे समय तक जिम्मेदारी नहीं ली है। लेकिन क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार कौन होगा? रक्षा मंत्री? जी हां, लेकिन बार-बार तबादले करने वाली नियुक्ति नीति में उनके अलावा कौन है। जब भी कोई नया रक्षा मंत्री पद संभालता है तो हो सकता है कि उसकी सहायता के लिए सक्षम टीम ही नहीं हो। जब तक उसे संगठन की ठीकठाक समझ हो पाती है तब तक उनकी टीम में किसी और की जगह बदल सकती है क्योंकि नीचे के पदों पर भी ऐसा ही बदलाव होता है! मानव संसाधन संबंधी समस्याओं को पहचानने तथा सुलझाने की तुरंत जरूरत है क्योंकि असली बाधाएं और लालफीताशाही वहीं पर है।

सुझावों को अमली जामा पहनाने के लिए शीर्ष नेतृत्व के अधीनस्थ संस्थागत प्रणाली तैयार करनी होगी ताकि पक्षपात और आपसी टकराव नहीं हों। डीपीपी 2016 के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए नई मानव संसाधन नीति के क्रियान्वयन हेतु रक्षा मंत्री के अधीनस्थ एक विश्वसनीय टीम तैयार की जा सकती है। एकीकृत सेना मुख्यालय (आईडीएस) इसके लिए नोडल एजेंसी हो सकता है। रक्षा मंत्रालय में संयुक्त कामकाज (जॉइंटमैनशिप) के लिए मनोनीत नोडल एजेंसी है, जो नीति, सिद्धांत, युद्ध तथा खरीद का एकीकरण करती है। यह उच्च रक्षा प्रबंधन के लिए संस्थागत ढांचा है तथा सेना प्रमुख समिति के प्रधान विभाग एवं सचिवालय के रूप में काम करती है और खरीद प्रक्रिया के सरलीकरण की चर्चा में भी शामिल रही है।

आईडीएस के पास पर्याप्त सांगठनिक ढांचा है किंतु निरंतरता की कमी, मिलजुलकर काम करने का रवैया नहीं होने और डीपीपी के क्रियान्वयन में बाधा डालने वाले प्रशासन के कारण खरीद के क्षेत्र की जानकारी वहां भी नहीं है। सक्षम टीम रक्षा खरीद में शिक्षा तथा प्रशिक्षण देने के लिए प्रकोष्ठ की स्थापना कर सकती है। प्रत्येक सेना मुख्यालय को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए इसी तरह का कदम उठाना होगा। टीम सही काम के लिए सही लोगों की नियुक्ति का निर्देश देने एवं उसका नियमन करने पर ध्यान केंद्रित करेगी। क्षेत्र की जानकारी रखने वाली, विश्वास से भरी और मजबूत टीम रक्षा खरीद में जुटी विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल के फायदे दिला सकती है। अगर हम अपनी प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं के इतने गुलाम हो जाते हैं कि स्वदेशीकरण तथा डीपीपी 2016 की ही बलि चढ़ जाती है तो यह बहुत दुखद होगा।

किंतु यह भी समझना होगा कि अधिकतर अध्ययनों में अक्सर क्रियान्वयन की प्रक्रिया में खामी को एक कारण बताया गया है। खराब क्रियान्वयन हमेशा भारतीय प्रशासन के लिए अभिशाप रहा है और अगर दृढ़ निश्चय तथा ईमानदारी के साथ इस कमी को दूर कर लें तो सेना के लिए उम्मीद की किरण नजर आ सकती है।9 सटीक नीतियां तैयार करने में भारतीय पीछे नहीं दिखे हैं। अक्सर नए कमांडर की नियुक्ति के साथ ही नई नीतियां बना दी जाती हैं, लेकिन क्रियान्वयन हमेशा मंद रहा है। इसका कारण यह है कि क्रियान्वयन अलग किस्म की प्रक्रिया होती है और इसके लिए नीतियों की गहरी समझ, क्षेत्र की जानकारी तथा कर्मचारियों की पूरी प्रतिभागिता की जरूरत होती है। अगर लोग पूरी तरह प्रशिक्षित और आत्मविश्वास भरे नहीं होंगे तो अच्छी नीतियों से भी वांछित परिणाम नहीं मिलेंगे।

खरीद के लिए मानव संसाधन तैयार करना

वर्तमान खरीद ढांचा फिलहाल ठीक है, जिसमें सेना मुख्यालय, खरीद, तकनीकी एवं वित्तीय प्रबंधक खरीद महानिदेशक के अधीन कार्य करते हैं और जहां पदानुक्रम के अनुसार अंतिम निर्णय लिया जाता है, जिसमें रक्षा सचिव, रक्षा मंत्री और सबसे ऊपर सुरक्षा पर मंत्रिमंडलीय समिति की निर्धारित भूमिका होती हैं। किंतु उपरोक्त ढांचे में संगठनों के भीतर से ही मानव संसाधन को नियुक्त कर संगठनों को मजबूत करने की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित होना चाहिए कि रक्षा मंत्रालय के विभागों में स्वस्थ मानव संसाधन वातावरण में पर्याप्त प्रतिभाओं को बढ़ावा दिया जाए। यह तभी संभव है, जब लोगों को खरीद विभाग से संबंधित संगठनों में आने का न्योता दिया जाए और उन्हें अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्र में पर्याप्त जानकारी अर्जित करने के लिए लंबे समय तक तैनात रखा जाए। संगठनों में भी सशक्त मानव संसाधन उपलब्ध हो सकते हैं, यदि उन्हें दिए गए काम बेहतर तरीके से करने में मदद करने वाली गतिविधियों के लिए अपनी सहूलियत के मुताबिक प्रक्रिया ईजाद करने की स्वायत्तता एवं अनुमति दी जाए। परमाणु ऊर्जा तथा अंतरिक्ष विभागों को इस तरीके से बहुत लाभ मिला है।

आज जो विभिन्न व्यवस्थाएं हैं, उनके स्थान पर रक्षा मंत्रालय प्रत्येक प्रकार के सर्वश्रेष्ठ (बेस्ट ऑफ ब्रीड) मानव संसाधन प्लेटफॉर्म का मानकीकरण करने की योजना बना सकता है। “बेस्ट ऑफ ब्रीड” किसी एक वेंडर से एक ही बड़ा एकीकृत सॉल्यूशन चुनने के बजाय प्रत्येक प्रकार का सर्वश्रेष्ठ उत्पाद चुनने (और उन्हें खुद ही जोड़ लेने) की रणनीति है। विभिन्न मानव संसाधन के उपयोग की विभिन्न प्रक्रियाओं और जानकारी को स्वयं ही जोड़कर बनाया गया एक ही प्लेटफॉर्म व्यवस्थाओं को हाथों से और अधिक खर्च के साथ जोड़ने की जरूरत को खत्म कर देता है क्योंकि प्रक्रियाएं और उनमें निहित प्रौद्योगिकी का पहले से ही एकीकरण हो चुका होता है, जिससे प्रतिभाओं की विभाग के भीतर तथा दूसरे विभागों में बेहतर आवाजाही में, कारोबार की बदलती जरूरतों के मुताबिक जल्द प्रतिक्रिया देने की बेहतर क्षमता में और पूरी रणनीति के अनुरूप कार्यबल को बेहतर तरीके से ढालने में मदद मिलती है।

मौजूदा व्यवस्था में खरीद निदेशालय के लिए नियुक्त किए जाने वाले लोगों को कार्यभार संभालने के फौरन बाद कुछ प्रशिक्षण दिया जाता है। डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज (डीएसएससी), कॉलेज ऑफ डिफेंस मैनेजमेंट (सीडीएम) और नेशनल डिफेंस कॉलेज (एनडीसी) जैसे प्रशिक्षण केंद्र भी अपने पाठ्यक्रम में पूंजी अधिग्रहण का विषय शामिल कर सकते हैं। रक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ प्रत्येक विभाग के पास भी उनके सामग्री प्रबंधन संस्थान होते हैं, जो खरीद प्रक्रिया का गहन प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। किंतु जानकारी और अनुभव उस व्यक्ति के बार-बार के तबादलों के कारण जल्द ही काफूर भी हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में बहुमूल्य समय नष्ट हो जाता है और खरीद का चक्र धीमा पड़ जाता है या खत्म हो जाता है।

विशेषज्ञ समिति को आशा है कि जब भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (इंदु) चालू हो जाएगा तो प्रशिक्षण एवं अनुसंधान पर भी पर्याप्त समय मिलने लगेगा। इंदु के प्रस्ताव का उद्देश्य वर्तमान सैन्य शिक्षा में वृद्धि करना तथा रक्षा मंत्रालय के विभागों के बीच ‘मेलमिलाप’ हेतु बौद्धिक आधार प्रदान करना है और इसके लिए सोचने एवं भरोसे का नेटवर्क तैयार करने के नए तरीकों की आवश्यकता है, जो नौकरशाही एवं सेना के संकरे खेमों में पहुंच सके। प्रस्तावित इंदु के लिए विधेयक के मसौदे को हाल ही में सार्वजनिक किया गया है। प्रतिक्रिया मांगने की मंशा अच्छा संकेत है, लेकिन मसौदा राष्ट्रीय सुरक्षा एवं उच्च शिक्षा दोनों के बारे में सोचने में कमजोरी का प्रदर्शन करता है।10 जब तक हम मुख्य मुद्दों पर केंद्रित नहीं रहेंगे तब तक हम मामूली मसलों में उलझे रहेंगे जैसे इसमें परिसर या बुनियादी ढांचा कैसा होना चाहिए अथवा विश्वविद्यालय का अध्यक्ष कौन होगा या सांगठनिक ढांचे में रक्षा मंत्रालय के विभागों की कितनी हिस्सेदारी होगी?11

‘राष्ट्रीय महत्व’ का संस्थान खड़ा करने के लिए सरकार को कुछ ऐसे लोगों को न्योता देना चाहिए, जिन्होंने अपनी रुचि और कठिन परिश्रम के द्वारा खरीद प्रक्रिया की कुछ समझ विकसित कर ली है किंतु जिन्हें संभवतः इसीलिए बाहर तैनात कर दिया गया है मानो बताया जा रहा हो कि विशेषज्ञता खतरनाक होती है। इंदु को दूसरे देशों से पेशेवर सैन्य शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ तरीकों के बारे में सीखने के प्रयास करने चाहिए। जब तक ये कदम नहीं उठाए जाएंगे तब तक इंदु एक और महंगा विश्राम गृह बन जाएगा और गहन विचार-विमर्श की आड़ में बाबूगिरी की भेंट चढ़ जाएगा, जिससे इस प्रयास के पीछे का पूरा उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।12

मानसिकता में बदलाव

विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट रक्षा लॉजिस्टिक्स के अहम हिस्से के रूप में रक्षा खरीद की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने के लिए रक्षा मंत्रालय की मानसिकता में परिवर्तन की जरूरत पर रोशनी डालती है। ‘लॉजिस्टिक्स’ में सामग्री के भंडारण तथा आवाजाही (और उससे जुड़ी जानकारी) के साथ-साथ खरीद, सहायता तथा निपटारे की व्यापक चुनौतियां शामिल होती हैं।13

संगठन की रीढ़ बनने वाले लोगों की मानसिकता समझना महत्वपूर्ण है। भारत में अधिक उम्र वाले एवं वरिष्ठ लोगों की यह अपेक्षा होती है कि उनके कनिष्ठ अपनी शारीरिक भंगिमा के जरिये सम्मान प्रदर्शित करें और अपने वरिष्ठों को बातचीत आरंभ करने दें तथा उनकी बातों को बिना रोके-टोके ध्यान से सुनें एवं बेसब्री भी न दिखाएं। भारतीयों को अपने सामाजिक रुतबे का बहुत ज्यादा ध्यान रहता है और वहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने बहुत कड़ा मुकाबला जीता होता है।14 बिना जाने हुए प्राथमिकताएं तय करने के कारण बढ़ने वाली इन बाधाओं से भारतीय व्यवस्था के लिए कुछेक नीतिगत प्राथमिकताओं को एक साथ आगे बढ़ाना कठिन हो जाता है। जोखिम से बचाव मुख्य सिद्धांत है। भारतीय भावनाओं को ध्यान में रखते हुए पश्चिम में विकसित सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन प्रणालियों को अपनाकर शुरुआत की जा सकती है।

भारतीय जनता भ्रष्ट लोगों को सुधारने के बजाय उन्हें बरदाश्त कर लेती है और अपनी बारी से पहले ही पुरस्कार चाहती है।15 सरकारी संगठनों में कामकाजी माहौल लोगों को पहल करने से रोकता है और आदेशों का पालन करने भर से व्यक्ति को उसका वेतन और प्रोन्नति मिलती रह सकती हैं, जिसके कारण काम को अपने हाथ में लेने तथा काम में विशेषज्ञता की कमी प्रमुख समस्या बन गई हैं। सभी लोगों को एकसमान नहीं मानने वाली जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक रूप से पालन करते आनो के कारण सफाई और कम पारिश्रमिक वाले कामों के साथ एक तरह की बदनामी जुड़ी है। रक्षा लॉजिस्टिक्स में मानव संसाधन पर ध्यान केंद्रित करते हुए समिति ऐसा माहौल बनाने पर जोर देती है, जिसमें फैसले साहस के साथ लिए जा सकें। साहसिक कृत्य विश्वास से किए जाते हैं और वर्ष दर वर्ष साहस को कुचला जा रहा है। परिणाम केवल विश्वास से ही प्राप्त किए जा सकते हैं। उन लोगों की ऊहापोह खत्म करने की जरूरत है, जो प्रशिक्षण प्राप्त होते हैं और देश की रक्षा संबंधी तैयारी के सिलसिले में फैसले लेने के लिए तैयार होते हैं किंतु जो भ्रष्टाचार के आरोपों से भरे माहौल में ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होंगे, जिस माहौल ऊपर से नीचे तक हर व्यक्ति को संदेह की नजरों से देखा जाता है। विश्वास निर्माण के उपायों को संस्थागत जामा पहनाए जाने की आवश्यकता है। विशेषज्ञ समिति रक्षा विभाग के अंतर्गत संगठनों के प्रबंधन ढांचे को बदलने की जरूरत पर जोर देता है ताकि खरीद अधिकारियों के लिए सहायता करने और बढ़ावा देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले, ऐसा रवैया न हो, जहां उद्योग के प्रतिनिधियों से मुलाकात को भी शक की नजर से देखा जाता है।

अनुसंधान का महत्व

कैंब्रिज शब्दकोश के अनुसार अनुसंधान ‘किसी विषय का विस्तृत अध्ययन होता है, जो विशेष रूप से नई सूचना तलाशने अथवा नई समझ विकसित करना होता है।’ पहले से स्थित संस्थाओं तथा विचार समूहों से सभी संकायों को खरीद नीति पर संवाद करने एवं नियमित सम्मेलन कराने की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम तैयार करने तथा नीति विश्लेषण के मसले पर केस स्टडी तैयार करने में हमारे विचार समूह और इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (इडसा), यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट (यूएसआई), वायु शक्ति, भूमि, समुद्री एवं संयुक्त अध्ययन केंद्र जैसे समूह लगे हुए हैं, लेकिन बहुत कम अनुसंधानकर्ता खरीद प्रणाली में सुधार के लिए ऐतिहासिक एवं सम-सामयिक मसलों पर काम कर रहे हैं। इसके साथ ही ज्यादातर अनुसंधानकर्ताओं को इस जटिल गतिविधि का बहुत कम अनुभव है, जिससे उनकी काम करने की क्षमता बाधित होती है।

सेना से जल्द निकलकर खरीद विभाग में जाने के इच्छुक कुशल कर्मचारियों का उपयोग

पिछले वर्ष मार्च में राज्यसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा कि सशस्त्र सेनाओं में 11,000 से अधिक अधिकारियों की कमी है। कमी का एक बड़ा कारण यह है कि बड़ी संख्या में अधिकारी सेना को समय से पहले छोड़ना चाहते हैं। पिछले लगभग तीन वर्ष से भारत की सशस्त्र सेनाओं से रोजाना एक अधिकारी ने विदा ली है।16

करियर में आगे बढ़ने का मतलब अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग होता है। कुछ के लिए संगठन के भीतर प्रोन्नति ही बहुत मायने रखती है, दूसरों को किसी और जगह कोई नई जिम्मेदारी लेना या जीवन में कोई बड़ा लक्ष्य प्राप्त करना अच्छा लग सकता है, जैसे पारिवारिक उद्देश्य पूरे करना। उनके लिए करियर में आगे बढ़ने का मतलब हमेशा प्रोन्नति पाना ही नहीं होता और वे अपनी मौजूदा स्थिति से खुश होते हैं तथा व्यक्तिगत जरूरतों के लिए जानबूझकर प्रोन्नति छोड़ भी सकते हैं।17 बड़ी संख्या में सैन्यकर्मी अपने उन पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए बहुत कम उम्र में सेना से विदा लेना चाहते हैं, जो कर्तव्य बार-बार सुदूर और दुर्गम इलाकों में तैनाती के कारण और सेना के सख्त पदानुक्रम वाले पिरामिडीय ढांचे के कारण पूरे नहीं हो पाते। उनमें से अधिकतर के पास लंबा अनुभव होता है और वे जिम्मेदारी भरे काम पसंद करते हैं लेकिन यह सब उन्हें अपनी सुविधा वाले स्थान पर पसंद होता है और वहां वे उसमें शानदार प्रदर्शन करते हैं। अपने आत्मसम्मान का ध्यान रखते हुए वे अतिरिक्त प्रयास करते हैं ताकि उनके समर्पण और प्रतिबद्धता पर कभी अंगुली न उठाई जाए। उनके पास संगठन के लिए जरूरी गहरी जानकारी और अनुभव होता है। खरीद विभाग को खरीद प्रक्रिया में गहरे अनुभव वाले ऐसे लोगों को पहचानना चाहिए और उन्हें बुलाना चाहिए क्योंकि उन्हें यह काम करते रहना पसंद होगा। इससे सेना छोड़ने वालों की संख्या तो घटेगी ही, लोगों को अपनी रुचि के मुताबिक काम करने और खरीद प्रक्रिया में बढ़ते अवसरों का फायदा उठाने के लिए प्रोत्साहन भी मिलेगा, जिससे रक्षा सेवाओं के विकास में वे सार्थक योगदान दे पाएंगे।

रक्षा मंत्रालय के लिए एकीकृत मानव संसाधन व्यवस्था (आईएचआरएस)

यह मानना सही है कि विभिन्न प्रकार के और जटिल मुद्दों से भरी खरीद प्रक्रिया में निर्णय लेने की प्रक्रिया विश्वासों, विचारों अथवा किसी व्यक्ति की पसंद पर नहीं बल्कि प्रदर्शन तथा ऐसे नतीजों पर आधारित होनी चाहिए, जिन्हें नापा जा सके। रक्षा सेवाओं मंह सुस्थापित प्रशिक्षण कार्यक्रम के कारण निजी पूर्वग्रह दूर हो जाते हैं और अधिकतर कर्मचारी प्रेरित, जानकारी युक्त तथा अनुशासित होते हैं। आज यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि युद्ध के लिए तैयार रहने और प्रयत्न कम से कम करने के लिए इन सुप्रशिक्षित कर्मचारियों को सक्षम खरीद प्रक्रिया से जोड़ जाए और यह एकीकृत खरीद एवं मानव संसाधन व्यवस्था (आईएएचआरएस) के जरिये ही हो सकता है।

कौशल, ज्ञान, क्षमताएं और अनुभव तभी काम आते हैं, जब सही व्यक्ति को सही काम दिया जाए। यदि मानव संसाधन योग्य नहीं होगा तो आईएएम की सर्वश्रेष्ठ प्रणालियां भी क्रियान्वित नहीं हो पाएंगी। आईएचआरएस बहुमुखी प्रतिभा को तलाशेगा ताकि उसे नेतृत्व करने के लिए तराशा जा सके। भविष्य में युद्धों में मशीन के पीछे बैठा व्यक्ति ही प्रभावी भूमिका निभाएगा और आईएएम को आईएचआरएस के साथ जोड़ेगा, लेकिन ऐसा तभी होगा, जब वह पूर्णतया प्रशिक्षित, प्रेरित और तैयार होगा। ‘समितियों द्वारा रक्षा प्रबंधन’ का विचार त्यागना ही होगा।

एकीकृत मानव विकास व्यवस्था (आईएचआरएस) में मानव संसाधन प्रबंधन और मानव संसाधन विकास दोनों के कार्य आते हैं। मानव संसाधन प्रबंधन में कार्मिक एवं प्रशासन के पारंपरिक कार्य जैसे कार्मिकों की जानकारी का संग्रह, कार्य का मूल्यांकन, वेतन, लाभ, सुरक्षा, संरक्षा एवं स्वास्थ्य शामिल होते हैं। इसमें भर्ती, कर्मचारियों का स्वरूप, प्रदर्शन का मूल्यांकन, प्रोन्नतियां एवं प्रशिक्षण पर भी खासा जोर दिया जाता है। दूसरी ओर मानव संसाधन विकास का लक्ष्य ऐसा वातावरण तैयार करना है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिगत तथा सांगठनिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपनी क्षमताओं को पहचान सके, विकसित कर सके और उनका पूरा उपयोग कर सके। इसमें सामरिक अनिवार्यता का प्रत्युत्तर देना, सांगठनिक संस्कृति तैयार करना और कर्मचारियों के रवैये पर नजर रखना तथा अंतरवैयक्तिक संचार का विकास करना एवं प्रबंधन में व्यक्तियों की प्रतिभागिता बढ़ाना शामिल है। मानव संसाधन विकास के लक्ष्य कार्मिक संबंधी कार्यों से बहुत आगे तक जाते हैं, जबकि कार्मिक कार्य आम तौर पर तैनाती जैसे कामों तक सीमित रहते हैं। मूल्यों में बदलाव के कारण अब जोर भरोसे, स्पष्टता और जांच-पड़ताल पर हो गया है, जिसे मानव संसाधन विकास देखता है। यह विभाग किसी संगठन में मौजूद ताकतों को तलाशता है और उन्हें एक साथ लाकर और भी मजबूत करता है। वह लोगों की गरिमा और क्षमताओं पर बहुत जोर देता है और निष्ठा तथा समर्पण में कमी की समस्याओं से मुक्ति दिलाता है।

मानव संसाधन विकास के सभी प्रयासों का अंतिम लक्ष्य आत्म विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करना है। इसका एक लाभ यह हो सकता है कि लोग हर समय सतर्क रहने का रवैया छोड़ेंगे, उनका तनाव कम होगा और आलोचना को स्वीकार करेंगे क्योंकि वे आत्मावलोकन के जरिये अपना ईमानदारी भरा आकलन कर चुके होंगे। बेशक इसका मतलब यह नहीं है कि अधिक सक्रिय होने के कारण मानव संसाधन विकास अधिक श्रेष्ठ है और प्रतिक्रियात्मक रवैया रखने के कारण कार्मिक कामकाज निचले दर्जे का है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। मानव संसाधन विकास की भूमिका ऐसा माहौल तैयार करने की है, जो विचारों के सृजन और क्रियान्वयन में सहायक होगा। इसे सांगठनिक ढांचे के भीतर व्यक्तियों की प्रतिभाओं का पोषण करना चाहिए अन्यथा वह अपनी इच्छा का काम करने के लिए बाहर निकल जाएगा, जो इस तथ्य से जाहिर है कि भारी संख्या में दक्ष कर्मी रक्षा सेवाओं से जल्द निकलना चाहते हैं।

निष्कर्ष

यहां एमडीईआई कार्यक्रम को अमली जामा पहनाने और रक्षा उद्योग में ‘आत्मनिर्भरता’ हासिल करने के लिए संभावनाशील तरीका सुझाया गया है, जिसके लिए न तो अलग से कुछ खर्च करना होगा और न ही नया प्रतिष्ठान बनाना होगा। यह तरीका रक्षा सेवाओं के लॉजिस्टिक्स क्षेत्र में काम करने के लंबे अनुभव और विशेषज्ञता के आधार पर सुझाया गया है। यह शोधपत्र एक व्यापक खाका तैयार करता है, जिसमें डीपीपी 2016 के अंतर्गत सोचे गए लक्ष्यों और महत्वपूर्ण कार्यों को पूरी तरह समझने, खरीद विभाग की स्थापना करने और रक्षा मंत्रालय में उपलब्ध कर्मचारियों को पहचानकर, बढ़ावा देकर और एक साथ लाकर दक्ष एवं प्रेरित मानव संसाधन को विभाग में शामिल करने की सिफारिश करता है।

मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसी हालिया सरकारी नीतियां ऐसा रक्षा औद्योगिक आधार तैयार करने की दिशा में अच्छी पहल हैं, जिस आधार पर भारत गर्व कर सके। किंतु इसके लिए सांगठनिक संस्कृति में बदलाव करने की काम को फिर से परिभाषित करने की जरूरत होगी, जिसे सशक्त, दक्ष और विश्वास से भरे मानव संसाधन के बगैर नहीं किया जा सकता। अनुभवी, प्रेरणा से भरी और नियंत्रित टीम ही रक्षा खरीद एवं बहुप्रचारित ऑफसेट नीति की बारीकियां समझ तथा सुलझा सकती है। स्वदेशीकरण तभी उड़ान भरेगा, जब खरीद प्रक्रिया में उस क्षेत्र के ज्ञान के महत्व को समझा जाएगा और मानव संसाधन का पोषण किया जाएगा।

सदर्भः

  1. एवीएम मनमोहन बहादुर, ऑपरेशनलाइजिंग डीपीपी 2013
  2. अध्याय 1, डीपीपी 2016
  3. जनरल एन सी विज, अनरैवलिंग डीपीपी 2013
  4. ब्रिगेडियर विनोद आनंद, अपने पत्र ‘प्राइवेट सेक्टर एज पार्टनर इन अटेनिंग सेल्फ-रिलायंस’ में
  5. ले. जनरल (डॉ.) वी के सक्सेना, डीपीपी 2016 - एन इनेबलर नॉट अ शो स्टॉपर
  6. ब्रिगेडियर विनोद आनंद, इंटीग्रेटिंग द इंडियन मिलिटरीः रेट्रॉस्पेक्ट एंड प्रॉस्पेक्ट, जर्नल ऑफ डिफेंस स्टडीज, इडसा
  7. इंडियन एक्सप्रेस, 25 दिसंबर 2015
  8. नीतिगत ढांचे के फॉर्मूले समेत डीपीपी-2013 में संशोधन के लिए विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट का अनुच्छेद 6.4.02
  9. जनरल एन सी विज, अनरैवलिंग डीपीपी 2013
  10. “हिंदू” में इंदु पर देवेश कपूर और अनीत मुखर्जी का आलेख
  11. अर्जुन सुब्रमण्यम का आलेख ‘अ प्लेस ऑफ स्टडी फॉर इंडियाज स्कॉलर-सोल्जर्स’
  12. पूर्वोक्त
  13. डिफेंस लॉजिस्टिक्सः एन इंपॉर्टेंट रिसर्च फील्ड इन नीड ऑफ रिसर्चर्स; इंटरनेशनल जर्नल ऑफ फिजिकल डिस्ट्रिब्यूशन एंड लॉजिस्टिक्स मैनेजमेंट के मार्च 2013 के अंक में आलेख
  14. चार्ल्स एशक्रॉफ्ट, ब्रिटेन के वायुसेना एवं नौसेना सलाहकार
  15. लाइव मिंट में आलेख, 14 अक्टूबर 2016
  16. योगेश कुमार, न्यूज इन्फॉर्मेशन सर्विसेज, टाइम्स ऑफ इंडिया, 12 अगस्त 2015
  17. ले. कर्नल योगेश नायर, यूएसआई जर्नल, अंक 140, संख्या 582, 2010

Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)

Published Date: 9th December 2016, Image Source: http://www.af.mil

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